पहला दृश्य
स्थान : कंचनसिंह का कमरा।
समय : दोपहर, खस की टट्टी लगी हुई है, कंचनसिंह सीतलपाटी बिछाकर लेटे हुए हैं, पंखा चल रहा है।
कंचन : (आप-ही-आप) भाई साहब में तो यह आदत कभी नहीं थी। इसमें अब लेश-मात्र भी संदेह नहीं है कि वह कोई अत्यंत रूपवती स्त्री है। मैंने उसे छज्जे पर से झांकते देखा था।, भाई साहब आड़ में छिप गए थे।अगर कुछ रहस्य की बात न होती तो वह कदापि न छिपते, बल्कि मुझसे पूछते, कहां जा रहे हो, मेरा माथा उसी वक्त ठनका था। जब मैंने उन्हें नित्यप्रति बिना किसी कोचवान के अपने हाथों टमटम हांकते सैर करने जाते देखा । उनकी इस भांति घूमने की आदत न थी। आजकल न कभी क्लब जाते हैं न और किसी से मिलते?जुलते हैं। पत्रों से भी रूचि नहीं जान पड़ती। सप्ताह में एक-न -एक लेख अवश्य लिख लेते थे, पर इधर महीनों से एक पंक्ति भी कहीं नहीं लिखी, यह बुरा हुआ। जिस प्रकार बंधा हुआ पानी खुलता है तो बड़े वेग से बहने लगता है अथवा रूकी वायु चलती है तो बहुत प्रचण्ड हो जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरूष जब विचलित होता है, यह अविचार की चरम सीमा तक चला जाता है। न किसी की सुनता है, न किसी के रोके रूकता है, न परिणाम सोचता है। उसके विवेक और बुद्वि पर पर्दा-सा पड़ जाता है। कदाचित् भाई साहब को मालूम हो गया है कि मैंने उन्हें वहां देख लिया। इसीलिए वह मुझसे माल खरीदने के लिए पंजाब जाने को कहते हैं। मुझे कुछ दिनों के लिए हटा देना चाहते हैं। यही बात है, नहीं तो वह माल-वाल की इतनी चिंता कभी न किया करते थे।मुझे तो अब कुशल नहीं दीखती। भाभी को कहीं खबर मिल गई तो वह प्राण ही दे देंगी। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे विद्वान, गंभीर पुरूष भी इस मायाजाल में फंस जाते हैं। अगर मैंने अपनी आंखों न देखा होता तो भाई साहब के संबंध में कभी इस दुष्कल्पना का विश्वास न आता।
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : बाबूजी, आज सोए नहीं ?
कंचन : नहीं, कुछ हिसाब-किताब देख रहा था।भाई साहब ने लगान न मुआफ कर दिया होता तो अबकी मैं ठाकुरद्वारे में जरूर हाथ लगा देता। असामियों से कुछ रूपये वसूल होते, लेकिन उन पर दावा ही न करने दिया ।
ज्ञानी : वह तो मुझसे कहते थे दो-चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊँगा। डारुक्टर ने कहा है, यहां रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगी। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये हैं। बाबूजी एक बात पूछूं, बताओगे। तुम्हें भी इनके स्वभाव में कुछ अंतर दिखायी देता है ? मुझे तो बहुत अंतर मालूम होता है। वह कभी इतने नम्र और सरल नहीं थे।अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो, मेरा मुंह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूं। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे किसी शोक-पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता है, उसी प्रकार आजकल पके हुए गोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना ह्दयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।
कंचन : (मन में) वही बात है। किसी बच्चे से हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयों से फुसला देते हैं। भाई साहब ने भाभी से अपना प्रेम-रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणय से इनको तस्कीन देना चाहते हैं। इस प्रेम-मूर्ति का अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रकट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया । स्त्रियां सूक्ष्मदर्शी होती हैं
खिदमतगार आता है। ज्ञानी चली जाती है।
कंचन : क्या काम है ?
खिदमतगार : यह सरकारी लिगागा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।
कंचन : (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छा, गांव वालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं मेरे रूपये वसूल हो गए। यह कार्रवाई न की जाती तो कभी रूपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ उनकी गांठ नहीं खुलती। औरों पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता तो बात-की-बात में सब रूपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रोब, शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूं, उसके रंग-ढ़ंग देखूं, कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है ? अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहां से हटा दूं। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूं। (फिर खिदमतगार आता है।) क्या बार-बार आते हो ? क्या काम है? मेरे पास पेशगी देने के लिए रूपये नहीं हैं।
खिदमतगार : हुजूर, रूपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है।
कंचन : (मन में) मेरा तो दिल धक-धक कर रहा है, न जाने क्यों बुलाते हैं ! कहीं पूछ न बैठें, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हुए हो,
उठकर ठाकुर सबलसिंह के कमरे में जाते हैं।
सबल : तुमको एक विशेष कारण से तकलीफ दी है। इधर कुछ दिनों से मेरी तबीयत अच्छी नहीं रहती, रात को नींद कम आती है और भोजन से भी अरूचि हो गई है।
कंचन : आपका भोजन आधा भी नहीं रहा।
सबल : हां, वह भी जबरदस्ती खाता हूँ। इसलिए मेरा विचार हो रहा है कि तीन-चार महीनों के लिए मंसूरी चला जाऊँ।
कंचन : जलवायु के बदलने से कुछ लाभ तो अवश्य होगा।
सबल : तुम्हें रूपयों का प्रबंध करने में ज्यादा असुविधा तो न होगी ?
कंचन : उसपर तो केवल पांच हजार रूपये होंगे।चार हजार दो सौ पचास रूपये मूलचंद ने दिये हैं, पांच सौ रूपये श्रीराम ने, और ढाई सौ रूपये हलधर ने।
सबल : (चौंककर) क्या हलधर ने भी रूपये दे दिए ?
कंचन : हां, गांव वालों ने मदद की होगी।
सबल : तब तो वह छूटकर अपने घर पहुंच गया होगा?
कंचन : जी हां।
सबल : (कुछ देर तक सोचकर) मेरे सफर की तैयारी में कै दिन लगेंगे?
कंचन : क्या जाना बहुत जरूरी है ? क्यों न यहीं कुछ दिनों के लिए देहात चले जाइए। लिखने-पढ़ने का काम भी बंद कर दीजिए।
सबल : डारुक्टरों की सलाह पहाड़ों पर जाने की है। मैं कल किसी वक्त यहां से मंसूरी चला जाना चाहता हूँ।
कंचन : जैसी इच्छा।
सबल : मेरे साथ किसी नौकर-चाकर के जाने की जरूरत नहीं है। तुम्हारी भाभी चलने के लिए आग्रह करेंगी। उन्हें समझा देना कि तुम्हारे चलने से खर्च बहुत बढ़ जाएगी। नौकर, महरी, मिसराइन, सभी को जाना पड़ेगा और इस वक्त इतनी गुंजाइश नहीं ।
कंचन : अकेले तो आपको बहुत तकलीफ होगी।
सबल : (खीझकर) क्या संसार में अकेले कोई यात्रा नहीं करता ? अमरीका के करोड़पति तक एक हैंडबैग लेकर भारत की यात्रा पर चल खड़े होते हैं, मेरी कौन गिनती है। मैं उन रईसों में नहीं हूँ जिनके घर में चाहे भोजन का ठिकाना न हो, जायदाद बिकी जाती हो, पर जूता नौकर ही पहनाएगा, शौच के लिए लोटा लेकर नौकर ही जाएगा। यह रियासत नहीं हिमाकत है।
कंचनसिंह चले जाते हैं।
सबल : (मन में) वही हुआ जिसकी आशंका थी। आज ही राजेश्वरी से चलने को कहूँ और कल प्रात: काल यहां से चल दूं। हलधर कहीं आ पड़ा और उसे संदेह हो गया तो बड़ी मुश्किल होगी। ज्ञानी आसानी से न मानेगी । उसे देखकर दया आती है। किंतु आज ह्रदय को कड़ा करके उसे भी रोकना पड़ेगा।
अंचल का प्रवेश।
अचल : दादाजी, आप पहाड़ों पर जा रहे हैं, मैं भी साथ चलूंगा।
सबल : बेटा, मैं अकेले जा रहा हूँ, तुम्हें तकलीफ होगी।
अचल : इसीलिए तो मैं और चलना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि खूब तकलीफ हो, सब काम अपने हाथों करना पड़े, मोटा खाना मिले और कभी मिले, कभी न मिले। तकलीफ उठाने से आदमी की हिम्मत मजबूत हो जाती है, वह निर्भय हो जाता है। जरा-जरा-सी बातों से घबराता नहीं, मुझे जरूर ले चलिए।
सबल : मैं वहां एक जगह थोड़े ही रहूँगा। कभी यहां, कभी वहां।
अचल : यह तो और भी अच्छा है। तरह-तरह की चीजें, नये-नये दृश्य देखने में आएंगी। और मुल्कों में तो लड़कों को सरकार की तरफ से सैर करने का मौका दिया जाता है। किताबों में भी लिखा है कि बिना देशाटन किए अनुभव नहीं होता, और भूगोल जानने का तो इसके सिवा कोई अन्य उपाय नहीं है । नक्शों और माडलों के देखने से क्या होता है ! मैं इस मौके को न जाने दूंगा।
सबल : बेटा, तुम कभी-कभी व्यर्थ में जिद करने लगते हो, मैंने कह दिया कि मैं इस वक्त अकेले ही जाना चाहता हूँ, यहां तक कि किसी नौकर को भी साथ नहीं ले जाता। अगले वर्ष मैं तुम्हें इतनी सैरें करा दूंगा कि तुम ऊब जाओगी। (अचल उदास होकर चला जाता है।) अब सफर की तैयारी करूं। मुख्तसर ही सामान ले जाना मुनासिब होगी। रूपये हों तो जंगल में भी मंगल हो सकता है। आज शाम को राजेश्वरी से भी चलने की तैयारी करने को कह दूंगा, प्रात: काल हम दोनों यहां से चले जाएं। प्रेम-पाश में फंसकर देखा, नीति का, आत्मा का, धर्म का कितना बलिदान करना पड़ता है, और किस-किस वन की पत्तियां तोड़नी पड़ती हैं ।
दूसरा दृश्य
स्थान : राजेश्वरी का सजा हुआ कमरा।
समय : दोपहर।
लौंडी : बाईजी, कोई नीचे पुकार रहा है।
राजेश्वरी : (नींद से चौंककर) क्या कहा - ', आग जली है ?
लौंडी : नौज, कोई आदमी नीचे पुकार रहा है।
राजेश्वरी : पूछा नहीं कौन है, क्या कहता है, किस मतलब से आया है ? संदेशा लेकर दौड़ चली, कैसे मजे का सपना देख रही थी।
लौंडी : ठाकुर साहब ने तो कह दिया है कि कोई कितना ही पुकारे, कोई हो, किवाड़ न खोलना, न कुछ जवाब देना। इसीलिए मैंने कुछ पूछताछ नहीं की।
राजेश्वरी : मैं कहती हूँ जाकर पूछो, कौन है ?
महरी जाती है और एक क्षण में लौट आती है।
लौंडी : अरे बाईजी, बड़ा गजब हो गया। यह तो ठाकुर साहब के छोटे भाई बाबू कंचनसिंह हैं। अब क्या होगा?
राजेश्वरी : होगा क्या, जाकर बुला ला।
लौंडी : ठाकुर साहब सुनेंगे तो मेरे सिर का बाल भी न छोड़ेंगे।
राजेश्वरी : तो ठाकुर साहब को सुनाने कौन जाएगा ! अब यह तो नहीं हो सकता कि उनके भाई द्वार पर आएं और मैं उनकी बात तक न पूछूं। वह अपने मन में क्या कहेंगे ! जाकर बुला ला और दीवानखाने में बिठला। मैं आती हूँ।
लौंडी : किसी ने पूछा तो मैं कह दूंगी, अपने बाल न नुचवाऊँगी।
राजेश्वरी : तेरा सिर देखने से तो यही मालूम होता है कि एक नहीं कई बार बाल नुच चुके हैं। मेरी खातिर से एक बार और नुचवा लेना । यह लो, इससे बालों के बढ़ाने की दवा ले लेना।
लौंडी चली जाती है।
राजेश्वरी : (मन में) इनके आने का क्या प्रयोजन है ? कहीं उन्होंने जाकर इन्हें कुछ कहा-सुना तो नहीं ? आप ही मालूम हो जाएगी। अब मेरा दांव आया है। ईश्वर मेरे सहायक हैं । मैं किसी भांति आप ही इनसे मिलना चाहती थी। वह स्वयं आ गए। (आईने में सूरत देखकर) इस वक्त किसी बनाव चुनाव की जरूरत नहीं, यह अलसाई मतवाली आंखें सोलहों सिंगार के बराबर हैं। क्या जानें किस स्वभाव का आदमी है। अभी तक विवाह नहीं किया है, पूजा-पाठ, पोथी-पत्रे में रात-दिन लिप्त रहता है। इस पर मंत्र चलना कठिन है। कठिन हो सकता है, पर असाध्य नहीं है। मैं तो कहती हूँ, कठिन भी नहीं है। आदमी कुछ खोकर तब सीखता है। जिसने खोया ही नहीं वह क्या सीखेगी। मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। भगवान् ने यह रूप दिया था। तो ऐसे पुरूष का संग क्यों दिया जो बिल्कुल दूसरों की मुट्ठी में था। ! यह उसी का फल है कि जिनके सज्जनों की मुझे पूजा करनी चाहिए थी, आज मैं उनके खून की प्यासी हो रही हूँ। क्यों न खून की प्यासी होऊँ ? देवता ही क्यों न हो, जब अपना सर्वनाश कर दे तो उसकी पूजा क्यों करूं ! यह दयावान हैं, धर्मात्मा हैं, गरीबों का हित करते हैं पर मेरा जीवन तो उन्होंने नष्ट कर दिया । दीन-दुनिया कहीं का न रखा। मेरे पीछे एक बेचारे भोले-भाले, सीधे-सादे आदमी के प्राणों के घातक हो गए। कितने सुख से जीवन कटता था।अपने घर में रानी बनी हुई थी। मोटा खाती थी, मोटा पहनती थी, पर गांव-भर में मरजाद तो थी। नहीं तो यहां इस तरह मुंह में कालिख लगाए चोरों की तरह पड़ी हूँ जैसे कोई कैदी कालकोठरी में बंद हो, आ गए कंचनसिंह, चलूं। (दीवानखाने में आकर) देवरजी को प्रणाम करती हूँ।
कंचन : (चकित होकर मन में) मैं न जानता था कि यह ऐसी सुंदरी रमणी है। रम्भा के चित्र से कितनी मिलती-जुलती है ! तभी तो भाई साहब लोट-पोट हो गए। वाणी कितनी मधुर है। (प्रकट) मैं बिना आज्ञा ही चला आया, इसके लिए क्षमा मांगता हूँ। सुना है भाई साहब का कड़ा हुक्म है कि यहां कोई न आने पाए।
राजेश्वरी : आपका घर है, आपके लिए क्या रोक-टोक ! मेरे लिए तो जैसे आपके भाई साहब, वैसे आपब मेरे धन्य भाग कि आप जैसे भक्त पुरूष के दर्शन हुए ।
कंचन : (असमंजस में पड़कर मन में) मैंने काम जितना सहज समझा था। उससे कहीं कठिन निकला। सौंदर्य कदाचित् बुद्वि-शक्तियों को हर लेता है। जितनी बातें सोचकर चला था। वह सब भूल गई, जैसे कोई नया पत्ता अखाड़े में उतरते ही अपने सारे दांव-पेंच भूल जाए। कैसै बात छेड़ू ? (प्रकट) आपको यह तो मालूम ही होगा कि भाई साहब आपके साथ कहीं बाहर जाना चाहते हैं ?
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) जी हां, यह निश्चय हो चुका है।
कंचन : अब किसी तरह नहीं रूक सकता ?
राजेश्वरी : हम दोनों में से कोई एक बीमार हो जाए तो रूक सके
कंचन : ईश्वर न करें, ईश्वर न करें, पर मेरा आशय यह था। कि आप भाई साहब को रोकें तो अच्छा हो, वह एक बार घर से जाकर फिर मुश्किल से लौटेंगी। भाभी जी को जब से यह बात मालूम हुई है वह बार-बार भाई साहब के साथ चलने पर जिद कर रही हैं। अगर भैया छिपकर चले गए तो भाभी के प्राणों ही पर बन जाएगी।
राजेश्वरी : इसका तो मुझे भी भय है, क्योंकि मैंने सुना है, ज्ञानी देवी उनके बिना एक छन भी नहीं रह सकती। पर मैं भी तो आपके भैया ही के हुक्म की चेरी हूँ, जो कुछ वह कहेंगे उसे मानना पड़ेगा। मैं अपना देश, कुल, घर-बार छोड़कर केवल उनके प्रेम के सहारे यहां आई हूँ। मेरा यहां कौन है ? उस प्रेम का सुख उठाने से मैं अपने को कैसे रोकूं ? यह तो ऐसा ही होगा कि कोई भोजन बनाकर भूखों तड़पा करे, घर छाकर धूप में जलता रहै। मैं ज्ञानीदेवी से डाह नहीं करती, इतनी ओछी नहीं हूँ कि उनसे बराबरी करूं । लेकिन मैंने जो यह लोक-लाज, कुल-मरजाद तजा है वह किसलिए !
कंचन : इसका मेरे पास क्या जवाब है ?
राजेश्वरी : जवाब क्यों नहीं है, पर आप देना नहीं चाहते।
कंचन : दोनों एक ही बात है, भय केवल आपके नाराज होने का है।
राजेश्वरी : इससे आप निश्चिंत रहिए। जो प्रेम की आंच सह सकता है, उसके लिए और सभी बातें सहज हो जाती हैं।
कंचन : मैं इसके सिवा और कुछ न कहूँगा कि आप यहां से न जाएं।
राजेश्वरी : (कंचन की ओर तिरछी चितवनों से ताकते हुए) यह आपकी इच्छा है ?
कंचन : हां, यह मेरी प्रार्थना है। (मन में) दिल नहीं मानता, कहीं मुंह से कोई बात निकल न पड़े।
राजेश्वरी : चाहे वह रूठ ही जाएं ?
कंचन : नहीं-नहीं, अपने कौशल से उन्हें राजी कर लो।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) मुझमें यह गुण नहीं है।
कंचन : रमणियों में यह गुण बिल्ली के नखों की भांति छिपा रहता है। जब चाहें उसे काम में ला सकती हैं।
राजेश्वरी : उनसे आपके आने की चरचा तो करनी ही होगी।
कंचन : नहीं, हरगिज नहीं मैं तुम्हें ईश्वर की कसम दिलाता हूँ। भूलकर भी उनसे यह जिक्र न करना, नहीं तो मैं जहर खा लूंगा, फिर तुम्हें मुंह न दिखाऊँगा।
राजेश्वरी : (हंसकर) ऐसी धमकियों का तो प्रेम-बर्ताव में कुछ अर्थ नहीं होता, लेकिन मैं आपको उन आदमियों में नहीं समझती। मैं आपसे कहना नहीं चाहती थी, पर बात पड़ने पर कहना ही पड़ा कि मैं आपके सरल स्वभाव और आपकी निष्कपट बातों पर मोहित हो गई हूँ। आपके लिए मैं सब कष्ट सहने को तैयार हूँ। पर आपसे यही बिनती है कि मुझ पर कृपादृष्टि बनाए रखिएगा और कभी-कभी दर्शन देते रहिएगी।
राजेश्वरी गाती है।
क्या सो रहा मुसाफिर बीती है रैन सारी।
अब जाग के चलन की कर ले सभी तैयारी।
तुझको है दूर जाना, नहीं पास कुछ खजाना,
आगे नहीं ठिकाना होवे बड़ी खुआरी। (टेक)
पूंजी सभी गमाई, कुछ ना करी कमाई,
क्या लेके घर को जाई करजा किया है भारी।
क्या सो रहा।
कंचन चला जाता है।
तीसरा दृश्य
स्थान : सबलसिंह का घर। सबलसिंह बगीचे में हौज के किनारे मसहरी के अंदर लेटे हुए हैं।
समय : ग्यारह बजे रात।
सबल : (आप-ही-आप) आज मुझे उसके बर्ताव में कुछ रूखाई-सी मालूम होती थी। मेरा बहम नहीं है, मैंने बहुत विचार से देखा । मैं घंटे भर तक बैठा चलने के लिए जोर देता रहा, पर उसने एक बार नहीं करके फिर हां न की। मेरी तरफ एक बार भी उन प्रेम की चितवनों से नहीं देखा जो मुझे मस्त कर देती हैं। कुछ गुमसुम-सी बैठी रही। कितना कहा कि तुम्हारे न चलने से घोर अनर्थ होगी। यात्रा की सब तैयारियां कर चुका हूँ, लोग मन में क्या कहेंगे कि पहाड़ों की सैर का इतना चाव था, और इतनी जल्द ठण्डा हो गया? लेकिन मेरी सारी अनुनय-विनय एक तरफ और उसकी नहीं एक तरफ। इसका कारण क्या है? किसी ने बहका तो नहीं दिया । हां, एक बात याद आई। उसके इस कथन का क्या आशय हो सकता है कि हम चाहे जहां जाएं, टोहियों से बच न सकेंगे। क्या यहां टोहिये आ गए ? इसमें कंचन की कुछ कारस्तानी मालूम होती है। टोहियेपन की आदत उन्हीं में है। उनका उस दिन उचक्कों की भांति इधर-उधर, उपर-नीचे ताकते जाना निरर्थक नहीं था।इन्होंने कल मुझे रोकने की कितनी चेष्टा की थी। ज्ञानी की निगाह भी कुछ बदली हुई देखता हूँ। यह सारी आग कंचन की लगाई हुई है । तो क्या कंचन वहां गया था। ? राजेश्वरी के सम्मुख जाने की इसे क्योंकर हिम्मत हुई किसी महफिल में तो आज तक गया नहीं बचपन ही से औरतों को देखकर झेंपता है। वहां कैसे गया ? जाने क्योंकर पाया। मैंने तो राजेश्वरी से सख्त ताकीद कर दी थी कि कोई भी यहां न आने पाए। उसने मेरी ताकीद की कुछ परवाह न की। दोनों नौकरानियां भी मिल गई।यहां तक कि राजेश्वरी ने इनके जाने की कुछ चर्चा ही नहीं की। मुझसे बात छिपाई, पेट में रखा। ईश्वर, मुझे यह किन पापों का दण्ड मिल रहा है ? अगर कंचन मेरे रास्ते में पड़ते हैं तो पड़ें, परिणाम बुरा होगी। अत्यंत भीषण। मैं जितना ही नर्म हूँ उतना ही कठोर भी हो सकता हूँ। मैं आज से ताक में हूँ। अगर निश्चय हो गया कि इसमें कंचन का कुछ हाथ है तो मैं उसके खून का प्यासा हो जाऊँगा। मैंने कभी उसे कड़ी निगाह से नहीं देखा । पर उसकी इतनी जुर्रत ! अभी यह खून बिल्कुल ठंडा नहीं हुआ है, उस जोश का कुछ हिस्सा बाकी है, जो कटे हुए सिरों और तड़पती हुई लाशों का दृश्य देखकर मतवाला हो जाता था।इन बाहों में अभी दम है, यह अब भी तलवार और भाले का वार कर सकती हैं। मैं अबोध बालक नहीं हूँ कि मुझे बुरे रास्ते से बचाया जाए, मेरी रक्षा की जाए। मैं अपना मुखतार हूँ जो चाहूँ करूं। किसी को चाहे वह मेरा भाई ही क्यों न हो, मेरी भलाई और हित?कामना का ढोंग रचने की जरूरत नहीं अगर बात यहीं तक है तो गनीमत है, लेकिन इसके आगे बढ़ गई है तो फिर इस कुल की खैरियत नहीं इसका सर्वनाश हो जाएगा और मेरे ही हाथों। कंचन को एक बार सचेत कर देना चाहिए ।
ज्ञानी आती है।
ज्ञानी : क्या अभी तक सोए नहीं ? बारह तो बज गए होंगे।
सबल : नींद को बुला रहा हूं, पर उसका स्वभाव तुम्हारे जैसा है। आप-ही-आप आती है, पर बुलाने से मान करने लगती है। तुम्हें नींद क्यों नहीं आई ?
ज्ञानी : चिंता का नींद से बिगाड़ है।
सबल : किस बात की चिंता है ?
ज्ञानी : एक बात है कि कहूँ। चारों तरफ चिंताएं ही चिंताएं हैं। इस वक्त तुम्हारी यात्रा की चिंता है। तबीयत अच्छी नहीं, अकेले जाने को कहते हो, परदेश वाली बात है, न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। इससे तो यही अच्छा था। कि यहीं इलाज करवाते।
सबल : (मन-ही-मन) क्यों न इसे खुश कर दूं जब जरा-सी बात फेर देने से काम निकल सकता है। (प्रकट) इस जरा-सी बात के लिए इतनी चिंता करने की क्या जरूरत ?
ज्ञानी : तुम्हारे लिए जरा-सी हो, पर मुझे तो असूझ मालूम होता है।
सबल : अच्छा तो लो, न जाऊँगी।
ज्ञानी : मेरी कसम ?
सबल : सत्य कहता हूँ। जब इससे तुम्हें इतना कष्ट हो रहा है तो न जाऊँगी।
ज्ञानी : मैं इस अनुग्रह को कभी न भूलूंगी। आपने मुझे उबार लिया, नहीं तो न जाने मेरी क्या दशा होती। अब मुझे कुछ दंड भी दीजिए। मैंने आपकी आज्ञा का उल्लंघन किया है और उसका कठिन दंड चाहती हूँ।
सबल : मुझे तुमसे इसकी शंका ही नहीं हो सकती।
ज्ञानी : पर यह अपराध इतना बड़ा है कि आप उसे क्षमा नहीं कर सकते।
सबल : (कौतूहल से) क्या बात है, सुनूं ?
ज्ञानी : मैं कल आपके मना करने पर भी स्वामी चेतनदास के दर्शनों को चली गई थी।
सबल : अकेले ?
ज्ञानी : गुलाबी साथ थी।
सबल : (मन में) क्या करे बेचारी किसी तरह मन तो बहलाये। मैंने एक तरह इससे मिलना ही छोड़ दिया । बैठे-बैठे जी ऊब गया होगा। मेरी आज्ञा ऐसी कौन महत्व की वस्तु है। जब नौकर-चाकर जब चाहते हैं उसे भंग कर देते हैं और मैं उनका कुछ नहीं कर सकता, तो इस पर क्यों गर्म पड़ू।ब मैं खुली आंखों धर्म और नीति को भंग कर रहा हूँ, ईश्वरीय आज्ञा से मुंह मोड़ रहा हूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं कि इसके साथ जरा-सी बात के लिए सख्ती करूं। (प्रकट) यह कोई अपराध नहीं, और न मेरी आज्ञा इतनी अटल है कि भंग ही न की जायब अगर तुम इसे अपराध समझती हो तो मैं इसे सहर्ष क्षमा करता हूँ।
ज्ञानी : स्वामी, आपके बर्ताव में आजकल क्यों इतना अंतर हो गया है? आपने क्यों मुझे बंधनों से मुक्त कर दिया है, मुझ पर पहले की भांति शासन क्यों नहीं करते ? नाराज क्यों नहीं होते, कटु शब्द क्यों नहीं कहते, पहले की भांति रूठते क्यों नहीं, डांटते क्यों नहीं ? आपकी यह सहिष्णुता देखकर मेरे अबोध मन में भांति-भांति की शंका उठने लगती है कि यह प्रेम-बंधन का ढीलापन न हो,
सबल : नहीं प्रिये, यह बात नहीं है। देश-देशांतर के पत्र-पत्रिकाओं को देखता हूँ तो वहां की स्त्रियों की स्वाधीनता के सामने यहां का कठोर शासन कुछ अच्छा नहीं लगता। अब स्त्रियां कौन्सिलों में जा सकती हैं, वकालत कर सकती हैं, यहां तक कि भारत में भी स्त्रियों को अन्याय के बंधन से मुक्त किया जा रहा है, तो क्या मैं ही सबसे गया-बीता हूँ कि वही पुरानी लकीर पीटे जाऊँ।
ज्ञानी : मुझे तो उस राजनैतिक स्वाधीनता के सामने प्रेम-बंधन कहीं सुखकर जान पड़ता है। मैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती।
सबल : (मन में) भगवन्, इस अपार प्रेम का मैंने कितना घोर अपमान किया है ? इस सरल ह्रदया के साथ मैंने कितनी अनीति की है? आंखों में आंसू क्यों भरे आते हैं ? मुझ जैसा कुटिल मनुष्य इस देवी के योग्य नहीं था।(प्रकट) प्रिये, तुम मेरी ओर से लेश-मात्र भी शंका न करो। मैं सदैव तुम्हारा हूँ और रहूँगा। इस समय गाना सुनने का जी चाहता है । वही अपना प्यारा गीत गाकर मुझे सुना दो।
ज्ञानी सरोद लाकर सबलसिंह को दे देती है। गाने लगती है।
अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई।
माता छोड़ी पिता छोड़े छोड़े सगा सोई,
संतन संग बैठि-बैठि लोक लाज खोई। अब तो..
