महिला अनाउंसर
रिक्शेवाला
थका अफसर
एक परेशान रमणी
एक मसरूफ पति
कुछ लड़के
पागल आया
(यह नाटक ड्राइंगरूम के लिए ही है।)
एक दीवार से जरा हटाकर काला स्क्रीन खड़ा किया गया है। जिसके बराबर अनाउंसर (जिसे स्त्री ही होना चाहिए) खड़ी है। अनाउंसर के कपड़े रंग-बिरंगे होते हैं। एक फूलदार ड्रेसिंग गाऊन, रेशमी साफा और एक शोख चौड़े कमरबंद से काम चल सकता है। उसके हाथ में एक बड़ा-सा तिब्बती लामाओं का-सा झुनझुना है।
अना. : (हाथ के झुनझुने को हिलाकर) अकेले और बेसरोसामान हम इस संसार में आए।
स्क्रीन के पीछे से कुछ गंभीर मर्दानी आवाजें :
कौन-कौन यहाँ सदा अकेला नहीं रहा? किस किस ने अपने पड़ासी का चेहरा पहचाना?
स्त्री : किसने-किसने अपनी आत्मा में जीवन के आदि मुहूर्त को सिसकते-सुबकते नहीं सुना?
अकेले और बेसरो-सामान हम भूले हुए रास्ते खोजते हैं। हम अपना खोया हुआ भाई तलाश करते हैं, जो बचपन में घर छोड़कर चला गया है। एक पत्थर, एक पत्ती, एक शब्द… जिसके पीछे एक अनजानी और अनहोनी शुरूआते हैं।
(अनाउंसर झुनझुना हिलाती है, आवाजें रुक जाती हैं।)
अना. : हम सवाल उठाते हैं…..
(स्क्रीन के पीछे की आवाजें)
हम खुद नियम और मनुष्य को कायल कर देते हैं। और हमारे अंदर के अंधकार से शक्ति फूट पड़ती है।
अना. : (झुनझुना बजाकर) हम अपनी आत्मा से रचते हैं, और शरीर से नाश कर देते हैं। कि हम फिर अपने सत्य से उसे सजायें।
(स्क्रीन के पीछे की आवाजें)
आओ, हम इसे किसी बाजार में बेच लें। मृत्यु और नाश की, इस निर्दय कैमिस्ट्री को क्षण भर के लिए खत्म कर दें, कि हम इन आँखें तरेरते सवालों से बच सकें। हम वही भूली हुई भाषा याद करते रहते हैं … एक पत्थर, एक पत्ती, एक शब्द!
अना. : (झुनझुना हिलाकर) हम सवालात पैदा करते हैं। (झुनझुना हिलाकर) जो समय और ऋतुओं का दर्पण दमकते हुए हीरों की तरह काट देते हैं। सवालात जो वीरान सड़कों पर छिपे हुए जालों की तरह बिछे रहते हैं।
(झुनझुना)
हम मृत्यु को निरुत्तर कर देते हैं।
(जोर से झुनझुना बजाती है)
मृत्यु हमारे सिरहाने लोरियाँ गाती है। हम अपनी जानें खतरे में डाल सकते हैं, पेंशनें नहीं।
गांग
(अब बत्तियाँ बुझाई जा रही हैं। एक मिनट में पूरा अंधेरा हो जाता है, सिर्फ अनाउंसर एक फीकी फुटलाइट में काली स्क्रीन के सामने दमकती रहती है।)
अना. : (गंभीर स्वर)
जीवन का संगमरमर।
जीवन का हसीन संगमरमर।
जीवन का घायल संगमरमर।
खून बहता हुआ संगमरमर।
(झुनझुना)
(स्क्रीन के पीछे)
एक आवाज : (पुरुष) यहाँ क्या हर वक्त पानी बरसता है? यह कैसी घटा उमड़ रही है!
