Tuesday, January 3, 2023

निबंध। बात। प्रतापनारायण मिश्र | Nibandh | Baat | Pratap Narayan Mishra


निबंध- बात
 
यदि हम वैद्य होते तो कफ और पित्त के सहवतीं बात की व्याख्या करने तथा भूगोलवेत्ता होते तो किसी देश के जल बाल का वर्णन करते किंतु इन दोनों विषयों में हमें एक बात कहने का भी प्रयोजन नहीं है। इससे केवल उसी बात के ऊपर दो चार बात लिखते हैं जो हमारे सम्भाषण के समय मुख से निकल निकल के परस्पर हृदयस्थ भाव प्रकाशित करती रहती है। सच पूछिए तो इस बात की भी क्या बात है जिसके प्रभाव से मानव जाति समस्त जीवधारियों की शिरोमणि (अशरफुल मखलूकात) कहलाती है। शुकसारिकादि पक्षी केवल थोड़ी सी समझने योग्य बातें उच्चरित कर सकते हैं इसी से अन्य नभचारियों की अपेक्षा आदित समझे जाते हैं। फिर कौन न मान लेगा कि बात की बड़ी बात है। हाँ, बात की बात इतनी बड़ी है कि परमात्मा को सब लोग निराकार कहते हैं तो भी इसका संबंध उसके साथ लगाए रहते हैं। वेद ईश्वर का बचन है. कुरआनशरीफ कलामुल्लाह है, होली बाइबिल वर्ड आफ गाड है यह बचन कलाम और वर्ड बात ही के पर्याय है सो प्रत्यक्ष में मुख के बिना स्थिति नहीं। कर सकती पर बात की महिमा के अनुरोध से सभी धर्मावलंबियों ने 'बिन बानी वक्त बड़ योगी' वाली बात मान रक्खी है। यदि कोई न माने तो लाखों बाते बना के मनाने पर कटिबद्ध रहते हैं।


यहाँ तक कि प्रेम सिद्धांती लोग निरवयव नाम से मुँह बिचकायेंगे। 'अपाणिपादो जवनो गृहीता इत्यादि पर हठ करने वाले को यह कहके बात में उड़ावेंगे कि हम लँगड़े लूले ईश्वर को नहीं मान सकते हमारा प्यारा तो कोटि काम सुंदर श्याम वरण विशिष्ट है।" निराकार शब्द का अर्थ श्री शालिग्राम शिला है जो उसकी स्यामता को द्योतन करती है अथवा योगाभ्यास का आरंभ करने वाले को आँखें गूंदने पर जो कुछ पहिले दिखाई देता है वह निराकार अर्थात् बिलकुल काला रंग है सिद्धांत यह कि रंग रूप रहित को सब रंग रजित एवं अनेक रूप सहित ठहरावेगे किंतु कानों अथवा प्रानों वा दोनों को प्रेम रस से सिंचित करने वाली उसकी मधुर मनोहर बातों के मजे से अपने को बंचित न रहने देंगे।


जब परमेश्वर तक बात का प्रभाव पहुँचा हुआ है तो हमारी कौन बात रही? हम लोगों के तो "गात माहि बात करामात है। नाना शास्त्र, पुराण, इतिहास, काव्य, कोश इत्यादि सब बात ही के फैलाव हैं जिनके मध्य एक एक ऐसी पाई जाती है जो मन, बुद्धि, चित्त को अपूर्व दशा में ले जाने वाली अथच लोक परलोक में सब बात बनाने वाली है। यद्यपि बात का कोई रूप नहीं बतला सकता कि कैसी है पर बुद्धि दौड़ाइए तो ईश्वर की भाँति इसके भी अगणित ही रूप पाइएगा।


बड़ी बात, छोटी बात, सीधी बात, टेढी बात, खरी बात खोटी बात, मीठी बात, कड़वी बात, भली बात बुरी बात, सुहाती बात, लगती बात इत्यादि सब बात ही तो है? बात के काम भी इसी भाँति अनेक देखने में आते हैं। प्रीति बैर, सुख दुःख श्रद्धा घृणा उत्साह अनुत्साहादि जितनी उत्तमता और सहजतया बात के द्वारा विदित हो सकते हैं दूसरी रीति से वैसी सुविधा ही नहीं घर बैठे लाखों कोस का समाचार मुख और लेखनी से निर्गत बात ही बतला सकती है। डाकखाने अथवा तारघर के सारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात आ पड़ती है, बात जाती रहती है, बात उखड़ती है।