चौथा दृश्य
स्थान : गंगा तट। बरगद के घने वृक्ष के नीचे तीन-चार आदमी लाठियां और तलवारें लिए बैठे हैं।
समय : दस बजे रात।
एक डाकू : दस बजे और अभी तक लौटी नहीं
दूसरा : तुम उतावले क्यों हो जाते हो, जितनी ही देर में लौटेगी उतना ही सन्नाटा होगा, अभी इक्के-दुक्के रास्ता चल रहा है।
तीसरा : इसके बदन पर कोई पांच हजार के गहने तो होंगे ?
चौथा : सबलसिंह कोई छोटा आदमी नहीं है। उसकी घरवाली बन-ठनकर निकलेगी तो दस हजार से कम का माल नहीं
पहला : यह शिकार आज हाथ आ जाए तो कुछ दिनों चैन से बैठना नसीब हो, रोज-रोज रात-रात भर घात में बैठे रहना अच्छा नहीं लगता। यह सब कुछ करके भी शरीर को आराम न मिला तो बात ही क्या रही।
दूसरा : भाग्य में आराम वदा होता तो यह कुकरम न करने पड़ते। कहीं सेठों की तरह गद्दी-मसनद लगाए बैठे होते । हमें चाहे कोई खजाना ही मिल जाए पर आराम नहीं मिल सकता।
तीसरा : कुकरम क्या हमीं करते हैं, यही कुकरम तो संसार कर रहा है। सेठजी रोजगार के नाम से डाका मारते हैं, अमले घूस के नाम से डाका मारते हैं, वकील मेहनताना के नाम से डाका मारता है। पर उन डकैतों के महल खड़े हैं, हवागाड़ियों पर सैर करते गिरते हैं, पेचवान लगाए मखमली गद्दियों पर पड़े रहते हैं। सब उनका आदर करते हैं, सरकार उन्हें बड़ी-बड़ी पदवियां देती है। हमीं लोगों पर विधाता की निगाह क्यों इतनी कड़ी रहती है?
चौथा डाकू : काम करने का ढ़ग है। वह लोग पढ़े-लिखे हैं इसलिए हमसे चतुर हैं। कुकरम भी करते हैं और मौज भी उड़ाते हैं। वही पत्थर मंदिर में पुजता है और वही नालियों में लगाया जाता है।
पहला : चुप, कोई आ रहा है।
हलधर का प्रवेश। (गाता है)
सात सखी पनघट पर आई कर सोलह सिंगार,
अपना दु: ख रोने लगीं, जो कुछ बदा लिलार।
पहली सखी बोली, सुनो चार बहनो मेरा पिया सराबी है,
कंगन की कौड़ी पास न रखता, दिल का बड़ा नवाबी है।
जो कुछ पाता सभी उड़ाता, घर की अजब खराबी है।
लोटा-थाली गिरवी रख दी, फिरता लिये रिकाबी है।
बात-बात पर आंख बदलता, इतना बड़ा मिजाजी है।
एक हाथ में दोना कुल्हड़, दूजे बोतल गुलाबी है।
पहला डाकू : कौन है ? खड़ा रह।
हलधर : तुम तो ऐसा डपट रहे हो जैसे मैं कोई चोर हूँ। कहो क्या कहते हो ?
दूसरा डाकू : (साथियों से) जवान तो बड़ा गठीला और जीवट का है। (हलधर से) किधर चले ? घर कहां है ?
हलधर : यह सब आल्हा पूछकर क्या करोगे ? अपना मतलब कहो।
तीसरा डाकू : हम पुलिस के आदमी हैं, बिना तलाशी लिए किसी को जाने नहीं देते।
हलधर : (चौकन्ना होकर) यहां क्या धरा है जो तलाशी को धमकाते हो, धन के नाते यही लाठी है और इसे मैं बिना दस-पांच सिर गोड़े दे नहीं सकता।
चौथा डाकू : तुम समझ गए हम लोग कौन हैं, या नहीं ?
हलधर : ऐसा क्या निरा बुद्वू ही समझ लिया है ?
चौथा डाकू : तो गांठ में जो कुछ हो दे दो, नाहक रार क्यों मचाते हो ?
हलधर : तुम भी निरे गंवार हो, चील के घोंसले में मांस ढूंढ़ते हो,
पहला डाकू : यारो, संभलकर, पालकी आ रही है।
चौथा डाकू : बस टूट पड़ो जिसमें कहार भाग खड़े हों।
ज्ञानी की पालकी आती है। चारों डाकू तलवारें लिए कहारों पर जा पड़ते हैं। कहार पालकी पटककर भाग खड़े होते हैं। गुलाबी बरगद की आड़ों में छिप जाती है।
एक डाकू : ठकुराइन, जान की खैर चाहती हो तो सब गहने चुपके से उतार के रख दो। अगर गुल मचाया या चिल्लाई तो हमें जबरदस्ती तुम्हारा मुंह बंद करना पड़ेगा और हम तुम्हारे उसपर हाथ नहीं उठाना चाहते।
दूसरा डाकू : सोचती क्या हो, यहां ठाकुर सबलसिंह नहीं बैठे हैं जो बंदूक लिए आते हों। चटपट उतारो।
तीसरा : (पालकी का परदा उठाकर) यह यों न मानेगी, ठकुराइन है न, हाथ पकड़कर बांध दो, उतार लो सब गहने।
हलधर लपककर उस डाकू पर लाठी चलाता है और वह हाय मारकर बेहोश हो जाता है। तीनों बाकी डाकू उस पर टूट पड़ते हैं। लाठियां चलने लगती हैं।
हलधर : वह मारा, एक और गिरा।
पहला डाकू : भाई, तुम जीते हम हारे, शिकार क्यों भगाए देते हो ? माल में आधा तुम्हारा ।
हलधर : तुम हत्यारे हो, अबला स्त्रियों पर हाथ उठाते हो, मैं अब तुम्हें जीता न छोडूंगा।
डाकू : यार, दस हजार से कम का माल नहीं है। ऐसा अवसर फिर न मिलेगा। थानेदार को सौ-दो सौ रूपये देकर टरका देंगे।बाकी सारा अपना है।
हलधर : (लाठी तानकर) जाते हो या हड्डी तोड़ के रख दूं ?
दोनों डाकू भाग जाते हैं। हलधर कहारों को बुलाता है जो एक मंदिर में छिपे बैठे हैं। पालकी उठती है।
ज्ञानी : भैया, आज तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है इसका फल तुम्हें ईश्वर देंगे, लेकिन मेरी इतनी विनती है कि मेरे घर तक चलो।तुम देवता हो, तुम्हारी पूजा करूंगी।
हलधर : रानी जी, यह तुम्हारी भूल है। मैं न देवता हूँ न दैत्य। मैं भी घातक हूँ। पर मैं अबला औरतों का घातक नहीं, हत्यारों ही का घातक हूँ। जो धन के बल से गरीबों को लूटते हैं, उनकी इज्जत बिगाड़ते हैं, उनके घर को भूतों का डेरा बना देते हैं। जाओ, अब से गरीबों पर दया रखना। नालिस, कुड़की, जेहल, यह सब मत होने देना।
नदी की ओर चला जाता है। गाता है।
दूजी सखी बोली सुनो सखियो, मेरा पिया जुआरी है।
रात-रात भर गड़ पर रहता, बिगड़ी दसा हमारी है।
घर और बार दांव पर हारा, अब चोरी की बारी है।
गहने-कपड़े को क्या रोऊँ, पेट की रोटी भारी है।
कौड़ी ओढ़ना कौड़ी बिछौना, कौड़ी सौत हमारी है।
ज्ञानी : (गुलाबी से) आज भगवान ने बचा लिया नहीं तो गहने भी जाते और जान की भी कुशल न थी।
गुलाबी : यह जरूर कोई देवता है, नहीं तो दूसरों के पीछे कौन अपनी जान जोखिम में डालता ?
पाँचवाँ दृश्य
स्थान : मधुबन।
समय : नौ बजे रात, बादल घिरा हुआ है, एक वृक्ष के नीचे बाबा चेतनदास मृगछाले पर बैठे हुए हैं। फत्तू, मंगई, हरदास आदि धूनी से जरा हट कर बैठे हैं।
चेतनदास : संसार कपटमय है। किसी प्राणी का विश्वास नहीं जो बड़े ज्ञानी, बड़े त्यागी, धर्मात्मा प्राणी हैं: उनकी चित्तवृत्ति को ध्यान से देखो तो स्वार्थ से भरा पाओगी। तुम्हारा जमींदार धर्मात्मा समझा जाता है, सभी उसके यश कीर्ति की प्रशंसा करते हैं। पर मैं कहता हूँ कि ऐसा अत्याचारी, कपटी, धूर्त, भ्रष्टाचरण मनुष्य संसार में न होगी।
मंगई : बाबा, आप महात्मा हैं, आपकी जबान कौन पकड़े, पर हमारे ठाकुर सचमुच देवता हैं। उनके राज में हमको जितना सुख है उतना कभी नहीं था।
हरदास : जेठी की लगान माफकर दी थी। अब असामियों को भूसे-चारे के लिए बिना ब्याज के रूपये दे रहे हैं।
फत्तू : उनमें और चाहे कोई बुराई हो पर असामियों पर हमेशा परवरस की निगाह रखते हैं।
चेतनदास : यही तो उसकी चतुराई है कि अपना स्वार्थ भी सिद्व कर लेता है और अपकीर्ति भी नहीं होने देता। रूपये से, मीठे वचन से, नम्रता से लोगों को वशीभूत कर लेता है।
मंगई : महाराज, आप उनका स्वभाव नहीं जानते जभी ऐसा कहते हैं। हम तो उन्हें सदा से देखते आते हैं। कभी ऐसी नीयत नहीं देखी कि किसी से एक पैसा बेसी ले लें। कभी किसी तरह की बेगार नहीं ली, और निगाह का तो ऐसा साफ आदमी कहीं देखा ही नहीं
हरदास : कभी किसी पर निगाह नहीं डाली।
चेतनदास : भली प्रकार सोचो, अभी हाल ही में कोई स्त्री यहां से निकल गई है ?
फत्तू : (उत्सुक होकर) हां महाराज, अभी थोड़े ही दिन हुए।
चेतनदास : उसके पति का भी पता नहीं है?
फत्तू : हां महाराज, वह भी गायब है।
चेतनदास : स्त्री परम सुंदरी है ?
फत्तू : हां महाराज, रानी मालूम होती है।
चेतनदास : उसे सबलसिंह ने घर डाल लिया है।
फत्तू : घर डाल लिया है ?
मंगई : झूठ है।
हरदास : विश्वास नहीं आता।
फत्तू : और हलधर कहां है ?
चेतनदास : इधर-उधर मारा-मारा फिरता है। डकैती करने लगा है। मैंने उसे बहुत खोजा पर भेंट नहीं हुई
सलोनी गाती हुई आती है।
मुझे जोगिनी बना के कहां गए रे जोगिया।
फत्तू : सलोनी काकी, इधर आओ ! राजेश्वरी तो सबलसिंह के घर बैठ गई।
सलोनी : चल झूठे, बेचारी को बदनाम करता है।
मंगई : ठाकुर साहब में यह लत है ही नहीं ।
सलोनी : मर्दों की मैं नहीं चलाती, न इनके सुभाव का कुछ पता मिलता है, पर कोई भरी गंगा में राजेश्वरी को कलंक लगाए तो भी मुझे विश्वास न आएगी। वह ऐसी औरत नहीं ।
फत्तू : विश्वास तो मुझे भी नहीं आता, पर यह बाबा जी कह रहे हैं।
सलोनी : आपने आंखों देखा है ?
चेतनदास : नित्य ही देखता हूँ। हां, कोई दूसरा देखना चाहे तो कठिनाई होगी। उसके लिए किराए पर एक मकान लिया गया है, तीन लौंडिया सेवा टहल के लिए हैं, ठाकुर प्रात: काल जाता है और घड़ीभर में वहां से लौट आता है। संध्या समय फिर जाता है और नौ-दस बजे तक रहता है। मैं इसका प्रमाण देता हूँ। मैंने सबलसिंह को समझाया, पर वह इस समय किसी की नहीं सुनता। मैं अपनी आंखों यह अत्याचार नहीं देख सकता। मैं संन्यासी हूँ। मेरा धर्म है कि ऐसे अत्याचारियों का, ऐसे पाखंडियों का संहार करूं। मैं पृथ्वी को ऐसे रंगे हुए सियारों से मुक्त कर देना चाहता हूँ। उसके पास धन का बल है तो हुआ करे। मेरे पास न्याय और धर्म का बल है। इसी बल से मैं उसको परास्त करूंगा। मुझे आशा थी कि तुम लोगों से इस पापी को दंड देने में मुझे यथेष्ट सहायता मिलेगी। मैं समझता था। कि देहातों में आत्माभिमान का अभी अंत नहीं हुआ है, वहां के प्राणी इतने पतित नहीं हुए हैं कि अपने उसपर इतना घोर, पैशाचिक अनर्थ देखकर भी उन्हें उत्तेजना न हो, उनका रक्त न खौलने लगे। पर अब ज्ञात हो रहा है कि सबल ने तुम लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया है। उसके दयाभाव ने तुम्हारे आत्मसम्मान को कुचल डाला है। दया का आघात अत्याचार के आघात से कम प्राणघातक नहीं होता। अत्याचार के आघात से क्रोध उत्पन्न होता है, जी चाहता है मर जायें या मार डालें। पर दया की चोट सिर को नीचा कर देती है, इससे मनुष्य की आत्मा और भी निर्बल हो जाती है, उसके अभिमान का अंत हो जाता है। वह नीच, कुटिल, खुशामदी हो जाता है। मैं तुमसे फिर पूछता हूँ, तुममें कुछ लज्जा का भाव है या नहीं?
एक किसान : महाराज, अगर आपका ही कहना ठीक हो तो हम क्या कर सकते हैं ? ऐसे दयावान पुरूष की बुराई हमसे न होगी। औरत आप ही खराब हो तो कोई क्या करे ?
मंगई : बस, तुमने मेरे मन की बात कही।
हरदास : वह सदा से हमारी परवरिस करते आए हैं। हम आज उनसे बागी कैसे हो जाएं ?
दूसरा किसान : बागी हो भी जाएं तो रहें कहां ? हम तो उनकी मुट्ठी में हैं। जब चाहें हमें पीस डालें। पुस्तैनी अदावत हो जाएगी।
मंगई : अपनी लाज तो ढांकते नहीं बनती, दूसरों की लाज कोई क्या ढांकेगा ?
हरदास : स्वामीजी, आप सन्नासी हैं, आप सब कुछ कर सकते हैं। हम गृहस्थ लोग जमींदारों से बिगाड़ करने लगें तो कहीं ठिकाना न लगे।
मंगई : हां और क्या, आप तो अपने तपोबल से ही जो चाहें कर सकते हैं। अगर आप सराप भी दे दें तो कुकर्मी खड़े-खड़े भस्म हो जाएं ब
सलोनी : जा, चुल्लू-भर पानी में डूब मर कायर कहीं का। हलधर तेरे सगे चाचा का बेटा है। जब तू उसका नहीं तो और किसका होगा? मुंह में कालिख नहीं लगा लेता, उसपर से बातें बनाता है। तुझे तो चूड़ियां पहनकर घर में बैठना चाहिए था।मर्द वह होते हैं जो अपनी आन पर जान दे देते हैं। तू हिजड़ा है। अब जो मुंह खोला तो लूका लगा दूंगी।
मंगई : सुनते हो फत्तू काका, इनकी बातें, जमींदार से बैर बढ़ाना इनकी समझ में दिल्लगी है। हम पुलिस वालों से चाहे न डरें, अमलों से चाहे न डरें, महाजन से चाहे बिगाड़ कर लें, पटवारी से चाहे कहा -सुनी हो जाए, पर जमींदार से मुंह लगना अपने लिए गढ़ा खोदना है। महाजन एक नहीं हजारों हैं, अमले आते-जाते रहते हैं, बहुत करेंगे सता लेंगे, लेकिन जमींदार से तो हमारा जनम-मरन का व्योहार है। उसके हाथ में तो हमारी रोटियां हैं। उससे ऐंठकर कहां जाएंगे ? न काकी, तुम चाहे गालियां दो, चाहे ताने मारो, पर सबलसिंह से हम लड़ाई नहीं ठान सकते।
चेतनदास : (मन में) मनोनीत आशा न पूरी हुई हलधर के कुटुम्बियों में ऐसा कोई न निकला जो आवेग में आकर अपमान का बदला लेने को तैयार हो जाता। सब-के-सब कायर निकले। कोई वीर आत्मा निकल आती जो मेरे रास्ते से इस बाधा को हटा देती, फिर ज्ञानी अपनी हो जाती। यह दोनों उस काम के तो नहीं हैं, पर हिम्मती मालूम होते हैं। बुढ़िया दीन बनी हुई है, पर है पोढ़ी, नहीं तो इतने घमंड से बातें न करती। मियां गांठ का पूरा तो नहीं, पर दिल का दिलेर जान पड़ता है। उत्तेजना में पड़कर अपना सर्वस्व खो सकता है। अगर दोनों से कुछ धन मिल जाए तो सबइंस्पेक्टर को मिलाकर, कुछ मायाजाल से, कुछ लोभ से काबू में कर लूं। कोई मुकदमा खड़ा हो जायेब कुछ न होगा भांडा तो फूलट जाएगी। ज्ञानी उन्हें अबकी भांति देवता तो न समझती रहेगी। (प्रकट) इस पापी को दंड देने का मैंने प्रण कर लिया है। ऐसे कायर व्यक्ति भी होते हैं, यह मुझे ज्ञात न था। हरीच्छा ! अब कोई दूसरी ही युक्ति काम में लानी चाहिए ।
सलोनी : महाराज, मैं दीन-दुखिया हूँ, कुछ कहना छोटा मुंह बड़ी बात है, पर मैं आपकी मदद के लिए हर तरह हाजिर हूँ। मेरी जान भी काम आए तो दे सकती हूँ।
फत्तू : स्वामीजी, मुझसे भी जो हो सकेगा करने को तैयार हूँ। हाथों में तो अब मकदूर नहीं रहा, पर और सब तरह हाजिर हूँ।
चेतनदास : मुझे इस पापी का संहार करने के लिए किसी की मदद की आवश्यकता न होती। मैं अपने योग और तप के बल से एक क्षण में उसे रसातल को भेज सकता हूँ, पर शास्त्रों में ऐसे कामों के लिए योगबल का व्यवहार करना वर्जित है। इसी से विवश हूँ। तुम धन से मेरी कुछ सहायता कर सकते हो ?
सलोनी : (फत्तू की ओर सशंक दृष्टि से ताकते हुए) महाराज, थोड़े-से रूपये धाम करने को रख छोड़े थे।वह आपके भेंट कर दूंगी। यह भी तो पुण्य ही का काम है।
फत्तू : काकी, तेरे पास कुछ रूपये उसपर हों तो मुझे उधर दे दे।
सलोनी : चल, बातें बनाता है। मेरे पास रूपये कहां से आएंगे ? कौन घर के आदमी कमाई कर रहे हैं। चालीस साल बीत गए बाहर से एक पैसा भी घर में नहीं आया।
फत्तू : अच्छा, नहीं देती है मत दे। अपने तीनों सीसम के पेड़ बेच दूंगा।
चेतनदास : अच्छा, तो मैं जाता हूँ विश्राम करने। कल दिन-भर में तुम लोग प्रबंध करके जो कुछ हो सके इस कार्य के निमित्त दे देना। कल संध्या को मैं अपने आश्रम पर चला जाऊँगा।
छठा दृश्य
स्थान : शहर वाला किराये का मकान।
समय : आधी रात। कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं।
राजेश्वरी : देवरजी, मैंने प्रेम के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया । पर जिस प्रेम की आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिए सर्वस्व चाहती भी हूँ। मैंने समझा था।, एक के बदले आधी पर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूँ तो जान पड़ता है कि मुझसे भूल हो गयी। दूसरी बड़ी भूल यह हुई कि मैंने ज्ञानी देवी की ओर ध्यान नहीं दिया था।उन्हें कितना दु: ख, कितना शोक, कितनी जलन होगी, इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूं, नाराज तो न होंगे?
कंचन : तुम्हारी बात से मैं नाराज हूँगा !
राजेश्वरी : आपने अब तक विवाह क्यों नहीं किया ?
कंचन : इसके कई कारण हैं। मैंने धर्मग्रंथों में पढ़ा था। कि गृहस्थ जीवन मनुष्य की मोक्ष-प्राप्ति में बाधक होता है। मैंने अपना तन, मन, धन सब धर्म पर अर्पण कर दिया था।दान और व्रत को ही मैंने जीवन का उद्देश्य समझ लिया था।उसका मुख्य कारण यह था। कि मुझे प्रेम का कुछ अनुभव न था।मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था।उसे केवल माया की एक कुटलीला समझा करता था।, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेम में कितना पवित्र आनंद और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुख के सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उसका सुख भी चिंतामय है, इसका दु: ख भी रसमय।
राजेश्वरी : (वक्र नेत्रों से ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ ?
कंचन : यह न बताऊँगा।
राजेश्वरी : (मुस्कराकर) बताइए चाहे न बताइए, मैं समझ गई। जिस वस्तु को पाकर आप इतने मुग्ध हो गए हैं वह असल में प्रेम नहीं है। प्रेम की केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेम-रत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनंद का सच्चा अनुभव होगा।
कंचन : मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनंद मेरे भाग्य में ही नहीं है।
राजेश्वरी : है और मिलेगा। भाग्य से इतने निराश न हूजिए। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पल इच्छा करेंगे वह रत्न आपको मिल जाएगा। वह आपकी इच्छा की बाट जोह रहा है।
कंचन : (आंखों में आंसू भरकर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्म-संकट में हूँ। न जाने मेरा क्या अंत होगा। मुझे इस प्रेम पर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।
राजेश्वरी : (मन में) भगवान, मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल सरल पुरूष की हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूं क्या, अपने अपमान का बदला तो लेना ही होगी। (प्रकट) प्राणेश्वर, आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूँगी। संसार की आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँ, दूसरों के साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा ह्रदय आपका है। मेरे प्राण आप पर न्योछावर हैं। (आंचल से कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइए। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है।
कंचन : राजेश्वरी, उस प्रेम को भोगना मेरे भाग्य में नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरूष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्न की ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरूष की-सी है जो क्षुधा से व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवता की अर्चना के लिए रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेम-रत्न कहां मिलेगा तो तुम अप्सरा भी होतीं तो आकाश से उतार लाता। दूसरों की आंख पड़ने के पहले तुम मेरी हो जातीं, फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिलीं जब तुम्हारी ओर प्रेम की दृष्टि से देखना भी मेरे लिए अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूँ। मुझे यहां इस एकांत में बैठने का, तुमसे ऐसी बातें करने का अधिकार नहीं है। पर प्रेमाघात ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिन का ब्रडाचर्य और धर्मनिष्ठा का अपहरण हो गया है। इसका परिणाम कितना भयंकर होगा, ईश्वर ही जानेब अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो। (उठ खड़ा होता है।)
राजेश्वरी : (हाथ पकड़कर) न जाने पाइएगा। जब इस धर्म का पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किए जाइए। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथ पुरी में पहुंचकर छुआछूत का विचार नहीं रहता, उसी भांति प्रेम की दीक्षा पाने के बाद धर्म-अधर्म का विचार नहीं रहता। प्रेम आदमी को पागल कर देता है। पागल आदमी के काम और बात का, विचार और व्यवहार का कोई ठिकाना नहीं ।
कंचन : इस विचार से चित्त को संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षा में मत डालो।
राजेश्वरी : अच्छा बतलाते जाइए कब आइएगा?
कंचन : कुछ नहीं जानता क्या होगी। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।
जीने से उतरता है। द्वार पर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं। कंचन एक अंधेरे बरामदे में छिप जाता है।
सबल : (उसपर जाकर) अरे ! अभी तक तुम सोयी नहीं ?
राजेश्वरी : जिनके आंखों में प्रेम बसता है वहां नींद कहाँ?
सबल : यह उन्निद्रा प्रेम में नहीं होती। कपट-प्रेम में होती है।
राजेश्वरी : (सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।
सबल : (क्रोध से) अभी यहां कौन बैठा हुआ था ?
राजेश्वरी : आपकी याद।
सबल : मुझे भ्रम था। कि याद संदेह नहीं हुआ करती है। आज यह नयी बात मालूम हुई । मैं तुमसे विनय करता हूँ, बतला दो, अभी कौन यहां से उठकर गया है ?
राजेश्वरी : आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं ?
सबल : शायद मुझे भ्रम हुआ हो।
राजेश्वरी : ठाकुर कंचनसिंह थे।
सबल : तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था। ?
राजेश्वरी : (मन में) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रकट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गए जब कोई पुरूष किसी अन्य स्त्री के पास जाता है तो उसका एक ही आशय हो सकता है।
सबल : उसे तुमने आने क्यों दिया ?
राजेश्वरी : उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आई। मैंने तो उन्हें यहां आने पर देखा ।
सबल : कहारिन उससे मिली हुई है ?
राजेश्वरी : यह उससे पूछिए।
सबल : जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया ?
राजेश्वरी : प्राणेश्वर, आप मुझसे ऐसे सवाल पूछकर दिल न जलाएं। यह कहां की रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आए तो उसको दुत्कार दिया जाए, वह भी जब आपका भाई हो, मैं इतनी निष्ठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलने में तो भय जब होता कि जब मेरा अपना चित्त चंचल होता, मुझे अपने उसपर विश्वास न होता। प्रेम के गहरे रंग में सराबोर होकर अब मुझ पर किसी दूसरे रंग के चढ़ने की सम्भावना नहीं है। हां, आप बाबू कंचनसिंह को किसी बहाने से समझा दीजिये कि अब से यहां न आएं। वह ऐसी प्रेम और अनुराग की बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यान से ही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूँ, सुनती हूँ।
सबल : (उन्मत्त होकर) पाखंडी कहीं का, धर्मात्मा बनता है, विरक्त बनता है, और कर्म ऐसे नीच ! तू मेरा भाई सही, पर तेरा वध करने में कोई पाप नहीं है। हां, इस राक्षस की हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह ! कितनी नीच प्रकृति है, मेरा सगा भाई और यह व्यवहार ! असह्य है, अक्षम्य है। ऐसे पापी के लिए नरक ही सबसे उत्तम स्थान है। आज ही इसी रात को तेरी जीवनलीला समाप्त हो जाएगी। तेरा दीपक बुझ जाएगा। हां धूर्त, क्या कामलोलुपता के लिए यही एक ठिकाना था। ! तुझे मेरे ही घर में आग लगानी थी। मैं तुझे पुत्रवत् प्यार करता था।तुझे(क्रोध से होंठ चबाकर) तेरी लाश को इन्हीं आंखों से तड़पते हुए देखूंगी।
नीचे चला जाता है।
राजेश्वरी : (आप-ही-आप) ऐसा जान पड़ता है, भगवान् स्वयं यह सारी लीला कर रहे हैं, उन्हीं की प्रेरणा से सब कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। मैं बैलों को मारा जाना नहीं देख सकती थी, चींटियों को पैरों तले पड़ते देखकर मैं पांव हटा लिया करती थी, पर अभाग्य मुझसे यह हत्याकांड करा रहा है। मेरे ही निर्दय हाथों के इशारे से यह कठपुतलियां नाच रही हैं!
