Friday, September 23, 2022

कहानी | परिवर्तन | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Parivartan | Subhadra Kumari Chauhan


 (1)


ठाकुर खेतसिंह, इस नाम को सुनते ही लोगों के मुँह पर घृणा और प्रतिहिंसा के भाव जागृत हो जाते थे । किन्तु उनके सामने किसी को उनके खिलाफ़ चूं करने की भी हिम्मत न पड़ती। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, किसी भी रूप से कोई ठाकुर खेतसिंह के विरुद्ध एक तिनका न हिला सकता था। खुले तौर पर उनके विरुद्ध कुछ भी कह देना कोई मामूली बात न थी। दो-चार शब्द कह कर कोई ठोकुर साहब का तो कुछ न बिगड़ सकता परन्तु अपनी आफ़त अवश्य बुला लेता था।

एक बार इस प्रकार ठाकुर साहब के किसी कृत्य पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए मैकू अहीर ने कहा कि "हैं तो इतने बड़े आदमी पर काम ऐसे करते हैं कि कमीन भी करते लजायगा ।" बस, इतना कहना था कि बात नमक-मिर्च लग कर ठाकुर साहब के पास पहुँच गई और बिचारे मैकू की शामत आ गई। दूसरे दिन ड्योढ़ी पर मैकू बुलाया गया। दरवाजा बन्द करके भीतर ठाकुर साहब ने मैकू की खुब मरम्मत करवाई और साथ ही यह ताकीद भी कर दी गई कि यदि इसकी ख़बर ज़रा भी बाहर गई तो वह इस बार गोली का ही निशाना बनेगा । मैकू तो यह ज़हर का सा घूंट पीकर रह गया, किन्तु मैकू की स्त्री सुखिया से न रहा गया; उसने दस-बीस खरी-खोटी बककर ही अपने दिल के फफोले फोड़े किन्तु यह तो असम्भव था कि सुखिया दस-बीस खरी-खोटी सुना जाय और ठाकुर साहब को इसकी खबर न लगे।

नतीजा यह हुआ कि उसी दिन रात को मैकू के-झोपड़े में आग लग गई और उसकी गेहूँ की लहलहाती हुई फसल घोड़ों से कुचलवा दी गई। दूसरे दिन बेचारे मैकू को बोरिया-बँधना बाँध कर वह गाँव ही छोड़ देना पड़ा।


(2)

ठाकुर खेतसिंह बड़े भारी इलाक़ेदार थे, सोलह हज़ार सालाना सरकारी लगान देते थे। दरवाज़े पर हाथी झूमा करता । घोड़े, गाड़ी, मोटर, और भी न जाने क्या-क्या उनके पास था । दो संतरी किरच बाँधे चौबीसों घंटे फाटक पर बने रहते । जब बाहर निकलते सदा दस-बीस लठैत जवान साथ होते। उस इलाके में न जाने कितने बैठे-बैठे मुफ़्त खा रहे थे और न जाने कितने मटियामेट हो रहे थे। पर इस पर टीका-टिप्पणी कर के कौन आफ़त मोल ले ? ठाकुर साहब का आतंक इलाके भर में छाया हुआ था। उनकी नादिरशाही को कौन नहीं जानता था ? किसी की सुन्दर बहू-बेटी ठाकुर साहब के नज़र तले पड़ भर जाय और उनकी तबीयत आ जाय, तो फिर चाहे आकाश-पाताल एक ही क्यों न करना पड़े, किसी न किसी तरह वह ठाकुर साहब के ज़नानखाने में पहुँच ही जाती थी। स्टेशन पर भी उनके गुर्गे लगे रहते, जो सदा इस बात की टोह में रहते कि कोई सुन्दरी स्त्री यहाँ पर आ जाय तो वह किसी प्रकार बहकाकर, धोखा देकर ठाकुर साहब के ज़नानखाने में दाखिल कर दी जाय। इसके लिए उन्हें इनाम दिया जाता । उड़ाया हुआ माल जिस क़ीमत का होता, इनाम भी उसी के अनुसार दिया जाता था ।

