Friday, September 23, 2022

कहानी | ताँगेवाला | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Tangewala | Subhadra Kumari Chauhan


 
गरमी की लम्बी छुट्टियां प्रारंभ हो चुकी थीं। मेरे कुछ मित्रों ने इन गर्मियों की छुट्टियों में कश्मीर जाना तय किया था और इस प्रस्ताव को सबसे अधिक समर्थन मैंने दिया। हम लोग जाने की पूरी तैयारी कर चुके थे कि अचानक यात्रा के दो दिन पहले मेरे एक मित्र रामकृष्ण का एक आवश्यक पत्र आया। इस पत्र के अनुसार मुझे अपनी कश्मीर यात्रा स्थगित करनी पड़ी। मैं अपने मित्र से मिलने उसके गांव की ओर चल पड़ा।

जिस स्टेशन पर उतरना था, गाड़ी वहां दुपहर एक बजे पहुंची । चिलचिलाती धूप, लू की लपट और कच्ची सड़क की धूल ! मेरा गांव तक जाने का साहस न हुआ। मैंने सोचा, शाम को जाना ही ठीक होगा। ताँगेवाले कम थे और उतरनेवाले और भी कम । ताँगेवाले सवारी लेकर चल पड़े। खाली ताँगेवाले भी चलने का उपक्रम कर रहे थे कि एक अच्छा-सा ताँगा-घोड़ा, देखकर उसे मैंने बुलाया। ताँगेवाले ने आकर सलाम किया। मैंने कहा, "देखो, भाई मुझे गांव जाना है, पर मैं अभी इस धूप में न जाऊंगा । शाम को पांच बजे के करीब जाऊंगा । तुम ठहरोगे?"

"हाँ हुज़ूर, ठहरूंगा ।"

"किराया क्या होगा ?"

"हुज़ूर, जो आप खुशी से दे दें।"

"खुशी की बात नहीं रेट क्या है? वह बतलाओ।"

"तेईस मील है न हुज़ूर! आप दूसरों से पूछ लीजिए, पांच रुपए पूरे ताँगे के होते हैं। फिर चाहे एक सवारी हो या तीन ।"

"पर मैं तो इतना न दूंगा।"

"इसीलिए तो मैंने कहा कि आप खुशी से जो दे दीजिए हुज़ूर ।"

मैं उसे कुछ पैसे देकर वेटिंग रूम में चला गया।

शाम के छह बजे हम लोग खा-पीकर और खाने का कुछ सामान साथ रखकर गांव की ओर रवाना हुए । वैसे ताँगेवाला कहता था कि तेईस मील दो घंटे में खुशी से ले जा सकता है, पर स्टेशन से आगे दो मील के बाद ही कच्ची सड़क प्रारंभ हो जाती है, इसलिए देर लगेगी । मोटे साहब से हम चार घंटे बाद गाँव पहुँचेंगे । स्टेशन की सीमा पार करते ही किसानों के साफ-सुथरे लिपे-पुते छोटे-छोटे घर और हरे-भरे खेत बड़े ही सुहावने जान पड़े । सात भी न बज पाए थे कि पू्र्णचन्द्र ने सहस्रों घड़े दूध पृथ्वी पर उँड़ेल दिया । दिन की लू अब ठंडी हवा में परिवर्तित हो चुकी थी ।

हम इस सुहावने दुश्य को देखकर मैदान में पहुंचे । अब रास्ते में दोनों ओर खाली मैदान था । दूर पर एक-आध पेड़ निर्जन में ऐसा खड़ा था, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो । मैंने सोचा चाँदनी रात की वह आभा एक साथी के अभाव में उतनी सुखदाई न हो सकेगी जितनी होनी चाहिए । मैंने ताँगेवाले से पूछा, जो धीरे-धीरे कुछ गुनगुना रहा था, 'कितने मील आ चुके हैं हम लोग?'

-अभी हुज़ूर, कुल सात मील ही तो आए हैं । और फिर वह जरा जोर से गा उठा-

हम फिर से वतन अपना सवाधीन बना लेंगे

मैंने जरा सतर्क होकर ताँगेवाले की ओर देखा । खद्दर का कुरता और गान्धी टोपी उसके सिर पर थी । मैंने सोचा, इसीलिए तो यह स्वाधीनता के गीत गाता है ।

मैंने ताँगेवाले से पूछा, कितने दिनों से ताँगा हांकते हो ताँगेवाले?