दूसरी : भीग जाएँगे, मर जाएँगे, हम इस तरह अपनी जानें खतरे में नहीं डालेंगे।
तीसरी : तुम बिस्तर में ही रहो, तुम्हें जुकाम है, तुम्हें निमोनिया भी हो सकता है।
(स्त्री की आवाज)
निमोनिया तो बहुत साधारण है, क्यों क्या मुझे पैंडीज डिज़ीज नहीं हो सकती है?
(एक आया की आवाज)
बाबा! (पुकारती है) जान बाबा, मशालची बाबा…. तुम घर से कितनी दूर निकल जाते हो। मैं कब से तुम्हारा सूटर तुम्हें ढूंढ रही हूँ।
(स्त्री की आवाज)
हम तो यहाँ खड़े-खड़े अकड़ गए, कितनी जोर से पानी आया है, मेरे सारे बीज सड़ जाएँगे।
(एक और आवाज)
हमारी सबसे नई ईज़ाद। काँच के बीज। इनको बराबर नहीं बोना पड़ता। एक बार बोओ, हज़ार बार काटो। यह सड़ते नहीं। उगने से इंकार नहीं करते।
(अनाउंसर झुनझुना बजाती है)
अना. : सीसे के बीज काँच के बीजों से ज्यादा पायदार होते थे।
(रिक्शे की घंटी की आवाज)
रिक्शेवाला : बादलों ने सूरज की हत्या कर दी, सूरज मर गया। मैं दूसरे का बोझ ढोता हूँ। मेरे रिक्शे में आईने लगे हैं। आईने में मैं अपना मुँह देखता हूँ। सूरज नहीं रहा। अब धरती पर आईनों का शासन होगा। आईने अब उगने और न उगने वाले बीज अलग-अलग कर देंगे।
थका अफ़सर : मैं एक थका हुआ अफसर हूँ, (ऊंघा हुआ सा) मैं बहुत थक गया हूँ। अंधे कुएँ में… जैसे एक-एक करके चीजें जमा हो जाती हैं। कुएँ की डोर…. मरी हुई सूखी बिल्ली…. बेबी का जाँघिया-टूटा कनस्टर… वैसे ही…. वैसे ही थकान मेरे अंदर जमा हो गई है, एक अवसाद और थकान।
रि.वा. : (तेज़ी से) आह, अफ़सर ! आगे देखकर चलो।
(टकरा जाता है) आह ! तुमने मेरा एक आईना तोड़ दिया।
(अनाउंसर हँसती है – झुनझुना बजाती है।)
(स्त्री की आवाज)
साधारण और अलसाई मैं ऊब गई हूँ। मेरा मन उचट गया। मैं सारा संसार मथूंगी अपने अंदर बाहर, सब मथूंगी। लेकिन चुपके से जैसे किसी को मालूम न हो।
(कुछ रुककर – जैसे किसी ने कुछ कहा – एक धीमा स्वर) “कितनी प्यारी है, है तुम्हारी हंसी…. चाँदनी सी”….
