Thursday, September 22, 2022

निबंध | भगवान बुद्ध



 एक बार सर हरिसिंह गौड़ ने गांधीजी को यह परामर्श दिया था कि हिन्दू धर्म के उसी रूप का प्रचार किया जाना चाहिए, जिसका आख्यान बुद्धदेव ने किया है। इस परामर्श को मैं तनिक भी अस्वाभाविक नहीं मानता, क्योंकि बुद्धदेव प्रचलित धर्म के भंजक नहीं, सुधारक मात्र थे और जो सुधार उन्होंने करना चाहा, उसे अन्ततः हिन्दुओं ने स्वीकार भी कर लिया। यही नहीं, प्रत्यय हिन्दू-धर्म के आचार्य उनकी महिमा से इतने अभिभूत हुए कि कालक्रम में उन्होंने बुद्धदेव को अपना नेता और धर्मगुरु भी मान लिया।


निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम्,

सदय-हृदय-दर्शित पशुघातम्,

केशव-धृत-बुद्ध-शरीर, जय जगदीश हरे।


बुद्धदेव हिन्दू-धर्म के चौबीस नहीं, दस अवतारों में से एक हैं और इस प्रकार उस धर्म और संस्कृति की रचना में उनका अपरिमित योगदान है, जो हम सबको अतीत के उज्ज्वल उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुई है।


बुद्धदेव का ऋण समस्त संसार पर है, सारी मनुष्य जाति पर है। एच.जी. वेल्स तथा और भी कई पाश्चात्य विद्वान खुलकर यह स्वीकार करते हैं कि विश्व की सभ्यता एवं संस्कृति की प्रगति और उत्थान में जितनी सहायता बौद्ध धर्म ने की, उतनी किसी और धर्म से नहीं बन सकी। संसार में शायद ही कोई धर्म हो, जो बौद्ध धर्म के प्रभाव से अछूता कहा जा सके। इस धर्म का उदय अत्यन्त प्राचीन काल में हुआ था और इसके बाद उठनेवाले सभी धर्मों ने इससे कोई-न-कोई तत्त्व अवश्य ग्रहण किया। भारत का कोमल-से-कोमल सन्देश बौद्ध धर्म की बाँहों पर चढ़कर विश्व भर में प्रसारित हुआ और सारे एशिया के भीतर एकता का जो तार आज भी अनुस्यूत मिलता है, वह इसी धर्म की रचना और प्रभाव है। किन्तु इससे भी बढ़कर हम भारतवासी बुद्धदेव के आगे एक विशेष कारण से ऋणी हैं। और वह कारण यह है कि जाति-प्रथा और अस्पृश्यता की विषमता को दूर करके सभी मनुष्यों को एक करने का आन्दोलन इस देश में सबसे पहले बुद्धदेव ने ही आरम्भ किया था।


हिन्दू धर्म के जिस कलंक के खिलाफ कबीर और नानक जूझे, दादू और नामदेव ने लोहा लिया, आलवार (दक्षिण भारत के वैष्णव सन्त और कवि) सन्तों और वीर शैवों ने लड़ाई लड़ी एवं दयानन्द और गांधी ने संघर्ष किया, उस कलंक के विरुद्ध धर्म-युद्ध ठानने का पहला श्रेय भगवान बुद्ध को है और बुद्धदेव ने बृहत् मानवता के जिस आन्दोलन का आरम्भ किया था, वह आज भी चल रहा है। यह आश्चर्य की बात है कि जाग्रत ब्राह्मण धर्म के रोब में आकर बौद्ध धर्म ने कितनी ही ऐसी बातों को फिर से स्वीकार कर लिया, जिन्हें वह अपने हीनयान युग में तिरस्करणीय और त्याज्य समझता था; किन्तु अस्पृश्यता और जाति प्रथा के आगे उसने कभी भी अपना मस्तक झुकने नहीं दिया। यह बौद्ध मत की क्रान्तिप्रियता का सबसे बड़ा प्रमाण है और इसी के कारण वह आज भी हमारे प्रेम का अधिकारी बना हुआ है।


