Wednesday, March 1, 2023

कहानी | राजकुमारी हिमांगिनी | महावीर प्रसाद द्विवेदी | Kahani | Rajkumari Himangini | Mahavir Prasad Dwivedi


कहानी - राजकुमारी हिमांगिनी

पर्वत के सबसे ऊंचे शिखर पर राजकुमारी हिमांगिनी ने अपना घर बनाया। संसार के साधारण जीवों के पास रहना, या उनके साथ हंसना-खेलना उसे जरा भी पसंद न आया।

‘‘सुंदरता और गोरेपन में मैं अपना सानी नहीं रखती; फिर मैं राजकुमारिका हूं। तब भला क्यों मैं मामूली लोगों के पास बैठना पसंद करूं? संसारी जीवों की संगति मुझे जरूर अपवित्र कर डालेगी।’’ इस तरह अपने मन में सोच-विचारकर वह पहाड़ों की तरफ चली। वहां सबसे ऊंचे पहाड़ की चोटी पर वह जा बैठी। वहां रहते उसे कई युग बीत गए। अपनी चमक-दमक और रूप-रंग के गर्व से फूली नहीं समाई।

चिरकाल तक वह वहीं सर्वांग शीतल अवयवों और सुंदरता के मद से मतवाली रही।उसका समय का रूप सफेद कमल के समान सुंदर वस्त्र धारण किए हुए नई वधू के रूप को भी मात करता था। पर वहां एकांत में अकेली रहते-रहते वह ऊब उठी। धीरे-धीरे उसे दूसरे की संगति की चाहत हुई। कुछ दिनों में, क्रम-क्रम से, उसकी उत्सुकता बढ़ गई। उसने विवाह करना चाहा। पर उसके पाणिग्रहण का सौभाग्य प्राप्त हो किसे? उसे खुद ही न मालूम था कि कौन ऐसा भाग्यवान् युवक है जिसे उसका यौवन-रत्न प्राप्त हो सकेगा। मारूत महाराज, पवन देव, झकोर सिंह इत्यादि राजों और राजकुमारों ने उसके साथ अनेक प्रेमलाप किए; हर प्रयत्न से उसका चित्त अपनी ओर आकर्षित करना चाहा, पर सब व्यर्थ हुआ। उनमें से एक को उसने पसंद न किया। उसकी समझ में उन सबका प्रेम दो ही चार दिनों का था। ऐसे कच्चे प्रेमियों को कौन कुमारिका अपना सर्वस्व दे डालने का साहस करेगी?

जलदेन्द्र बहादुर सिंह तक हिमांगिनी के प्रेम के भिखारी हुए। उन्होंने उसके पास कई दूतियां भी भेजीं। उन्होंने उसकी विरह-कथा की कहानियां, खूब नमक-मिर्च लगाकर, कही। वे अपने साथ पहनने-ओढ़ने की कुछ चीजें भी उपहार के तौर पर लाईं। उनको हिमांगिनी अब तक धारण किए हुए हैं। पर जलदेन्द्र भी उसे पसंद न आए। पुरुषत्व के गुणों की उनमें जरा कमी नजर आई। पुरुष वह है जिसमें शक्ति भी हो, कठोरता भी हो, धैर्य भी हो और समय पर दुःख, क्लेश या दूसरों की दो-चार बातें सहने का भी सामर्थ्य हो। इन सब गुणों के न होने से हिमांगिनी ने उसकी भी प्रार्थना स्वीकार न की। क्या करे? बेचारी चुपचाप अपने घर बैठी रही। उसका भव्य वेश, उसका रूप-लावण्य और उसका गर्वव्यंजक चेहरा देखने लायक था। पर यौवन की ऊष्मा उसमें न थी; उसका बदन ठंडी बर्फ के समान ठंडा था। इसी से उसे देखकर तबीयत खुश नहीं होती थी; जान पड़ता था कि उसका शरीर निर्जीव है।

यथासमय वसंत ऋतु आई। बादल जहां के तहां उड़ गए। आसपास साफ हो गया। इतने में अनायास एक बड़ा ही सुरूपवान् और गौरवर्ण युवा पहाड़ की चोटी पर दिखाई दिया। अहा, उसकी मुसकान जादू से भरी हुई थी। उसे देखते हिमांगिनी का दिल हाथ से जाता रहा। जानते हो वह कौन था? उस नवयुवक का नाम था भुवन भास्कर सिंह। राजकुमारी हिमांगिनी ने अभी अच्छी तरह उसे देखा भी न था कि वह उसके हाथ बिक-सी गई। अपना शरीर, उसका मन, अपना प्राण, अपना सर्वस्व, सभी उसने उसे दे डाला। प्रेमोन्माद की गर्मी से व्याकुल होकर वह सहसा पीली पड़ गई। ऐसा पीलापन उसमें पहले कभी नहीं देखा गया था। पाण्डु और कमला रोग का रोगी भी इतना पीला नहीं पड़ जाता। उसका पत्थर के समान सख्त कलेजा भीतर-ही-भीतर पिघल उठा। उसकी आंखों से आंसू की झड़ी लग गई। उसकी अजब हालत हो गई। एक प्रकार के आतंक, भय और घबराहट ने उसको घेर लिया। वह कांपने-सी लगी। उसके सजीव होने और चलने-फिरने की शक्ति रखने का यह पहला चिह्न था।

