Tuesday, September 6, 2022

कहानी | रक्षा में हत्या | मुंशी प्रेमचंद | Kahani | Raksha Mein Hatya | Munshi Premchand



 केशव के घर में एक कार्निस के ऊपर एक पंडुक ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्‍यामा दोनों बड़े गौर से पंडुक को वहाँ आते-जाते देखा करते। प्रात:काल दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और पंडुक या पंडुकी या दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों बालकों को न जाने क्‍या मजा मिलता था। दूध और जलेबी की सुध भी न रहती थी। दोनों के मन में भाँति-भाँति के प्रश्‍न उठते - अंडे कितने बड़े होंगे, किस रंग के होंगे, कितने होंगे, क्‍या खाते होंगे, उनमें से बच्‍चे कैसे निकल आवेंगे, बच्‍चों के पंख कैसे निकलेंगे, घोंसला कैसा है, पर इन प्रश्‍नों का उत्‍तर देनेवाला कोई न था। अम्मा को घर के काम-धंधों से फुरसत न थी - बाबूजी को पढ़ने-लिखने से। दोनों आपस ही में प्रश्‍नोत्‍तर करके अपने मन को संतुष्‍ट कर लिया करते थे।

श्‍यामा कहती - क्‍यों भैया, बच्‍चे निकल कर फुर्र से उड़ जाएँगे? केशव पंडिताई भरे अभिमान से कहता - नहीं री पगली, पहले पंख निकलेंगे। बिना परों के बिचारे कैसे उड़ेंगे।

श्‍यामा - बच्‍चों को क्‍या खिलाएगी बिचारी?

केशव इस जटिल प्रश्‍न का उत्‍तर कुछ न दे सकता।

इस भाँति तीन-चार दिन बीत गए। दोनों बालकों की जिज्ञासा दिन-दिन प्रबल होती जाती थी। अंडों को देखने के लिए वे अधीर हो उठते थे। उन्‍होंने अनुमान किया, अब अवश्‍य बच्‍चे निकल आए होंगे। बच्‍चों के चारे की समस्‍या अब उनके सामने आ खड़ी हुई। पंडुकी बिचारी इतना दान कहाँ पावेगी कि सारे बच्‍चों का पेट भरे। गरीब बच्‍चे भूख के मारे चूँ-चूँ कर मर जाएँगे।

इस विपत्ति की कल्‍पना करके दोनों व्‍याकुल हो गए। दोनों ने निश्‍चय किया कि कार्निस पर थोड़ा-सा दाना रख दिया जाए। श्‍यामा प्रसन्‍न होकर बोली - तब तो चिडि़यों को चारे के लिए कहीं उड़ कर न जाना पड़ेगा न?

केशव - नहीं, तब क्‍यों जाएगी।

श्‍यामा - क्‍यों भैया, बच्‍चों को धूप न लगती होगी?

केशव का ध्‍यान इस कष्‍ट की ओर न गया था - अवश्‍य कष्‍ट हो रहा होगा। बिचारे प्‍यास के मारे तड़पते होंगे, ऊपर कोई साया भी तो नहीं।

आखिर यही निश्‍चय हुआ कि घोंसले के ऊपर कपड़े की छत बना देना चाहिए। पानी की प्‍याली और थोड़ा-सा चावल रख देने का प्रस्‍ताव भी पास हुआ।

दोनों बालक बड़े उत्‍साह से काम करने लगे। श्‍यामा माता की आँख बचा कर मटके से चावल निकाल लाई। केशव ने पत्‍थर की प्‍याली का तेल चुपके से जमीन पर गिरा दिया और उसे खूब साफ करके उसमें पानी भरा।

अब चाँदनी के लिए कपड़ा कहाँ से आए? फिर, ऊपर बिना तीलियों के कपड़ा ठहरेगा कैसे और तीलियाँ खड़ी कैसे होंगी?

केशव बड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में रहा। अंत को उसने यह समस्‍या भी हल कर ली। श्‍यामा से बोला - जा कर कूड़ा फेंकनेवाली टोकरी उठा ला। अम्माजी को मत दिखाना।

श्‍यामा - वह तो बीच से फटी हुई है, उसमें से धूप न जाएगी?

केशव ने झुँझला कर कहा - तू टोकरी तो ला, मैं उसका सूराख बंद करने की कोई हिकमत निकालूँगा न।

श्‍यामा दौड़ कर टोकरी उठा लाई। केशव ने उसके सूराख में थोड़ा-सा कागज ठूँस दिया और तब टोकरी को एक टहनी से टिकाकर बोला - देख, ऐसे ही घोंसले पर इसकी आड़ कर दूँगा। तब कैसे धूप जाएगी? श्‍यामा ने मन में सोचा - भैया कितने चतुर हैं!