नहीं, मेरी हँसी में न सूरज है न चाँद। मुझे यह सब सोचने का वक्त नहीं है। मुझे बहुत कुछ करना है।
(धीमे से) मुझे…. तुम्हें भी मथना है।
(कुछ अस्पष्ट आवाजें। अनाउंसर भी अपना झुनझुना हिला रही है, पर उससे कोई आवाज नहीं निकलती।)
नहीं… नहीं… सँवारने का काम भी मेरा ही है।
(धीरे से) मेरा सिर्फ काम है मथना, सृजन जिस बेरहम कानून से होता है, यह तुम जानो। आह, इस बालक के चेहरे पर तो झुर्रियाँ हैं। इसकी हँसी में तो मधुमक्खियाँ हैं।
(अनाउंसर हँसती है और झुनझुना बजाती है।)
(उसी स्त्री की आवाज)
तहजीबयाफ्ता सर्दी में आदमी की फीलिंग्स भी जम जाती है। जानते हो तुम स्वीटहार्ट, इतनी देर से तुमने जो कुछ कहा, मैंने कुछ सुना ही नहीं। शब्द तो बड़े सुंदर थे – बिलकुल बच्चों की तरह।
एक मस. पति : इसीलिए तो मैं शराब पीता हूँ। मैं सोचता हूँ अभी जाकर पियूँगा, पीता जाऊँगा, पीता जाऊँगा, पीता जाऊँगा… जब तक कि मैं फिर से एक बच्चा न हो जाऊँ… फिर तब शायद जो मैं कहूँगा, वह तुम्हें समझना ही पड़ेगा।
स्त्री : देखो, तुम अपनी आत्मा मथते क्यों नहीं, तुम अपना शरीर क्यों नहीं मथते…
मस. पति : (डरकर) नहीं, मैं यह सब नहीं करूंगा। तुम ऐसे गैर-रियाज़ शब्द क्यों बोलती हो? मथना ! मैं नहीं जानता कैसे, लेकिन यह जानता हूँ कि यह बात खूबसूरती से कही जा सकती है। नहीं, मैं एकबारगी शरीर को दिमाग के बंधनों से अलग कर दूंगा। मैं लड़ूँगा, मैं शहीद हो जाऊँगा, मैं अजनबियों की भाषा बोलूंगा (जैसे वह डूब रहा हो) मैं सूरज का गला घोंट दूंगा… मैं… मैं…
(अनाउंसर हँसती है और झुनझुना बजाती है।)
(एक परेशान रमणी का स्वर)
ओफ़ ! तुम्हारा इंतज़ार करते-करते तो हम बूढ़े हो चले थे। यदि तुम्हारा सात बजे आने का वायदा है। यह क्या? तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा है? तुम क्या बीमार हो? डर गए हो कहीं? क्या बात है? तुमने कहीं कुछ देखा है?
म. पति : मैंने कुछ देखा है जरूर, लेकिन इस वक्त मालूम होता है, मैंने देखा नहीं, सिर्फ़ सुना है।….
(अनाउंसर स्क्रीन से सटे हुए स्टूल पर बैठ जाती है।)
….मैंने सुना कि इन बादलों से कोई निकल कर मुझसे बातें करने लगा। तभी हुई बेलाग बातें – जैसे कोई मन ही मन घुटने वाला आदमी पहली बार शराब पीकर करता है….
परे. रमणी : तब तुमने क्या किया।
मस. पति : मैंने, मैंने कुछ नहीं किया। मैंने थोड़ी-सी शराब और पी ली और निर्मला के घर गया। ऐसे ही जरा-सा दिल बहलाने।
परे. रमणी : किसका, अपना या निर्मला का? तुमने फिर शराब पी, तुममें कोई कैरेक्टर नहीं है। तुम आदमी से खींचे जाने वाले रिक्शे पर भी बैठ सकते हो… तुम तो लड़खड़ा रहे हो।
(रिक्शे की घंटी। अनाउंसर झुनझुना काली स्क्रीन से टिकाकर आडीटोरियम में बैठ जाती।)
परे. रमणी : रिक्शेवाले, जल्दी ले चलो। साहब की तबियत ठीक नहीं है।
रि. वाला : (घंटी बजाता है, जैसे अभी जगा है)
मस. पति : वहाँ दूर ऊनी बादलों में।
रि. वाला : अहा! तुम भी वैसी ही बातें कहते हो। अभी तो थके हुए अफ़सर ने उससे कहा कि यह अंधा कुआँ नहीं है, यह रिक्शा है। मेरे रिक्शे में शीशे हैं। पागल आया ने मेरा एक शीशा तोड़ डाला। नहीं-नहीं!
परे. रमणी : (रिक्शे वाले से) किससे कहा तुमने कि यह कुआँ है?
रि. वाला : (घंटी बजाते हुए) किसी से नहीं। मैं जरा कुछ सोचता सा बहुत थक गया था, अभी मैंने ऐसा देखा। एक अफ़सर मेरे पास आया, वह बहुत थका हुआ था। कुछ सोचकर वह भी शायद बेहोश हो गया था।
परे. रमणी : अच्छा आगे देखो..!
