Friday, September 23, 2022

कहानी | प्रोफेसर मित्रा | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Professor Mitra | Subhadra Kumari Chauhan


 
प्रोफेसर मित्रा चालीस की देहली के करीब पहुँच चुके थे, किंतु थे अभी तक अविवाहित। यह बात नहीं थी कि वे विवाह करना ही न चाहते थे, पर वे जैसी आदर्श पत्नी की खोज में थे, वैसी उन्हें अभी तक कहीं न मिलती थी। प्रोफेसर मित्रा स्वभाव से ही उदार और सुशील थे। रंग साँवला, कद ऊँचा और चेहरा सुडौल था। वे बहुत कम बोलते थे। स्वभाव के कुछ झक्की थे पर थे आदमी अच्छे । कभी घंटों मेज पर हाथ की कुहनियाँ टिकाए, गालों पर हाथ रखे वे विचारमग्न बैठे रहते थे और कभी बातचीत करते-करते कुछ खयाल आ जाता तो वे बिना कुछ बोले ही बातचीत समाप्त करने के लिए उठ खड़े हो जाते थे। परंतु लड़के उन्हें चाहते थे और उनका आदर भी करते थे। वे फिलॉसफी के प्रोफेसर थे।


सेकेंड इयर के एक लड़के कांतिकिरण को वे बहुत चाहते थे। कांतिकिरण एक निर्धन परिवार का लड़का था। उसकी फीस और पढ़ाई का कुल खर्च प्रोफेसर मित्रा अपने पास से देते थे। कांतिकिरण सच्चरित्र, सुशील, तीक्ष्ण बुद्धि और मेधावी था। यही कारण था कि आर्थिक सहायता करने के अतिरिक्त प्रोफेसर मित्रा उससे स्नेह भी करने लगे। प्रोफेसर मित्रा अविवाहित थे ही, शहर से जरा हटकर उनका एक बड़ा सा बँगला था, जिसमें रहनेवाला उनके अतिरिक्त और कोई न था। उन्होंने एक दिन कांतिकिरण से अपने बँगले पर ही रहने को कहा और कांतिकिरण तब से उन्हीं के बँगले पर रहने लगा। इस प्रकार प्रोफेसर मित्रा ने अपने सूने जीवन में एक साथी का निर्माण कर लिया।


गरमी की लंबी छुट्टियों के बाद जब कॉलेज खुला तो नई भरती होनेवाली लड़कियों में कांतिकिरण की भाँति एक लड़की मृणाल पर भी प्रोफेसर मित्रा की अनुकंपा विशेष रूप से हो गई। यह मृणाल कौन थी, कोई नहीं जानता था। मैट्रिक उसने कलकत्ता से ही पास किया था। अपनी विधवा माँ के साथ कुछ ही दिन हुए यहाँ आई थी। मृणाल की माँ निर्धन थी, यहीं के लड़कियों के मिडिल स्कूल में वह उपपाठिका होकर आई थी। मृणाल की माँ और प्रोफेसर मित्रा में कब पहचान हुई, यह कोई नहीं जानता; किंतु मृणाल के भी पढ़ने का सारा खर्च प्रोफेसर मित्रा ने अपने ऊपर ले लिया। यही नहीं कि प्रोफेसर मित्रा केवल कांतिकिरण और मृणाल को ही आर्थिक सहायता देते हों, वे और भी बहुत से गरीब लड़कों की सहायता करते थे। बैंक में उनका कोई हिसाब न था। हर महीने की तनख्वाह उनके आवश्यक खर्च को निकालकर इसी प्रकार निर्धन विद्यार्थियों की सहायता में उठ जाती थी। वे प्रायः कहा करते थे, "हर महीने मुझे इतने रुपए मिलते हैं, मैं उन्हें इस प्रकार न बाँट दूँ तो क्या करूँ? न स्त्री, न बच्चे रुपयों का संग्रह करके मैं करूँगा क्या?"