गर्मी के दिन थे। बाबूजी दफ्तर गए हुए थे। माता दोनों बालकों को कमरे में सुला कर खुद सो गई थी, पर बालकों की आँखों में आज नींद कहाँ? अम्माजी को बहलाने के लिए दोनों दम साधे, आँखें बंद किए, मौके का इंतजार कर रहे थे। ज्‍यों ही मालूम हुआ कि अम्माजी अच्‍छी तरह सो गईं, दोनों चुपके से उठे और बहुत धीरे से द्वार की सिटकनी खोल कर बाहर निकल आए। अंडों की रक्षा करने की तैयारियाँ होने लगीं।

केशव कमरे से एक स्‍टूल उठा लाया, पर जब उससे काम न चला, तो नहाने की चौकी ला कर स्‍टूल के नीचे रखी और डरते-डरते स्‍टूल पर चढ़ा। श्‍यामा दोनों हाथों से स्‍टूल को पकड़े हुई थी। स्‍टूल चारों पाए बराबर न होने के कारण, जिस ओर ज्‍यादा दबाव पाता था, जरा-सा हिल जाता था। उस समय केशव को कितना संयम करना पड़ता था, यह उसी का दिल जानता थ। दोनों हाथों से कार्निस पकड़ लेता और श्‍यामा को दबी आवाज से डाँटता - अच्‍छी तरह पकड़, नहीं उतर कर बहुत मारूँगा। मगर बिचारी श्‍यामा का मन तो ऊपर कार्निस पर था, बार-बार उसका ध्‍यान इधर चला जाता और हाथ ढीले पड़ जाते। केशव ने ज्‍यों ही कार्निस पर हाथ रखा, दोनों पंडुक उड़ गए। केशव ने देखा कि कार्निस पर थोड़े-से तिनके बिछे हुए हैं और उस पर तीन अंडे पड़े हैं। जैसे घोंसले पर देखे थे, ऐसा कोई घोंसला नहीं है।

श्‍यामा ने नीचे से पूछा - कै बच्‍चे हैं भैया?

केशव - तीन अंडे हैं। अभी बच्‍चे नहीं निकले।

श्‍यामा - जरा हमें दिखा दो भैया, कितने बड़े हैं?

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा चीथड़े ले आ, नीचे बिछा दूँ। बिचारे अंडे तिनकों पर पड़े हुए हैं।

श्‍यामा दौड़ कर अपनी पुरानी धोती फाड़ कर एक टुकड़ा लाई और केशव ने झुक कर कपड़ा ले लिया। उसके कई तह करके उसने एक गद्दी बनाई और उसे तिनकों पर बिछा कर तीनों अंडे धीरे से उस पर रख दिए।

श्‍यामा ने फिर कहा - हमको भी दिखा दो भैया?

केशव - दिखा दूँगा, पहले जरा वह टोकरी तो दे दो, ऊपर साया कर दूँ।

श्‍यामा ने टोकरी नीचे से थमा दी और बोली - अब तुम उतर आओ, तो मैं भी देखूँ। केशव ने टोकरी को एक टहनी से टिकाकर कहा - जा दाना और पानी की प्‍याली ले आ। मैं उतर जाऊँ, तो तुझे दिखा दूँगा।

श्‍यामा प्‍याली और चावल भी लाई। केशव ने टोकरी के नीचे दोनों चीजें रख दीं और धीरे से उतर आया।

श्‍यामा ने गिड़गिड़ाकर कहा - अब हमको भी चढ़ा दो भैया।

केशव - तू गिर पड़ेगी।

श्‍यामा - न गिरूँगी भैया, तुम नीचे से पकड़े रहना।

केशव - ना भैया, कहीं तू गिर-गिरा पड़े, तो अम्माजी मेरी चटनी ही बना डालें कि तूने ही चढ़ाया था। क्‍या करेगी देख कर? अब अंडे बड़े आराम से हैं। जब बच्‍चे निकलेंगे, तो उनको पालेंगे।

दोनों पक्षी बार-बार कार्निस पर आते थे और बिना बैठे ही उड़ जाते थे। केशव ने सोचा, हम लोगों के भय से यह नहीं बैठते। स्‍टूल उठा कर कमरे में रख आया। चौकी जहाँ-की-तहाँ रख दी।

श्‍यामा ने आँखों में आँसू भर कर कहा - तुमने मुझे नहीं दिखाया, मैं अम्माजी से कह दूँगी।

केशव - अम्माजी से कहेगी, तो बहुत मारूँगा, कहे देता हूँ।

श्‍यामा - तो तुमने मुझे दिखाया क्‍यों नहीं?

केशव - और गिर पड़ती तो चार सिर न हो जाते?