(रिक्शे की घंटी)
परे. रमणी : (पति से) तुंम निर्मला के घर गए थे, निर्मला ने मेरे बारे में कुछ कहा था? मुझे पूछा?
मस. पति : (स्वप्निल) निर्मला ने कहा? निर्मला ने कुछ नहीं कहा। निर्मला ही तो बादलों में चली गई थी… तुमने सुना… मुझे आज लगा, निर्मला ऊनी बादलों में रहती है… ऊनी बादलों में।
(अना. आडीटोरियम से लपककर झुनझुना बजा देती है। आवाजें रुक जाती हैं। वह फिर झुनझुना बजाती है… कुछ लड़के हँसते शोर मचा रहे हैं।)
(थका हुआ अफसर भी वही है)
थका अ. : मैं अफ़सर हूँ, लेकिन बहुत थक गया हूँ। जवानी में मैंने हज़ारों खोपड़े चटकाये हैं अब सिर्फ़ उँगलियाँ चटकाता हूँ – कभी-कभी मज़ाक भी चटका लेता हूँ। अंग्रेज़ी जानते हो?…. ‘क्रेक ए जोक’ क्रेक ए पिन।
(लड़के हँसते हैं)
थका अ. : अच्छा बच्चों, अब एक पहेली बूझो (ताली बजाकर पटु लहजे में) …कालेज के बच्चों, बूझो – क्या तुम ऐसी चिड़िया का नाम बता सकते हो, जो उमड़ती निडर घटाओं के बीच नाचती है, जिसके पर में आठ रंग होते हैं… पर… जो कुत्ते की तरह भौंकती है।
ए.ल. : (रुआँसा) नहीं।
थका अ. : (खुशी से तालियाँ पीटकर नाचने लगता है) तुम नहीं बता सकते, तुम अभी बच्चे हो। मैं जानता था, तुम नहीं बता सकोगे। …अरे, मोर… मोर… मोर तुम नहीं जानते? मोर…
ए.ल. : (कड़क कर) लेकिन मोर भौंकते कहाँ हैं?
(परेशान रमणी की हँसी उभरती है)
थका अ. : (गंभीर) यही तो भेद है, और नहीं तो तुम बूझ न लेते। और इसमें मज़ाक ही क्या था?
परे. रमणी : (जैसे भौंककर) मुझे नहीं मालूम, मैंने तुमसे शादी क्यों की।
अनाउंसर झुनझुना बजाती है। अब वह गंभीर हो जाती है। रमणी हँस रही है – भयानक हँसी, अनाउंसर झुनझुना जोर-जोर से बजाती है। रमणी की हँसी धीरे-धीरे मधुर हो जाती है। तब अनाउंसर आडीटोरियम में आकर बैठ जाती है। स्त्री का अब बोलना शायराने लहजे में – डूबा-डूबा सा है।
परे. रमणी : मेरी तरफ देखो। तुमने कभी मेरे बारे में यह नहीं सोचा कि मैं बादलों से निकलकर आई हूँ या बादलों में रह सकती हूँ। तुम निर्मला ही के बारे में यह बातें सोच सकते हो। मेरे लिए तुम…
मस. प. : मैं सोचता कहाँ हूँ। सुनता हूँ… और खुद देखता हूँ, मैं देखता हूँ, मैं सिर्फ देखता हूँ।… बहुत-सी बातें देख लेता हूँ। और बाद में मेरी कोशिश यह रहती है कि जो मैंने देखा है, कोई भी, खासकर… तुम न देखो। और इसलिए जो मैं देख लेता हूँ, उसे फ़ौरन फोड़ना चाहता हूँ।… .मैं… मैं तुमसे प्रेम जो करता हूँ।
परे. रमणी : क्यों? अगर मैं देख लूंगी, तो क्या होगा?
मस. प. : (बड़ी सहूलियत से) नहीं, मैं चाहता हूँ कि तुम सिर्फ सुनो… तुम सुन लोगी तो मेरा अंत हो जाएगा बिलकुल इस तरह!