-हुज़ूर कोई पांच साल हुए। किसी की नौकरी करने से यह अच्छा है । तबीयत हुई जोता, न तबीयत हुई बैठे रहे । किसी की ताबेदारी नहीं । अपने मन का राज है ।

सामने चलकर नदी थी । नदी का पुल पार करते ही ताँगेवाले ने ताँगा रोक दिया । बोला, हुज़ूर, यहाँ जरा आराम कर लीजिए । नदी का पानी बहुत साफ़ और मीठा है । कहते हैं कि सन् सत्तावन के गदर में तात्या टोपे दुश्मनों की सेना को चीरते हुए यहीं से नदी के पार चला गया था ।

तात्या टोपे? मैंने मन में सोचा, इसे इतिहास का भी कूछ ज्ञान है ।

ताँगेवाला फिर बोला, हाँ हुज़ूर, तात्या टोपे नदी के पार जाना चाहता था । फिरंगियों की सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया था । फिर भी हुज़ूर वह इतना तेज, इतना फुर्तीला था कि चार-पांच बड़े-बड़े फिरंगी अफसरों के सामने से निकल गया, अपनी सेना समेत, और उसका कोई कूछ भी न कर सका ।

मुझे ताँगेवाले के मुंह से इतिहास की कहानी बड़ी ही रोचक लगी । मैं जानता था कि आखिर इस ताँगेवाले के मन में क्या है? मैंने पूछा, 'फिर क्या हुआ ?' और मैं ताँगे से उतरकर उसके पीछे-पीछे चला ।

वह बोला, 'सन सत्तावन के गदर में अगर हिन्दुस्तानियों में एका, होता तो पाँसा ही पलट जाता । पर तकदीर और फूट जो न कराए सो थोड़ा ! मौलवी अहमदशाह और तात्या टोपे सरीखे देशभक्त वीरों को भी हमीं में से धोखेबाज लोगों ने धोखा देकर दुश्मनों के हवाले कर दिया । खून खौल उठता है हुज़ूर, यह बात सोचकर?

मैंने पूछा, तुम पढ़े-लिखे हो?

ताँगेवाला उत्साह के साथ बोला, बहुत कम हुज़ूर हिंदी अच्छी तरह पढ़-लिख लेता हूँ। अंग्रेजी भी थोड़ी जानता हूँ । पर हुज़ूर जब से सत्तावन के गदर का इतिहास पढ़ा और यह जाना कि फिरंगी कैसे आए और कैसे फैल गए सारे हिंदुस्तान में, यह जाना, तब से हुजूर, बदले की भावना से रात-दिन जलता रहता हूँ । सरकारी नौकरी इसीलिए नहीं की। मेरा बाप डी०सी० की अर्दली में था । मुझे वह जगह मिल रही थी । मैंने ठोकर मार दी । माँ-बाप नाराज हो गए तो घर ही छोड़ दिया। तब से यहाँ हूँ । यह ताँगा चलाता हूँ पर ताँगे पर भी किसी साले फिरंगी को बैठाकर ताँगा न हाँकूँगा।

क्यों? फिरंगी को न बैठाने की कसम क्यों खा ली है?

-सारे हिन्दुस्तान में गदर के समय इन फिरंगियों ने क्या कम जुल्म किए हैं? गांव-के-गांव जला दिए, औरतों को बेइज्जत किया, निरपराध लोगों को तोपों के मुँह में बांधकर उड़ा दिया । फिर सन् सत्तावन की दूर की बात जाने दीजिए । अभी की ही बात है । पंजाब में उन्होंने क्या कम किया है? जलियांवाले बाग को कौन भूल जाएगा? घाव ताजा है हुजूर ! इन फिरंगियों को देखते ही उस पर नमक पड़ जाता है । इसीलिए मैंने कसम खाई है, इन्हें ताँगे पर कभी न बिठाऊंगा । मेरा मन इनसे बदला लेने के लिए बार-बार उमड़ता है ।

इतने में हम नदी किनारे पहुंच गए । मैं एक चट्टान पर बैठ गया । पास ही एक दूसरी चट्टान पर ताँगेवाला खड़ा था । उसने लोटा भर पानी लाकर मेरे पास रखा ।

मैंने कहा, नहीं जी ताँगेवाले, मैं तो नदी पर ही हाथ-मुंह धोऊंगा । पर हाँ, तुम्हारे विचार तो क्रांतिकारियों जैसे हैं। तुम्हारा नाम क्या है? किसी क्रांतिकारी को जानते हो?"