ठाकुर साहब के सब रिश्तेदार उनकी इन हरक़तों से उनसे नाराज़ रहते थे। प्रायः उनके घर का आना जाना छोड़-सा दिया था। किन्तु ठाकुर साहब अपनी वासना और धन के मद से इतने दीवाने हो रहे थे कि उनके घर कोई आवे चाहे न आवे उन्हें ज़रा भी परवाह न थी ।


(3)

हेतसिंह ठाकुर साहब का चचेरा भाई था। छुटपन से ही वह ठाकुर साहब का आश्रित था। ठाकुर साहब हेतसिंह पर स्नेह भी सगे भाई की ही तरह रखते थे । वह बी. ए फाइनल का विद्यार्थी था । बड़ा ही नेक और सच्चरित्र युवक था । ठाकुर साहब के इन कृत्यों से हेतसिंह को हार्दिक घृणा थी। प्रजा पर ठाकुर साहब का अत्याचार उससे सहा न जाता था। एक दिन इसी प्रकार किसी बात से नाराज़ होकर उसने घर छोड़ दिया। कहाँ गया, कुछ पता नहीं । ठाकुर साहब ने कुछ दिन तक तो उसकी खोज करवाई; फिर उन्हें इन व्यर्थ की बातों के लिए फुरसत ही कहाँ थी ? वे तो अपना जीवन सफल कर रहे थे।

एक वर्ष बाद एक दिन फिर वह गाँव में अया। और उसी दिन ठाकुर साहब के यहाँ एक कुम्हार की नव-विवाहिता सुन्दर बहू उड़ाकर लाई गई थी। कुम्हार के घर हाय-हाय मची हुई थी। उसी समय हेतसिंह उधर से निकले । उन्हें देखते ही कुम्हार ने उनसे अपना दुखड़ा रोया । हेतसिंह का क्रोध फिर ताज़ा हो गया। इसी प्रकार के एक क़िस्से से नाराज़ होकर हेतसिंह ने घर छोड़ा था ! कहाँ तो वह भाई से मिलकर पिछली नाराज़ी को दूर करने आए थे, कहाँ फिर वही किस्सा सामने आ गया । वही प्रतिहिंसा के भाव फिर से हृदय में जागृत हो उठे। घृणा और क्रोध से उनका चेहरा लाल हो गया । जेब में हाथ डाल कर देखा रिवाल्वर भरा हुआ रखा था । अब हेतसिंह घर पहुँचे उस समय ठाकुर साहब अपने मुसाहिवों के साथ बैठे थे। हेतसिंह को देखते ही बड़े प्रसन्न होकर बोले-

"आओ भाई हेतसिंह । कहाँ थे अभी तक ? बहुत दिनों में आए । बिना कुछ कहे-सुने ही तुम कहाँ चले गये थे ?" हेतसिंह ने ठाकुर साहब की किसी बात का उत्तर नहीं दिया । वह तो अपनी ही धुन में था, बोला-भैय्या, क्या मनका कुम्हार की बहू घर में है ? यदि है तो आप उसे वापिस पहुँचवा दीजिए।


ठाकुर साहब की त्योरियाँ चढ़ गईं क्रोध को दबाते हुए वे बोले-

हेतसिंह तुम कल के छोकरे हो। तुम्हें इन बातों में न पड़ना चाहिये। जायो, भीतर जायो, हाथ-मुंह धोकर कुछ खाओ-पियो।

हेतसिंह ने तीव्र स्वर में कहा--पर मैं क्या कहता हूँ ! मनका कुम्हार की बहू को आप वापिस पहुँचवा दीजिए ।

-"मैंने एक बार तुम्हें समझा दिया कि तुम्हें मेरे निजी मामलों में दखल देने की ज़रूरत नहीं है।"

–"फिर भी मैं पूछता हूँ कि आप उसे वापिस पहुँचायेंगे या नहीं ?"