परे. रमणी : (बिना डरे) क्यों, तुम हमेशा इस तरह बात क्यों करते हो? तुम इतने…
मस. प. : क्योंकि मैं इतना डरा हुआ हूँ। तुमने ठीक कहा… देखो, मैंने सुन लिया न।
पा. आया : (दूर से) बाबा, जान बाबा…! मशालची बाबा! तुम खेलने बड़ी दूर चले जाते हो।… तुम्हारे सूटर में कीड़े लग रहे हैं।
पागल आया की आवाज से पति चौंक पड़ता है।
मस. प. : नहीं… मुझे ज़रूर नाश करना चाहिए। मैं अपना डर दबा सकता हूँ, लेकिन मैं उसे उखाड़ फेंकना चाहता हूँ।… क्या मुसीबत है संसार में, भय के नाश करने का मतलब है संसार का नाश करना।
परे. रमणी : लेकिन तुम भय पैदा ही क्यों करते हो? मालूम होता है, तुम सिर्फ भय ही भय खाते हो, तुम मुझे कुछ बतलाते क्यों नहीं?
मस. प. : (हिकारत से हँसते हुए) तुम जानती हो, भय छोड़ देने से क्या होगा? तब मैं कुछ मिटा नहीं सकता, नाश नहीं कर सकता। मुझे बरबस सृजन… करना होगा (रूआँसा होकर)… और फिर तब हमारी आत्मा और शरीर के मंथन से जो निकलेगा, वह हमें मार डालेगा। हमारा अंत कर देगा। तुम बूढ़ी हो जाओगी। जीवन-क्रीड़ा नन्हीं सी रतनजड़ी रिस्टवाच की तरह जम जाएगी।
(रिक्शे की घंटी)
परे. रमणी : लेकिन फिर भी?
मस. प. : नहीं, मुझे नाश करना ही पड़ेगा। लड़ना पड़ेगा इस बेमतलब, बेमानी और अनन्त शुरुआत के खिलाफ़। एक-एक पत्ती, एक-एक शब्द और एक-एक पत्थर के खिलाफ।
एकबारगी जोर की आवाजें, जैसे रिक्शे से गिरने की होती है अनाउंसर जल्दी से जाकर झुनझुना उठा लेती है। उसे बजाती भी है, लेकिन कोई असर नहीं होता। एक खास गोल-माल हो जाता है। परेशान रमणी, मसरूप पति, रिक्शेवाला, सब एक साथ बोलते हैं या बीच में पागल आया की भी आवाज ‘मशालची बाबा’ दूर से सुनाई देती है। अनाउंसर गाँग देती है तब कहीं गोल-माल खतम होता है।
थका अ. : मैं बेहद थका हुआ हूँ। मेरा रोम-रोम चूर हो रहा है और आपने इसे गिरा दिया और फिर मारा। मैं सीटी बजाता हूँ। देखता हूँ, उसे बजा सकता हूँ या नहीं।
परे. रमणी : यह देखता नहीं था, और मैं हमेशा देखती हूँ। यह देखता नहीं था।
मस. प. : मैंन देखा और अपनी जीवन-संगिनी से बताया, मैंने उसे कायल कर दिया कि बिना नाश किए बताया जा ही नहीं सकता।
अनाउंसर हँसती है झुनझुना बजाती है।
थका. अ. : तुमने जरूर समझा दिया होगा और इस रिक्शेवाले का तुम नाश करना चाहते थे। तुमने क्या शब्द कहा था?