करूण स्वरों में गाती है।
ऊधो, कर्मन की गति न्यारी।
गाते-गाते प्रस्थान।
सातवाँ दृश्य
स्थान : दीवानखाना।
समय : तीन बजे रात। घटा छायी हुई है। सबलसिंह तलवार हाथ में लिये द्वार पर खड़े हैं।
सबल : (मन में) अब सो गया होगा। मगर नहीं, आज उसकी आंखों में नींद कहां ! पड़ा-पड़ा प्रेमाग्नि में जल रहा होगा, करवटें बदल रहा होगा। उस पर यह हाथ न उठ सकेंगे। मुझमें इतनी निर्दयता नहीं है। मैं जानता हूँ वह मुझ पर प्रतिघात न करेगा। मेरी तलवार को सहर्ष अपनी गर्दन पर ले लेगी। हां ! यही तो उसका प्रतिघात होगा। ईश्वर करे, वह मेरी ललकार पर सामने खड़ा हो जाए। तब यह तलवार वज्र की भांति उसकी गर्दन पर र्गिरे। अरक्षित, निश्शस्त्र पुरूष पर मुझसे आघात न होगा। जब वह करूण दीन नेत्रों से मेरी ओर ताकेगा: तो मेरी हिम्मत छूट जाएगी।
धीरे-धीरे कंचनसिंह के कमरे की ओर बढ़ता है।
हा ! मानव-जीवन कितना रहस्यमय है। हम दोनों ने एक ही मां के उदर से जन्म लिया, एक ही स्तन का दूध पिया, सदा एक साथ खेले, पर आज मैं उसकी हत्या करने को तैयार हूँ। कैसी विडम्बना है ! ईश्वर करे उसे नींद आ गई हो, सोते को मारना धर्म-विरूद्व हो, पर कठिन नहीं है। दीनता दया को जागृत कर देती है(चौंककर) अरे ! यह कौन तलवार लिये बढ़ा चला आता है । कहीं छिपकर देखूं, इसकी क्या नीयत है। लम्बा आदमी है, शरीर कैसा गठा हुआ है। किवाड़ के दरारों से निकलते हुए प्रकाश में आ जाये तो देखूं कौन है ? वह आ गया। यह तो हलधर मालूम होता है, बिल्कुल वही है, लेकिन हलधर के दाढ़ी नहीं थी। सम्भव है दाढ़ी निकल आयी हो, पर है हलधर, हां वही है, इसमें कोई संदेह नहीं है। राजेश्वरी की टोह किसी तरह मिल गयी। अपमान का बदला लेना चाहता है। कितना भयंकर स्वरूप हो गया है। आंखें चमक रही हैं। अवश्य हममें से किसी का खून करना चाहता है। मेरी ही जान का गाहक होगी। कमरे में झांक रहा है। चाहूँ तो अभी पिस्तौल से इसका काम तमाम कर दूं। पर नहीं खूब सूझी। क्यों न इससे वह काम लूं जो मैं नहीं कर सकता। इस वक्त कौशल से काम लेना ही उचित है। (तलवार छिपाकर) कौन है, हलधर ?
हलधर तलवार खींचकर चौकन्ना हो जाता है।
सबल : हलधर, क्या चाहते हो ?
हलधर : (सबल के सामने आकर) संभल जाइएगा, मैं चोट करता हूँ।
सबल : क्यों मेरे खून के प्यासे हो रहे हो ?
हलधर : अपने दिल से पूछिए।
सबल : तुम्हारा अपराधी मैं नहीं हूँ, कोई दूसरा ही है।
हलधर : क्षत्री होकर आप प्राणों के भय से झूठ बोलते नहीं लजाते ?
सबल : मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ।
हलधर : सरासर झूठ है। मेरा सर्वनाश आपके हाथों हुआ है। आपने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी । मेरे घर में आग लगा दी और अब आप झूठ बोलकर अपने प्राण बचाना चाहते हैं। मुझे सब खबरें मिल चुकी हैं। बाबा चेतनदास ने सारा कच्चा चित्ता मुझसे कह सुनाया है। अब बिना आपका खून पिए इस तलवार की प्यास न बुझेगी।
सबल : हलधर, मैं क्षत्रिय हूँ और प्राणों को नहीं डरता। तुम मेरे साथ कमरे तक आओ। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मैं कोई छल-कपट न करूंगा। वहां मैं तुमसे सब वृत्तांत सच-सच कह दूंगा। तब तुम्हारे मन में जो आए, वह करना।
हलधर चौकन्नी दृष्टि से ताकता हुआ सबल के साथ उसके दीवानखाने में जाता है।
सबल : तख्त पर बैठ जाओ और सुनो। यह सारी आग कंचनसिंह की लगाई हुई है। उसने कुटनी द्वारा राजेश्वरी को घर से निकलवा लिया है। उसके गोरूंदों ने राजेश्वरी का उससे बखान किया होगा वह उस पर मोहित हो गया और तुम्हें जेल पहुंचाकर अपनी इच्छा पूरी की जबसे मुझे यह समाचार मिला है, मैं उसका शत्रु हो गया हूँ। तुम जानते हो, मुझे अत्याचार से कितनी घृणा है। अत्याचारी पुरूष चाहे वह मेरा पुत्र ही क्यों न हो, मेरी दृष्टि में हिंसक जंतु के समान है और उसका वध करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। इसीलिए मैं यह तलवार लेकर कंचनसिंह का वध करने जा रहा था।इतने में तुम दिखायी पड़े। मुझे अब मालूम हुआ कि जिसे मैं बड़ा धर्मात्मा, ईश्वरभक्त, सदाचारी, त्यागी समझता था। वह वास्तव में एक परले दर्जे का व्याभिचारी, विषयी मनुष्य है। इसीलिए उसने अब तक विवाह नहीं किया। उसने कर्मचारियों को घूस देकर तुम्हें चुपके-चुपके गिरफ्तारी करा लिया और अब राजेश्वरी के साथ विहार करता है। अभी आधी रात को वहां से लौटकर आया है। मैंने तुमसे सारा वृत्तांत कह सुनाया, अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।
हलधर लपककर कंचनसिंह के कमरे की ओर चलता है।
सबल : ठहरो-ठहरो, यों नहीं सम्भव है तुम्हारी आहट पाकर जाग उठे। नौकर-सिपाही उसका चिल्लाना सुनकर जाग पड़ें। प्रात: काल वह गंगा नहाने जाता है। उस वक्त अंधेरा रहता है। वहीं तुम उसे गंगा की भेंट कर सकते हो, घात लगाए रहो, अवसर आते ही एक हाथ में काम तमाम कर दो और लाश को वहीं बहा दो। तुम्हारा मनोरथ पूरा होने का इससे सुगम उपाय नहीं है।
हलधर : (कुछ सोचकर) मुझे धोखा तो नहीं देना चाहते ? इस बहाने से मुझे टाल दो और फिर सचेत हो जाओ और मुझे पकड़वा देने का इंतजाम करो।
सबल : मैंने ईश्वर की कसम खायी है, अगर अब भी तुम्हें विश्वास न आए तो जो चाहे करो।
हलधर : अच्छी बात है, जैसा आप कहते हैं वैसा ही होगा। अगर इस समय धोखा देकर बच भी गए तो फिर क्या कभी दाव ही न आएगा ? मेरे हाथों से बचकर अब नहीं जा सकते। मैं चाहूँ तो एक क्षण में तुम्हारे कुल का नाश कर दूं, पर मैं हत्यारा नहीं हूँ। मुझे धन की लालसा नहीं है। मैं तो केवल अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। आपको भी सचेत किए देता हूँ। मैं अभी और टोह लगाऊँगा। अगर पता चला कि आपने मेरा घर उजाड़ा है तो मैं आपको भी जीता न छोडूंगा। मेरा तो जो होना था। हो चुका, पर मैं अपने उजाड़ने वालों को कुकर्म का सुख न भोगने दूंगा।
चला जाता है।
सबल : (मन में) मैं कितना नीच हो गया हूँ। झूठ, दगा गरे। किसी पाप से भी मुझे हिचक नहीं होती। पर जो कुछ भी हो, हलधर बड़े मौके से आ गया अब बिना लाठी टूटे ही सांप मरा जाता है।
प्रस्थान
आठवाँ दृश्य
स्थान : नदी का किनारा।
समय : चार बजे भोर, कंचन पूजा की सामग्री लिए आता है और एक तख्त पर बैठ जाता है, फिटन घाट के उसपर ही रूक जाती है।
कंचन : (मन में) यह जीवन का अंत है ! यह बड़े-बड़े इरादों और मनसूबों का परिणाम है। इसीलिए जन्म लिया था।यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया-बंधनों से मुक्त रहकर आत्मा को उच्चतम पद पर ले जाना चाहता था।यह वही महान पद है। यही मेरी सुकीर्तिरूपी धर्मशाला है, यही मेरा आदर्श कृष्ण मंदिर है ! इतने दिनों के नियम और संयम, सत्संग और भक्ति, दान और व्रत ने अंत में मुझे वहां पहुंचाया जहां कदाचित् भ्रष्टाचार और कुविचार, पाप और कुकर्म ने भी न पहुंचाया होता। मैंने जीवन यात्रा का कठिनतम मार्ग लिया, पर हिंसक जीव-जंतुओं से बचने का, अथाह नदियों को पार करने का, दुर्गम घाटियों से उतरने का कोई साधन अपने साथ न लिया। मैं स्त्रियों से रहता था।, इन्हें जीवन का कांटा समझता था।, इनके बनाव-श्रृंगार को देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज वह स्त्री जो मेरे भाई की प्रेमिका है, जो मेरी माता के तुल्य है, प्रेम में इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था। ! हाय, यह आग अब बुझती नहीं दिखायी देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शांत होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवन का अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीने से यह ताप और ज्वाला दिन-दिन प्रचंड होगी। घुल-घुलकर, कुढ़-कुढ़कर मरने से, घर में बैर का बीज बोने से, जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करने से यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूल ही का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरी को किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यान से नहीं उतार सकता।
चेतनदास का प्रवेश।
कंचन : स्वामी जी को दंडवत् करता हूँ।
चेतनदास : बाबा, सदा सुखी रहो, इधर कई दिनों से तुमको नहीं देखा । मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे ?
कंचन : नहीं महाराज, आपके आशीर्वाद से कुशल से हूँ। पर कुछ ऐसे झंझटों में पड़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका । बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रात: काल आपके दर्शन हो गए। आप तीर्थयात्रा पर कब जाने का विचार कर रहे हैं ?
चेतनदास : बाबा, अब तक तो चला गया होता, पर भगतों से पिंड नहीं छूटता। विशेषत: मुझे तुम्हारे कल्याण के लिए तुमसे कुछ कहना था। और बिना कहे मैं न जा सकता था।यहां इसी उद्देश्य से आया हूँ। तुम्हारे उसपर एक घोर संकट आने वाला है । तुम्हारा भाई सबलसिंह तुम्हें वध कराने की चेष्टा कर रहा है। घातक शीघ्र ही तुम्हारे उसपर आघात करेगी। सचेत हो जाओ।
कंचन : महाराज, मुझे अपने भाई से ऐसी आशंका नहीं है।
चेतनदास : यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम र्ईर्ष्या में मनुष्य अस्थिरचित्त, उन्मत्त हो जाता है।
कंचन : यदि ऐसा ही हो तो मैं क्या कर सकता हूँ ? मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पाप के बोझ से दबी हुई है।
चेतनदास : यह क्षत्रियों की बातें नहीं हैं। भूमि, धन और नारी के लिए संग्राम करना क्षत्रियों का धर्म है। उन वस्तुओं पर उसी का वास्तविक अधिकार है जो अपने बाहुबल से उन्हें छीन सके इस संग्राम में दया और धर्म, विवेक और विचार, मान और प्रतिष्ठा, सभी कायरता के पर्याय हैं। यही उपदेश कृष्ण भगवान ने अर्जुन को दिया था।, और वही उपदेश मैं तुम्हें दे रहा हूँ। तुम मेरे भक्त हो इसलिए यह चेतावनी देना मेरा कर्तव्य था।योद्वाओं की भांति क्षेत्र में निकलो और अपने शत्रु के मस्तक को पैरों से कुचल डालो, उसका गेंद बनाकर खेलो अथवा अपनी तलवार की नोक पर उछालो।यही वीरों का धर्म है। जो प्राणी क्षत्रिय वंश में जन्म लेकर संग्राम से मुह मोड़ता है, वह केवल कापुरूष ही नहीं, पापी है, विधर्मी है, दुरात्मा है। कर्मक्षेत्र में कोई किसी का पुत्र नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं, सब एक दूसरे के शत्रु हैं। यह समस्त संसार कुछ नहीं, केवल एक वृहत्, विराट् शत्रुता है। दर्शनकारों और धर्माचायोऊ ने संसार को प्रेममय कहा है। उनके कथनानुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। यह भ्रांति का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने संसार को वेष्ठित कर रखा है। भूल जाओ कि तुम किसी के भाई हो, जो तुम्हारे उसपर आघात करे उसका प्रतिघात करो, जो तुम्हारी ओर वक्र नेत्रों से ताके उसकी आंखें निकाल लो। राजेश्वरी तुम्हारी है, प्रेम के नाते उस पर तुम्हारा ही अधिकार है। अगर तुम अपने कर्तव्य-पथ से हटकर उसे उस पुरूष के हाथों में छोड़ दोगे जिससे उसे पहले चाहे प्रेम रहा हो, पर अब वह उससे घृणा करती है, तो तुम न्याय, नीति और धर्म के घातक सिद्व होगे और जन्म-जन्मान्तरों तक इसका दंड भोगते रहोगे
चेतनदास का प्रस्थान
कंचन : (मन में) मन, अब क्या कहते हो ? क्षत्रिय धर्म का पालन करके भाई से लड़ोगे, उसके प्राणों पर आघात करोगे या क्षत्रिय धर्म को भंग करके आत्महत्या करोगे ? जी तो मरने को नहीं चाहता। अभी तक भक्ति और धर्म के जंजाल में पड़ा रहा, जीवन का कुछ सुख नहीं देखा । अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई हो क्षत्रियधर्म के विरूद्व, पर भाई से मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत् प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंह से सुना हो । वह योग्य हैं, विद्वान् हैं, कुशल हैं। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैया का शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्म सिद्वांत न होते तो जरा-जरा-सी बात पर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथ से जाता ? नहीं, कदापि नहीं, मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्माजी उन पर भी मिथ्या दोषारोपण कर गए। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझ पर इतने निर्दय हो जायेंगी। उनके दया और शील का पारावार नहीं वह मेरी प्राणहत्या का संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं, हजार राजेश्वरियां हों, पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उन पर नहीं उठ सकते। हाय, अभी एक क्षण में यह घटना सारे नगर में फैल जाएगी । लोग समझेंगे, पांव फिसल गया होगा। राजेश्वरी क्या समझेगी ? उसे मुझसे प्रेम है, अवश्य शोक करेगी, रोयेगी और अब से कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया ? हाय, यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुंह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूं। मैंने धर्म-हत्या की है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तो भी मुझे आह भरने का अधिकार नहीं है। मेरे लिए अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदान से ही अब शांति होगी । पर भैया पर मेरे हाथ न उठेंगी। पानी गहरा है। भगवान्, मैंने पाप किये हैं, तुम्हें मुंह दिखाने योग्य नहीं हूँ। अपनी अपार दया की छांह में मुझे भी शरण देना। राजेश्वरी, अब तुझे कैसे देखूंगा?
पीलपाये पर खड़ा होकर अथाह जल में कूद पड़ता है। हलधर का तलवार और पिस्तौल लिये आना।
हलधर : बड़े मौके से आया। मैंने समझा था। देर हो गयी। पाखंडी कुकर्मी कहीं का। रोज गंगा नहाने आता है, पूजा करता है, तिलक लगाता है, और कर्म इतने नीच। ऐसे मौके से मिले हो कि एक ही बार में काम तमाम कर दूंगा। और परायी स्त्रियों पर निगाह डालो ! (पीलपाये की आड़ में छिपकर सुनता है) पापी भगवान् से दया की याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है कि एक क्षण में नर्क के द्वार पर खड़ा होगा। राजेश्वरी, अब तुम्हें कैसे देखूंगा ? अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौल का निशाना लगाता है।) अरे ! यह तो आप-ही-आप पानी में कूद पड़ा, क्या प्राण देना चाहता है ? (पिस्तौल किनारे की ओर फेंककर पानी में कूद पड़ता है और कंचनसिंह को गोद में लिए एक क्षण में बाहर आता है। मन में) अभी पानी पेट में बहुत कम गया है। इसे कैसे होश में लाऊँ ? है तो यह अपना बैरी, पर जब आप ही मरने पर उतारू है तो मैं इस पर क्या हाथ उठाऊँ। मुझे तो इस पर दया आती है।
कंचनसिंह को लेटाकर उसकी पीठ में घुटने लगाकर उसकी बांहों को हिलाता है। चेतनदास का प्रवेश।
चेतनदास : (आश्चर्य से) यह क्या दुर्घटना हो गयी ? क्या तूने इनको पानी में डूबा दिया ?
हलधर : नहीं महाराज, यह तो आप नदी में कूद पड़े । मैं तो बाहर निकाल लाया हूँ ?
चेतनदास : लेकिन तू इन्हें वध करने का इरादा करके आया था।मूर्ख, मैंने तुझे पहले ही जता दिया था। कि तेरा शत्रु सबलसिंह है, कंचनसिंह नहीं पर तूने मेरी बात का विश्वास न किया। उस धूर्त सबल के बहकाने में आ गया। अब फिर कहता हूँ कि तेरा शत्रु वही है, उसी ने तेरा सर्वनाश किया है, वही राजेश्वरी के साथ विलास करता है।
हलधर : मैंने इन्हें राजेश्वरी का नाम लेते अपने कानों से सुना है।
चेतनदास : हो सकता है कि राजेश्वरी जैसी सुंदरी को देखकर इसका चित्त भी चंचल हो गया हो, सबलसिंह ने संदेहवश इसके प्राण हरण की चेष्टा की हो, बस यही बात है।
हलधर : स्वामी जी क्षमा कीजिएगा, मैं सबलसिंह की बात में आ गया। अब मुझे मालूम हो गया कि वही मेरा बैरी है। ईश्वर ने चाहा तो वह भी बहुत दिन तक अपने पाप का सुख न भोगने पायेंगा।
चेतनदास : (मन में) अब कहां जाता है ? आज पुलिस वाले भी घर की तलाशी हुई। अगर उनसे बच गया तो यह तो तलवार निकाले बैठा ही है। ईश्वर की इच्छा हुई तो अब शीघ्र ही मनोरथ पूरे होंगे। ज्ञानी मेरी होगी और मैं इस विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँगा। कोई व्यवसाय, कोई विद्या, मुझे इतनी जल्द इतना सम्पत्तिशाली न बना सकती थी।
प्रस्थान।
कंचन : (होश में आकर) नहीं, तुम्हारा शत्रु मैं हूँ। जो कुछ किया है, मैंने किया है । भैया निर्दोष हैं, तुम्हारा अपराधी मैं हूँ। मेरे जीवन का अंत हो, यही मेरे पापों का दंड है। मैं तो स्वयं अपने को इस पाप-जाल से मुक्त करना चाहता था।तुमने क्यों मुझे बचा लिया ? (आश्चर्य से) अरे, यह तो तुम हो, हलधर ?
हलधर : (मन में) कैसा बेछल-कपट का आदमी है। (प्रकट) आप आराम से लेटे रहें, अभी उठिए न।
कंचन : नहीं, अब नहीं लेटा जाता । (मन में) समझ में आ गया, राजेश्वरी इसी की स्त्री है। इसीलिए भैया ने वह सारी माया रची थी। (प्रकट) मुझे उठाकर बैठा दो। वचन दो कि भैया का कोई अहित न करोगे।
हलधर : ठाकुर, मैं यह वचन नहीं दे सकता।
कंचन : किसी निर्दोष की जान लोगे ? तुम्हारा घातक मैं हूँ। मैंने तुम्हें चुपके से जेल भिजवाया और राजेश्वरी को कुटनियों द्वारा यहां बुलाया।
तीन डाकू लाठियां लिये आते हैं।
एक : क्यों गुरू, पड़ा हाथ भरपूर ?
दूसरा : यह तो खासा टैयां सा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊँ।
हलधर : खबरदार, हाथ न उठाना।
दूसरा : क्या कुछ हत्थे चढ़ गया क्या ?
हलधर : हां, असर्फियों की थैली है। मुंह धो रखना ।
तीसरा : यह बहुत कड़ा ब्याज लेता है। सब रूपये इसकी तोंद में से निकाल लो।
हलधर : जबान संभालकर बात करो।
पहला : अच्छा, इसे ले चलो, दो-चार दिन बर्तन मंजवायेंगे। आराम करते-करते मोटा हो गया है।
दूसरा : तुमने इसे क्यों छोड़ दिया ?
हलधर : इसने वचन दिया कि अब सूद न लूंगा।
पहला : क्यों बच्चा, गुरू को सीधा समझकर झांसा दे दिया ।
हलधर : बक-बक मत करो। इन्हें नाव पर बैठाकर डेरे पर लेते चलो।यह बेचारे सूद-ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाई के हुकुम से लेते हैं। आज उसी की खबर लेने का विचार है।
सब कंचन को सहारा देकर नाव पर बैठा देते हैं और गाते हुए नाव चलाते हैं।
नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए !
मानुष तन है दुर्लभ जग में इसका फल पाना चहिए!
दुर्जन संग नरक का मारग उससे दूर जाना चहिए!
सत संगत में सदा बैठ के हरि के गुण गाना चहिए!
धरम कमाई करके अपने हाथों की खाना चहिए!
परनारी को अपनी माता के समान जाना चहिए!
झूठ-कपट की बात सदा कहने में शरमाना चहिए!
कथा। पुरान संत संगत में मन को बहलाना चहिए!
नारायण का नाम सदा मन के अंदर लाना चहिए!
नवाँ दृश्य
स्थान : गुलाबी का मकान।
समय : संध्या, चिराग जल चुके हैं, गुलाबी संदूक से रूपये निकाल रही है।
गुलाबी : भाग जाग जाएंगे। स्वामीजी के प्रताप से यह सब रूपये दूने हो जाएंगे। पूरे तीन सौ रूपये हैं। लौटूंगी तो हाथ में छ: सौ रूपये की थैली होगी। इतने रूपये तो बरसों में भी न बटोर पाती। साधु-महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजी ने यह मंत्र दिया है। भृगु के गले में बांध दूं। फिर देखूं, यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बस में किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगी। यही तो मैं चाहती हूँ । उसका मानमर्दन हो जाये, घमंड टूट जाये। (भृगु को बुलाती है।) क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती है ? दुबले होते जाते हो?
भृगु : क्या करूं ? सारे दिन बही खोले बैठे-बैठे थक जाता हूँ। ठाकुर कंचनसिंह एक बीड़ा पान को भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूँ, न कोई उत्तम वस्तु भोजन को मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़ने का काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मेवा-मिसरी इच्छानुकूल मिलनी चाहिए । रोटी, दाल, चावल तो मजदूरों का भोजन है। सांझ-सबेरे वायु-सेवन करना चाहिए । कभी-कभी थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिए । पर यहां इनमें से कोई भी सुख नहीं यही होगा कि सूखते-सूखते एक दिन जान से चला जाऊँगी।
गुलाबी : ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुंह से निकालते हो ? मेरे जान में तो कुछ फेर-फार है। इस चुड़ैल ने तुम्हें कुछ कर-करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरब की न है। वहां की सब लड़कियां टोनिहारी होती हैं।
भृगु : कौन जाने यही बात हो, कंचनसिंह के कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो, रात को आने लगता हूँ तो फाटक पर मौलसरी के पेड़ के नीचे किसी को खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर कांपने लगता है। किसी तरह चित्त को ढाढ़स देता हुआ चला आता हूँ। लोग कहते हैं, पहले वहां किसी की कबर थी।
गुलाबी : मैं स्वामीजी के पास से यह जंतर लायी हूँ। इसे गले में बांध लो, शंका मिट जाएगी। और कल से अपने लिए पाव-भर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीर से कहा है। उसके लड़के को पढ़ा दिया करो, वह तुम्हें दूध दे देगा।
भृगु : जंतर लाओ मैं बांध लूं, पर खूबा के लड़के को मैं न पढ़ा सकूंगा। लिखने-पढ़ने का काम करते-करते सारे दिन यों ही थक जाता हूँ। मैं जब तक कंचनसिंह के यहां रहूँगा, मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दुकान खुलवा दो।
गुलाबी : बेटा, दुकान के लिए तो पूंजी चाहिए । इस घड़ी तो यह तावीज बांध लो।फिर मैं और कोई जतन करूंगी। देखो, देवीजी ने खाना बना लिया ? आज मालकिन ने रात को वहीं रहने को कहा है।
भृगु जाता है और चम्पा से पूछकर आता है गुलाबी चौके में जाती है।
गुलाबी : पीढ़ा तक नहीं रखा, लोटे का पानी तक नहीं रखा । अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथ से आसन डालूं तब खाना खाऊँ । क्यों इतने घमंड के मारे मरी जाती हो, महारानी ? थोड़ा इतराओ, इतना आकाश पर दिया न जलाओ।
चम्पा थाली लाकर गुलाबी के सामने रख देती है। वह एक कौर उठाती है और क्रोध से थाली चम्पा के सिर पर पटक देती है।
भृगु : क्या है, अम्मां ?
गुलाबी : है क्या, यह डाकून मुझे विष देने पर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है ? मार नमक भर दिया । भगवान् न जाने कब इसकी मिट्टी इस घर से उठाएंगी। मर गए इसके बाप-चचा। अब कोई झांकता तक नहीं जब तक ब्याह न हुआ था।, द्वार की मिट्टी खोदे डालते थे।इतने दिन इस अभागिनी को रसोई बनाते हो गए, कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेट भर भोजन किया हो, यह मेरे पीछे पड़ी हुई है?
भृगु : अम्मां, देखो सिर लोहूलुहान हो गया । जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदन में छाले पड़ गए। ऐसा भी कोई क्रोध करता है।
गुलाबी : (मुंह चिढ़ाकर) हां-हां, देख, मरहम-पट्टी कर। दौड़ डाक्टर को बुला ला, नहीं कहीं मर न जाए। अभी लौंडा है, त्रिया-चरित्र देखा कर । मैंने उधर पीठ फेरी, इधर ठहाके की हंसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़ाने से तो इसका मिजाज इतना बढ़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दाल में क्यों इतना नमक झोंक दिया, उल्टे और घाव पर मरहम रखने चला है। (झमककर चली जाती है।)
चम्पा : मुझे मेरे घर पहुंचा दो।
भृगु : सारा सिर लोहूलुहान हो गया । इसके पास रूपये हैं, उसी का इसे घमंड है। किसी तरह रूपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।
चम्पा : तब तक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।
भृगु : सबर का फल मीठा होता है।
चम्पा : इस घर में अब मेरा निबाह न होगी। इस बुढ़िया को देखकर आंखों में खून उतर आता है।
भृगु : अबकी एक गहरी रकम हाथ लगने वाली है। एक ठाकुर ने कानों की बाली हमारे यहां गिरों रखी थी। वादे के दिन टल गयेब ठाकुर का कहीं पता नहीं । पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या ! मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पांच रूपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूं । ठाकुर लौटेगा तो देखा जाएगी। पचास रूपये से कम का माल नहीं है।
चम्पा : सच !
भृगु : हां अभी तौले आता हूँ। पूरे दो तोले है।
चम्पा : तो कब ला दोगे ?
भृगु : कल लो। वह तो अपने हाथ का खेल है। आज दाल में नमक क्यों ज्यादा हुआ ?
चम्पा : सुबह कहने लगीं, खाने में नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थाली में उसपर से डाल दिया कि खाओ खूब जी भर के । वह एक-न -एक खुचड़ निकालती हैं तो मैं तो उन्हें जलाया करती हूँ।
भृगु : अच्छा, अब मुझे भी भूख लगी है, चलो।
चम्पा : (आप-ही-आप) सिर में जरा-सी चोट लगी तो क्या, कानों की बालियां तो मिल गयीं ? इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिर पर दिन-भर थालियां पटका करे।
प्रस्थान।
अंक-4
पहला दृश्य
स्थान: मधुबन। थानेदार, इंस्पेक्टर और कई सिपाहियों का प्रवेश।
इंस्पेक्टर : एक हजार की रकम एक चीज होती है।
थानेदार : बेशक !