मृणाल की माँ को महीने में कुल तीस रुपए मिलते थे, जो दोनों माँ-बेटी के लिए सम्मान के साथ रहने के लिए भी पर्याप्त नहीं थे, परंतु प्रोफेसर मित्रा की सहृदयता ने उन्हें कभी किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न होने दिया। सजातीय होने के कारण उनकी घनिष्ठता बहुत बढ़ गई। सप्ताह में एक बार प्रोफेसर मित्रा मृणाल की माँ से मिलने जाते और मृणाल तो प्राय: रोज ही एक-दो घंटे प्रोफेसर मित्रा के यहाँ बिताती थी। मृणाल लॉजिक की, जिसे प्रोफेसर मित्रा ही पढ़ाते थे, बड़ी अच्छी छात्रा थी। प्रोफेसर मित्रा उससे बहुत खुश रहते थे।


मृणाल अपनी माँ की पहली संतान थी। माँ-बेटी का रिश्ता जाने बिना प्रायः लोग उन्हें बड़ी-छोटी बहन समझते थे। मृणाल के जन्म के कुछ ही समय बाद मृणाल के पिता का देहांत हो गया था। तब से इसी प्रकार नौकरी और ट्यूशन करके मृणाल की माँ उसे इतनी बड़ी कर पाई है। अब उसे सबसे बड़ी चिंता मृणाल के विवाह की थी। जिस लड़की को उसने कष्ट से पढ़ा-लिखाकर, पाल-पोसकर इतनी बड़ा किया है, उसे किसी सुयोग्य वर के हाथों सौंपकर ही वह निश्चिंत हो सकती है। वह पढ़ा-लिखा, कुलीन वंश का और खाते-पीते घर का हो, जिससे उसकी मृणाल सुखी रहे, यही मृणाल की माँ की कामना थी। निर्धनता का जो कटु अनुभव मृणाल की माँ को था, वह भूलने के योग्य नहीं था। उसी निर्धनता के दलदल में वह जान-बूझकर अपनी बेटी को नहीं फँसाना चाहती, इसीलिए तो मृणाल अठारह वर्ष की हो जाने पर भी अविवाहित थी।


मृणाल की माँ को जब मालूम हुआ कि प्रोफेसर मित्रा अविवाहित हैं, तो वह सोचने लगी कि मृणाल और प्रोफेसर मित्रा की जोड़ी तो बुरी नहीं रहेगी। प्रोफेसर मित्रा की उम्र वैसे कुछ ज्यादा भी नहीं है। इसके अतिरिक्त मेरी मृणाल रानी बनकर भी तो रहेगी। एक दिन मृणाल की माँ ने निश्चय किया, वह प्रोफेसर मित्रा से उनके अविवाहित रहने का कारण पूछेगी। उस दिन शाम को जब प्रोफेसर मित्रा आए तो उसने साहस करके यह सवाल उठाया, "मित्रा साहब, मैंने सुना है कि आपने अभी तक विवाह नहीं किया है? यदि आपको कोई अड़चन न हो तो क्या मैं जान सकती हूँ कि इस संन्यास का क्या कारण है ?"


प्रोफेसर मित्रा के सामने ऐसा सवाल भी इस घर में उनसे कभी होगा, वह न जानते थे। बोले, "मैंने आज तक विवाह की ओर ध्यान ही नहीं दिया। क्यों नहीं दिया, कह नहीं सकता।"


"अब तक नहीं दिया तो अब तो ध्यान देना चाहिए। शाम को लौटकर जाते हैं तो क्या वीरान सा घर आपको अच्छा लगता है ?"


प्रोफेसर मित्रा हँसकर बोले, "नहीं, घर तो वीरान नहीं रहता। कांतिकिरण रहता है। अकसर मृणाल आ जाती है। फिर नौकर-चाकर भी तो रहते ही हैं।"


मृणाल की माँ तनिक हँसकर बोली, "नौकर-चाकरों से कहीं घर आबाद हुआ है। और कांतिकिरण क्या? उसकी पढ़ाई खत्म हुई, दो महीने बाद अपने घर चला जाएगा।"


मित्रा साहब हँसकर बोले, "मृणाल तो रहेगी।"