हिमांगिनी ने अपने पीले और मुरझाए हुए चेहरे को ऊपर उठाया और कांपते हुए होंठों के बीच से निकलनेवाली लड़खड़ाती हुई आवाज से उस नवयुवक से उसने वार्तालाप आरंभ किया। प्रेम-विह्वल होने पर बलवान् पुरुषों की भी अक्ल ठिकाने नहीं रहती। फिर अबला स्त्रियों की क्या कथा? इस अवसर पर संकोच और सलज्जता ने हिमांगिनी को प्रगल्भता के भरोसे अपने घर का रास्ता लिया। तब प्रगल्भता के समझाने-बुझाने पर उसे बोलने का साहस हो आया। उसने मुसकुराते हुए भुवन भास्कर से इस प्रकार प्रार्थना की-

‘‘हे मनोहरी युवक, तुम चाहे जो हो; तुमने मेरे धैर्य का सर्वथा नाश कर दिया। मुझे यहां रहते अनेक युग हो गए। अब तक मैं यहीं एकांत में चुपचाप अपनी आयु क्षीण करती रही। मैं आज तक यह न जान सकी कि किस तरह अपनी उम्र आराम से काटूं। आज तुम्हारे सुंदर मुख-कमल की ओर एक ही बार निहारने से मैंने यह चीज पा ली जिसकी खोज मुझे हजारों वर्ष से थी। मैं आपकी हो चुकी। मैंने इसी क्षण से अपना हृदय आपको दे डाला। मैं अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर चुकी। मुझ पर अब आप दया करें। मेरी तरफ सकरुण दृष्टि से देखिए। मैं एक अनाथ, निराश्रय, निराश चिर-कुमारिका हूं। मेरा जीवन आज तक बिलकुल ही नीरस, निष्फल और कड़वा रहा। अब आप उसे सरस, सफल और मधुर कर देने की कृपा कीजिए।’’

यह सुनकर भुवन भास्कर ने शिष्टता और प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से इस प्रकार उत्तर दिया-

‘‘स्वच्छ, निष्कलंक और सुंदर कुमारिके। तुम्हारी कांति, तुम्हारे रूप-रंग और तुम्हारे टटकेपन ने मुझे प्रसन्न किया; तुम्हारे एकांतवास ने मुझे खिन्न किया; पर तुम्हारे ठंडे और कठोर स्वभाव ने मुझे मार ही डाला। आज तक तुमने अपना जीवन उदासीनता और एकांतवास में बुरी तरह काटा। प्रेम और जीवन के तत्त्व पर तुमने जरा भी विचार नहीं किया। उदासीनता और एकांतवास को तुमने इसलिए स्वीकार किया कि प्रेम से तुम पीड़ित आ गई थी; या जीवन से तुम निराश हो गई थी। घमंड में आकर तुमने एकांतवास पसंद किया। दुनिया की नाट्यशाला में होनेवाले हजारों तरह के प्रेम-पूर्ण अभिनयों से दूर भागकर यहां, इस पहाड़ की चोटी पर, सबसे अलग रहने के इरादे से, तुम आ बैठी। क्या तुम नहीं जानती कि पहाड़ों का प्रेम वृक्ष के मधुर फल चखने को नहीं मिलते? प्रेम में उष्णता है; तुममें शीतलता। प्रेम प्रवाही है-वह बहकर अपने पात्र तक पहुंचता है। तुम जड़ हो, हजार प्रयत्न करने पर भी तुम अपनी जगह नहीं छोड़ती। फिर, तुम्हीं कहो, इस दशा में, किस प्रकार तुम किसी की प्रेमपात्र हो सकती हो?

‘‘अगर तुम मेरी वधू होना चाहती हो, मेरे प्रेम की प्रियतम पात्र बनना चाहती हो; तो तुम भी मेरे समान हो जाओ। उस उष्णता प्राप्त करो; अपने कड़ेपन को छोड़ी; प्रवाही बन जाओ; इन सुनसान पहाड़ों से नीचे उतरकर बस्ती में चलो। यदि तुम मेरे सुख-दुःख में शामिल होने की इच्छा रखती हो तो जो काम मैं करता हूं वही तुम भी करना सीखो। मैं आकाश को प्रकाशित करता हूं; तुम पृथ्वी को अपने लावण्य से प्रकाशित करती हुईं उसमें नरमी पैदा करो। उसे सरसब्ज और उपजाऊ बनाओ। तुमने अपने पास जो अनमोल चीजें छिपा रखी हैं उनको, राह में, जो कोई तुम्हें मिले, उसे, परोपकार करने के इरादे से, देती जाओ। सांसारिक भार को उठा लो। उसके सुख-दुःख में और हानि-लाभ में शामिल हो जाओ। सबसे हेल-मेल रखो और अपने पवित्र आचरण से सबको पवित्र करो।’’

इस प्रकार सम्भाषण करके भुवन भास्कर ने कुमारी हिमांगिनी का चुंबन बड़े ही प्रेम से किया। उसके स्पर्श से हिमांगिनी को परमानंद हुआ और वह तत्काल अपने प्रेमी की आज्ञा पालन करने के लिए प्रस्तुत हो गई। वह वहां से कूद पड़ी और ऊंची-ऊची पहाड़ियों और घाटियों को पार करके पहाड़ के नीचे उतर आई। वहां से वह उछलती-कूदती आगे बढ़ी। उसने अपने दिल में ठान लिया कि जब तक मैं सागर सिंह के दर्शन न कर लूंगी तब तक मैं हरगिज बीच में कहीं न ठहरूंगी।

हिमांगिनी ने अपना प्रण पूरा कर दिखाया, इसलिए उस पर प्रसन्न होकर सायंकाल, सागर सिंह के यहां आकर भुवन भास्कर ने यथाविधि उसका पाणिग्रहण किया। तब से हिमांगिनी वहीं रहने लगी। हर रोज रात को, अपनी प्रेमी भुवन भास्कर से मिलकर परमानंद का अनुभव करने लगी।

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