इंस्पेक्टर : और करना कुछ नहीं दो-चार शहादतें बनाकर खाना तलाशी कर लेनी है।
थानेदार : गांव वाले तो सबलसिंह ही के खिलाफ होंगे।
इंस्पेक्टर : आजकल बड़े-से-बड़े आदमी को जब चाहें गांस लें। कोई कितना ही मुआफिज हो, अफसरों के यहां उसकी कितनी ही रसाई हो, इतना कह दीजिए कि हुजूर, यह तो सुराज का हामी है, बस सारे हुक्काम उसके जानी दुश्मन हो जाते हैं। फिर वह गरी। अपनी कितनी ही सगाई दिया करे, अपनी वफादारी के कितने ही सबूत पेश करता फिरे, कोई उसकी नहीं सुनता। सबलसिंह की इज्जत हुक्काम की नजरों में कम नहीं थी। उनके साथ दावतें खाते थे, घुड़दौड़ में शरीक होते थे, हर एक जलसे में शरीक किए जाते थे, पर मेरे एक फिकरे ने हजरत का सारा रंग फीका कर दिया । साहब ने फौरन हुक्म दिया कि जाकर उसकी तलाशी लो और कोई सबूत दस्तया। हो तो गिरफ्तारी का वारंट ले जाओ !
थानेदार : आपने क्या फिकरा जमाया था। ?
इंस्पेक्टर : अजी कुछ नहीं, महज इतना कहा था। कि आजकल यहां सुराज की बड़ी धूम है। ठाकुर सबलसिंह पंचायतें कायम कर रहे हैं। इतना सुनना था। कि साहब का चेहरा सुर्ख हो गया। बोले: दगाबाज आदमी है। मिलकर वार करना चाहता है, फौरन उसके खिलाफ सबूत पैदा करो। इसके कब्ल मैंने कहा था।, हुजूर, यह बड़ा जिनाकार आदमी है, अपने एक असामी की औरत को निकाल लाया है। इस पर सिर्फ मुस्कराए, तीवरों पर जरा भी मैल नहीं आयी। तब मैंने यह चाल चली। यह लो, गांव के मुखिया आ गए, जरा रोब जमा दूं।
मंगई, हरदास, फत्तू आदि का प्रवेश। सलोनी भी पीछे-पीछे आती है और अलग खड़ी हो जाती है।
इंस्पेक्टर : आइए शेख जी, कहिए खैरियत तो है ?
फत्तू : (मन में) सबलसिंह के नेक और दयावान होने में कोई संदेह नहीं कभी हमारे उसपर सख्ती नहीं की। हमेशा रिआयत ही करते रहे, पर आंख का लगना बुरा होता है। पुलिस वाले न जाने उन्हें किस-किस तरह सताएंगी। कहीं जेहल न भिजवा देंब राजेश्वरी को वह जबरदस्ती थोड़े ही ले गए। वह तो अपने मन से गई। मैंने चेतनदास बाबा को नाहक इस बुरे काम में मदद दी। किसी तरह सबलसिंह को बचाना चाहिए । (प्रकट) सब अल्लाह का करम है।
इंस्पेक्टर : तुम्हारे जमींदार साहब तो खूब रंग लाये। कहां तो वह पारसाई और कहां यह हरकत।
फत्तू : हुजूर, हमको तो कुछ मालूम नहीं।
इंस्पेक्टर : तुम्हारे बचाने से अब वह नहीं बच सकते। अब तो आ गए शेर के पंजे में। अपना बयान दीजिए। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की ?
फत्तू : हुजूर, गांव के लोगों ने मिलकर कायम की, जिसमें छोटी-छोटी बातों के पीछे अदालत की ठोकरें न खानी पड़ें।
इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने यह कहा कि अदालतों में जाना गुनाह है ?
फत्तू : हुजूर, उन्होंने ऐसी बात तो नहीं कही, हां पंचायत के फायदे बताये थे।
इंस्पेक्टर : उन्होंने तुम लोगों को बेगार बंद करने की ताकीद नहीं की ? सच बोलना, खुदा तुम्हारे सामने है।
फत्तू : (बगलें झांकते हुए) हुजूर, उन्होंने यह तो नहीं कहा । हां, यह जरूर कहा कि जो चीज दो उसका मुनासिब दाम लो।
इंस्पेक्टर : वह एक ही बात हुई अच्छा, उस गांव में शराब की दुकान थी वह किसने बंद करायी ?
फत्तू : हुजूर, ठीकेदार ने आप ही बंद कर दी, उसकी बिक्री न होती थी।
इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने सबसे यह नहीं कहा कि जो उस दुकान पर जाये उसे पंचायत में सजा मिलनी चाहिए ।
फत्तू : (मन में) इसको जरा-जरा-सी बातों की खबर है। (प्रकट) हुजूर, मुझे याद नहीं।
इंस्पेक्टर : शेखजी, तुम कन्नी काट रहे हो, इसका नतीजा अच्छा नहीं है। दारोगा जी ने तुम्हारा जो बयान लिखा है उस पर चुपके से दस्तखत कर दो, वरना जमींदार तो न बचेंगे, तुम अलबत्ता गेहूँ के साथ घुन की तरह पिस जाओगे।
फत्तू : हुजूर का अखतियार है, जो चाहें करें, पर मैं तो वही कहूँगा जो जानता हूँ।
इंस्पेक्टर : तुम्हारा क्या नाम है ?
मंगई : (सामने आकर) मंगई।
इंस्पेक्टर : जो पूछा जाये उसका साफ-साफ जवाब देना । इधर-उधर किया तो तुम जानोगे। पुलिस का मारा पानी नहीं मांगता। यहां गांव में पंचायत किसने कायम की ?
मंगई : (मन में) मैं तो जो यह चाहेंगे वही कहूँगा। पीछे देखी जाएगी। गालियां देने लगें या पिटवाने ही लगें तो इनका क्या बना लूंगा? सबलसिंह तो मुझे बचा न देंगे। (प्रकट) ठाकुर सबलसिंह ने।
इंस्पेक्टर : उन्होंने तुम लोगों से कहा था न कि सरकारी अदालत में जाना पाप है। जो सरकारी अदालत में जाये उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।
मंगई : (मन में) यह तो नहीं कहा था। खाली अदालतों के खर्च से बचने के लिए पंचायत खोलने की ताकीद की थी। पर ऐसा कह दूं तो अभी यह जामे से बाहर हो जाए। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था, बात सच्ची कहूँगा। जमींदार आकबत में थोड़े ही साथ देंगे।
इंस्पेक्टर : सबलसिंह ने यह नहीं कहा था कि किसी हाकिम को बेगार मत दो ?
मंगई : (मन में) उन्होंने तो इतना ही कहा था कि मुनासिब दाम लेकर दो। (प्रकट) हां हुजूर, कहा था, कहा था।सच्ची बात कहने में क्या डर ?
इंस्पेक्टर : शराब और गांजे की दुकान तोड़वाने की तहरीर उनकी तरफ से हुई थी न ?
मंगई : बराबर हुई थी। जो शराब गांजा पिए उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता था।
इंस्पेक्टर : अच्छा, अपने बयान पर अंगूठे का निशान दो। तुम्हारा क्या नाम है जी ? इधर आओ।
हरदास : (सामने आकर) हरदास।
इंस्पेक्टर : सच्चा बयान देना जैसा मंगई ने दिया है, वरना तुम जानोगे।
हरदास : (मन में) सबलसिंह तो अब बचते नहीं, मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं ? यह जो कुछ कहलाना चाहते हैं मैं उससे चार बात ज्यादा ही कहूँगा। यह हाकिम हैं, खुश होकर मुखिया बना दें तो साल में सौ-दो सौ रूपये अनायास ही हाथ लगते रहैं। (प्रकट) हुजूर, जो कुछ जानता हूँ वह रत्ती-रत्ती कह दूंगा।
इंस्पेक्टर : तुम समझदार आदमी मालूम होते हो, अपना नफा-नुकसान समझते हो, यहां पंचायत के बारे में क्या जानते हो ?
हरदास : हुजूर, ठाकुर सबलसिंह ने खुलवायी थी। रोज यही कहा करें कि कोई आदमी सरकारी अदालत में न जाये। सरकार के इसटाम क्यों खरीदो। अपने झगड़े आप चुका लो।फिर न तुम्हें पुलिस का डर रहेगा न सरकार का। एक तरह से तुम अदालतों को छोड़ देने से ही सुराज पा जाओगे। यह भी हुक्म दिया था। कि जो आदमी अदालत जाये उसका हुक्का-पानी बंद कर देना चाहिए ।
इंस्पेक्टर : बयान ऐसा होना चाहिए । अच्छा, सबलसिंह ने बेगार के बारे में तुमसे क्या कहा था। ?
हरदास : हुजूर, वह तो खुल्लमखुल्ला कहते थे कि किसी को बेगार मत दो, चाहे बादशाह ही क्यों न हो, अगर कोई जबरदस्ती करे तो अपना और उसका खून एक कर दो।
इंस्पेक्टर : ठीक है। शराब गांजे की दुकान कैसे बंद हुई ?
हरदास : हुजूर, बंद न होती तो क्या करती, कोई वहां खड़ा नहीं होने पाता था।ठाकुर साहब ने हुक्म दे दिया था। कि जिसे वहां खड़े, बैठे, या खरीदते पाओ उसके मुंह में कालिख लगाकर सिर पर सौ जूते लगाओ।
इंस्पेक्टर : बहुत अच्छा। अंगूठे का निशान कर दो। हम तुमसे बहुत खुश हुए।
सलोनी गाती है:
सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का
इंस्पेक्टर : यह पगली क्या गा रही है ? अरी पगली इधर आ।
सलोनी : (सामने आकर) सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का ?
इंस्पेक्टर : दारोगा जी, इसका बयान भी लिख लीजिए।
सलोनी : हां, लिख लो।ठाकुर सबलसिंह मेरी बहू को घर से भगा ले गए और पोते को जेहल भिजवा दिया ।
इंस्पेक्टर : यह फजूल बातें मैं नहीं पूछता। बता यहां उन्होंने पंचायत खोली है न ?
सलोनी : यह फजूल बातें मैं क्या जानूं ? मुझे पंचायत से क्या लेना-देना है। जहां चार आदमी रहते हैं वहां पंचायत रहती ही है। सनातन से चली आती है, कोई नयी बात है ? इन बातों से पुलिस से क्या मतलब ? तुम्हें तो देखना चाहिए, सरकार के राज में भले आदमियों की आबरू रहती है कि लुटती है। सो तो नहीं, पंचायत और बेगार का रोना ले बैठे। बेगार बंद करने को सभी कहते हैं। गांव के लोगों को आप ही अखरता है। सबलसिंह ने कह दिया तो क्या अंधेर हो गया। शराब, ताड़ी, गांजा, भांग पीने को सभी मना करते हैं। पुरान, भागवत, साधु-संत सभी इसको निखिद्व कहते हैं। सबलसिंह ने कहा- ' तो क्या नयी बात कही ? जो तुम्हारा काम है वह करो, ऊटपटांग बातों में क्यों पड़ते हो ?
इंस्पेक्टर : बुढ़िया शैतान की खाला मालूम होती है।
थानेदार : तो इन गवाहों को अब जाने दूं ?
इंस्पेक्टर : जी नहीं, अभी रिहर्सल तो बाकी है। देखो जी, तुमने मेरे रू-ब-रू जो बयान दिया है वही तुम्हें बड़े साहब के इजलास पर देना होगी। ऐसा न हो, कोई कुछ कहे, कोई कुछ, मुकदमा भी बिगड़ जाये और तुम लोग भी गलतबयानी के इल्जाम में धर लिये जाओ। दारोगाजी शुरू कीजिए। तुम लोग सब साथ-साथ वही बातें कहो जो दारोगाजी की जबान से निकलें।
दारोगा : ठाकुर सबलसिंह कहते थे कि सरकारी अदालतों की जड़ खोद डालो, भूलकर भी वहां न जाओ। सरकार का राज अदालतों पर कायम है । अदालत को तर्क कर देने से राज की बुनियाद हिल जाएगी।
सब-के-सब यही बात दुहराते हैं।
दारोगा : अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।
सब-के-सब : अपने मुआमले पंचायतों में तै कर लो।
दारोगा : उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।
सब-के-सब : उन्होंने हुक्म दिया था। कि किसी अफसर को बेगार मत दो।
दारोगा : बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। तुम लोग जो चाहना, करना। यह सुराज की दूसरी सीढ़ी है।
सब-के-सब : बेगार न मिलेगी तो कोई दौरा करने न आएगी। यह सुराज की दूसरी सीढ़ी है।
दारोगा : यह और कहो, तुम लोग जो जी चाहे करना।
इंस्पेक्टर : यही जुमला तो जान है।
सब-के-सब : तुम लोग जो जी चाहे करना।
दारोगा : उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।
सब-के-सब : उन्होंने हुक्म दिया था। कि जो नशे की चीजें खरीदे उसका हुक्का-पानी बंद कर दो।
दारोगा : अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।
सब-के-सब : अगर इतने पर भी न माने तो उसके घर में आग लगा दो।
दारोगा : उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ
सब-के-सब : उसके मुंह में कालिख लगाकर सौ जूते लगाओ
दारोगा : जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव-भर में घुमाओ।
सब-के-सब : जो आदमी विलायती कपड़े खरीदे उसे गधे पर सवार कराके गांव-भर में घुमाओ।
दारोगा : जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ
सब-के-सब : जो पंचायत का हुक्म न माने उसे उल्टे लटकाकर पचास बेंत लगाओ।
दारोगा : (इंस्पेक्टर से) इतना तो काफी होगा।
इंस्पेक्टर : इतना उन्हें जहन्नुम भेजने के लिए काफी है। तुम लोग देखो, खबरदार, इसमें एक हर्फ का भी उलटफेर न हो, अच्छा अब चलना चाहिए । (कानिसटिब्लों से) देखो, बकरे हों तो दो पकड़ लो।
सिपाही : बहुत अच्छा हुजूर, दो नहीं चार।
दारोगा : एक पांच सेर घी भी लेते चलो।
सिपाही : अभी लीजिए, सरकार!
दारोगा और इंस्पेक्टर का प्रस्थान। सलोनी गाती है।
सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।
अब तो मैं पहनूं अतलस का लहंगा
और चबाऊँ पान।
द्वारे बैठ नजारा मारूं।
सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का।
फत्तू : काकी, गाती ही रहेगी ?
सलोनी : जा तुझसे नहीं बोलती। तू भी डर गया।
फत्तू : काकी, इन सभी से कौन लड़ता ? इजलास पर जाकर जो सच्ची बात है, वह कह दूंगा।
मंगई : पुलिस के सामने जमींदार कोई चीज नहीं ।
हरदास : पुलिस के सामने सरकार कोई चीज नहीं ।
सलोनी : सच्चाई के सामने जमींदार-सरकार कोई चीज नहीं ।
मंगई : सच बोलने में निबाह नहीं है।
हरदास : सच्चे की गर्दन सभी जगह मारी जाती है।
सलोनी : अपना धर्म तो नहीं बिगड़ता। तुम कायर हो, तुम्हारा मुंह देखना पाप है। मेरे सामने से हट जाओ।
प्रस्थान।
दूसरा दृश्य
स्थान: सबलसिंह का कमरा।
समय: दस बजे दिन।
सबल : (घड़ी की तरफ देखकर) दस बज गए। हलधर ने अपना काम पूरा कर लिया। वह नौ बजे तक गंगा से लौट आते थे।कभी इतनी देर न होती थी। अब राजेश्वरी फिर मेरी हुई चाहे ओढूं, बिछाऊँ या गले का हार बनाऊँ। प्रेम के हाथों यह दिन देखने की नौबत आएगी, इसकी मुझे जरा भी शंका न थी। भाई की हत्या की कल्पना मात्र से ही रोयें खड़े हो जाते हैं। इस कुल का सर्वनाश होने वाला है। कुछ ऐसे ही लक्षण दिखाई देते हैं। कितना उदार, कितना सच्चा ! मुझसे कितना प्रेम, कितनी श्रद्वा थी। पर हो ही क्या सकता था। ? एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती थीं ? संसार में प्रेम ही वह वस्तु है, जिसके हिस्से नहीं हो सकते। यह अनौचित्य की पराकाष्ठा थी कि मेरा छोटा भाई, जिसे मैंने सदैव अपना पुत्र समझा, मेरे साथ यह पैशाचिक व्यवहार करे। कोई देचता भी यह अमर्यादा नहीं कर सकता था।यह घोर अपमान ! इसका परिणाम और क्या होता ? यही आपत्ति-धर्म था।इसके लिए पछताना व्यर्थ है (एक क्षण के बाद) जी नहीं मानता, वही बातें याद आती हैं। मैंने कंचन की हत्या क्यों कराई ? मुझे स्वयं अपने प्राण देने चाहिए थे।मैं तो दुनिया का सुख भोग चुका था। ! स्त्री-पुत्र सबका सुख पा चुका था।उसे तो अभी दुनिया की हवा तक न लगी थी। उपासना और आराधना ही उसका एकमात्र जीवनाधार थी। मैंने बड़ा अत्याचार किया।
अचलसिंह का प्रवेश।
अचल : बाबूजी, अब तक चाचाजी गंगास्नान करके नहीं आये ?
सबल : हां, देर तो हुई अब तक तो आ जाते थे।
अचल : किसी को भेजिए, जाकर देख आए।
सबल : किसी से मिलने चले गए होंगे।
अचल : मुझे तो जाने क्यों डर लग रहा है । आजकल गंगाजी बढ़ रही हैं।
सबलसिंह कुछ जवाब नहीं देते।
अचल : वह तैरने दूर निकल जाते थे।
सबल चुप रहते हैं।
अचल : आज जब वह नहाने जाते थे तो न जाने क्यों मुझे देखकर उनकी आंखें भर गयी थीं।मुझे प्यार करके कहा था।, ईश्वर तुम्हें चिरंजीवी करे। इस तरह तो कभी आशीष नहीं देते थे।
सबल रो पड़ते हैं और वहां से उठकर बाहर बरामदे में चले जाते हैं। अचल कंचनसिंह के कमरे की ओर जाता है।
सबल : (मन में) अब पछताने से क्या फायदा ? जो कुछ होना था।, हो चुका । मालूम हो गया कि काम के आवेग में बुद्वि, विद्या, विवेक सब साथ छोड़ देते हैं। यही भावी थी, यही होनहार था।, यही विधाता की इच्छा थी। राजेश्वरी, तुझे ईश्वर ने क्यों इतनी रूप-गुणशीला बनाया ? पहले पहले जब मैंने तुझसे बात की थी, तूने मेरा तिरस्कार क्यों न किया, मुझे कटु शब्द क्यों न सुनाये ? मुझे कुत्ते की भांति दुत्कार क्यों न दिया ? मैं अपने को बड़ा सत्यवादी समझा करता था।पर पहले ही झोंके में उखड़ गया, जड़ से उखड़ गया। मुलम्मे को मैं असली रंग समझ रहा था।पहली ही आंच में मुलम्मा उड़ गया। अपनी जान बचाने के लिए मैंने कितनी घोर धूर्तता से काम लिया। मेरी लज्जा, मेरा आत्माभिमान, सबकी क्षति हो गयी ! ईश्वर करे, हलधर अपना वार न कर सका हो और मैं कंचन को जीता जागता आते देखूं। मैं राजेश्वरी से सदैव के लिए नाता तोड़ लूंगा। उसका मुंह तक न देखूंगा। दिल पर जो कुछ बीतेगी झेल लूंगा।
अधीर होकर बरामदे में निकल आते हैं और रास्ते की ओर टकटकी लगाकर देखते हैं। (ज्ञानी का प्रवेश)
ज्ञानी : अभी बाबूजी नहीं आये। ग्यारह बज गए। भोजन ठंडा हो रहा है। कुछ कह नहीं गए, कब तक आयेंगे ?
सबल : (कमरे में आकर) मुझसे तो कुछ नहीं कहा ।
ज्ञानी : तो आप चलकर भोजन कर लीजिए।
सबल : उन्हें भी आ जाने दो। तब तक तुम लोग भोजन करो।
ज्ञानी : हरज ही क्या है, आप चलकर खा लें। उनका भोजन अलग रखवा दूंगी। दोपहर तो हुआ।
सबल : (मन में) आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने घर पर अकेले भोजन किया हो, ऐसे भोजन करने पर धिक्कार है। भाई का वध करके मैं भोजन करने जाऊँ और स्वादिष्ट पदार्थों का आनंद उठाऊँ। ऐसे भोजन करने पर लानत है। (प्रकट) अकेले मुझसे भोजन न किया जायेगी।
ज्ञानी : तो किसी को गंगाजी भेज दो। पता लगाये कि क्या बात है। कहां चले गए ? मुझे तो याद नहीं आता कि उन्होंने कभी इतनी देर लगायी हो, जरा जाकर उनके कमरे में देखूं, मामूली कपड़े पहनकर गए हैं या अचकन-पजामा भी पहना है।
जाती है और एक क्षण में लौट आती है।
ज्ञानी : कपड़े तो साधारण ही पहनकर गए हैं, पर कमरा न जाने क्यों भांय-भांय कर रहा है, वहां खड़े होते एक भय-सा लगता था।ऐसी शंका होती है कि वह अपनी मसनद पर बैठे हुए हैं, पर दिखाई नहीं देते। न जाने क्यों मेरे तो रोयें खड़े हो गए और रोना आ गया। किसी को भेजकर पता लगवाइए।
सबल दोनों हाथों से मुंह छिपाकर रोने लगता है।
ज्ञानी : हाय, यह आप क्या करते हैं ! इस तरह जी छोटा न कीजियेब वह अबोध बालक थोड़े ही हैं। आते ही होंगे ।
सबल : (रोते हुए) आह, ज्ञानी ! अब वह घर न आयेंगी। अब हम उनका मुंह फिर न देखेंगी।
ज्ञानी : किसी ने कोई बुरी खबर कही है क्या ? (सिसकियां लेती है।)
सबल : (मन में) अब मन में बात नहीं रह सकती। किसी तरह नहीं वह आप ही बाहर निकली पड़ती है। ज्ञानी से मुझे इतना प्रेम कभी न हुआ था।मेरा मन उसकी ओर खिंचा जाता है। (प्रकट) जो कुछ किया है मैंने ही किया है। मैं ही विष की गांठ हूँ। मैंने ईर्ष्या के वश होकर यह अनर्थ किया है। ज्ञानी, मैं पापी हूँ, राक्षस हूँ, मेरे हाथ अपने भाई के खून से रंगे हुए हैं, मेरे सिर पर भाई का खून सवार है। मेरी आत्मा की जगह अब केवल कालिमा की रेखा है ! ह्रदय के स्थान पर केवल पैशाचिक निर्दयता। मैंने तुम्हारे साथ दगा की है। तुम और सारा संसार मुझे एक विचारशील, उदार, पुण्यात्मा पुरूष समझते थे, पर मैं महान् पानी, नराधम, धूर्त हूँ। मैंने अपने असली स्वरूप को सदैव तुमसे छिपाया । देवता के रूप में मैं राक्षस था।मैं तुम्हारा पति बनने योग्य न था। मैंने एक पति-परायणा स्त्री को कपट चालों से निकाला, उसे लाकर शहर में रखा। कंचनसिंह को भी मैंने वहां दो-तीन बार बैठे देखा । बस, उसी क्षण से मैं ईर्ष्या की आग में जलने लगा और अंत में मैंने एक हत्यारे के हाथों(रोकर) भैया को कैसे पाऊँ ? ज्ञानी, इन तिरस्कार के नेत्रों से न देखो। मैं ईश्वर से कहता हूँ, तुम कल मेरा मुंह न देखोगी। मैं अपनी आत्मा को कलुषित करने के लिए अब और नहीं जीना चाहता। मैं अपने पापों का प्रायश्चित एक ही दिन में समाप्त कर दूंगा। मैंने तुम्हारे साथ दगा की, क्षमा करना।
ज्ञानी : (मन में) भगवन्! पुरूष इतने ईर्ष्यालु, इतने विश्वासघाती, इतने क्रूर, वज्र-ह्रदय होते हैं! अगर मैंने स्वामी चेतनदास की बात पर विश्वास किया होता तो यह नौबत न आने पाती। पर मैंने तो उनकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया । यह उसी अश्रद्वा का दण्ड है। (प्रकट) मैं आपको इससे ज्यादा विचारशील समझती थी। किसी दूसरे के मुंह से ये बातें सुनकर मैं कभी विश्वास न करती।
सबल : ज्ञानी, मुझे सच्चे दिल से क्षमा करो। मैं स्वयं इतना दु: खी हूँ कि उस पर एक जौ का बोझ भी मेरी कमर तोड़ देगी। मेरी बुद्वि इस समय भ्रष्ट हो गई है। न जाने क्या कर बैठूंब मैं आपे में नहीं हूँ। तरह-तरह के आवेग मन में उठते हैं। मुझमें उनको दबाने की सामर्थ्य नहीं है। कंचन के नाम से एक धर्मशाला और ठाकुरद्वारा अवश्य बनवाना। मैं तुमसे यह अनुरोध करता हूँ, यह मेरी अंतिम प्रार्थना है। विधाता की यह वीभत्स लीला, यह पैशाचिक तांडव जल्द समाप्त होने वाला है। कंचन की यही जीवन-लालसा थी। इन्हीं लालसाओं पर उसने जीवन के सब आनंदों, सभी पार्थिव सुखों को अर्पण कर दिया था।अपनी लालसाओं को पूरा होते देखकर उसकी आत्मा प्रसन्न होगी और इस कुटिल निर्दय आघात को क्षमा कर देगी।
अचलसिंह का प्रवेश।
ज्ञानी : (आंखें पोंछकर) बेटा, क्या अभी तुमने भी भोजन नहीं किया?
अचल : अभी चाचाजी तो आए ही नहीं आज उनके कमरे में जाते हुए न जाने क्यों भय लगता है। ऐसा मालूम होता है कि वह कहीं छिपे बैठे हैं और दिखाई नहीं देते। उनकी छाया कमरे में छिपी हुई जान पड़ती है।
सबल : (मन में) इसे देखकर चित्त कातर हो रहा है। इसे फलते-फूलते देखना मेरे जीवन की सबसे बड़ी लालसा थी। कैसा चतुर, सुशील, हंसमुख लड़का है। चेहरे से प्रतिभा टपक पड़ती है। मन में क्या-क्या इरादे थे। इसे जर्मनी भेजना चाहता था।संसार-यात्रा कराके इसकी शिक्षा को समाप्त करना चाहता था।इसकी शक्तियों का पूरा विकास करना चाहता था।, पर सारी आशाएं धूल में मिल गई।(अचल को गोद में लेकर) बेटा, तुम जाकर भोजन कर लो, मैं तुम्हारे चाचाजी को देखने जाता हूँ।
अचल : आप लोग आ जाएंगे तो साथ ही मैं भी खाऊँगी। अभी भूख नहीं है।
सबल : और जो मैं शाम तक न आऊँ ?
अचल : आधी रात तक आपकी राह देखकर तब खा लूंगा, मगर आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं ?
सबल : कुछ नहीं, यों ही। अच्छा बताओ, मैं आज मर जाऊँ तो तुम क्या करोगे ?
ज्ञानी : कैसे असगुन मुंह से निकालते हो!
अचल : (सबलसिंह की गर्दन में हाथ डालकर) आप तो अभी जवान हैं, स्वस्थ हैं, ऐसी बातें क्यों सोचते हैं ?