श्‍यामा - हो जाते, हो जाते। देख लेना, मैं कह दूँगी।

इतने में कोठरी का द्वार खुला और माता ने धूप से आँखों को बचाते हुए कहा - तुम दोनों बाहर कब निकल आए? मैंने मना किया था कि दोपहर को न निकलना, किसने किवाड़ खोला?

किवाड़ केशव ने खोला था, पर श्‍यामा ने माता से यह बात नहीं की। उसे भय हुआ भैया पिट जाएँगे। केशव दिल में काँप रहा था कि कहीं श्‍यामा कह न दे। अंडे न दिखाए थे, इससे अब इसको श्‍यामा पर विश्‍वास न था। श्‍यामा केवल प्रेमवश चुप थी या इस अपराध में सहयोग के कारण, इसका निर्णय नहीं किया जा सकता। शायद दोनों ही बातें थीं।

माता ने दोनों बालकों को डाँट-डपट कर फिर कमरे में बंद कर दिया और आप धीरे-धीरे उन्‍हें पंखा झलने लगी। अभी केवल दो बजे थे। तेज लू चल रही थी। अबकी दोनों बालकों को नींद आ गई।

चार बजे एकाएक श्‍यामा की नींद खुली। किवाड़ खुले हुए थे। वह दौड़ी हुई कार्निस के पास आई और ऊपर की ओर ताकने लगी। पंडुकों का पता न था। सहसा उसकी निगाह नीचे गई और वह उलटे पाँव बेतहाशा दौड़ती हुई कमरे में जा कर जोर से बोली - भैया, अंडे तो नीचे पड़े हैं। बच्‍चे उड़ गए?

केशव घबरा कर उठा और दौड़ा हुआ बाहर आया, तो क्‍या देखता है कि तीनों अंडे नीचे टूटे पड़े हैं और उनमें से कोई चूने की-सी चीज बाहर निकल आई है। पानी की प्‍याली भी एक तरफ टूटी पड़ी है।

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। डरे हुए नेत्रों से भूमि की ओर ताकने लगा। श्‍यामा ने पूछा - बच्‍चे कहाँ उड़ गए भैया?

केशव ने रुँधे स्‍वर में कहा - अंडे तो फूट गए!

श्‍यामा - और बच्‍चे कहाँ गए?

केशव - तेरे सिर में। देखती नहीं है, अंडों में से उजला-उजला पानी निकल आया है! वही तो दो-चार दिन में बच्‍चे बन जाते।

माता ने सुई हाथ में लिए हुए पूछा - तुम दोनों वहाँ धूप में क्‍या कर रहे हो?

श्‍यामा ने कहा - अम्माजी, चिड़िया के अंडे टूटे पड़े हैं।

माता ने आ कर टूटे हुए अंडों को देखा और गुस्‍से से बोली - तुम लोगों ने अंडों को छुआ होगा।

अबकी श्‍यामा को भैया पर जरा भी दया न आई - उसी ने शायद अंडों को इस तरह रख दिया कि वे नीचे गिर पड़े, इसका उसे दंड मिलना चाहिए। बोली - इन्‍हीं ने अंडों को छेड़ा था अम्माजी।

माता ने केशव से पूछा- क्‍यों रे?

केशव भीगी बिल्‍ली बना खड़ा रहा।

माता - तो वहाँ पहुँचा कैसे?

श्‍यामा - चौकी पर स्‍टूल रख कर चढ़े थे अम्माजी।

माता - इसीलिए तुम दोनों दोपहर को निकले थे।

श्‍यामा - यही ऊपर चढ़े थे अम्माजी।

केशव - तू स्‍टूल थामे नहीं खड़ी थी।

श्‍याम - तुम्‍हीं ने तो कहा था।

माता - तू इतना बड़ा हुआ, तुझे अभी इतना भी नहीं मालूम कि छूने से चिडि़यों के अंडे गंदे हो जाते हैं - चिडि़याँ फिर उन्‍हें नहीं सेतीं।

श्‍यामा ने डरते-डरते पूछा - तो क्‍या इसीलिए चिड़िया ने अंडे गिरा दिए हैं अम्माजी?

माता - और क्‍या करती। केशव के सिर इसका पाप पड़ेगा। हाँ-हाँ तीन जानें ले लीं दुष्‍ट ने!

केशव रुआँसा होकर बोला - मैंने तो केवल अंडों को गद्दी पर रख दिया था अम्माजी!

माता को हँसी आ गई।

मगर केशव को कई दिनों तक अपनी भूल पर पश्‍चात्ताप होता रहा। अंडों की रक्षा करने के भ्रम में, उसने उनका सर्वनाश कर डाला था। इसे याद करके वह कभी-कभी रो पड़ता था।

दोनों चिड़ियाँ वहाँ फिर न दिखाई दीं!


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