बुद्धदेव के बाद भारत में कबीर, नानक, दादूदयाल, नामदेव, दयानन्द और महात्मा गांधी आदि जो भी क्रान्तिकारी सन्त जन्मे, उनकी उत्पत्ति के पीछे किसी-न-किसी रूप में बौद्ध महाक्रान्ति के संस्कार काम करते रहे हैं। बुद्धदेव के समय से भारत में दो विचारधाराएँ समानान्तर रूप से बहती रही हैं। एक तो वह, जो शास्त्रों का भय दिखाकर जाति-प्रथा और अस्पृश्यता को कायम रखना चाहती है और यह विश्वास करती है कि ब्राह्मण सदा ब्राह्मण, अन्त्यज सदा अन्त्यज और शूद्र सदा शूद्र हैं। और दूसरी वह जो शास्त्रों को प्रमाण नहीं मानती तथा जिसका यह आग्रह है कि मात्र वंश के कारण एक मनुष्य बड़ा और दूसरा छोटा नहीं हो जाता। श्रेष्ठता जन्म से नहीं, कर्म से मिलती है। इनमें से पहली विचारधारा वह है, जिसके विरुद्ध गौतम बुद्ध ने क्रान्ति का झंडा उठाया था। और दूसरी वह, जो स्वयं बुद्ध के कमंडल से निःसृत होकर हमारे पास आई है। पहली धारा के देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं; किन्तु दूसरी धारा निरंजन और निराकार को अपना आराध्य मानती है। यह भी कि पहली धारा के सन्त शंकराचार्य और कवि तुलसीदास हैं तथा दूसरी धारा के सन्त महात्मा गांधी और कवि कबीर हैं।


बौद्ध धर्म का ब्राह्मणों ने जो विरोध किया, वह इस कारण नहीं कि बौद्ध मत कोई नवीन दर्शन लेकर आया था, जो हिन्दुओं के दर्शन के विरुद्ध पड़ता था; बल्कि इस कारण कि वह जाति प्रथा को तोड़कर मनुष्य मात्र को एक करना चाहता था और समाज में इस समानता की प्रतिष्ठा होने से ब्राह्मणों का पद खतरे में पड़ता था। बौद्धों का सबसे बड़ा अपराध यह था कि उन्होंने यज्ञों का विरोध किया, जिनसे ब्राह्मणों की रोजी चलती थी, तथा उन्होंने बार-बार यह घोषणा की कि जन्म से सभी मनुष्य समान हैं, श्रेष्ठता सबको कर्म से मिलती है। अतएव ब्राह्मण वंश में भी जन्मा हुआ अपकर्मी मनुष्य निन्दा का पात्र है तथा चांडाल वंश में जन्मा हुआ मनुष्य अगर सत्कर्म करता है, तो उसकी भी पूजा होनी चाहिए।


एक तरह से देखिए तो यह भी कोई नई बात नहीं थी, क्योंकि संकेत-रूप में ये सारे उपदेश उपनिषदों में भी उतर चुके थे और बहुधा, सिद्धान्त रूप में इन बातों को ब्राह्मण भी मानते थे; किन्तु उपनिषत्कारों पर ब्राह्मणों का कोप नहीं हुआ, इसका मूल कारण यह है कि सत्ताएँ बकनेवालों से नहीं, काम करनेवालों से भय खाती है। उपनिषदें केवल बोलकर रह गईं, इसलिए ब्राह्मण उनसे नहीं चिढ़े। बुद्धदेव बोलने को नहीं, काम करने को आए थे, इसलिए ब्राह्मण बौद्धों को अपना कोपभाजन मानने लगे। किन्तु यह कोप ब्राह्मणों को बौद्ध धर्म से प्रभावित होने से नहीं बचा सका और वे बौद्ध मत से लड़ते-लड़ते धीरे-धीरे स्वयं कुछ-कुछ बौद्ध होते चले गए।


बुद्धदेव कोई नया धर्म लेकर नहीं आए थे। उन्होंने हिन्दू धर्म के ही एक प्रकार के बौद्धीकृत रूप को फैलाना चाहा और वे इस कार्य में कृतकार्य भी हुए, क्योंकि आज का प्रत्येक हिन्दू थोड़ा-थोड़ा बौद्ध भी है। बौद्ध धर्म की सबसे बड़ी प्रशंसा यह है कि जिस शंकराचार्य को यह श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने भारत से बौद्ध धर्म की जड़ उखाड़ फेंकी, स्वयं उन्हें ही यहाँ के लोग 'प्रच्छन्न बौद्ध' कहते थे अर्थात् बौद्ध मत को पराजित करने के लिए अन्ततोगत्वा ब्राह्मण धर्म ने उन्हीं शास्त्रों का आश्रय लिया, जो उसे बुद्धदेव से प्राप्त हुए थे। ब्राह्मण धर्म ने बौद्ध धर्म को पराजित तो किया; किन्तु उसे पराजित करने के पूर्व एक सीमा तक वह स्वयं बौद्ध हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि बौद्ध मत भारत में मरा नहीं, वह अपने पिता के आलिंगन में विलीन हो गया।