-मेरा नाम हुजूर रामदास है। किसी क्रांतिकारी को जानता नहीं । नाम सुने हैं, उन लोगों के जीवन चरित्र पढ़े हैं । पर उन लोगों में भी मुखबिर बनने वालों की कमी नहीं हुजूर, नहीं तो उन लोगों ने भी अब तक कुछ कर लिया होता । महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आंदोलन में भी बहुत दिनों तक शरीक रहा हूँ । दो बार जेल भी हो आया हूं हुज़ूर, पर तबीयत नहीं मानती। मेरे अंदर से तो जैसे कोई पुकार उठता है, 'गदर'! सन सत्तावन का सीन एक बार दुहराया जाए। इन फिरंगियों से कसकर बदला लिया जाए, तभी हमारा और हमारे देश का उद्धार होगा।"

मैंने कहा, हम निहत्थे कैसे बदला ले सकते हैं। रामदास? सन्‌ सत्तावन की बात ही और थी। तब हमारे पास हथियार थे। अब तो हम लोग बिलकुल पंगु कर दिए गए हैं ।

-हूजूर यही तो बात है, ताँगेवाला बोला, 'हमने जबान खोली और हमारे ही भाई-बंधु हमें गिरफ्तार करने पहुंचे। हमारे ही में से हमें सजा सुनाने वाले आए । हमीं में से हम पर पहरा रखने लगे । अगर ये ही सब एकमत होकर एक साथ काम करें, तो हुजूर हथियार उठाने का भी काम नहीं । हमारा स्वराज्य हमारी मुट्ठी में जानिए । लेकिन दस अगर सच्चे जी से काम करने को तैयार रहें तो बीस धोखा देने को तैयार रहेंगे । अगर हिन्दुस्तानियों में एका ही होता तो क्या मुट्ठी भर विदेशी हम पर शासन कर सकते?

ताँगेवाले ने एक दीर्घ सांस ली और हम दोनों उठकर नदी में हाथ-मुंह धोने लगे । इसी समय बड़े ही करुण स्वर में किसी के गाने की आवाज आई-

हम गरीबों का खुदा

नींद में सोया होगा

हम गरीबों का...

थोड़ी देर बाद जिधर से गाने की आवाज आई थी, उधर से बिलख-बिलखकर रोने की आवाज आने लगी । मैं चौंककर देखने लगा । ताँगेवाले ने बतलाया, 'हुजूर यह एक पगली है । कभी-कभी इधर दिख जाती है और अक्सर रात के समय गाती है । कभी रोती है, कभी हंसती है । कहते हैं, सन् सत्तावन के गदर के समय सम्राट बहादुरशाह को जब कैद किया था और उनके शाहजादों को मार डाला था, तब उनके महल में कुछ बेगमें कीमती जेवर इत्यादि छीन लेने के बाद दर-दर फिरने के लिए छोड़ दी गई थीं । यह पगली उन्हीं में से कोई है । फटे कपड़े, पर इस गरीबी में भी हुजूर, उसकी चाल-चितवन, बातचीत सब शाही ढंग का है । वह मामूली औरत नहीं जान पड़ती ।'

मैंने ताँगेवाले से कहा, तुम उस स्त्री को बुलायो, मैं उससे बात करूंगा ।

ताँगेवाला बोला, वह किसी से नहीं बोलती हुजूर, न किसी की तरफ देखती है । कहाँ रहती है, क्या खाती-पीती है, कोई नहीं जानता । कभी-कभी यहीं नदी किनारे दिख जाती है । न जाने कितने वर्षों से, इसी तरह गाती है, रोती है, हँसती है, पर आज तक कोई उससे बात नहीं कर सका है ।

मैं आश्चर्य में था । खैर, खाना खाकर हाथ-मुंह धोकर हम लोग फिर ताँगे पर आए । ताँगेवाला न जाने कितनी बातें मुझे बतला चला । शुरु-शुरु में ताँगे पर बैठकर मैंने एक साथी के अभाव का अनुभव किया था, किन्तु ये तेईस मील कब खतम हो गए, मैं जान भी न पाया । गांव में पहुंचकर जब ताँगेवाले ने मुझसे पूछा, यही गाँव है, किसके मकान पर चलना है? तब मैंने जाना कि तेईस मील की यात्रा समाप्त हो गई ।


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


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