सबल : कुछ नहीं, तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ।
अचल : (सबल की गोद में सिर रखकर) नहीं, कोई और ही कारण है। (रोकर) बाबूजी, मुझसे छिपाइए न, बताइए। आप क्यों इतने उदास हैं, अम्मां क्यों रो रही हैं ? मुझे भय लग रहा है। जिधर देखता हूँ उधर ही बेरौनकी-सी मालूम होती है, जैसे पिंजरे में से चिड़िया उड़ गई हो,
कई सिपाही और चौकीदार बंदूकें और लाठियां लिए हाते में घुस आते हैं, और थानेदार तथा। इंस्पेक्टर और सुपरिंटेंडेंट घोड़ों से उतरकर बरामदे में खड़े हो जाते हैं। ज्ञानी भीतर चली जाती है। और सबल बाहर निकल आते हैं।
इंस्पेक्टर : ठाकुर साहब, आपकी खानातलाशी होगी। यह वारंट है।
सबल : शौक से लीजिए।
सुपरिंटेंडेंट : हम तुम्हारा रियासत छीन लेगी। हम तुमको रियासत दिया है, तब तुम इतना बड़ा आदमी बना है और मोटर में बैठा घूमता है। तुम हमारा बनाया हुआ है। हम तुमको अपने काम के लिए रियासत दिया है और तुम सरकार से दुश्मनी करता है। तुम दोस्त बनकर तलवार मारना चाहता है। दगाबाज है। हमारे साथ पोलो खेलता है, क्लब में बैठता है, दावत खाता है और हमीं से दुश्मनी रखता है। यह रियासत तुमको किसने दिया ?
सबल : (सरोष होकर) मुगल बादशाहों ने। हमारे खानदान में पच्चीस पुश्तों से यह रियासत चली आती है।
सुपरिंटेंडेंट : झूठ बोलता है। मुगल लोग जिसको चाहता था। जागीर देता था।, जिससे नाराज हो जाता था। उससे जागीर छीन लेता था।जागीरदार मौरूसी नहीं होता था।तुम्हारा बुजुर्ग लोग मुगल बादशाहों से ऐसा बदखाही करता जैसा तुम हमारे साथ कर रहा है, तो जागीर छिन गया होता। हम तुमको असामियों से लगान वसूल करने के लिए कमीसन देता है और तुम हमारा जड़ खोदना चाहता है। गांव में पंचायत बनाता है, लोगों को ताड़ी-शराब पीने से रोकता है, हमारा रसद-बेगार बंद करता है। हमारा गुलाम होकर हमको आंखें दिखाता है। जिस बर्तन में पानी पीता है उसी में छेद करता है। सरकार चाहे तो एक घड़ी में तुमको मिट्टी में मिला दे सकता है। (दोनों हाथ से चुटकी बजाता है।)
सबल : आप जो काम करने आए हैं वह काम कीजिए और अपनी राह लीजिए। मैं आपसे सिविक्स और पालिटिक्स के लेक्चर नहीं सुनना चाहता।
सुपरिंटेंडेंट : हम न रहें तो तुम एक दिन भी अपनी रियासत पर काबू नहीं पा सकता।
सबल : मैं आपसे डिसकशन (बहस) नहीं करना चाहता। पर यह समझ रखिए कि अगर मान लिया जाय, सरकार ने ही हमको बनाया तो उसने अपनी रक्षा और स्वार्थ-सिद्वि के ही लिए यह पालिसी कायम की। जमींदारों की बदौलत सरकार का राज कायम है। जब-जब सरकार पर कोई संकट पड़ा है, जमींदारों ने ही उसकी मदद की है। अगर आपका खयाल है कि जमींदारों को मिटाकर आप राज्य कर सकते हैं तो भूल है। आपकी हस्ती जमींदारों पर निर्भर है।
सुपरिंटेंडेंट : हमने अभी किसानों के हमले से तुमको बचाया, नहीं तो तुम्हारा निशान भी न रहता।
सबल : मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता।
सुपरिंटेंडेंट : हम तुमसे चाहता है कि जब रैयत के दिल में बदखाही पैदा हो तो तुम हमारा मदद करे। सरकार से पहले वही लोग बदखाही करेगा जिसके पास जायदाद नहीं है, जिसका सरकार से कोई कनेक्शन (संबंध) नहीं है। हम ऐसे आदमियों का तोड़ करने के लिए ऐसे लोगों को मजबूत करना चाहता है जो जायदाद वाला है और जिसका हस्ती सरकार पर है। हम तुमसे रैयत को दबाने का काम लेना चाहता है।
सबल : और लोग आपको इस काम में मदद दे सकते हैं, मैं नहीं दे सकता। मैं रैयत का मित्र बनकर रहना चाहता हूँ, शत्रु बनकर नहीं अगर रैयत को गुलामी में जकड़े और अंधकार में डाले रखने के लिए जमींदारों की सृष्टि की गई है तो मैं इस अत्याचार का पुरस्कार न लूंगा चाहे वह रियासत ही क्यों न हो, मैं अपने देश-बंधुओं के मानसिक और आत्मिक विकास का इच्छुक हूँ। दूसरों को मूर्ख और अशक्त रखकर अपना ऐश्वर्य नहीं चाहता।
सुपरिंटेंडेंट : तुम सरकार से बगावत करता है।
सबल : अगर इसे बगावत कहा जाता है तो मैं बागी ही हूँ।
सुपरिंटेंडेंट : हां, यही बगावत है। देहातों में पंचायत खोलना बगावत है, लोगों को शराब पीने से रोकना बगावत है, लोगों को अदालतों में जाने से रोकना बगावत है। सरकारी आदमियों का रसद बेगार बंद करना बगावत है।
सबल : तो फिर मैं बागी हूँ।
अचल : मैं भी बागी हूँ ।
सुपरिंटेंडेंट : गुस्ताख लड़का।
इंस्पेक्टर : हुजूर, कमरे में चलें, वहां मैंने बहुत-से कागजात जमा कर रखे हैं।
सुपरिंटेंडेंट : चलो।
इंस्पेक्टर : देखिए, यह पंचायतों की फेहरिस्त है और पंचों के नाम हैं।
सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह पंचायतों पर एक मजमून है।
सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह कौम के लीडरों की तस्वीरों का अल्बम है।
सुपरिंटेंडेंट : बहुत काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह चंद किताबें हैं, मैजिनी के मजामीन, वीर हारडी का हिन्दुस्तान का सफरनामा, भक्त प्रफ्लाद का वृतान्त, टारुल्स्टाय की कहा - 'नियांब
सुपरिंटेंडेंट : सब बड़े काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह मिसमेरिजिम की किता। है।
सुपरिंटेंडेंट : ओह, यह बड़े काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह दवाइयों का बक्स है।
सुपरिंटेंडेंट : देहातियों को बस में करने के लिए ! यह भी बहुत काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह मैजिक लालटेन है।
सुपरिंटेंडेंट : बहुत ही काम का चीज है।
इंस्पेक्टर : यह लेन-देन का बही है।
सुपरिंटेंडेंट : मोस्ट इम्पार्टेंट ! बड़े काम का चीज। इतना सबूत काफी है। अब चलना चाहिए ।
एक कानिस्टिबल : हुजूर, बगीचे में एक अखाड़ा भी है।
सुपरिंटेंडेंट : बहुत बड़ा सबूत है।
दूसरा कानिस्टिबल : हुजूर, अखाड़े के आगे एक गऊशाला भी है। कई गायें-भैंसें बंधी हुई हैं।
सुपरिंटेंडेंट : दूध पीता है जिसमें बगावत करने के लिए ताकत हो जाए। बहुत बड़ा सबूत है। वेल सबलसिंह, हम तुमको गिरफ्तारी करता है।
सबल : आपको अधिकार है।
चेतनदास का प्रवेश।
इंस्पेक्टर : आइए स्वामीजी, तशरीफ लाइए।
चेतनदास : मैं जमानत देता हूँ।
इंस्पेक्टर : आप ! यह क्योंकर!
सबल : मैं जमानत नहीं देना चाहता। मुझे गिरफ्तारी कीजिए।
चेतनदास : नहीं, मैं जमानत दे रहा हूँ।
सबल : स्वामीजी, आप दया के स्वरूप हैं, पर मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं जमानत नहीं देना चाहता।
चेतनदास : ईश्वर की इच्छा है कि मैं तुम्हारी जमानत करूं।
सुपरिंटेंडेंट : वेल इंस्पेक्टर, आपकी क्या राय है ? जमानत लेनी चाहिए या नहीं ?
इंस्पेक्टर : हुजूर, स्वामीजी बड़े मोतबर, सरकार के बड़े खैरख्वाह हैं। इनकी जमानत मंजूर कर लेने में कोई हर्ज नहीं है।
सुपरिंटेंडेंट : हम पांच हजार से कम न लेगी।
चेतनदास : मैं स्वीकार करता हूँ।
सबल : स्वामीजी, मेरे सिद्वांत भंग हो रहे हैं।
चेतनदास : ईश्वर की यही इच्छा है।
पुलिस के कर्मचारियों का प्रस्थान। ज्ञानी अंदर से निकलकर चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ती है।
चेतनदास : माई, तेरा कल्याण हो,
ज्ञानी : आपने आज मेरा उद्वार कर दिया ।
चेतनदास : सब कुछ ईश्वर करता है।
प्रस्थान।
तीसरा दृश्य
स्थान: स्वामी चेतनदास की कुटी।
समय: संध्या।
चेतनदास : (मन में) यह चाल मुझे खूब सूझी। पुलिस वाले अधिक-से-अधिक कोई अभियोग चलाते। सबलसिंह ऐसे कांटों से डरने वाला मनुष्य नहीं है। पहले मैंने समझा था। उस चाल से यहां उसका खूब अपमान होगी। पर वह अनुमान ठीक न निकला। दो घंटे पहले शहर में सबल की जितनी प्रतिष्ठा थी, अब उससे सतगुनी है। अधिकारियों की दृष्टि में चाहे वह फिर गया हो, पर नगरवासियों की दृष्टि में अब वह देव-तुल्य है। यह काम हलधर ही पूरा करेगी। मुझे उसके पीछे का रास्ता साफ करना चाहिए ।
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : महाराज, आप उस समय इतनी जल्दी चले आए कि मुझे आपसे कुछ कहने का अवसर ही न मिला। आप यदि सहाय न होते तो आज मैं कहीं की न रहती। पुलिस वाले किसी दूसरे व्यक्ति की जमानत न लेते। आपके योगबल ने उन्हें परास्त कर दिया ।
चेतनदास : माई, सब ईश्वर की महिमा है। मैं तो केवल उसका तुच्छ सेवक हूँ।
ज्ञानी : आपके सम्मुख इस समय मैं बहुत निर्लज्ज बनकर आई हूँ।
मैं अपराधिनी हूँ, मेरा अपराध क्षमा कीजिए। आपने मेरे
पतिदेव के विषय में जो बातें कहीं थीं वह एक-एक अक्षर सच निकलीं। मैंने आप पर अविश्वास किया। मुझसे यह घोर अपराध हुआ। मैं अपने पति को देव-तुल्य समझती थी।
मुझे अनुमान हुआ कि आपको किसी ने भ्रम में डाल दिया है। मैं नहीं जानती थी कि आप अंतर्यामी हैं। मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
चेतनदास : तुझे मालूम नहीं है, आज तेरे पति ने कैसा पैशाचिक काम कर डाला है। मुझे इसके पहले कहने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ।
ज्ञानी : नहीं महाराज, मुझे मालूम है। उन्होंने स्वयं मुझसे सारा वृत्तांत कह सुनाया। भगवान् यदि मैंने पहले ही आपकी चेतावनी पर ध्यान दिया होता तो आज इस हत्याकांड की नौबत न आती। यह सब मेरी अश्रद्वा का दुष्परिणाम है। मैंने आप जैसे महात्मा पुरूष का अविश्वास किया, उसी का यह दंड है। अब मेरा उद्वार आपके सिवा और कौन कर सकता है। आपकी दासी हूँ, आपकी चेरी हूँ। मेरे अवगुणों को न देखिए। अपनी विशाल दया से मेरा बेड़ा पार लगाइए।
चेतनदास : अब मेरे वश की बात नहीं मैंने तेरे कल्याण के लिए, तेरी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े अनुष्ठान किए थे।मुझे निश्चय था। कि तेरा मनोरथ सिद्व होगी। पर इस पापाभिनय ने मेरे समस्त अनुष्ठानों को विफल कर दिया । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह कुकर्म तेरे कुल का सर्वनाश कर देगी।
ज्ञानी : भगवान्, मुझे भी यही शंका हो रही है। मुझे भय है कि मेरे पतिदेव स्वयं पश्चात्ताप के आवेग में अपना प्राणांत न कर देंब उन्हें इस समय अपनी दुष्कृति पर अत्यंत ग्लानि हो रही है। आज वह बैठे-बैठे देर तक रोते रहै। इस दु:ख और निराशा की दशा में उन्होंने प्राणों का अंत कर दिया तो कुल का सर्वनाश हो जाएगी। इस सर्वनाश से मेरी रक्षा आपके सिवा और कौन कर सकता है ? आप जैसा दयालु स्वामी पाकर अब किसकी शरण जाऊँ ? ऐसा कोई यत्न कीजिए कि उनका चित्त शांत हो जाए। मैं अपने देवर का जितना आदर और प्रेम करती थी वह मेरा ह्रदय ही जानता है। मेरे पति भी अपने भाई को पुत्र के समान समझते थे।वैमनस्य का लेश भी न था।पर अब तो जो कुछ होना था।, हो चुका। उसका शोक जीवन-पर्यंत रहेगी। अब कुल की रक्षा कीजिए। मेरी आपसे यही याचना है।
चेतनदास : पाप का दण्ड ईश्वरीय नियम है। उसे कौन भंग कर सकता है?
ज्ञानी : योगीजन चाहें तो ईश्वरीय नियमों को भी झुका सकते हैं।
चेतनदास : इसका तुझे विश्वास है ?
ज्ञानी : हां, महाराज ! मुझे पूरा विश्वास है।
चेतनदास : श्रद्वा है ?
ज्ञानी : हां, महाराज, पूरी श्रद्वा है।
चेतनदास : भक्त को अपने गुरू के सामने अपना तन-मन-धन सभी समर्पण करना पड़ता है। वही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के प्राप्त करने का एकमात्र साधन है। भक्त गुरू की बातों पर, उपदेशों पर, व्यवहारों पर कोई शंका नहीं करता। वह अपने गुरू को ईश्वर-तुल्य समझता है। जैसे कोई रोगी अपने को वैद्य के हाथों में छोड़ देता है, उसी भांति भक्त भी अपने शरीर को, अपनी बुद्वि को और आत्मा को गुरू के हाथों में छोड़ देता है। तू अपना कल्याण चाहती है तो तुझे भक्तों के धर्म का पालन करना पड़ेगा।
ज्ञानी : महाराज, मैं अपना तन-मन-धन सब आपके चरणों पर समर्पित करती हूँ।
चेतनदास : शिष्य का अपने गुरू के साथ आत्मिक संबंध होता है। उसके और सभी संबंध पार्थिव होते हैं। आत्मिक संबंध के सामने पार्थिव संबंधों का कुछ भी मूल्य नहीं होता। मोक्ष के सामने सांसारिक सुखों का कुछ भी मूल्य नहीं है। मोक्षपद-प्राप्ति ही मानव-जीवन का उद्देश्य है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए प्राणी को ममत्व का त्याग करना चाहिए । पिता-माता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, शत्रु-मित्र यह सभी संबंध पार्थिव हैं। यह सब मोक्षमार्ग की बाधाएं हैं। इनसे निवृत्त होकर ही मोक्ष-पद प्राप्त हो सकता है। केवल गुरू की कृपा-दृष्टि ही उस महान् पद पर पहुंचा सकती है। तू अभी तक भ्रांति में पड़ी हुई है। तू अपने पति और पुत्र, धन और संपत्ति को ही जीवन सर्वस्व समझ रही है। यही भ्रांति तेरे दु: ख और शोक का मूल कारण है। जिस दिन तुझे इस भ्रांति से निवृत्ति होगी उसी दिन तुझे मोक्ष मार्ग दिखाई देने लगेगी। तब इन सासांरिक सुखों से तेरा मन आप-ही-आप हट जाएगा। तुझे इनकी असारता प्रकट होने लगेगी। मेरा पहला उपदेश यह है कि गुरू ही तेरा सर्वस्व है। मैं ही तेरा सब कुछ हूँ।
ज्ञानी : महाराज, आपकी अमृतवाणी से मेरे चित्त को बड़ी शांति मिल रही है।
चेतनदास : मैं तेरा सर्वस्व हूँ। मैं तेरी संपत्ति हूँ, तेरी प्रतिष्ठा हूँ, तेरा पति हूँ, तेरा पुत्र हूँ, तेरी माता हूँ, तेरा पिता हूँ, तेरा स्वामी हूँ, तेरा सेवक हूँ, तेरा दान हूँ, तेरा व्रत हूँ। हां, मैं तेरा स्वामी हूँ और तेरा ईश्वर हूँ। तू राधिका है, मैं तेरा कन्हैया हूँ,तू सती है, मैं तेरा शिव हूँ,तू पत्नी है, मैं तेरा पति हूँ,तू प्रकृति है, मैं तेरा पुरूष हूँ,तू जीव है, मैं आत्मा हूँ, तू स्वर है, मैं उसका लालित्य हूँ, तू पुष्प है, मैं उसकी सुगंध हूँ।
ज्ञानी : भगवन्, मैं आपके चरणों की रज हूँ। आपकी सुधा-वर्षा से मेरी आत्मा तृप्त हो गई।
चेतनदास : तेरा पति तेरा शत्रु है, जो तुझे अपने कुकृत्यों का भागी बनाकर तेरी आत्मा का सर्वनाश कर रहा है।
ज्ञानी : (मन में) वास्तव में उनके पीछे मेरी आत्मा कलुषित हो रही है। उनके लिए मैं अपनी मुक्ति क्यों बिगाडूं। अब उन्होंने अधर्म-पथ पर पग रखा है, मैं उनकी सहगामिनी क्यों बनूं ? (प्रकट) स्वामीजी, अब मैं आपकी शरण आई हूँ, मुझे उबारिए।
चेतनदास : प्रिये, हम और तुम एक हैं, कोई चिंता मत करो। ईश्वर ने तुम्हें मंझधार में डूबने से बचा लिया। वह देखो सामने ताक पर बोतल है। उसमें महाप्रसाद रखा हुआ है। उसे उतारकर अपने कोमल हाथों से मुझे पिलाओ और प्रसाद-स्वरूप स्वयं पान करो। तुम्हारा अंत: करण आलोकमय हो जाएगी। सांसारिकता की कालिमा एक क्षण में कट जाएगी और भक्ति का उज्ज्वल प्रकाश प्रस्फुटित हो जाएगा। यह वह सोमरस है जोर ऋषिगण पान करके योगबल प्राप्त किया करते थे।
ज्ञानी बोतल उतारकर चेतनदास के कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाते हैं।
चेतनदास : यह प्रसाद तुम भी पान करो।
ज्ञानी : भगवन्, मुझे क्षमा कीजिए।
चेतनदास : प्रिये, यह तुम्हारी पहली परीक्षा है।
ज्ञानी : (कमंडल मुंह से लगाकर पीती है। तुरंत उसे अपने शरीर में एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव होता है।) स्वामी, यह तो कोई अलौकिक वस्तु है।
चेतनदास : प्रिये, यह ऋषियोंका पेय पदार्थ है। इसे पीकर वह चिरकाल तक तरूण बने रहते थे।उनकी शक्तियां कभी क्षीण न होती थीं।थोड़ा-सा और दो। आज बहुत दिनों के बाद यह शुभअवसर प्राप्त हुआ है।
ज्ञानी बोतल उठाकर कमंडल में ड़ड़ेलती है। चेतनदास पी जाते हैं। ज्ञानी स्वयं थोड़ा-सा निकालकर पीती है।
चेतनदास : (ज्ञानी के हाथों को पकड़कर) प्रिये, तुम्हारे हाथ कितने कोमल हैं, ऐसा जान पड़ता है मानो फूलकी पंखड़ियां हैं। (ज्ञानी झिझककर हाथ खींच लेती है) प्रिये, झिझको नहीं, यह वासनाजनित प्रेम नहीं है। यह शुद्व, पवित्र प्रेम है। यह तुम्हारी दूसरी परीक्षा है।
ज्ञानी : मेरे ह्रदय में बड़े वेग से धड़कन हो रही है।
चेतनदास : यह धड़कन नहीं है, विमल प्रेम की तरंगें हैं जो वक्ष के किनारों से टकरा रही हैं। तुम्हारा शरीर फूल की भांति कोमल है। उस वेग को सहन नहीं कर सकता। इन हाथों के स्पर्श से मुझे वह आनंद मिल रहा है जिसमें चंद्र का निर्मल प्रकाश, पुष्पों की मनोहर सुगंध, समीर के शीतल मंद झोंके और जल-प्रवाह का मधुर गान सभी समाविष्ट हो गए हैं।
ज्ञानी : मुझे चक्कर-सा आ रहा है। जान पड़ता है लहरों में बही जाती हूँ।
चेतनदास : थोड़ा-सा सोमरस और निकालो।संजीवनी है।
ज्ञानी बोतल से कमंडल में उंड़ेलती है, चेतनदास पी जाता है, ज्ञानी भी दो-तीन घूंट पीती है।
चेतनदास : आज जीवन सफल हो गया। ऐसे सुख के एक क्षण पर समग्र जीवन भेंट कर सकता हूँ (ज्ञानी के गले में बांहें डालकर आलिंगन करना चाहता है, ज्ञानी झिझककर पीछे हट जाती है।) प्रिये, यह भक्ति मार्ग की तीसरी परीक्षा है !
ज्ञानी अलग खड़ी होकर रोती है।
चेतनदास : प्रिये!
ज्ञानी : (उच्च स्वर से) कोचवान, गाड़ी लाओ।
चेतनदास : इतनी अधीर क्यों हो रही हो ? क्या मोक्षपद के निकट पहुंचकर फिर उसी मायावी संसार में लिप्त होना चाहती हो ? यह तुम्हारे लिए कल्याणकारी न होगा।
ज्ञानी : मुझे मोक्षपद प्राप्त हो या न हो, यह ज्ञान अवश्य प्राप्त हो गया कि तुम धूर्त, कुटिल, भ्रष्ट, दुष्ट, पापी हो, तुम्हारे इस भेष का अपमान नहीं करना चाहती, पर यह समझ रखो कि तुम सरला स्त्रियों को इस भांति दगा देकर अपनी आत्मा को नर्क की ओर ले जा रहे हो, तुमने मेरे शरीर को अपने कलुषित हाथों से स्पर्श करके सदा के लिए विकृत कर दिया । तुम्हारे मनोविकारों के संपर्क से मेरी आत्मा सदा के लिए दूषित हो गई। तुमने मेरे व्रत की हत्या कर डाली। अब मैं अपने ही को अपना मुंह नहीं दिखा सकती। सतीत्व जैसी अमूल्य वस्तु खोकर मुझे ज्ञात हुआ कि मानव-चरित्र का कितना पतन हो सकता है। अगर तुम्हारे ह्रदय में मनुष्यत्व का कुछ भी अंश शेष है तो मैं उसी को संबोधित करके विनय करती हूँ कि अपनी आत्मा पर दया करो और इस दुष्टाचरण को त्याग कर सद्वृत्तियों का आवाफ्न करो।
कुटी से बाहर निकलकर गाड़ी में बैठ जाती है।
कोचवान : किधर से चलूं ?
ज्ञानी : सीधे घर चलो।
चौथा दृश्य
स्थान: राजेश्वरी का मकान।
समय: दस बजे रात।
राजेश्वरी : (मन में) मेरे ही लिए जीवन का निर्वाह करना क्यों इतना कठिन हो रहा है ? संसार में इतने आदमी पड़े हुए हैं। सब अपने-अपने धंधों में लगे हुए हैं। मैं ही क्यों इस चक्कर में डाली गई हूँ ? मेरा क्या दोष है ? मैंने कभी अच्छा खाने, पहनने या आराम से रहने की इच्छा की, जिसके बदले में मुझे यह दंड मिला है? जबरदस्ती इस कारागार में बंद की गई हूँ। यह सब विलास की चीजें जबरदस्ती मेरे गले मढ़ी गई हैं। एक धनी पुरूष मुझे अपने इशारों पर नचा रहा है। मेरा दोष इतना ही है कि मैं रूपवती हूँ और निर्बल हूँ। इसी अपराध की यह सजा मुझे मिल रही है। जिसे ईश्वर धन दे, उसे इतना सामर्थ्य भी दे कि धन की रक्षा कर सके निर्बल प्राणियों को रत्न देना उन पर अन्याय करना है। हा ! कंचनसिंह पर आज न जाने क्या बीती ! सबलसिंह ने अवश्य ही उनको मार डाला होगी। मैंने उन पर कभी क्रोध चढ़ते नहीं देखा था।क्रोध में तो मानो उन पर भूत सवार हो जाता है। मर्दों को उत्तेजित करना सरल है। उनकी नाड़ियों में रक्त की जगह रोष और ईर्ष्या का प्रवाह होता है। ईर्ष्या की ही मिट्टी से उनकी सृष्टि हुई है। यह सब विधाता की विषम लीला है। (गाती है।)
दयानिधि तेरी गति लखि न परी।
सबलसिंह का प्रवेश।
राजेश्वरी : आइए, आपकी ही बाट जोह रही थी। उधर ही मन लगा हुआ था।आपकी बातें याद करके शंका और भय से चित्त बहुत व्याकुल हो रहा था।पूछते डरती हूँ
सबल : (मलिन स्वर से) जिस बात की तुम्हें शंका थी वह हो गई।
राजेश्वरी : अपने ही हाथों ?