मस. प. : (बदला हुआ स्वर) कौन? हम नहीं! तुम हमको क्या समझते हो? यह आदमी देखता नहीं था। आगे देखकर नहीं गया। ठोकर लग गई। मैं नाश करता हूँ।
रि. वाला : (गर्व से) नहीं, हमको पीछे से ठोकर लगाई गई, मैंने रिक्शे के आईने में साफ देखा। शायद वह ठोकर अब तक दिखाई दे रही हो।
थका. अ. : मैं सीटी बजाऊँगा। मैं अपनी ताकत सीटी बजाने में खत्म कर दूँगा।
परे. रमणी : नहीं, रुको, सीटी मत बजाओ… हमारी तरफ देखो… मैं कभी कुछ पैदा करती।
मस. प. : मैं हर वक्त सोते जागते देखता हूँ और रचता हूँ… और कायम करता हूँ…
परे, रमणी : बात यह है कि यह हमारे पति बड़े मसरूप रहते हैं। कभी-कभी यह अपने दिमाग को आराम देने के लिए ऊटपटांग बातें करने लगते हैं – बिलकुल पागल आया की तरह। (बात टालने की कोशिश में) पागल आया को आपने देखा है? वह कहती है, उसने 200 किताबें लिखी हैं? वह देखती नहीं है। वह सिर्फ ढूंढती है। बस, यकीन मानें, सिर्फ ढूंढती है न जाने क्या – और कहाँ, (धीरे से) लेकिन मुझे डर है – वह तुमको ही ढूंढ रही है।
थका अ. : मुझे इससे कोई मतलब नहीं, लेकिन आपने यह रिक्शा लिया, इस जाड़े-पाले में, ओले में इसे दौड़ाया और फिर धीरे या लापरवाही से चलने पर अपनी ऊँची एड़ी से आपने इसे ठोकर मारी। वह गिर गया… शायद इसका एक पैर ही बेकार हो… यह रचना और नाश करना दोनों है। तुमने एक रिक्शेवाले का नाश किया और तुमने सौ पैदा किए…
मस. पति : लेकिन मैंने ठोकर नहीं मारी, तुम यह कहोगे शायद?
परे. रमणी : मैंने ठोकर मारी! यह देखता नहीं था, यह क्यों नहीं देखता! यह रोज नहाता क्यों नहीं है? ओह यह बहुत गंदा है! (गश-सा आ जाता है)
मस. पति : अब तुमने देखा, देखने और न देखने में क्या फर्क है। (बहुत धीरे) आओ, हम इसकी सीटी का नाश कर डालें, जल्दी! आओ आओ, सौदा कर लें। ओह! फिर मैं तुम्हें बादलों में रहने की इजाजत दे दूंगा। मैं कभी (संभालते हुए)… तुम्हारी रची हुई कोई चीज नहीं करूंगा।
थका अ. : (रोक कर) यह क्या घुसपुस कर रहे हो? आप जानती हैं कि एक कानून है, जिसमें उन लोगों को सजा मिलती है, जो जानवरों के साथ खासकर सवारियों में जुतने वाले जानवरों के साथ बेरहमी करते हैं (सीटी बजाता है)।
परे. रमणी : (गुस्से में) तुम क्या इस आदमी को जानवर बना दोगे? यह रिक्शेवाला कोई बैल है या घोड़ा?