किन्तु इतना होने पर भी दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिनके कारण लोगों को शंका होती रहती है कि हो-न-हो, बुद्धदेव हिन्दुत्व के प्रचंड विरोधी रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने आत्मा को नहीं माना, ईश्वर के विषय में वे मौन रह गए और वेदों की भी उन्होंने निन्दा की। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि बुद्धदेव के समय में भी आत्मा के विषय में दो प्रकार के मत प्रचलित थे। एक तो यह कि आत्मा शरीर में बसनेवाली, किन्तु उससे भिन्न शक्ति है, जिसके रहने से शरीर जीवित रहता है और जिसके चले जाने से वह शव हो जाता है। दूसरा मत यह था कि शरीर में ही रसों के योग से आत्मा नामक शक्ति उत्पन्न होती है, जो शरीर को जीवित रखती है। रसों में कमी-बेशी होने से उस शक्ति का लोप हो जाता है, जिससे शरीर जीवित नहीं रह जाता। बुद्धदेव ने अन्यत्र की भाँति यहाँ भी बीच की राह पकड़ी और यह कहा कि आत्मा असल में स्कन्धों और मन के योग से उत्पन्न एक शक्ति है, जो अन्य बाह्य भूतों की भाँति क्षण-क्षण उत्पन्न और विलीन होती रहती है। हमारे सामने जो नदी बहती है, उसका जल हमें बराबर एक-सा दिखलाई पड़ता है; किन्तु सत्य यह है कि जल बराबर आगे निकलता जा रहा है और उसकी जगह पर नया जल आता जा रहा है। नदी के प्रवाह के समान ही, हमारे भीतर आत्मा या चित्त का प्रवाह है, जिसके जारी रहने से शरीर जीवित कहा जाता है। लेकिन शरीर के विनाश के साथ ही चित्त-प्रवाह का विनाश नहीं होता। वह संस्कारों का बोझ लिए हुए एक नए शरीर में प्रवेश करता है।


कहनेवाले चाहें तो इस निरूपण को अनात्मा का निरूपण कह सकते हैं; किन्तु हम हिन्दू यह मानते हैं कि भिन्न भाषा में यह भी आत्मा का ही निरूपण है। सच तो यह है कि पुनर्जन्म में विश्वास करनेवाले बुद्धदेव के विषय में यह कल्पना ही कैसे की जा सकती है कि वे आत्मा के अस्तित्व से इनकार करते होंगे? यदि आत्मा का अस्तित्व नहीं, तो फिर पुनर्जन्म में विश्वास करने की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है?


अगर वेदों की निन्दा की बात को लें, तो वह भी महावीर और बुद्ध के आविर्भाव के पहले ही शुरू हो गई थी। जो औपनिषदिक ऋषि वेद के कर्मकांड को अयथेष्ट या गलत मानकर उपनिषदों में एक नए गम्भीर धर्म की खोज कर रहे थे, वेद की निन्दा, असल में उन्हीं के उद्गारों से आरम्भ हुई। वेदों का कर्मकांड धीरे-धीरे भोगवादी सभ्यता का दर्शन हो गया था और उपनिषदों के ऋषि जब समाज को भोगवाद से ऊपर उठाने की कोशिश करने लगे, तब वेदों की थोड़ी-बहुत आलोचना करना उनके लिए अनिवार्य हो गया। मुंडकोपनिषद् और कठोपनिषद् में वेद की निन्दा के प्रमाण मिलते हैं। स्वयं गीता में जब भगवान अर्जुन से यह कहते हैं कि 'त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन!' तब उससे भी वेद की मन्द अवहेलना ही ध्वनित होती है। जिस समय बुद्धदेव जन्मे, उस समय समाज में ब्राह्मणों की कैसी आलोचना चल रही थी, इसका उल्लेख केवल बौद्ध ग्रन्थों में ही नहीं, उपनिषदों में भी मिलता है। वेदों और ब्राह्मणों के विरुद्ध आलोचकों की यही प्रतिक्रिया बुद्धदेव में निर्भीक होकर प्रकट हुई। फर्क सिर्फ यह रहा कि जहाँ पहले के आलोचक केवल बोलकर रह जाते थे, वहाँ बुद्धदेव ने ऐसा सम्प्रदाय खड़ा कर दिया, जो कार्यतः वेदों और ब्राह्मणों का विरोध करनेवाला था।