सबल : नहीं मैंने क्रोध के आवेग में चाहे मुंह से जो बक डाला हो पर अपने भाई पर मेरे हाथ नहीं उठ सके पर इससे मैं अपने पाप का समर्थन नहीं करना चाहता। मैंने स्वयं हत्या की और उसका सारा भार मुझ पर है। पुरूष कड़े-से कड़े आघात सह सकता है, बड़ी-से बड़ी मुसीबतें झेल सकता है, पर यह चोट नहीं सह सकता, यही उसका मर्मस्थान है। एक ताले में दो कुंजियां साथ-साथ चली जाएं, एक म्यान में दो तलवारें साथ-साथ रहें, एक कुल्हाड़ी में दो बेंट साथ लगें, पर एक स्त्री के दो चाहने वाले नहीं रह सकते, असंभव है।
राजेश्वरी : एक पुरूष को चाहने वाली तो कई स्त्रियां होती हैं।
सबल : यह उनके अपंग होने के कारण हैं। एक ही भाव दोनों के मन में उठते हैं। पुरूष शक्तिशाली है, वह अपने क्रोध को व्यक्त कर सकता है,स्त्री मन में ऐंठकर रह जाती है।
राजेश्वरी : क्या आप समझते थे कि मैं कंचनसिंह को मुंह लगा रही हूँ। उन्हें केवल यहां बैठे देखकर आपको इतना उबलना न चाहिए था।
सबल : तुम्हारे मुंह से यह तिरस्कार कुछ शोभा नहीं देता। तुमने
अगर सिरे से ही उसे यहां न घुसने दिया होता तो आज यह नौबत न आती। तुम अपने को इस इल्जाम से मुक्त नहीं कर सकती।
राजेश्वरी : एक तो आपने मुझ पर संदेह करके मेरा अपमान किया, अबआप इस हत्या का भार भी मुझ पर रखना चाहते हैं। मैंने आपके साथ ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया था। कि आप इतना अविश्वास करते।
सबल : राजेश्वरी, इन बातों से दिल न जलाओ। मैं दु: खी हूँ, मुझे तस्कीन दो¼ मैं घायल हूँ, मेरे घाव पर मरहम रखो। मैंने वह रत्न हाथ से खो दिया जिसका जोड़ अब संसार में मुझे न मिलेगी। कंचन आदर्श भाई था।मेरा इशारा उसके लिए हुक्म था।मैंने जरा-सा इशारा कर दिया होता तो वह भूलकर भी इधर पग न रखता। पर मैं अंधा हो रहा था, उन्मत्त हो रहा था।मेरे ह्रदय की जो दशा हो रही है वह तुम देख सकतीं तो कदाचित् तुम्हें मुझ पर दया आती। ईश्वर के लिए मेरे घावों पर नमक न छिड़को। अब तुम्हीं मेरे जीवन का आधार हो, तुम्हारे लिए मैंने इतना बड़ा बलिदान किया। अब तुम मुझे पहले से कहीं अधिक प्रिय हो, मैंने पहले सोचा था।, केवल तुम्हारे दर्शनों से, तुम्हारी तिरछी चितवनों से मैं तृप्त हो जाऊँगी। मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता था।पर अब मुझे अनुभव हो रहा है कि मैं गुड़ खाना
और गुलगुलों से परहेज करना चाहता था। मैं भरे प्याले को उछालकर भी चाहता था। कि उसका पानी न छलके नदी में जाकर भी चाहता था। कि दामन न भीगे। पर अब मैं तुमको पूर्णरूप से चाहता हूँ। मैं तुम्हारा सर्वस्व चाहता हूँ। मेरी विकल आत्मा के लिए संतोष का केवल यही एक आधार है। अपने कोमल हाथों को मेरी दहकती हुई छाती पर रखकर शीतल कर दो।
राजेश्वरी : मुझे अब आपके समीप बैठते हुए भय होता है। आपके मुख पर नम्रता और प्रेम की जगह अब क्रूरता और कपट की झलक है।
सबल : तुम अपने प्रेम से मेरे ह्रदय को शांत कर दो। इसीलिए इस समय तुम्हारे पास आया हूँ। मुझे शांति दो। मैं निर्जन पार्क और नीरव नदी से निराश लौटा आता हूँ। वहां शांति नहीं मिली। तुम्हें यह मुंह नहीं दिखाना चाहता था।हत्यारा बनकर तुम्हारे सम्मुख आते लज्जा आती थी। किसी को मुंह नहीं दिखाना चाहता। केवल तुम्हारे प्रेम की आशा मुझे तुम्हारी शरण लाई। मुझे आशा थी, तुम्हें मुझ पर दया आएगी, पर देखता हूँ तो मेरा दुर्भाग्य वहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता। राजेश्वरी, प्रिये, एक बार मेरी तरफ प्रेम की चितवनों से देखो। मैं दु: खी हूँ। मुझसे ज्यादा दु: खी कोई प्राणी संसार में न होगी। एक बार मुझे प्रेम से गले लगा लो, एक बार अपनी कोमल बाहें मेरी गर्दन में डाल दो, एक बार मेरे सिर को अपनी जांघों पर रख लो।प्रिये, मेरी यह अंतिम लालसा है। मुझे दुनिया से नामुराद मत जाने दो। मुझे चंद घंटों का मेहमान समझो।
राजेश्वरी : (सजल नयन होकर) ऐसी बातें करके दिल न दुखाइए।
सबल : अगर इन बातों से तुम्हारा दिल दुखता है तो न करूंगा। पर राजेश्वरी, मुझे तुमसे इस निर्दयता की आशा न थी। सौंदर्य और दया में विरोध है¼ इसका मुझे अनुमान न था।मगर इसमें तुम्हारा दोष नहीं है। यह अवस्था ही ऐसी है। हत्यारे पर कौन दया करेगा ? जिस प्राणी ने सगे भाई को ईर्ष्या और दंभ के वश होकर वध करा दिया, वह इसी योग्य है कि चारों ओर उसे धिक्कार मिले। उसे कहीं मुंह दिखाने का ठिकाना न रहै। उसके पुत्र और स्त्री भी उसकी ओर से आंखें फेर लें, उसके मुंह में कालिमा पोत दी जाए और उसे हाथी के पैरों सेकुचलवा दिया जाए। उसके पाप का यही दंड है। राजेश्वरी, मनुष्य कितना दीन, कितना परवश प्राणी है। अभी एक सप्ताह पहले मेरा जीवन कितना सुखमय था।अपनी नौका में बैठा हुआ धीमी-धीमी लहरों पर बहता, समीर की शीतल, मंद तरंगों का आनंद उठाता चला जाता था।क्या जानता था कि एक ही क्षण में वे मंद तरंगें इतनी भयंकर हो जाएंगी, शीतल झोंके इतने प्रबल हो जाएंगे कि नाव को उलट देंगे। सुख और दु: ख, हर्ष और शोक में उससे कहीं कम अंतर है जितना हम समझते हैं। आंखों को एक जरा-सा इशारा, मुंह का एक जरा-सा शब्द हर्ष का शोक और सुख को दु: ख बना सकता है। लेकिन हम यह सब जानते हुए भी सुख पर लौ लगाए रहते हैं। यहां तक कि गांसी पर चढ़ने से एक क्षण पहले तक हमें सुख की लालसा घेरे रहती है। ठीक वही दशा मेरी है। जानता हूँ कि चंद घंटों
का और मेहमान हूँ, निश्चय है कि फिर ये आंखें सूर्य और आकाश को न देखेंगी¼ पर तुम्हारे प्रेम की लालसा ह्रदय से नहीं निकलती।
राजेश्वरी : (मन में) इस समय यह वास्तव में बहुत दु: खी हैं। इन्हें जितना दंड मिलना चाहिए था। उससे ज्यादा मिल गया। भाई के शोक में इन्होंने आत्मघात करने की ठानी है। मेरा जीवन तो नष्ट हो ही गया, अब इन्हें मौत के मुंह में झोंकने की चेष्टा क्यों करूं ? इनकी दशा देखकर दया आती है। मेरे मन के घातक भाव लुप्त हो रहे हैं। (प्रकट) आप इतने निराश क्यों हो रहे हैं ? संसार में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। अब दिल को संभालिए। ईश्वर ने आपको पुत्र दिया है, सती स्त्री दी है। क्या आप उन्हें मंझधार में छोड़ देंगे ? मेरे अवलंब भी आप ही हैं। मुझे द्वार-द्वार की ठोकर खाने के लिए छोड़ दीजिएगा ? इस शोक को दिल से निकाल डालिए।
सबल : (खुश होकर) तुम भूल जाओगी कि मैं पापी-हत्यारा हूँ ?
राजेश्वरी : आप बार-बार इसकी चर्चा क्यों करते हैं!
सबल : तुम भूल जाओगी कि इसने अपने भाई को मरवाया है ?
राजेश्वरी : (भयभीत होकर) प्रेम दोषों पर ध्यान नहीं देता। वह गुणों ही पर
मुग्ध होता है। आज मैं अंधी हो जाऊँ तो क्या आप मुझे त्याग
देंगे ?
सबल : प्रिये, ईश्वर न करे, पर मैं तुमसे सच्चे दिल से कहता हूँ कि काल की कोई गति, विधाता की कोई पिशाच लीला, तापों का कोई प्रकोप मेरे ह्रदय से तुम्हारे प्रेम को नहीं निकाल सकता, हां, नहीं निकाल सकता।
गाता है।
दूर करने ले चले थे जब मेरे घर से मुझे
काश, तुम भी झांक लेते रौ -ए दर से मुझे।
सांस पूरी हो चुकी, दुनिया से रूखसत हो चुका
तुम अब आए हो उठाने मेरे बिस्तर से मुझे।
क्यों उठाता है मुझे मेरी तमन्ना को निकाल
तेरे दर तक खींच लाई थी वही घर से मुझे।
हिज्र की शब कुछ यही मूनिस था। मेरा, ऐ कजा
रूक जरा रो लेने दे मिल-मिलके बिस्तर से मुझे।
राजेश्वरी : मेरे दिल में आपका वही प्रेम है।
सबल : तुम मेरी हो जाओगी ?
राजेश्वरी : और अब किसकी हूँ ?
सबल : तुम पूर्ण रूप से मेरी हो जाओगी ?
राजेश्वरी : आपके सिवा अब मेरा कौन है ?
सबल : तो प्रिये, मैं अभी मौत को कुछ दिनों के लिए द्वार से टाल दूंगा। अभी न मरूंगा। पर हम सब यहां नहीं रह सकते। हमें कहीं बाहर चलना पड़ेगा, जहां अपना परिचित प्राणी न हो, चलो, आबू चलें, जी चाहे कश्मीर चलो, दो-चार महीने रहेंगे, फिर जैसी अवस्था होगी वैसा करेंगी। पर इस नगर में मैं नहीं रह सकता। यहां की एक-एक पत्ती मेरी दुश्मन है।
राजेश्वरी : घर के लोगों को किस पर छोड़िएगा ?
सबल : ईश्वर पर ! अब मालूम हो गया कि जो कुछ करता है, ईश्वर करता है। मनुष्य के किए कुछ नहीं हो सकता।
राजेश्वरी : यह समस्या कठिन है। मैं आपके साथ बाहर नहीं जा सकती।
सबल : प्रेम तो स्थान के बंधनों में नहीं रहता।
राजेश्वरी : इसका यह कारण नहीं है। अभी आपका चित्त अस्थिर है, न जाने क्या रंग पकड़े। वहां परदेश में कौन अपना हितैषी होगा,
कौन विपत्ति में अपना सहायक होगा? मैं गंवारिन, परदेश करना क्या जानूं ? ऐसा ही है तो आप कुछ दिनों के लिए बाहर चले जाएं।
सबल : प्रिये, यहां से जाकर फिर आना नहीं चाहता, किसी से बताना भी नहीं चाहता कि मैं कहां जा रहा हूँ। मैं तुम्हारे सिवा और सारे संसार के लिए मर जाना चाहता हूँ।
गाता है।
किसी को देके दिल कोई नवा संजे फुगां क्यों हो,
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुंह में जबां क्यों हो,
वफा कैसी, कहां का इश्क, जब सिर फोड़ना ठहरा,
तो फिर ऐ संग दिल तेरा ही संगे आस्तां क्यों हो,
कफस में मुझसे रूदादे चमन कहते न डर हमदम,
गिरी है जिस पै कल बिजली वह मेरा आशियां क्यों हो,
यह फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम है,
हुए तुम दोस्त जिसके उसका दुश्मन आसमां क्यों हो,
कहा तुमने कि क्यों हो गैर के मिलने में रूसवाई,
बजा कहते हो, सच कहते हो, फिर कहियो कि हां क्यों हो,
राजेश्वरी : (मन में) यहां हूँ तो कभी-न-कभी नसीब जागेंगे ही। मालूम नहीं वह (हलधर) आजकल कहां हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, मुझे अपने मन में क्या समझ रहे हैं। कुछ भी हो, जब मैं जाकर सारी रामकहानी सुनाऊँगी तो उन्हें मेरे निरपराध होने का विश्वास हो जाएगी। इनके साथ जाना अपना सर्वनाश कर लेना है। मैं इनकी रक्षा करना चाहती हूँ, पर अपना सत खोकर नहीं,इनको बचाना चाहती हूँ, पर अपने को डुबाकर नहीं अगर मैं इस काम में सफल न हो सकूं तो मेरा दोष नहीं है। (प्रकट) मैं आपके घर को उजाड़ने का अपराध अपने सिर नहीं लेना चाहती।
सबल : प्रिये, मेरा घर मेरे रहने से ही उजड़ेगा, मेरे अंतर्धान होने से वह बच जाएगी। इसमें मुझे जरा भी संदेह नहीं है।
राजेश्वरी : फिर अब मैं आपसे डरती हूँ, आप शक्की आदमी हैं। न जानs किस वक्त आपको मुझ पर शक हो जाए। जब आपने जरा-से शक पर
सबल : (शोकातुर होकर) राजेश्वरी, उसकी चर्चा न करो। उसका प्रायश्चित कुछ हो सकता है तो वह यही है कि अब शक और भ्रम को अपने पास फटकने भी न दूं। इस बलिदान से मैंने समस्त शंकाओं को जीत लिया है। अब फिर भ्रम में पडूं, तो मैं मनुष्य नहीं पशु हूँगी।
राजेश्वरी : आप मेरे सतीत्व की रक्षा करेंगे ? आपने मुझे वचन दिया था। कि मैं केवल तुम्हारा सहवास चाहता हूँ।
सबल : प्रिये, प्रेम को बिना पाए संतोष नहीं होता। जब तक मैं गृहस्थी के बंधनों में जकड़ा था।, जब तक भाई, पुत्र, बहिन का मेरे प्रेम के एक अंश पर अधिकार था। तब मैं तुम्हें न पूरा प्रेम दे सकता था। और न तुमसे सर्वस्व मांगने का साहस कर सकता था। पर अब मैं संसार में अकेला हूँ, मेरा सर्वस्व तुम्हारे अर्पण है। प्रेम अपना पूरा मूल्य चाहता है, आधे पर संतुष्ट नहीं हो सकता।
राजेश्वरी : मैं अपने सत को नहीं खो सकती।
सबल : प्रिये, प्रेम के आगे सत, व्रत, नियम, धर्म सब उन तिनकों के समान हैं जो हवा से उड़ जाते हैं। प्रेम पवन नहीं, आंधी है। उसके सामने मान-मर्यादा, शर्म-हया की कोई हस्ती नहीं
राजेश्वरी : यह प्रेम परमात्मा की देन है। उसे आप धन और रोब से नहीं पा सकते।
सबल : राजेश्वरी, इन बातों से मेरा ह्रदय चूर-चूर हुआ जाता है। मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितना अटल प्रेम है उसे मैं शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता। मेरा सत्यानाश हो जाए अगर धन और संपत्ति का ध्यान भी मुझे आया हो, मैं यह मानता हूँ कि मैंने तुम्हें पाने के लिए बेजा दबाव से काम लिया, पर इसका कारण यही था। कि मेरे पास और कोई साधन न था।मैं विरह की आग में जल रहा था।, मेरा ह्रदय ङ्ढंका जाता था।, ऐसी अवस्था में यदि मैं धर्म-अधर्म का विचार न करके किसी व्यक्ति के भरे हुए पानी के डोल की ओर लपका तो तुम्हें उसको क्षम्य समझना चाहिए ।
राजेश्वरी : वह डोल किसी भक्त ने अपने इष्टदेव को चढ़ाने के लिए एक हाथ से भरा था।जिसे आप प्रेम कहते हैं वह काम-लिप्सा थी। आपने अपनी लालसा को शांत करने के लिए एक बसे-बसाये घर को उजाड़ दिया, उसको तितर-बितर कर दिया । यह सब अनर्थ आपने अधिकार के बल पर किया। पर याद रखिए, ईश्वर भी आपको इस पाप का दंड भोगने से नहीं बचा सकता। आपने मुझसे उस बात की आशा रखी जो कुलटाएं ही कर सकती हैं। मेरी यह इज्जत आपने की। आंख की पुतली निकल जाए तो उसमें सुरमा क्या शोभा देगा ? पौधे की जड़ काटकर फिर आप दूध और शहद से सींचें तो क्या फायदा ? स्त्री का सत हर कर आप उसे विलास और भोग में डुबा ही दें तो क्या होता है ! मैं अगर यह घोर अपमान चुपचाप सह लेती तो मेरी आत्मा का पतन हो जाता। मैं यहां उस अपमान का बदला लेने आई हूँ। आप चौंकें नहीं, मैं मन में यही संकल्प करके आई थी।
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : देवी, तुझे धन्य है। तेरे पैरों पर शीश नवाती हूँ।
सबल : ज्ञानी ! तुम यहां ?
ज्ञानी : क्षमा कीजिए। मैं किसी और विचार से नहीं आई। आपको घर पर न देखकर मेरा चित्त व्याकुल हो गया।
सबल : यहां का पता कैसे मालूम हुआ ?
ज्ञानी : कोचवान की खुशामद करने से।
सबल : राजेश्वरी, तुमने मेरी आंखें खोल दीं ! मैं भ्रम में पड़ा हुआ था।तुम्हारा संकल्प पूरा होगी। तुम सती हो, तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी होगी। मैं पापी हूँ, मुझे क्षमा करना
नीचे की ओर जाता है।
ज्ञानी : मैं भी चलती हूँ। राजेश्वरी, तुम्हारे दर्शन पाकर कृतार्थ हो गई। (धीरे से) बहिन, किसी तरह इनकी जान बचाओ। तुम्हीं इनकी रक्षा कर सकती हो,
राजेश्वरी के पैरों पर फिर पड़ती है।
राजेश्वरी : रानी जी, ईश्वर ने चाहा तो सब कुशल होगी।
ज्ञानी : तुम्हारे आशीर्वाद का भरोसा है।
प्रस्थान।
पाँचवाँ दृश्य
स्थान: गंगा के करार पर एक बड़ा पुराना मकान।
समय: बारह बजे रात, हलधर और उसके साथी डाकू बैठे हुए हैं।
हलधर : अब समय आ गया, मुझे चलना चाहिए ।
एक डाकू रंगी : हम लोग भी तैयार हो जाएं न ? शिकारी आदमी है, कहीं पिस्तौल चला बैठे तो ?
हलधर : देखी जाएगी। मैं जाऊँगा अकेले।
कंचन का प्रवेश।
हलधर : अरे, आप अभी तक सोए नहीं ?
कंचन : तुम लोग भैया को मारने पर तैयार हो, मुझे नींद कैसे आए ?
हलधर : मुझे आपकी बातें सुनकर अचरज होता है। आप ऐसे पापी आदमी की रक्षा करना चाहते हैं जो अपने भाई की जान लेने पर तुल जाए।
कंचन : तुम नहीं जानते, वह मेरे भाई नहीं, मेरे पिता के तुल्य हैं। उन्होंने भी सदैव मुझे अपना पुत्र समझा है। उन्होंने मेरे प्रति जो कुछ किया, उचित किया। उसके सिवा मेरे विश्वासघात का और कोई दंड न था। उन्होंने वही किया जो मैं आप करने जाता था।अपराध सब मेरा है। तुमने मुझ पर दया की है। इतनी दया और करो। इसके बदले में तुम जो कुछ कहो करने को तैयार हूँ। मैं अपनी सारी कमाई जो बीस हजार से कम नहीं है, तुम्हें भेंट कर दूंगा। मैंने यह रूपये एक धर्मशाला और देवालय बनवाने के लिए संचित कर रखे थे।पर भैया के प्राणों का मूल्य धर्मशाला और देवालय से कहीं अधिक है।
हलधर : ठाकुर साहब,ऐसा कभी न होगी। मैंने धन के लोभ से यह भेष नहीं लिया है। मैं अपने अपमान का बदला लेना चाहता हूँ। मेरा मर्याद इतना सस्ता नहीं है।
कंचन : मेरे यहां जितनी दस्तावेजें हैं वह सब तुम्हें दे दूंगा।
हलधर : आप व्यर्थ ही मुझे लोभ दिखा रहे हैं। मेरी इज्जत बिगड़ गई। मेरे कुल में दाग लग गया। बाप-दादों के मुंह में कालिख पुत गई। इज्जत का बदला जान है, धन नहीं जब तक सबलसिंह की लाश को अपनी आंखों से तड़पते न देखूंगा, मेरे ह्रदय की ज्वाला शांत न होगी।
कंचन : तो फिर सबेरे तक मुझे भी जीता न पाओगी।
प्रस्थान।
हलधर : भाई पर जान देते हैं।
रंगी : तुम भी तो हक-नाहक की जिद कर रहे हो, बीस हजार नकद मिल रहा है। दस्तावेज भी इतने की ही होगी। इतना धन तो ऐसा ही भाग जागे तो हाथ लग सकता है। आधा तुम ले लो। आधा हम लोगों को दे दो। बीस हजार में तो ऐसी-ऐसी बीस औरतें मिल जाएंगी।
हलधर : कैसी बेगैरतों की-सी बात करते हो ! स्त्री चाहे सुंदर हो, चाहे कुरूप, कुल-मरजाद की देवी है। मरजाद रूपयों पर नहीं बिकती।
रंगी : ऐसा ही है तो उसी को क्यों नहीं मार डालते। न रहे बांस न बजे बंसुरी।
हलधर : उसे क्यों मारूं ? स्त्री पर हाथ उठाने में क्या जवांमरदी है ?
रंगी : तो क्या उसे फिर रखोगे ?
हलधर : मुझे क्या तुमने ऐसा बेगैरत समझ लिया है। घर में रखने की बात ही क्या, अब उसका मुंह भी नहीं देख सकता। वह कुलटा है, हरजाई है। मैंने पता लगा लिया है। वह अपने-आप घर से निकल खड़ी हुई है। मैंने कब का उसे दिल से निकाल दिया । अब उसकी याद भी नहीं करता। उसकी याद आते ही शरीर में ज्वाला उठने लगती है। अगर उसे मारकर कलेजा ठंडा हो सकता तो इतने दिनों चिंता और क्रोध की आग में जलता ही क्यों ?
रंगी : मैं तो रूपयों का इतना बड़ा ढेर कभी हाथ से न जाने देता। मान-मर्यादा सब ढकोसला है। दुनिया में ऐसी बातें आए दिन होती रहती हैं। लोग औरत को घर से निकाल देते हैं। बस।
हलधर : क्या कायरों की-सी बातें करते हो, रामचन्द्र ने सीताजी के लिए लंका का राज विध्वंस कर दिया । द्रोपदी की मानहानि करने के लिए पांडवों ने कौरवों को निरबंस कर दिया । जिस आदमी के दिल में इतना अपमान होने पर भी क्रोध न आए, मरने-मारने पर तैयार न हो जाए, उसका खून न खौलने लगे, वह मर्द नहीं हिजड़ा है। हमारी इतनी दुर्गत क्यों हो रही है ? जिसे देखो वही हमें चार गालियां सुनाता है, ठोकर मारता है। क्या अहलकार, क्या जमींदार सभी कुत्तों से नीच समझते हैं। इसका कारण यही है कि हम बेहया हो गए हैं। अपनी चमड़ी को प्यार करने लगे हैं। हममें भी गैरत होती, अपने मान?अपमान का विचार होता तो मजाल थी कि कोई हमें तिरछी आंखों से देख सकता। दूसरे देशों में सुनते हैं गालियों पर लोग मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं। वहां कोई किसी को गाली नहीं दे सकता। किसी देवता का अपमान कर दो तो जान न बचेब यहां तक कि कोई किसी को ला-सखुन नहीं कह सकता, नहीं तो, खून की नदी बहने लगे। यहां क्या है, लात खाते हैं, जूते खाते हैं, घिनौनी गालियां सुनते हैं, धर्म का नाश अपनी आंखों से देखते हैं, पर कानों पर जूं नहीं रेंगती, खून जरा भी गर्म नहीं होता। चमड़ी के पीछे सब तरह की दुर्गत सहते हैं। जान इतनी प्यारी हो गई है। मैं ऐसे जीने से मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता हूँ। बस यही समझ लो कि जो आदमी प्रान को जितना ही प्यारा समझता है वह उतना ही नीच है। जो औरत हमारे घर में रहती थी, हमसे हंसती थी, हमसे बोलती थी, हमारे खाट पर सोती थी वह अब भी(क्रोध से उन्मत्त होकर) तुम लोग मेरे लौटने तक यहीं रहो, कंचनसिंह को देखते रहना।
चला जाता है।
छठा दृश्य
स्थान: सबलसिंह का कमरा।
समय: एक बजे रात।
सबल : (ज्ञानी से) अब जाकर सो रहो, रात कम है।
ज्ञानी : आप लेटें, मैं चली जाऊँगी। अभी नींद नहीं आती।
सबल : तुम अपने दिल में मुझे बहुत नीच समझ रही होगी ?
ज्ञानी : मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ।
सबल : क्या इतना पतित हो जाने पर भी ?
ज्ञानी : मैली वस्तुओं के मिलने से गंगा का माहात्म्य कम नहीं होता।
सबल : मैं इस योग्य भी नहीं हूँ कि तुम्हें स्पर्श कर सकूं। पर मेरे ह्रदय में इस समय तुमसे गले मिलने की प्रबल उत्कंठा है। याद ही नहीं आता कि कभी मेरा मन इतना अधीर हुआ हो, जी चाहता है तुम्हें प्रिये कहूँ, आलिंगन करूं पर हिम्मत नहीं पड़ती। अपनी ही आंखों में इतना गिर गया हूँ। (ज्ञानी रोती हुई जाने लगती है, सबल रास्ते में खड़ा हो जाता है।) प्रिये, इतनी निर्दयता न करो। मेरा ह्रदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता है। (रास्ते से हटकर) जाओ ! मुझे तुम्हें रोकने का कोई अधिकार नहीं है। मैं पतित हूँ, पापी हूँ, दुष्टाचारी हूँ। न जाने क्यों पिछले दिनों की याद आ गई, जब मेरे और तुम्हारे बीच में यह विच्छेद न था।, जब हम-तुम प्रेम-सरोवर के तट पर विहार करते थे, उसकी तरंगों के साथ झूमते थे।वह कैसे आनंद के दिन थे ? अब वह दिन फिर न आएंगी। जाओ, न रोयंगा, पर मुझे बिल्कुल नजरों से न गिरा दिया हो तो प्रेम की चितवन से मेरी तरफ देख लो।मेरा संतप्त ह्रदय उस प्रेम की फुहार से तृप्त हो जाएगी। इतना भी नहीं कर सकतीं ? न सही। मैं तो तुमसे कुछ कहने के योग्य ही नहीं हूँ। तुम्हारे सम्मुख खड़े होते, तुम्हें यह काला मुंह दिखाते, मुझे लज्जा आनी चाहिए थी। पर मेरी आत्मा का पतन हो गया है। हां, तुम्हें मेरी एक बात अवश्य माननी पड़ेगी, उसे मैं जबरदस्ती मनवाऊँगा, जब तक न मानोगी जाने न दूंगा। मुझे एक बार अपने चरणों पर सिर झुकाने दो।
ज्ञानी रोती हुई अंदर के द्वार की तरफ बढ़ती है।
सबल : क्या मैं अब इस योग्य भी नहीं रहा ? हां, मैं अब घृणित प्राणी हूँ, जिसकी आत्मा का अपहरण हो चुका है। पूजी जाने वाली प्रतिमा टूटकर पत्थर का टुकड़ा हो जाती है, उसे किसी खंडहर में फेंक दिया जाता है। मैं वही टूटी हुई प्रतिमा हूँ और इसी योग्य हूँ कि ठुकरा दिया जाऊँ। तुमसे कुछ कहने का, तुम्हारी दया-याचना करने के योग्य मेरा मुंह ही नहीं रहा। जाओ। हम तुम बहुत दिनों तक साथ रहे। अगर मेरे किसी व्यवहार से, किसी शब्द से, किसी आक्षेप से तुम्हें दु: ख हुआ हो तो क्षमा करना। मुझ-सा अभागा संसार में न होगा जो तुम जैसी देवी पाकर उसकी कद्र न कर सका।
ज्ञानी हाथ जोड़कर सजल नेत्रों से ताकती है, कंठ से शब्द नहीं निकलता। सबल तुरंत मेज पर से पिस्तौल उठाकर बाहर निकल जाता है।
ज्ञानी : (मन में) हताश होकर चले गए। मैं तस्कीन दे सकती, उन्हें प्रेम के बंधन से रोक सकती तो शायद न जाते। मैं किस मुंह से कहूँ कि यह अभागिनी पतिता तुम्हारे चरणों का स्पर्श करने योग्य नहीं है। वह समझते हैं, मैं उनका तिरस्कार कर रही हूँ, उनसे घृणा कर रही हूँ। उनके इरादे में अगर कुछ कमजोरी थी तो वह मैंने पूरी कर दी। इस यज्ञ की पूर्णाहुति मुझे करनी पड़ी। हा विधाता, तेरी लीला अपरम्पार है। जिस पुरूष पर इस समय मुझे अपना प्राण अर्पण करना चाहिए था। आज मैं उसकी घातिका हो रही हूँ। हा अर्थलोलुपता ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । मैंने संतान-लालसा के पीछे कुल को कलंक लगा दिया, कुल को धूल में मिला दिया । पूर्वजन्म में न जाने मैंने कौन-सा पाप किया था। चेतनदास, तुमने मेरी सोने की लंका दहन कर दी। मैंने तुम्हें देवता समझकर तुम्हारी आराधना की थी। तुम राक्षस निकले। जिस रूखार को मैंने बाग समझा था। वह बीहड़ निकला। मैंने कमल का फूलतोड़ने के लिए पैर बढ़ाए थे, दलदल में फंस गई, जहां से अब निकलना दुस्तर है। पतिदेव ने चलते समय मेज पर से कुछ उठाया था।न जाने कौन-सी चीज थी। काली घटा छाई हुई है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। वहां कहां गए ? भगवन्, कहां जाऊँ ? किससे पूछूं, क्या करूं ? कैसे उनकी प्राण-रक्षा करूं ? हो न हो राजेश्वरी के पास गए हों ! वहीं इस लीला का अंत होगी। उसके प्रेम में विह्वल हो रहे हैं। अभी उनकी आशा वह लगी हुई है। मृग-तृष्णा है। वह नीच जाति की स्त्री है, पर सती है। अकेली इस अंधेरी रात में वहां कैसे पहुंचूंगी। कुछ भी हो, यहां नहीं रहा जाता। बग्घी पर गई थी। रास्ता कुछ-कुछ याद है। ईश्वर के भरोसे पर चलती हूँ। या तो वहां पहुंच ही जाऊँगी या इसी टोह में प्राण दे दूंगी। एक बार मुझे उनके दर्शन हो जाते तो जीवन सफल हो जाता। मैं उनके चरणों पर प्राण त्याग देती। यही अंतिम लालसा है। दयानिधि, मेरी अभिलाषा पूरी करो। हा, जननी धरती, तुम क्यों मुझे अपनी गोद में नहीं ले लेतीं ! दीपक का ज्वाला-शिखर क्यों मेरे शरीर को भस्म नहीं कर डालता ! यह भयंकर अंधकार क्यों किसी जल-जंतु की भांति मुझे अपने उदर में शरण नहीं देता!