मृणाल की माँ जरा गंभीर होकर बोली, "हाँ, मृणाल तो रहेगी, पर ऐसे रहने से क्या होता है ? मैं मृणाल के ही लिए कह रही हूँ। अब मृणाल के साथ गृहस्थी बसाओ। मैं भी उसके हाथ पीले करके निश्चिंत हो जाऊँ।"


प्रोफेसर मित्रा चौंक पड़े, 'मृणाल के साथ गृहस्थी बसाऊँ ? मृणाल-मृणाल तो बच्ची है। मैंने उसे सहायता दी है तो क्या उसका पुरस्कार मुझे लेना पड़ेगा?'' प्रकट में बोले, “छोटा था, तभी माताजी नहीं रहीं। बीस साल का भी न हो पाया था कि पिताजी भी संसार छोड़कर चले गए। कोई सुननेवाला था ही नहीं! न तो विवाह के विषय में कभी सोचा, न सोचने का समय मिला। आज अठारह साल से यों ही एकाकी जीवन बिता रहा हूँ। जीवन में किसी भी प्रकार का असंतोष नहीं है। अब इस उम्र में शादी करूँ? अब तो बूढ़े होने में अधिक देर नहीं है।"


मृणाल की माँ बोली, “यही तो शादी की उम्र है। बचपन की शादी किस काम की? और हाँ, मित्रा साहब! तुमने मुझे 'माँ' कहकर सम्मान दिया है। अब उस सम्मान की रक्षा भी तुम्हीं को करनी पड़ेगी। मेरी मृणाल को तुम देखते आ रहे हो, बुरी लड़की नहीं है। चाल-ढाल, बात-व्यवहार, रूप-रंग में किसी सुंदर-से-सुंदर लड़की के सामने खड़ा कर दो तो कुछ ज्यादा ही रहेगी, कम नहीं, यदि तुम उससे विवाह करने का आश्वासन दे दो तो मेरी बड़ी चिंता दूर हो जाए।"


प्रोफेसर मित्रा गहरी चिंता में डूब गए। कल्पना की आँखों से बालिका मृणाल को गृहिणी मृणाल के रूप में उन्होंने अपने घर में घूमती हुई देखा। नौकरों से वह ठोक ढंग से काम ले रही है, घर में कोई अव्यवस्था नहीं, सभी काम सुचारु रूप से हो रहे हैं। प्रोफेसर मित्रा को अब घर के किसी भी काम की ओर ध्यान देने की जरूरत नहीं रहती।


इसी समय मृणाल की माँ की बात से वह चौंक-से उठे। मृणाल की माँ कह रही थीं, “मित्रा साहब, चिंता न करो। मेरी मृणाल को स्वीकार कर लो। वह तुम्हारे घर को स्वर्ग बना देगी।"


मित्रा साहब ने कहा, "आप मुझे कुछ दिन सोचने का समय दीजिए। बहुत जल्दी मैं आपको जवाब दूंगा।" और वे अपने बँगले की ओर चले। आधे से अधिक प्रोफेसर मित्रा इस विवाह के पक्ष में हो चुके थे। घर आए, देखा-ड्राइंगरूम में मृणाल कांतिकिरण से कुछ बातें कर रही है। जाने क्यों उन्हें यह अच्छा न लगा। आज यह पहला ही अवसर न था कि उन्होंने कांतिकिरण और मृणाल को बातें करते देखा हो। बहुत बार देखा था, परंतु इस ओर उन्होंने कभी ध्यान ही न दिया था। आज उन्हें दोनों को बातें करते देखकर दुःख-सा हुआ। उनके चेहरे पर कुछ मलिनता आ गई।

मृणाल उन्हें देखती हुई बोली, 'प्रोफेसर साहब, मैं बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रही हूँ ।मुझे आपसे कुछ पूछना है ।' और कुर्सी, खिसकाकर वह प्रोफेसर साहब के बहुत करीब बैठ गयी । प्रोफेसर साहब का जी आज पढ़ाने में नहीं लग रहा था, यह मृणाल ने ध्यान से देखा । वह बोली-आपकी तबीयत कुछ खराब जान पड़ती है । आप उदास हैं । रहने दीजिए, मैं कल पढ़ लूँगी । आप आराम कीजिये ।


प्रोफेसर मित्रा मृणाल को अपने पास से इतनी जल्दी न जाने देना चाहते थे । मृणाल को वह पहिले ही बहुत ज्यादा चाहते थे । फिर आज उसकी माँ ने विवाह का प्रसंग छेड़ कर मृणाल के प्रति उनकी सारी कोमल भावनाओं को जाग्रत कर दिया। वे बोले -पढ़ो मत । कुछ देर पास बैठो, मृणाल!