बुद्धदेव ने अपने जीवन भर में ईश्वर की सत्ता में विश्वास करने का उपदेश किसी को नहीं दिया, इस प्रमाण से भी वे अहिन्दू नहीं हो जाते; क्योंकि हिन्दू-दर्शन की अनेक शाखाएँ ईश्वर में विश्वास नहीं करतीं और कुछ ऐसी भी हैं, जो ईश्वर को तटस्थ मानती हैं अर्थात् वे ऐसे ईश्वर में विश्वास करती हैं, जिसने सृष्टि नहीं बनाई, जो प्रकृति के क्रिया-कलाप में हस्तक्षेप नहीं करता और न जिसके कान मनुष्यों की प्रार्थना सुनने को ही खुले रहते हैं। ऐसे दार्शनिकों की अपेक्षा बुद्धदेव कुछ बहुत अधिक नास्तिक नहीं रहे होंगे। सच तो यह है कि वे मनुष्य की सारी शक्ति को कर्म पर केन्द्रित करना चाहते थे। उन्हें यह बात पसन्द नहीं थी कि मनुष्य उन प्रश्नों के चिन्तन में पड़कर अपनी शक्ति और समय का अपव्यय करे, जिनके विषय में कोई बात पूरी निश्चितता के साथ जानी नहीं जा सकती। ईश्वर है या नहीं, संसार नित्य है या अनित्य, जीव और शरीर एक हैं या दो, जीव मरने के बाद रहता है या नहीं, जन्म के पहले जीव कहाँ था और मृत्यु के बाद वह कहाँ जाएगा-इन सारे प्रश्नों को उन्होंने 'अव्याकृत' कोटि में रख छोड़ा था। मज्झिमनिकाय के चूल-मालुक्य-सुत्तंत में लिखा है कि मालुंक्यपुत्त नामक एक भक्त ने तथागत से यह पूछा कि 'जगत् नित्य है या अनित्य? जीव और शरीर एक हैं या दो? मरने के बाद बुद्ध रहते हैं या नहीं?' प्रश्न के साथ उस भक्त ने यह भी कहा कि 'भगवान यदि इन प्रश्नों के उत्तर नहीं देंगे तो मैं ब्रह्मचर्यवास नहीं करूँगा (अर्थात् संघ में रहकर धर्म की साधना नहीं करूँगा)।'


बुद्धदेव ने कहा, 'मालुंक्यपुत्त! कब मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हें ऐसे प्रश्नों के उत्तर दूंगा? तुम्हारा यह प्रश्न तो उस व्यक्ति के प्रश्नों के समान बेकार है जिसके कलेजे में जहर बुझा हुआ बाण घुस गया हो, जिसके हित-मित्र बाण निकालने के लिए सुयोग्य वैद्य को ले आए हों, मगर जो यह कह रहा हो कि मैं बाण तब तक नहीं निकलवाऊँगा जब तक कि मुझे यह मालूम नहीं हो जाए कि बाण चलानेवाला व्यक्ति गोरा है या काला, लम्बा है या नाटा, उसके नाम और गोत्र क्या हैं, उसके धनुष की डोरी पूँज की है या ताँत की तथा उसके बाणों के पंख बाज के हैं या गिद्ध के। मालुंक्यपुत्त! चाहे लोक नित्य है, यह दृष्टि रहे; चाहे लोक अनित्य है, यह दृष्टि रहे; दोनों ही हालातों में जन्म है ही, जरा है ही, मरण है ही, शोक, रोना-कान्दना, दुख-दौर्मनस्य और परेशानी हैं ही जिनके इसी जन्म में विघात (शमन के उपाय) को मैं बतलाता हूँ।


बुद्धदेव उन प्रश्नों को अव्याकृत कहते थे, जिनके विषय में कोई बात निश्चयपूर्वक न तो जानी जा सकती है, न कही जा सकती है। अतएव ऐसे प्रश्नों का पूछा जाना ही उन्होंने बन्द कर दिया था। पोट्ठपाद के यह पूछने पर कि 'किसलिए भगवान ने इसे अव्याकृत कहा है?' तथागत ने बतलाया, 'इसलिए कि वे प्रश्न न तो अर्थयुक्त हैं, न धर्मयुक्त; न ब्रह्मचर्य के उपयुक्त, न निर्वेद के लिए; न विरोध के लिए।' अर्थात् इन प्रश्नों के विवेचन में पड़ने से मनुष्य को कुछ भी प्राप्त होनेवाला नहीं है।


मेरा अनुमान है कि अगर किसी ने बुद्धदेव से यह पूछा होता कि 'ईश्वर है या नहीं?' तो शायद वे यह कहते कि 'तुझे प्रश्न करना नहीं आया। तू यह पूछ कि तू है या नहीं। क्योंकि अगर ईश्वर है, तब भी मनुष्य के अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होगा और अगर ईश्वर नहीं है, तब भी मनुष्य के अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का फल बुरा होगा। तब ईश्वर की बात कहाँ से आती है? सोचने योग्य बात तो यह है कि अच्छे और बुरे कर्म क्या हैं?' और इन्हीं अच्छे और बुरे कर्मों की पहचान करने के लिए तथागत ने विश्व को एक नूतन धर्म-ज्योति प्रदान की।


(यह निबंध ‘रेती के फूल’ निबंध संग्रह में संकलित है।)



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