प्रस्थान।
सातवाँ दृश्य
स्थान: सबलसिंह का मकान।
समय: ढाई बजे रात। सबलसिंह अपने बाग में हौज के किनारे बैठे हुए हैं।
सबल : (मन में) इस जिंदगी पर धिक्कार है। चारों तरफ अंधेरा है, कहीं प्रकाश की झलक तक नहीं सारे मनसूबे, सारे इरादे खाक में मिल गए। अपने जीवन को आदर्श बनाना चाहता था।, अपने कुल को मर्यादा के शिखर पर पहुंचाना चाहता था।, देश और राष्ट' की सेवा करना चाहता था।, समग्र देश में अपनी कीर्ति फैलाना चाहता था।देश को उन्नति के परम स्थान पर देखना चाहता था।उन बड़े-बड़े इरादों का कैसा करूणाजनक अंत हो रहा है। फले-फूले वृक्ष की जड़ में कितनी बेदर्दी से आरा चलाया जा रहा है। कामलोलुप होकर मैंने अपनी जिदंगी तबाह कर दीब मेरी दशा उस मांझी की-सी है जो नाव को बोझने के बाद शराब पी ले और नशे में नाव को भंवर में डाल दे। भाई की हत्या करके भी अभीष्ट न पूरा हुआ। जिसके लिए इस पापकुंड में कूदा, वह भी अब मुझसे घृणा करती है। कितनी घोर निर्दयता है। हाय ! मैं क्या जानता था। कि राजेश्वरी मन में मेरे अनिष्ट का दृढ़ संकल्प करके यहां आई है। मैं क्या जानता था। कि वह मेरे साथ त्रियाचरित्र खेल रही है। एक अमूल्य अनुभव प्राप्त हुआ। स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा करने के लिए, अपने अपमान का बदला लेने के लिए, कितना भयंकर रूप धारण कर सकती है। गऊ कितनी सीधी होती है, पर किसी को अपने बछड़े के पास आते देखकर कितनी सतर्क हो जाती है। सती स्त्रियां भी अपने व्रत पर आघात होते देखकर जान पर खेल जाती हैं। कैसी प्रेम में सनी हुई बातें करती थी। जान पड़ता था।, प्रेम के हाथों बिक गई हो, ऐसी सुंदरी, ऐसी सरला, मृदुप्रकृति, ऐसी विनयशीला, ऐसी कोमलह्रदया रमणियां भी छलकौशल में इतनी निपुण हो सकती हैं ! उसकी निठुरता मैं सह सकता था।किंतु ज्ञानी की घृणा नहीं सही जाती, उसकी उपेक्षासूचक दृष्टि के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। जिस स्त्री का अब तक आराध्य देव था।, जिसकी मुझ पर अखंड भक्ति थी, जिसका सर्वस्व मुझ पर अर्पण था।, वही स्त्री अब मुझे इतना नीच और पतित समझ रही है। ऐसे जीने पर धिक्कार है ! एक बार प्यारे अचल को भी देख लूं। बेटा, तुम्हारे प्रति मेरे दिल में बड़े-बड़े अरमान थे।मैं तुम्हारा चरित्र आर्दश बनाना चाहता था।, पर कोई अरमान न निकला। अब न जाने तुम्हारे उसपर क्या पड़ेगी। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें ! लोग कहते हैं प्राण बड़ी प्रिय वस्तु है। उसे देते
हुए बड़ा कष्ट होता है। मुझे तो जरा भी शंका, जरा भी भय नहीं है। मुझे तो प्राण देना खेल-सा मालूम हो रहा है। वास्तव में जीवन ही खेल है, विधाता का क्रीड़ा-क्षेत्र ! (पिस्तौल निकालकर) हां, दोनों गोलियां हैं, काम हो जाएगी। मेरे मरने की सूचना जब राजेश्वरी को मिलेगी तो एक क्षण के लिए उसे शोक तो होगा ही, चाहे फिर हर्ष हो, आंखों में आंसू भर आएंगी। अभी मुझे पापी, अत्याचारी, विषयी समझ रही है, सब ऐब-ही-ऐब दिखाई दे रहे हैं। मरने पर कुछ तो गुणों की याद आएगी। मेरी कोई बात तो उसके कलेजे में चुटकियां लेगी। इतना तो जरूर ही कहेगी कि उसे मुझसे सच्चा प्रेम था।शहर में मेरी सार्वजनिक सेवाओं की प्रशंसा होगी। लेकिन कहीं यह रहस्य खुल गया तो मेरी सारी कीर्ति पर पानी फिर जाएगी। यह ऐब सारे गुणों को छिपा लेगा, जैसे सफेद चादर पर काला धब्बा, या स्वर्ग सुंदर चित्र पर एक छींटा। बेचारी ज्ञानी तो यह समाचार पाते ही मूच्र्छित होकर फिर पड़ेगी, फिर शायद कभी न सचेत हो, यह उसके लिए वज्राघात होगी। चाहे वह मुझसे कितनी ही घृणा करे, मुझे कितना ही दुरात्मा समझे, पर उसे मुझसे प्रेम है, अटल प्रेम है, वह मेरा अकल्याण नहीं देख सकती। जब से मैंने उसे अपना वृत्तांत सुनाया है, वह कितनी चिंतित, कितनी सशंक हो गई है। प्रेम के सिवा और कोई शक्ति न थी जो उसे राजेश्वरी के घर खींच ले जाती।
हलधर चारदीवारी कूदकर बाग में आता है और धीरे-धीरे इधर-उधर ताकता हुआ सबल के कमरे की तरफ जाता है।
हलधर : (मन में) यहां किसी की आवाज आ रही है। (भाला संभालकर) यहां कौन बैठा हुआ है। अरे ! यह तो सबलसिंह ही है। साफ उसी की आवाज है। इस वक्त यहां बैठा क्या कर रहा है ? अच्छा है यहीं काम तमाम कर दूंगा। कमरे में न जाना पड़ेगा। इसी हौज में फेंक दूंगा। सुनूं क्या कह रहा है।
सबल : बस अब बहुत सोच चुका। मन इस तरह बहाना ढूंढ रहा है। ईश्वर, तुम दया के साफर हो, क्षमा की मूर्ति हो, मुझे क्षमा करना। अपनी दीनवत्सलता से मुझे वंचित न करना। कहां निशाना लगाऊँ ? सिर में लगाने से तुरत अचेत हो जाऊँगी। कुछ न मालूम होगा, प्राण कैसे निकलते हैं। सुनता हूँ प्राण निकलने में कष्ट नहीं होता। बस छाती पर निशाना मारूं।
पिस्तौल का मुंह छाती की तरफ फेरता है। सहसा हलधर भाला फेंककर झपटता है और सबलसिंह के हाथ से पिस्तौल छीन लेता है।
सबल : (अचंभे में) कौन ?
हलधर : मैं हूं हलधर।
सबल : तुम्हारा काम तो मैं ही किए देता था।तुम हत्या से बच जाते। उठा लो पिस्तौल।
हलधर : आपके उसपर मुझे दया आती है।
सबल : मैं पापी हूँ, कपटी हूँ। मेरे ही हाथों तुम्हारा घर सत्यानाश हुआ। मैंने तुम्हारा अपमान किया, तुम्हारी इज्जत लूटी, अपने सगे भाई का वध कराया। मैं दया के योग्य नहीं हूँ।
हलधर : कंचनसिंह को मैंने नहीं मारा।
सबल : (उछलकर) सच कहते हो ?
हलधर : वह आप ही गंगा में कूदने जा रहे थे।मुझे उन पर भी दया आ गई। मैंने समझा था।, आप मेरा सर्वनाश करके भोग-विलास में मस्त हैं। तब मैं आपके खून का प्यासा हो गया था।पर अब देखता हूँ तो आप अपने किए पर लज्जित हैं, पछता रहे हैं, इतने दु: खी हैं कि प्राण तक देने को तैयार हैं। ऐसा आदमी दया के योग्य है। उस पर क्या हाथ उठाऊँ !
सबल : (हलधर के पैरों पर गिरकर) तुमने कंचन की जान बचा ली, इसके लिए मैं मरते दम तक तुम्हारा यश मानूंगा। मैं न जानता था। कि तुम्हारा ह्रदय इतना कोमल और उदार है। तुम पुण्यात्मा हो, देवता हो, मुझे ले चलो।कंचन को देख लूं। हलधर, मेरे पास अगर कुबेर का धन होता तो तुम्हारी भेंट कर देता। तुमने मेरे कुल को सर्वनाश से बचा लिया।
हलधर : मैं सबेरे उन्हें साथ लाऊँगा।
सबल : नहीं, मैं इसी वक्त तुम्हारे साथ चलूंगा। अब सब्र नहीं है।
हलधर : चलिए।
दोनों फाटक खोलकर चले जाते हैं।
अंक-5
पहला दृश्य
स्थान : डाकुओं का मकान।
समय : ढाई बजे रात। हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है।
हलधर : (मन में) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था। कि बड़े आदमियों में भाई-भाई में भी इतना प्रेम होता है। दोनों के आंसू ही न थमते थे।बड़ी कुशल हुई कि मैं मौके से पहुंच गया, नहीं तो वंश का अंत हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयों से ऐसा प्रेम हो गया है मानो मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह सकता है वह फिर एक-दूसरे के दुश्मन न हो जायेंगी। रोग की जड़ तो मन में जमी हुई है। उसको काटे बिना रोगी की जान कैसे बचेगी। राजेश्वरी के रहते हुए इनके मन की मैल न मिटेगी। दो-चार दिन में इनमें फिर अनबन हो जाएगी। इस अभागिनी ने मेरे कुल में आग लगायी, अब इस कुल का सत्यानाश कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जब तक जियेगी मुझे कलंकित करती रहेगी।
बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरी से निकाल देंगे। हुक्का-पानी बंद कर देंगे।हेठी और बदनामी होगी वह घाते में । यह तो यहां महल में रानी बनी बैठी अपने कुकर्म का आनंद उठाया करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊँ। अब तक उसको मारने का जी न चाहता था।औरतों पर हाथ उठाना नीचता का काम समझता था।पर अब वह नीचता करनी पड़ेगी। उसके किए बिना सब खेल बिगड़ जाएगी।
चेतनदास का प्रवेश।
चेतनदास : यहां कौन बैठा है ?
हलधर : मैं हूँ हलधर।
चेतनदास : खूब मिले। बताओ सबलसिंह का क्या हाल हुआ ? वध कर डाला ?
हलधर : नहीं, उन्हें मरने से बचा लिया
चेतनदास : (खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई सबलसिंह कहां हैं ?
हलधर : मेरे घर
चेतनदास : ज्ञानी जानती है कि वह जिंदा है ?
हलधर : नहीं, उसे अब तक इसकी खबर नहीं मिली।
चेतनदास : तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न होगी। वह घर में नहीं है। न जाने कहां गयी ? उसे यह खबर मिल जाएगी तो कदाचित् उसकी जान बच जाए। मैं उसकी टोह में जा रहा हूँ। इस अंधेरी रात में कहां खोजूं ? (प्रस्थान)
हलधर : (मन में) यह डाकन न जाने कितनी जानें लेकर संतुष्ट होगी। ज्ञानीदेवी है। उसने सबलसिंह को कमरे में न देखा होगी। समझी होगी वह गंगा में डूब मरे। कौन जाने इसी इरादे से वह भी घर से निकल खड़ी हुई हो, चलकर अपने आदमियों को उसका पता लगाने के लिए दौड़ा दूं। उसकी जान मुर्ति में चली जाएगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी-मारी फिरे और कुलटा महल में सुख की नींद सोये।
अचल दूसरी ओर से हवाई बंदूक लिये आता है।
हलधर : कौन ?
अचल : अचलसिंह, कुंअर सबलसिंह का पुत्र।
हलधर : अच्छा, तुम खूब आ गये पर अंधेरी रात में तुम्हें डर नहीं
लगा?
अचल : डर किस बात का ? मुझे डर नहीं लगता। बाबूजी ने मुझे बताया है कि डरना पाप है`
हलधर : जाते कहां हो ?
अचल : कहीं नहीं।
हलधर : तो इतनी रात गए घर से क्यों निकले ?
अचल : तुम कौन हो ?
हलधर : मेरा नाम हलधर है।
अचल : अच्छा, तुम्हीं ने माताजी की जान बचायी थी ?
हलधर : जान तो भगवान् ने बचायी, मैंने तो केवल डाकुओं को भगा दिया था। तुम इतनी रात गए अकेले कहां जा रहे हो ?
अचल : किसी से कहोगे तो नहीं ?
हलधर : नहीं, किसी से न कहूँगा
अचल : तुम बहादुर आदमी हो, मुझे तुम्हारे उसपर विश्वास है। तुमसे कहने में शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचा जी को और बाबूजी को विष देकर मार डाला है। अम्मांजी ने शोक से प्राण त्याग दिए । वह स्त्री थीं, क्या कर सकती थीं । अब मैं उसी वेश्या के घर जा रहा हूँ। इसी वक्त बंदूक से उसका सिर उड़ा दूंगा। (बंदूक तानकर दिखाता है।)
हलधर : तुमसे किसने कहा?
अचल : मिसराइन ने, चाचाजी कल से घर पर नहीं हैं। बाबूजी भी दस बजे रात से नहीं हैं। न घर में अम्मां का पता है। मिसराइन सब हाल जानती हैं।
हलधर : तुमने वेश्या का घर देखा है ?
अचल : नहीं, घर तो नहीं देखा है।
हलधर : तो उसे मारोगे उसे ?
अचल : किसी से पूछ लूंगा ।
हलधर : तुम्हारे चाचाजी और बाबूजी तो मेरे घर में हैं।
अचल : झूठ कहते हो, दिखा दोगे ?
हलधर : कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।
अचल : चलो, क्या दिखाओगे ! वह लोग अब स्वर्ग में होंगे।हां, राजेश्वरी का घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।
हलधर : अच्छा मेरे साथ आओ, मगर बंदूक ले लूंगा।
दोनों घर में जाते हैं, सबल और कंचन चकित होकर अचल को देखते हैं, अचल दौड़कर बाप की गरदन से चिमट जाता है।
हलधर : (मन में) अब यहां नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे ? बाहर चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मन में) यह बच्चा तक उसे वेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और भी गुल खिलेगी। अगर दोनों भाइयों ने उसे त्याग दिया तो पेट के लिए उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयादार नहीं है कि जहर खाकर मर जाए। जिसे मैं देवी समझता था। वह ऐसी कुल-कलंकिनी निकली ! तूने मेरे साथ ऐसा छल किया ! अब दुनिया को कौन मुंह दिखाऊँ। सब की एक ही दवा है । न बांस रहे न बांसुरी बजेब तेरे जीने से सबकी हानि है। किसी का लाभ नहीं तेरे मरने से सबका लाभ है, किसी की हानि नहीं उससे कुछ पूछना व्यर्थ है । रोएगी, गिड़गिड़ाएगी, पैरों पड़ेगी। जिसने लाज बेच दी
वह अपनी जान बचाने के लिए सभी तरह की चालें चल सकती है। कहेगी, मुझे सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाए, मैं तो आती न थी। न जाने क्या-क्या बहाने करेगी ! उससे सवाल-जवाब करने की जरूरत नहीं चलते ही काम तमाम कर दूंगा
हथियार संभालकर चल खड़ा होता है।
दूसरा दृश्य
स्थान : शहर की एक गली।
समय : तीन बजे रात, इंस्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से मुठभेड़।
इंस्पेक्टर : महाराज, खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा रहा था।लाइए दूध के धुले हुए पूरे एक हजार, कमी की गुंजाइश नहीं, बेशी की हद नहीं।
थानेदार : आपने जमानत न कर ली होती तो उधर भी हजार-पांच सौ पर हाथ साफ करता।
चेतनदास : इस वक्त मैं दूसरी फिक्र में हूँ। फिर कभी आना।
इंस्पेक्टर : जनाब, हम आपके गुलाम नहीं हैं जो बार-बार सलाम करने को हाजिर हों। आपने आज का वादा किया था। वादा पूरा कीजिए। कील व काल की जरूरत नहीं ।
चेतनदास : कह दिया, मैं इस समय दूसरी चिंता में हूँ। फिर इस संबंध में बातें होंगी।
इंस्पेक्टर : आपका क्या एतबार, इसी वक्त की गाड़ी से हरिद्वार की राह लें। पुलिस के मुआमले नकद होते हैं।
एक सिपाही : लाओ नगद-नारायन निकालो। पुलिस से ऊ फेरफार न चल पइहैं। तुमरे ऐसे साधुन का इहां रोज चराइत हैं।
इंस्पेक्टर : आप हैं किस गुमान में ! यह चालें अपने भोले-भाले चेले-चापड़ों के लिए रहने दीजिए, जिन्हें आप नजात देते हैं। हमारी नजात के लिए आपके रूपये काफी हैं। उससे हम फरिश्तों को भी राह पर लगा हुई। दारोगाजी, वह शेर आपको याद है ?
दारोगा : जी हां, ऐ तू खुदा नई, बलेकिन बखुदा हाशा रब्बी व गाफिल हो जाती।
इंस्पेक्टर : मतलब यह है कि रूपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा के दो सबसे बड़े औसाफ उसमें मौजूद हैं। परवरिश करना और इंसान की जरूरतों को रफा करना।
चेतनदास : कल किसी वक्त आइए।
इंस्पेक्टर : (रास्ते में खड़े होकर) कल आने वाले पर लानत है। एक भले आदमी की इज्जत खाक में मिलवाकर अब आप यों झांसा देना चाहते हैं। कहीं साहब बहादुर ताड़ जाते तो नौकरी के लाले पड़ जाते।
चेतनदास : रास्ते से हटोब (आगे बढ़ना चाहता है।)
इंस्पेक्टर : (हाथ पकड़कर) इधर आइए, इस सीनाजोरी से काम न चलेगा!
चेतनदास हाथ झटककर छुड़ा लेता है और इंस्पेक्टर को जोर से धक्का मार कर गिरा देता है।
दारोगा : गिरफ्तारी कर लो।रहजन है।
चेतनदास : अगर कोई मेरे निकट आया तो गर्दन उड़ा दूंगा। दारोगा पिस्तौल उठाता है, लेकिन पिस्तौल नहीं चलती, चेतनदास उसके हाथ से पिस्तौल छीनकर उसकी छाती पर निशाना लगाता है।
दारोगा : स्वामीजी, खुदा के वास्ते रहम कीजिए। ताजीस्त आपका गुलाम रहूँगा।
चेतनदास : मुझे तुझ-जैसे दुष्टों की गुलामी की जरूरत नहीं (दोनों सिपाही भाग जाते हैं। थानेदार चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ता है।) बोल, कितने रूपये लेगा ?
थानेदार : महाराज, मेरी जां बख्श दीजिए। जिंदा रहूँगा तो आपके एकबाल से बहुत रूपये मिलेंगे !
चेतनदास : अभी गरीबों को सताने की इच्छा बनी हुई है। तुझे मार क्यों न डालूं। कम-से-कम एक अत्याचारी का भार तो पृथ्वी पर कम हो जाये।
थानेदार : नहीं महाराज, खुदा के लिए रहम कीजिए। बाल-बच्चे दाने बगैर मर जाएंगी। अब कभी किसी को न सताऊँगा। अगर एक कौड़ी भी रिश्वत लूं तो मेरे अस्ल में गर्क समझिए। कभी हराम के माल के करी। न जाऊँगी।
चेतनदास : अच्छा, तुम इस इंस्पेक्टर के सिर पर पचास जूते गिनकर लगाओ तो छोड़ दूं।
थानेदार : महाराज, वह मेरे अफसर हैं। मैं उनकी शान में ऐसी बे-अदबी क्यों कर सकता हूँ। रिपोर्ट कर दें तो बर्खास्त हो जाऊँ।
चेतनदास : तो फिर आंखें बंद कर लो और खुदा को याद करो, घोड़ा गिरता है।
थानेदार : हुजूर जरा ठहर जायें, हुक्म की तामील करता हूँ। कितने जूते लगाऊँ ?
चेतनदास : पचास से कम न ज्यादाब
थानेदार : इतने जूते पड़ेंगे तो चांद खुल जाएगी। नाल लगी हुई है।
चेतनदास : कोई परवाह नहीं उतार लो जूते।
थानेदार जूते पैर से निकालकर इंस्पेक्टर के सिर पर लगाता है, इंस्पेक्टर चौंककर उठ बैठता है, दूसरा जूता फिर पड़ता है।
इंस्पेक्टर : शैतान कहीं का।
थानेदार : मैं क्या करूं ? बैठ जाइए, पचास लगा लूं। इतनी इनायत कीजिए ! जान तो बचे।
इंस्पेक्टर उठकर थानेदार से हाथा।पाई करने लगता है, दोनों एक दूसरे को गालियां देते हैं, दांत काटते हैं।
चेतनदास : जो जीतेगा उसे इनाम दूंगा। मेरी कुटी पर आना । खूब लड़ो, देखें कौन बाजी ले जाता है। (प्रस्थान।)
इंस्पेक्टर : तुम्हारी इतनी मजाल ! बर्खास्त न करा दिया तो कहना।
थानेदार : क्या करता, सीने पर पिस्तौल का निशाना लगाए तो खड़ा था।
इंस्पेक्टर : यहां कोई सिपाही तो नहीं है ?
थानेदार : वह दोनों तो पहले ही भाग गए।
इंस्पेक्टर : अच्छा, खैरियत चाहो तो चुपके से बैठ जाओ और मुझे गिन कर सौ जूते लगाने दो, वरना कहे देता हूँ कि सुबह को तुम थाने में न रहोगी। पगड़ी उतार लो।
थानेदार : मैंने तो आपकी पगड़ी नहीं उतारी थी।
इंस्पेक्टर : उस बदमाश साधु को यह सूझी ही नहीं।
थानेदार : आप तो दूसरे ही हाथ पर उठ खड़े हुए थे !
इंस्पेक्टर : खबरदार, जो यह कलमा फिर मुंह से निकला। दो के दस तो तुम्हें जरूर लगाऊँगा। बाकी फी पापोश एक रूपये के हिसाब से माफकर सकता हूँ।
दोनों सिपाही आ जाते हैं, दारोगा सिर पर साफा रख लेता है, इंस्पेक्टर क्रोधपूर्ण नेत्रों से उसे देखता है और सब गश्त पर निकल जाते हैं।
तीसरा दृश्य
स्थान : राजेश्वरी का कमरा।
समय : तीन बजे रात। फानूस जल रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर बैठी है।
राजेश्वरी : (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब जीवन में कौन-सा सुख रखा है। विधाता की लीला विचित्र है। संसार के और प्राणियों का जीवन धर्म से सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता है। मेरा जीवन अधर्म से सफल हुआ, हिंसा से ही मेरा मोक्ष हो रहा है। अब कौन मुंह लेकर मधुबन जाऊँ, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूं, किसे विश्वास आएगा ? मैंने यहां कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा ? हाय ! किसकी होकर रहूँगी ? हलधर का क्या ठिकाना ? न जाने कितनी जानें ली होंगी, कितनों का घर लूटा होगा, कितनों के खून से हाथ रंगे होंगे, क्या?क्या कुकर्म किये होंगे।वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूँ। वह मेरी सूरत न देखना चाहते हों तो मैं उनकी परछाई भी अपने उसपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे मेरा कोई संबंध नहीं मैं अनाथा हूँ, अभागिनी हूँ, संसार में कोई मेरा नहीं है।
कोई किवाड़ खटखटाता है, लालटेन लेकर नीचे जाती है, और किवाड़ खोलती है, ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : बहिन, क्षमा करना, तुम्हें असमय कष्ट दिया । मेरे स्वामीजी यहां हैं या नहीं ? मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।
राजेश्वरी : रानीजी, सत्य कहती हूँ वह यहां नहीं आये।
ज्ञानी : यहां नहीं आये !
राजेश्वरी : न ! जब से गए हैं फिर नहीं आयेब
ज्ञानी : घर पर भी नहीं हैं। अब किधर जाऊँ ? भगवन्, उनकी रक्षा करना। बहिन, अब मुझे उनके दर्शन न होंगे।उन्होंने कोईभयंकर काम कर डाला। शंका से मेरा ह्रदय कांप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था।शायद वह एक बार फिर आएं। उनसे कह देना, ज्ञानी तुम्हारे पदरज को शीश पर चढ़ाने के लिए आयी थी। निराश होकर चली गयी। उनसे कह देना वह अभागिनी, भ्रष्टा, तुम्हारे प्रेम के योग्य नहीं रही।
हीरे की कनी खा लेती है।
राजेश्वरी : रानीजी, आप देवी हैं¼ वह पतित हो गए हों, पर आपका चरित्र उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं !
ज्ञानी : बहिन, कभी यह घमंड था।, पर अब नहीं है।
उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते
हैं।
राजेश्वरी : रानीजी, कैसा जी है ?
ज्ञानी : कलेजे में आग-सी लगी हुई है। थोड़ा-सा ठंडा पानी दो। मगर नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठ में कांटे पड़ गए हैं। आत्मगौरव से बढ़कर कोई चीज नहीं उसे खोकर जिये तो क्या जिये !
राजेश्वरी : आपने कुछ खा तो नहीं लिया?
ज्ञानी : तुम आज ही यहां से चली जाओ। अपने पति के चरणों पर गिरकर अपना अपराध क्षमा करा लो।वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओं से बचाया था।तुम्हारे उसपर दया करेंगी। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूल की पंखड़ियों पर पड़ी हुई ओस की बूंदें या प्रभात काल की निर्मल किरणें। मैं सिद्व करती कि इसकी आत्मा पवित्र है।
पीड़ा से विकल होकर बैठ जाती है।
राजेश्वरी : (मन में) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया । आंखें पथरायी जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जा ने अंत में इनकी जान ही लेकर छोड़ी, मैं इनकी प्राणघातिका हूँ। मेरे ही कारण इस देवी की जान जा रही है। इसे मर्यादा?पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और अपमान भोगने के लिए बैठी हूँ। नहीं देवी, मुझे भी साथ लेती चलो।तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जाएगी। तुम्हें ईश्वर ने क्या नहीं दिया । दूध-पूत, मान-महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पति के पतित हो जाने के कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो, तो मैं, जिसका आंसू पोंछने वाला भी कोई नहीं, कौन-सा सुख भोगने के लिए बैठी रहूँ।
ज्ञानी : (सचेत होकर) पानीपानीA
राजेश्वरी : (कटोरे में पानी देती हुई) पी लीजिए।
ज्ञानी : (राजेश्वरी को ध्यान से देखकर) नहीं, रहने दो। पतिदेव के दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरने का हाल सुनकर उन्हें बहुत दु: ख होगा राजेश्वरी, उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे कि मेरी तरफ सीधी आंख से ताक भी न सकते थे।(फिर अचेत हो जाती है।)
राजेश्वरी : (मन में) भगवन् अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री होती तो मेरे खून की प्यासी हो जाती। इस देवी के ह्रदय में कितनी दया है। मुझे इतनी नीची समझती हैं कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीतीं, पर व्यवहार में कितनी भलमनसाहत है। मैं ऐसी दया की मूरत की घातिका हूँ। मेरा क्या अंत होगा!