मृणाल बैठ गयी । मित्रा ने कई बार उसके सुंदर मुख और अल्हड़ यौवन को ध्यान से देखा ! उन्होंने निश्चय किया कि विवाह करूँगा।मैं जिस आदर्श रमणी को खोज रहा था, वह मृणाल ही है ।उससे कलपना- . जगत में मृणाल उनकी गृहिणी, बंगले की अधीश्वरी, उनके बच्चों की माँ, सब-कुछ बन गयी।

इधर मृणाल को बैठे बैठे बीस मिन्ट हो गये । उसने पुछा-जाऊँ? रात बहूत हो जायगी तो माँ बहुत घबरायेंगी।

प्रोफेसर मित्रा चौंक पड़े । बोले -हाँ मृणाल, रात बहुत हो गयी । चलो तुम्हें छोड़ आता हूँ ।

'आप क्यों तकलीफ़ करते हैं ? ड्राइवर से कह दीजिये,' मृणाल ने कहा ।

पर प्रोफेसर साहब न माने। वे बोले -नहीं , चलो मैं ही छोड़ आऊंगा और वे मृणाल को लेकर चले ।

ड्राइवर तो था भी नहीं, ऐसी हालत में पराय: कान्तिकिरण ही उसे छोड़ने जाया करता था।

इस वार्ता में भी ड्राइवर की जगह मृणाल का मतलब कान्तिकिरण से ही था।


प्रोफेसर साहब मृणाल को छोड़ कर आये । उस दिन रात भर वे न सो सके । विवाह की चिन्ता में उन्हें सारी रात नींद न आयी । दूसरे ही दिन उन्होंने बैंक-अकाउंट खोलने का भी निश्चय किया । घर- गृहस्थी का सब-कुछ तो अब उन्हें संग्रह करना ही पड़ेगा।अब लापरवाही से काम नहीं चलेगा । सुबह उठते ही उन्होंने कान्तिकिरण को बुलवाया मालूम हुआ कि कान्तिकिरण आज सवेरे से ही कहीं चला गया है । कान्तिकिरण के द्वारा वे एक बहुत बढ़िया पलंग का आर्डर देने वाले थे । मृणाल के लायक उनकी समझ में उनके घर में कोई भी सामान नहीं था । सभी सामान ठीक और अच्छा बनवा कर रखना पड़ेगा। अकेले आदमी की बात और होती है और गृहस्थ की और । इसी चिन्ता में सुबह का भी सारा समय बीत गया कालेज जाने का समय हो गया । उन्होंने भोजन किया । शोफर से कार निकलवायी उन्होंने सोचा कि पहिले मृणाल के घर जाकर उसकी माँ को विवाह के विषय में अपनी स्वीकृति की सूचना दे दें, और फिर कालेज जायँ । विवाह करना ही है तो फिर देर करने से क्या फायदा ? वे कार सटार्ट कर ही रह थे कि एक साइकिल-सवार आ उपस्थित हुआ और उसने एक लिफाफा प्रोफेसर साहब को दिया । पत्र में लिखा था-


माननीय प्रोफेसर साहब,

हम दोनों याने मैं और मृणाल अंतरजातीय विवाह के नियमों के अनुसार आज विवाह-सूत्र में बंधने जा रहे हैं विवाह की रजिस्ट्री के लिए हमें आज कचहरी जाना पड़ेगा। अतएव आज हम दोनों कालेज न आ सकेंगे, क्षमा कीजियेगा।

हम हैं, आपके आशीर्वाद के अभिलाषी-


कान्तिकिरण, मृणाल।

पत्र पढ़ कर एक फीकी हँसी के साथ प्रोफेसर मित्रा ने अपनी कार कालेज की ओर बढ़ा दी।


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


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