(अनाउंसर झुनझुना बजा देती है)
मस. पति : (जोशीली स्पीच) मैं इसके खिलाफ लडूंगा। मैं आंदोलन करूंगा और उन्हें तोड़ूंगा। मैं आलमगीर लड़ाइयाँ करूंगा। देखो मैं क्या करता हूँ। मैं बड़ी-बड़ी लाइब्रेरियों में आग लगा दूंगा। मैं शहरों और पर्वतों को स्याही की बूंद की तरह नक्शे से पोंछ दूंगा। यह आदमी है, जानवर नहीं है। यह केवल अंधा-कुआँ है… मेरी बीबी बादलों में रहती है, पागल आया हम सबको बचायेगी।
पा. आया. : (पागल जोश में) अहा, मिल गया, बाबा, जान-बाबा… मशालची बाबा… मिल गया… लेकिन तुम घर से बहुत दूर निकल आये हो… तुम्हारा सूटर…
पागल आया और मसरूप पति दोनों सुबकने लगते हैं, जैसे वही दोनों मिल गए हों।
{म. पति/प. आया./परे. रमणी} : {थका हुआ अफ़सर मर गया, रिक्शेवाले ने उसे मार डाला। अफसर को रिक्शेवाले ने अपने आईनों से मार डाला। अब यह जो सामने खड़ा हुआ है, न थका हुआ है और न अफ़सर।
(जैसे वह एकबारगी भूल गया हो) मेरे अंदर घनी थकावट बस गई है।}
थका अ. : (जैसे डूब रहा हो) जिस तरह एक अंधे कुएँ में (छटपटाता सा) मरी हुई सूखी बिल्ली, चमकीली वार्निश के टीन… किताबों के वरक… (गिर पड़ता है)
पा. आया : रिक्शेवाले ने कितना अच्छा नाश किया। मेरी ख्वाहिश है कि हम उसके स्टेचू बनाएँ। उसकी जाली आटोग्राफ बेचने के लिए कम्पनियाँ खड़ी करें…
लेकिन मशालची बाबा… तुम घर से कितनी दूर निकल आए हो, ओह तुम्हारा सूटर कीड़ों ने खत्म कर दिया है।
एक स्वर : हमारी सबसे ताजी ईज़ाद, काँच के सूटर। इनको सिर्फ ताँबे के कीड़े खा सकते हैं – (कुछ रुककर) … हमारी इससे भी ताजी ईज़ाद ताँबे के कीड़े।… यह बुलाने से बोलते और हँसने से हँसते… ताँबे के कीड़े!
रोशनी हो जाती है। अनाउंसर इठलाती हँस रही है। झुनझुना कमरबंद में अटका लेती है।
अना. : नहीं, अभी खत्म कहाँ हुआ? अभी तो दो मिनट का एक नाच गाना और है।… और न जाने इस गाने से अंत करने में नाटक लिखने वाले का क्या मतलब है? मेरी समझ से तो पूरे नाटक में ही कुछ हल नहीं होता। पूछे जाने पर नाटक लिखने वाला शायद कुछ ऐसा कहेगा कि जिंदगी और नाटक का प्राबलम… एक ही है, यानी लम्हे को मुक्म्मिल कर देना। विरोध और विद्रोह को एक स्वर करना और उनमें एक केंद्रीय महत्व यानी सेंट्रल सिगनीफिकेंस हासिल करके उसका दर्शकों पर एक फीका असर उपजाना, कि वह उनकी बुद्धि, विचार और नज़र को उकसाए। (हँसी)
लेकिन यह सब बेबात की बातें हैं। सभी न्यूरोटिक इसी तरह की बातें करते हैं। मेरी समझ में इस नाटक का लेखक न्यूरोटिक है। हमें जो रुचता नहीं, जो हमारे विचारों के साँचे में अँटता नहीं, उसे हम न्यूरासिस न कहें तो क्या कहें… इस पूरे नाटक में कोई मतलब नहीं है, वह हमें खाहमखाह भरम में डाल रहा है।
झुनझुना निकालकर बजाती है और शर्मायी हँसी हँसती है। स्क्रीन के पीछे से रिक्शेवाला, जो पैर में धुंघरू बाँधे है, दर्शकों को जोकरों की तरह हँसाने की कोशिश कर रहा है। औरों के खड़े हो जाने पर वह आगे आकर अपना गाना और नाच शुरू कर देता है। गाना किसी भी भद्दी लय में गाया जा सकता है और नाच उछल-कूद से अधिक कुछ नहीं है।
रि.वाले का गीत : –
बीबी बोले नाहीं,
बोले नाहीं,
कुंडा खोले नाहीं,
हमसे बोले नाहीं!
रोती लय में : उमड़ रही बरसात रे!
लहरे में :
बीबी बोले नाहीं, बोले नाहीं,
बोले नाहीं, बोले नाहीं,
बीबी बोले नाहीं…!
अनाउंसर लाल सिंदूर होकर हँसी से लोटपोट हो जाती है और बड़ी भली मालूम हो रही है।
।। समाप्त ।।
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