हमारे तुम्हारे भी सभी काम बात पर निर्भर करते हैं 'बातहि हाथी पाइए. बातहि हाथी पाँव बात ही से पराए अपने और अपने पनाए हो जाते हैं। मक्खीचूस उदार तथा उदार स्वल्पव्ययी, कापुरुष युद्धोत्साही एवं युद्धप्रिय शांतिशील कुमार्गी सुपथगामी अधच सुपची कुराही इत्यादि बन जाते हैं। बात का तत्व समझना हर एक का काम नहीं है और दूसरों की समझ पर आधिपत्य जमाने योग्य बात बढ़ सकता भी ऐसों वैसों का साध्य नहीं है। बड़े-बड़े विज्ञवरों तथा महा-महा कवीश्वरों के जीवन बात ही के समझने समझाने में व्यतीत हो जाते हैं। सहृदयगण की बात के आनंद के आगे सारे संसार तुच्छ जँचता है। बालाकों की तोतली बातें सुंदरियों की मीठी-मीठी, प्यारी-प्यारी बातें सत्कवियों की रसीली बातें सुवक्ताओं की प्रभावशाली बातें जिसके जी को और का और न कर दें उसे पशु नहीं पाषाण खंड कहना चाहिए। क्योंकि कुत्ते, बिल्ली आदि को विशेष समझ नहीं होती तो भी पुचकार के तूतू' पूसी सी इत्यादि बातें क दी तो भावार्थ समझ के यथा सामर्थ्य स्नेह प्रदर्शन करने लगते है। फिर वह मनुष्य कैसा जिसके वित्त पर दूसरे हृदयवान की बात का असर न हो।


बात वह आदणीय है कि भलेमानस बात और बाप को एक समझते हैं। हाथी के दाँत की भाँति उनके मुख से एक बार कोई बात निकल आने पर फिर कदापि नहीं पलट सकती हमारे परम पूजनीय आर्यगण अपनी बात का इतना पक्ष करते थे कि तिन तिय तनय धाम धन धरनी सत्यसंध कहँ तून सम दरनी' अथच 'प्रानन ते सुत अधिक है सुत ते अधिक परान ते दूनो दसरथ बजे वचन न दीन्हों जान।" इत्यादि उनकी अक्षरसंवद्धा कीर्ति सदा संसार पट्टिका पर सोने के अक्षरों से लिखी रहेगी पर आजकल के बहुतेरे भारत कुपुत्रों ने यह ढंग पकड़ रक्खा है कि 'मर्द की जबान (बात का उदय स्थान) और गाड़ी का पहिया चलता ही फिरता रहता है।'


आज और बात है कल ही स्वार्थचिता के देश हुजूरों की मरजी के मुवाफिक दूसरी बातें हो जाने में तनिक भी विलंब की संभावना नहीं है। यद्यपि कभी-कभी अवसर पड़ने पर बात के अंश का कुछ रंग ढंग परिवर्तित कर लेना नीति विरुद्ध नहीं है, पर कब? जात्योपकार देशोद्धार प्रेम प्रचार आदि के समय, न कि पापी पेट के लिए एक हम लोग हैं जिन्हें आर्यकुलरत्नों के अनुगमन की सामर्थ्य नहीं है। किंतु हिंदुस्तानियों के नाम पर कलंक लगाने वालों के भी सहमार्गी बनने में घिन लगती है।


इससे यह रीति अंगीकार कर रखी है कि चाहे कोई बड़ा बतकहा अर्थात् बातूनी कहँ चाहँ यह समझे कि बात कहने का भी शउर नहीं है किंतु अपनी गति अनुसार ऐसी बातें बनाते रहना चाहिए जिनमें कोई न कोई, किसी न किसी के वास्तविक हित की बात निकलती रहे पर खेद है कि हमारी बातें सुनने वाले उँगलियों ही पर गिनने भर को है। इससे बात बात में बात" निकालने का उत्साह नहीं होता। अपने जी को क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बनें' इत्यादि विदग्धालापों की लेखनी से निकली हुई बातें सुना के कुछ फुसला लेते हैं और बिन बात की बात को बात का बतंगड़ समझ के बहुत बात बढ़ाने से हाथ समेट लेना ही समझते हैं कि अच्छी बात है।


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