ज्ञानी : हाय, पुत्र-लालसा ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । राजेश्वरी, साधुओं का भेस देखकर धोखे में न आना। (आंखें बंद कर लेती है।)
राजेश्वरी : कभी किसी साधु ने इसे जट कर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ रही है। तुम तो चली, मेरे लिए कौन रास्ता है ? वह डाकू ही हो गए हैं। अब तक सबलसिंह के भय से इधर न आते थे।अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे ? न जाने क्या?क्या दुर्गति करें? मैं जीना भी तो नहीं चाहती। मन, अब संसार का मायामोह छोड़ो। संसार में तुम्हारे लिए अब जगह नहीं है। हा ! यही
करना था। तो पहले ही क्यों न किया ? तीन प्राणियों की जान लेकर तब यह सूझी। कदाचित् तब मुझे मौत से इतना डर न लगता। अब तो जमराज का ध्यान आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशा से वहां की दुर्दशा तो अच्छी। कोई हंसने वाला तो न होगा। (रस्सी का फंदा बना कर छत से लटका देती है।) बस, एक झटके में काम तमाम हो जाएगी। इतनी-सी जान के लिए आदमी कैसे-कैसे जतन करता है। (गले में फंदा डालती है।) दिल कांपता है। जरा-सा फंदा खींच लूं और बसब दम घुटने लगेगी। तड़प-तड़पकर जान निकलेगी। (भय से कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों लगता है ? मैं अपने को इतनी कायर न समझती थी। सास के एक ताने पर, पति की एक कड़ी बात पर स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़कियां अपने विवाह की चिंता से माता-पिता को बचाने के लिए प्राण दे देती हैं। पहले स्त्रियां पति के साथ सती हो जाती थीं।डर क्या है ? जो भगवान् यहां हैं वही भगवान् वहां हैं। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा धर्म बिगाड़ना चाहता था।मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने कौशल से अपने धर्म की रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग-विलास के लोभ से यहां नहीं आई ! संसार चाहे मेरी कितनी ही निन्दा करे, ईश्वर सब जानते हैं। उनसे डरने का कोई काम नहीं
(फँदा खींच लेती है। तलवार लिए हुए हलधर का प्रवेश।)
हलधर : (आश्चर्य से) अरे ! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है।
तलवार से तुरत रस्सी काट देता है और राजेश्वरी को संभालकर फर्श पर लिट देता है।
राजेश्वरी : (सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दन पर क्यों नहीं चला देते ?
हलधर : जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं ?
राजेश्वरी : अभी इतनी दया है ?
हलधर : वह तुम्हारी लाज की तरह बाजार में बेचने की चीज नहीं है।
ज्ञानी : (होश में आकर) कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दी? यह आज भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। इसने अपनी लाज बेचने के लिए इस मार्ग पर पग नहीं रखा, बल्कि अपनी लाज की रक्षा करने के लिए अपनी, लाज की रक्षा के लिए इसने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । इसीलिए इसने यह कपटभेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरूष से बचने का इसके सिवा और कौन-सा उपाय था।तुम उस पर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे हो, उसने तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, बल्कि उसे उज्ज्वल कर दिया । ऐसी बिरली ही कोई स्त्री ऐसी अवस्था में अपने व्रत पर अटल रह सकती थी। यह चाहती तो आजीवन सुख भोग करती, पर इसने धर्म को स्वाद-लिप्सा की भेंट नहीं चढ़ाया। आह ! अब नहीं बोला जाता। बहुत-सी बातें मन में थीं, सिर में चक्कर आ रहा है, स्वामी के दर्शन न कर सकी(बेहोश हो जाती है।)
हलधर : ज्ञानी हैं क्या ?
राजेश्वरी : सबल का दर्शन पाने की आशा से यहां आयी थीं, किंतु बेचारी की लालसा मन में रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई ?
हलधर : मैं अभी उन्हें लाता हूँ।
राजेश्वरी : क्या अभी वह...
हलधर : हां, उन्होंने प्राण देना चाहा था।, पिस्तौल का निशाना छाती पर लगा लिया था।, पर मैं पहुंच गया और उनके हाथ से पिस्तौल छीन ली। दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुंह पर पानी के छींटे देती रहना। गुलाबजल तो रखा ही होगा, उसे इनके मुंह में टपकाना, मैं अभी आता हूँ।
जल्दी से चला जाता है।
राजेश्वरी : (मन में) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया नाम को भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगे, आचरण भ्रष्ट हो गया होगा। पर इनकी आंखों में तो दया की जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न जाने कैसे दोनों भाइयों की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घात में लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत के मुंह से निकाल दिया । क्या र्इश्वर की लीला है कि एक हाथ से विष पिलाते हैं और दूसरे हाथ से अमृत मुझी को कौन बचाता। सोचता कि मर रही है, मरने दो। शायद यह मुझे मारने के ही लिए यहां तलवार लेकर आए होंगे।मुझे इस दशा में देखकर दया आ गई। पर इनकी दया पर मेरा जी झुंझला रहा है। मेरी यह बदनामी यह जगहंसाई बिल्कुल निष्फल हो गई। इसमें जरूर ईश्वर का हाथ है। सबलसिंह के परोपकार ने उन्हें बचाया। कंचनसिंह की भक्ति ने उनकी रक्षा की। पर इस देवी की जान व्यर्थ जा रही है। इसका दोष मेरी गरदन पर है। इस एक देवी पर कई सबलसिंह भेंट किए जा सकते हैं ! (ज्ञानी को ध्यान से देखकर) आंखें पथरा गई, सांस उखड़ गई, पति के दर्शन न कर सकेंगी, मन की कामना मन में ही रह गयी। (गुलाबजल के छीटें देकर) छनभर और
ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए ? कहां हैं, जरा मुझे उनके पैर दिखा दो।
राजेश्वरी : (सजल नयन होकर) आते ही होंगे, अब देर नहीं है। गुलाबजल पिलाऊँ?
ज्ञानी : (निराशा से) न आएंगे, कह देना तुम्हारे चरणों की याद में(मूच्र्छित हो जाती है।)
चेतनदास का प्रवेश।
राजेश्वरी : यह समय भिक्षा मांगने का नहीं है। आप यहां कैसे चले आए ?
चेतनदास : इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमा-दान मांगने आया हूँ।
राजेश्वरी : किससे?
चेतनदास : जो इस समय प्राण त्याग रही है।
ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए? कोई अचल को मेरी गोद में क्यों नहीं रख देता?
चेतनदास : देवी, सब-के-सब आ रहे हैं। तुम जरा यह जड़ी मुंह में रख लो।भगवान् चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।
ज्ञानी : कल्याण अब मेरे मरने में ही है।
चेतनदास : मेरे अपराध क्षमा करो।
ज्ञानी के पैरों पर फिर पड़ता है।
ज्ञानी : यह भेष त्याग दो। भगवान् तुम पर दया करें।
उसके मुंह से खून निकलता है और प्राण निकल जाते हैं, अन्तिम शब्द उसके मुंह से यही निकलता है, अचल तू अमर हो...
राजेश्वरी : अन्त हो गया। (रोती है) मन की अभिलाषा मन में ले गई। पति और पुत्र से भेंट न हो सकी।
चेतनदास : देवी थी।
सबलसिंह, कंचनसिंह, अचल, हलधर सब आते हैं।
राजेश्वरी : स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्वि दिखाइए। एक पल-भर के लिए सचेत हो जाती तो उनकी आत्मा शांत हो जाती।
चेतनदास : अब ब्रह्मा भी आएं तो कुछ नहीं कर सकते।
अचल रोता हुआ मां के शव से लिपट जाता है,
सबल को ज्ञानी की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।
राजेश्वरी : आप लोग एक पल-भर पहले आ जाते तो इनकी मनो- कामना पूरी हो जाती। आपकी ही रट लगाए हुए थीं। अन्तिम शब्द जो उनके मुंह से निकला वह अचलसिंह का नाम था।
सबल : यह मेरी दुष्टता का दंड है। हलधर, अगर तुमने मेरी प्राण रक्षा न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी हैं। मेरे कमोऊ का इससे उचित दंड हो ही नहीं सकता था।मैं तुम्हारे घर का सर्वनाश करना चाहता था।विधाता ने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया । आज मेरी आंखें खुल गयीं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य और सम्पत्ति जिस पर मानव-समाज मिटा हुआ है, जिसकी आराधना और भक्ति में हम अपनी आत्माओं को भी भेंट कर देते हैं, वास्तव में एक प्रचंड ज्वाला है, जो मनुष्य के ह्रदय को जलाकर भस्म कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन प्राणियों के पाप-भार से दबी हुई है? वह कौन से लोग हैं जो दुर्व्यसनों के पीछे नाना प्रकार के पापाचार कर रहे हैं? वेश्याओं की अक्रालिकाएं किन लोगों के दम से रौनक पर हैं? किनके घरों की महिलाएं रो-रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही हैं? किनकी बंदूकों से जंगल के जानवरों की जान संकट में पड़ी रहती है? किन लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आए दिन समर भूमि रक्तमयी होती रहती है। किनके सुख भोग करने के लिए गरीबों को आए दिन बेगारें भरनी पड़ती हैं? यह वही लोग हैं जिनकेके पास ऐश्वर्य है, सम्पत्ति है, प्रभुत्व है, बल है। उन्हीं के भार से पृथ्वी दबी हुई है, उन्हीं के नखों से संसार पीड़ित हो रहा है। सम्पत्ति ही पाप का मूल है, इसी से कुवासनाएं जागृत होती हैं, इसी से दुर्व्यसनों की सृष्टि होती है। गरी। आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधा की तृप्ति के लिए। धनी पुरूष पाप करता है अपनी कुवृत्तियों, और कुवासनाओं की पूर्ति के लिए। मैं इसी व्याधि का मारा हुआ हूँ। विधाता ने मुझे निर्धन बनाया होता, मैं भी अपनी जीविका के लिए पसीना बहाता होता, अपने बाल-बच्चों के उदर-पालन के लिए मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता, यों रक्त के आंसू न रोने पड़ते। धनीजन पुण्य भी करते हैं, दान भी करते हैं, दु: खी आदमियों पर दया भी करते हैं। देश में बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं, सैकड़ों पाठशालाएं, चिकित्सालय, तालाब, कुएं उनकी कीर्ति के स्तम्भ रूप खड़े हैं, उनके दान से सदाव्रत चलते हैं, अनाथों और विधवाओं का पालन होता है, साधुओं और अतिथियों का सत्कार होता है, कितने ही विशाल मन्दिर सजे हुए हैं, विद्या की उन्नति हो रही है, लेकिन उनकी अपकीर्तियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अंधेरी रात में जुगुनू की चमक के समान हैं, जो अंधकार को और भी गहन बना देती हैं। पाप की कालिमा दान और दया से नहीं धुलती। नहीं, मेरा तो यह अनुभव है कि धनी जन कभी पवित्र भावों से प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी दानशीलता, उनकी भक्ति, उनकी उदारता, उनकी दीन-वत्सलता वास्तव में उनके स्वार्थ को सिद्व करने का साधन-मात्र है। इसी टट्टी की आड़ में वह शिकार खेलते हैं। हाय क्क तुम लोग मन में सोचते होगे, यह रोने और विलाप करने का समय है, धन और सम्पदा की निंदा करने का नहीं मगर मैं क्या करूं? आंसुओं की अपेक्षा इन जले हुए शब्दों से, इन फफोलों के फोड़ने से, मेरे चित्त को अधिक शांति मिल रही है। मेरे शोक ह्दय-दाह, और आत्मग्लानि का प्रवाह केवल लोचनों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिए ज्यादा चौड़े, ज्यादा स्थूल मार्ग की जरूरत है। हाय क्क इस देवी में अनेक गुण थे।मुझे याद नहीं आता कि इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे कहा हो, वह मेरे प्रेम में मग्न थी। आमोद और विलास से उसे लेश-मात्र भी प्रेम न था।वह संन्यासियों का जीवन व्यतीत करती थी। मेरे प्रति उनके ह्रदय में कितनी श्रद्वा थी, कितनी शुभकामना। जब तक जी मेरे लिए जी और जब मुझे सत्पथ से हटते देखा तो यह शोक उसके लिए असह्य हो गया। हाय , मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतन का वृत्तांत उससे न कहता ! पर उसकी सह्दयता और सहानुभूति के रसास्वादन से मैं अपने को रोक न सका। उसकी यह क्षमा, आत्मकृपा कभी न भूलेगी जो इस वृत्तांत को सुनकर उसके उदास मुख पर झलकने लगी। रोष या क्रोध का लेश-मात्र भी चिन्ह न था। वह दयामूर्ति सदा के लिए मेरे ह्दयगृह को उजाड़ कर अदृश्य हो गई। नहीं, मैंने उसे पटककर चूर-चूर कर दिया । (रोता है।) हाय, उसकी याद अब मेरे दिल से कभी न निकलेगी।
चौथा दृश्य
स्थान : गुलाबी का मकान।
समय : दस बजे रातब
गुलाबी : अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमापूंजी थी वह
निकल गई। तीन-चार दिन के अन्दर क्या-से-क्या हो गया। बना-बनाया घर उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गए।
जिस देवी की बदौलत इतनी उम्र सुख से कटी वह संसार से उठ गयीं। अब वहां पेट की रोटियों के सिवा और क्या रखा
है। न उधर ही कुछ रहा, न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोक से गई। उस कलमुंहे साधु का कहीं पता नहीं न जाने कहां लोप हो गया। रंगा हुआ सियार था।मैं भी उसके छल में आ गई। अब किसके बल पर कूदूं। बेटा-बहू यों ही बात न पूछते थे, अब तो एक बूंद पानी को तरसूंगी। अब किस दावे से कहूँगी, मेरे नहाने के लिए पानी रख दे, मेरी साड़ी छांट दे, मेरा बदन दाब दे। किस दावे पर धौंस जमाऊँगी। सब रूपये के मीत हैं। दोनों जानते थे, अम्मां के पास धन है। इसलिए डरते थे, मानते थे, जिस कल चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त साधु को पाऊँ तो सैकड़ों गालियां सुनाऊँ, मुंह नोच लूं। अब तो मेरी दशा उस बिल्ली की-सी है जिसके पंजे कट गए हों, उस बिच्छु की-सी जिसका डंक टूट गया हो, उस रानी की-सी जिसे राजा ने आखों से गिरा दिया हो,
चम्पा : अम्मां, चलो, रसोई तैयार है।
गुलाबी : चलो बेटी, चलती हूँ। आज मुझे ठाकुर साहब के घर से आने में देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।
चम्पा : (मन में) अम्मां आज इतने प्यार से क्यों बातें कर रही हैं, सीधी बात मुंह से निकलती ही न थी। (प्रकट) कुछ कष्ट नहीं हुआ, अम्मां, कौन अभी तो नौ बजे हैं।
गुलाबी : भृगुनाथ ने भोजन कर लिया है न?
चम्पा : (मन में) कल तक को अम्मां पहले ही खा लेती थीं, बेटे
को पूछती तक न थीं, आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैं?(प्रकट) तुम चलकर खा लो, हम लोगों को तो सारी रात पड़ी है।
गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथों से पानी निकालतीहै।
चम्पा : तुम बैठो अम्मां, मैं पानी रख देती हूँ।
गुलाबी : नहीं बेटी, मटका भरा हुआ है, तुम्हारी आस्तीन भीग जाएगी।
चम्पा : (पंखा झलने लगती है।) नमक तो ज्यादा नहीं हो गया?
गुलाबी : पंखा रख दो बेटी, आज गरमी नहीं है। दाल में जरा नमक ज्यादा हो गया है। लाओ, थोड़ा-सा पानी मिलाकर खा लूं।
चम्पा : मैं बहुत अंदाज से छोड़ती हूँ, मगर कभी-कभी कम-बेस हो ही जाता है।
गुलाबी : बेटी, नमक का अंदाज बुढ़ापे तक ठीक नहीं होता, कभी-कभी धोखा हो ही जाता है। (भृगु आता है।) आओ बेटा, खाना खा लो, देर हो रही है। क्या हुआ, कंचनसिंह के यहां जवाब मिल गया?
भृगु : (मन में) आज अम्मां की बातों में कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता है। (प्रकट) नहीं अम्मां, सच पूछो तो आज ही मेरी नौकरी लगी है। ठाकुरद्वारा बनवाने के लिए मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।
गुलाबी : बेटा, यह धरम का काम है, हाथ?पांव संभालकर रहना।
भृगु : दस्तूरी तो छोड़ता नहीं, और कहीं हाथ मारने की गुंजाइश नहीं ठाकुर जी सीधे से दे दें तो उंगली क्यों टेढ़ी करनी पड़े।
भोजन करने बैठता है।
चम्पा : (भृगु से) कुछ और लेना हो तो ले लो, मैं जाती हूँ अम्मां का बिछावन बिछाने।
गुलाबी : रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।
भृगु : (चम्पा से) यह आज दाल में नमक क्यों झोंक दिया? नित्य यही काम करती हो, फिर भी तमीज नहीं आती?
चम्पा : ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।
भृगु : शर्म नहीं आती, उसपर से हेकड़ी करती हो,
गुलाबी : जाने दो बेटा, अंदाज न मिला होगी। मैं तो रसोई बनाते?
बनाते बुङ्ढी हो गई, लेकिन कभी-कभी नमक घट-बढ़ जाता ही है।
भृगु : (मन में) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद ठाकुरों का पतन देख के इनकी आंखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यार से बातें करें तो हम लोग तो इनके चरण धो-धोकर पियें।(प्रकट) मैं तो किसी तरह खा लूंगा, पर तुम तो न खा सकोगी।
गुलाबी : खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटी, खा-पीकर आराम से सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक हो गई है।
चम्पा : (मन में) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊँ इसी तरह रोज रहें तो फिर यह घर स्वर्ग हो जाये। (प्रकट) जरा बदन दबा देने से कौन बड़ी रात निकल जाएगी
गुलाबी : (मन में) आज कितने प्रेम से बहू मेरी सेवा कर रही है, नहीं तो जरा-जरा-सी बात पर नाकभौं सिकोड़ा करती थी (प्रकट) जी चाहे तो थोड़ी देर के लिए आ जाना, तुम्हें प्रेमसाफर सुनाऊँगी
चेतनदास का प्रवेश
गुलाबी : (आश्चर्य से) महाराज, आप कहां चले गए थे? मैं दिन में कई बार आपकी कुटी पर गई
चेतनदास : आज मैं एक कार्यवश बाहर चला गया था।अब एक महातीर्थ पर जाने का विचार है। अपना धन ले लो, गिन लेना, कुछ-न-कुछ अधिक ही होगी। मैं वह मन्त्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।।
गुलाबी : (चेतनदास के पैरों पर गिरकर) महाराज, बैठ जाइए, आपने यहां तक आने का कष्ट किया है, कुछ भोजन कर लीजिए। कृतार्थ हो जाऊँगी।
चेतनदास : नहीं माताजी, मुझे विलम्ब होगी। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह बात ध्यान से सुनो। आगे किसी साधु-महात्मा को अपना धन दूना करने के लिए मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदास के चरण छूते हैं।) माता, तेरे पुत्र और वधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि मेरे पास धन है। धन के बल से नहीं, प्रेम के बल से अपने घर में शासन कर।
चेतनदास का प्रस्थान
पाँचवाँ दृश्य
स्थान : स्वामी चेतनदास की कुटी
समय : रात, चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं।
चेतनदास : (आप-ही-आप) मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ, धूर्त हूँ। मैंने सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग की क्रियाएं सीखीं, इसीलिए हिप्नाटिज्म सीखी, मेरा लोग कितना सम्मान, कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरूष मुझसे धन मांगते हैं, स्त्रियां मुझसे सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर सकूं तिस पर भी लोग मेरा पिंड नहीं छोड़ते। मैंने कितने घर तबाह किए, कितनी सती स्त्रियों को जाल में फंसाया, कितने निश्छल पुरूषों को चकमा दिया । यह सब स्वांग केवल सुखभोग के लिए, मुझ पर धिक्कार है ! पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था।मेरे आदर्श कितने ऊँचे थे।मैं संसार से विरक्त हो गया। पर स्वार्थी संसार ने मुझे खींच लिया। मेरी इतनी मान-प्रतिष्ठा थी, मैं पाखंडी हो गया, नर से पिशाच हो गया। हां, मैं पिशाच हो गया। हां ! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं। उनके स्वरूप कितने भयंकर हैं। वह मुझे निगल जाएंगी। भगवन्, मुझे बचाओ ! वह सब अपने मुंह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं। (आंखें बन्द कर लेते हैं) ज्ञानी ! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप है। तेरे मुख से ज्वाला निकल रही है। तेरी आंखों से आग की लपटें आ रही हैं। मैं जल जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दर थी। कैसी कोमलांगी थी ! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं, वह कमल की-सी आंखें, वह पुष्प के-से कपोल कहां हैं। नहीं, यह मेरे अधर्मो का, मेरे दुष्कर्मो का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मो ने यह पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापों की ज्वाला है। क्या मैं अपने ही पापों की आग में जलूंगा? अपने ही बनाए हुए नरक में पडूंगा? (आंखें बंद करके हाथों से हटाने की चेष्टा करके) नहीं, मैं ईश्वर की शपथ खाता हूँ, अब कभी ऐसे कर्म न करूंगा। मुझे प्राणदान दे। आह, कोई विनय नहीं सुनता। ईश्वर, मेरी क्या गति होगी ! मैं इस पिशाचिनी के मुख का ग्रास बना जा रहा हूँ। यह दया-शून्य, ह्दय-शून्य राक्षसी मुझे निगल जाएगी भगवन् ! कहां जाऊँ, कहां भागूं? अरे रे जला.....
(दौड़कर नदी में कूद पड़ता है, और एक बार फिर ऊपर आकर नीचे डूब जाता है।)
छठा दृश्य
स्थान : मधुबन।
समय : सावन का महीना, पूजा-उत्सव, ब्रह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं
गीत
जय जगदीश्वरी मात सरस्वती, सरनागत प्रतिपालनहारी।
चंद्रजोत-सा बदन बिराजे, सीस मुकुट माला फलधारी।जय..
बीना बाम अंग में सोहे, सामगीत धुन मधुर पियारी।जय..
श्वेत बसन कमलासन सुन्दर, संग सखी अरू हंस सवारी।जय..
सलोनी : (देवी की पूजा करके राजेश्वरी से) आ, तेरे गले में माला डाल दूं, तेरे माथे पर भी टीका लगा दूं। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती रही तो इस गांव में तेरा मन्दिर बनवाकर छोडूंगी।
एक वृद्वा : साक्षात् देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गए, नहीं तो बेगार भरने और रो-रोकर दिन काटने के सिवा और क्या था।!
सलोनी : (राजेश्वरी से) क्यों बेटी, तूने वह विद्या कहां पढ़ी थी। धन्न है तेरे माई-बाप को, जिनकेके कोख से तूने जन्म लिया। मैं तुझे नित्य कोसती थी, कुल-कलंकिनी कहती थी। क्या जानती थी कि तू वहां सबके भाग संवार रही है।
राजेश्वरी : काकी, मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वर की दया से हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता हैं। मैं तो उनसे अपने अपमान का बदला लेने गई थी। मन में ठान लिया था। कि उनके कुल का सर्वनाश करके छोड़ूगी। अगर तुम्हारे भतीजे ने उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुल में पानी देने वाला भी न रहता।
सलोनी : ईश्वर की लीला अपार है।
राजेश्वरी : ज्ञानीदेवी ने अपने प्राण देकर हम सभी को उबार लिया। इस शोक ने ठाकुर साहब को विरक्त कर दिया । कोई दूसरा समझता, बला से मर गई, दूसरा ब्याह कर लेंगे, संसार में कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन उनके मन में दया और धर्म की जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि मैंने इस कुमार्ग पर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोक से आत्महत्या करती। उनके मन ने कहा - तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हीं ने इसकी गरदन पर छुरी चलाई है। इसी ग्लानि की दशा में उनको विदित हुआ कि इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी सम्पत्ति है। यह न होती तो मेरा मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही क्यों न त्याग दूं जिससे ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंह को जो ठाकुर साहब के मुंह से बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा त्यागने पर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कंचनसिंह पहले ही से भगवद्-भजन में मग्न रहते थे।उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसी को धर्मशाला बनायेंगी। घर में सब मिलाकर कोई पचास-साठ हजार नकद रूपये थे।हवागाड़ी, गिटन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़-फानूस, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी, इन सब चीजों के बेचने से पच्चीस हजार मिल गए, दस हजार के ज्ञानदेवी के गहने थे।वह भी बेच दिए गए। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रूपये ठाकुरद्वारा के लिए जमा हो गए। ठाकुरद्वारे के पास ही ज्ञानीदेवी के नाम का एक पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रखकर क्या करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीरथयात्रा करने चले गए।
सलोनी : और अचलसिंह कहां गया? मैं तो उसे देख लेती तो छाती से लगा लेती। लड़का नहीं है, भगवान् का अवतार है।
एक स्त्री : उसके चरन धोकर पीना चाहिए ।
राजेश्वरी : गुरूकुल में पढ़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया। अब अकेले कंचनसिंह रह गए हैं। वह ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं।
सलोनी : अच्छा अब चलो, अभी दस मन की पूरियां बेलनी हैं।
सब स्त्रियां गाती हुई लौटती हैं, लक्ष्मी की स्तुति करती हुई जाती हैं।
फत्तू : चलो, चलो, कड़ाह की तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखो, देर न हो, मैं जाता हूँ मौलूद सरीफ का इंतजाम करने। फरस और सामियाना आ गया।
हलधर : तुम उधर थे, इधर थानेदार आए थे ठाकुर सबलसिंह की खोज में। कहते थे उनके नाम वारंट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गधाम में तलाश करो। मगर यह तो आने का बहाना था।असल में आए थे नजर लेने। मैंने कहा , नजर तो देते नहीं, हां हजारों रूपये खैरात हो रहे हैं, तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो।मैंने तो समझा था। कि यह सुनकर अपना-सा मुंह लेके चला जाएगा लेकिन इस महकमे वालों को हया नहीं होती, तुरन्त हाथ फैला दिए । आखिर मैंने पच्चीस रूपये हाथ पर रख दिए ।
फत्तू : कुछ बोला तो नहीं?
हलधर : बोलता क्या, चुपके से चला गया।
फत्तू : गाने वाले आ गए?
हलधर : हां, चौपाल में बैठे हैं, बुलाता हूँ।
मंगई : (गांव की ओर से आकर) हलधर भैया, सबकी सलाह है कि तुम्हारा विमान सजाकर निकाला जाए, वहां से लौटने पर गाना-बजाना हो,
हरदास : तुम्हारी बदौलत सब कुछ हुआ है, तुम्हारा कुछ तो महातम होना चाहिए ।
हलधर : मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवान् की इच्छा है। जरा गाने वालों को बुला लो!
हरदास जाता है।
मंगई : भैया, अब तो जमींदार को मालगुजारी न देनी पड़ेगी?
हलधर : अब तो हम आप ही जमींदार हैं, मालगुजारी सरकार को देंगी।
मंगई : तुमने कागद-पत्तर देख लिये हैं? रजिस्टरी हो गई है?
हलधर : मेरे सामने ही हो गई थी।
हलधर किसी काम से चला जाता है, हरदास गाने वालों को बुला लाता है, वह सब साज मिलाने लगते हैं।
मंगई : (हरदास से) इसमें हलधर का कौन एहसान है? इनका बस होता तो सब अपने ही नाम चढ़वा लेते।
हरदास : एहसान किसी का नहीं है। ईश्वर की जो इच्छा होती है वही होता है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सबका ठाकुर हूँ। जमीन पर पांव ही नहीं रखते। चंदे के रूपये ले लिये, लेकिन हमसे कोई सलाह तक नहीं लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता है, करते हैं।
मंगई : दोनों खासी रकम बना हुई। दो हजार चंदा उतरा है। खरचा वाजिबी-ही-वाजिबी हो रहा है।
गाना होता है।
जगदीश सकल जगत का तू ही अधार है
भूमि, नीर, अगिन, पवन, सूरज, चंद, शैल, गगन
तेरा किया चौदह भुवन का पसार है।जगदीश...
सुर, नर, पशु, जीव?जंतु, जल, थल, चर है अनंत,
तेरी रचना का नहीं अंत पार है।जगदीश...
करूनानिधि, विश्वभरण, शरणागत, तापहरण,
सत चित सुखरूप सदा निरविकार है।जगदीश...
निरगुन सब गुन-निधान निगमागम करत गान,
सेवक नमन करत बार-बार है। जगदीश...
।। समाप्त ।।
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