खेतसिंह गंभीरता से बोले—मैं तुम्हारी किसी बात का उत्तर नहीं देना चाहता, मेरे सामने से चले जाओ।

हेतसिंह अब न सह सके, जेब से रिवाल्वर निकाल कर लगातार तीन फायर किए किन्तु तीनों निशाने ठीक न पड़े । ठाकुर साहब जरा ही इधर-उधर हो जाने से साफ बच गये । हेतसिंह उसी समय पकड़ा गया । हत्या करने की चेष्टा के अपराध में उसे 5 साल की सख़्त सज़ा हो गई । इसके कुछ ही दिन बाद मैनपुरी पड्यंत्र केस पर से उसके ऊपर दूसरा मामला भी चलाया गया जिसमें उसे सात साल की सजा और हो गई। ठाकुर साहब का बाल भी बांका न हो सका।


(4)

यद्यपि ठाकुर साहब के घर उनके कोई भी रिश्तेदार न आते थे किन्तु फिर भी ठाकुर साहब कभी कभी अपने रिश्तेदारों के यहाँ हो आया करते थे । ठाकुर साहब की बुआ की लड़की चम्पा का विवाह था। एक मामूली छपा हुआ निमंत्रण पत्र पाकर ही वे विवाह में जाने को तैयार हो गये । चम्पा ने जब सुना कि ठाकुर साहब आए हैं तो उसने उन्हें अन्दर बुलवा भेजा । चम्पा को हेतसिंह के जेल जाने से बड़ा कष्ट हो ही रहा था। वह इस विषय में ठाकुर साहब से कुछ पूछना चाहती थी ।


चम्पा के निडर स्वभाव और उसकी स्पष्ट-वादिता से ठाकुरसाहब अच्छी तरह परिचित थे। पहिले तो वे चम्पा के सामने जाने में कुछ झिझके फिर आखिर में उन्हें जाना ही पड़ा । न जाने क्यों वे चम्पा का लिहाज़ भी करते थे । साधारण कुशल प्रश्न के पश्चात चम्पा ने उनसे हेतसिंह के विषय में पूँछा । ठाकुर साहब ने अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा-"क्या करें भूल तो हो ही गई ।"

"दादा, अब आप इन आदतों को छोड़ दें तो अच्छा हो ।"

कुछ अनभिज्ञता प्रकट करते हुए ठाकुर साहब बोले-कौन सी आदतें बेटी !

चम्पा ने मार्मिक दृष्टि से उनकी ओर देखा और चुप हो गई। ठाकुर साहब कुछ झेंप से गए बोले- बेटी ! में कुछ नहीं करता, तुझे विश्वास न हो तो चल कर एक बार अपनी आंखों से देख ले । वैसे तो लोग न जाने कितनी झूठी खबरें उड़ाया करेंगे पर तुझे तो विश्वास न करना चाहिए ।


****

चम्पा का विवाह हो गया । चम्पा ससुराल गई और ठाकुर साहब आए अपने घर ।

घर आने पर भी चम्पा की वह मार्मिक चोट उनके हृदय पर रह रह कर आघात करती ही रही । बहुत बार उन्होंने सोचा कि मैं इन आदतों को क्यों न छोड़ दूं ? जीवन में न जाने कितने पाप किए हैं। अब उनका प्रायश्चित भी तो करना ही चाहिए । अब नरेन्द्र (उनका लड़का ) भी समझदार हो गया है उसके सिर पर घर द्वार छोड़कर क्यों न कुछ दिन तक पवित्र काशी में जाकर गंगा किनारे भगवद् भजन करूँ ? आधी उम्र तो जा ही चुकी है। क्या जीवन भर यही करता रहूँगा ? मेरे इन आचरणों का प्रभाव नरेन्द्र पर भी तो पड़ सकता है। किन्तु पानी के बुलबुलों के समान यह विचार उनके दिमाग़ में क्षण भर के लिए आते और चले जाते । उनका कार्यक्रम ज्यों का त्यों जारी था।


(5)

विवाह के कुछ दिन बाद चम्पा के पति नवलकिशोर के मित्र सन्तोष ने नवलकिशोर को चम्पा समेत अपने घर आने का निमंत्रण दिया । और यह लोग सन्तोष कुमार को बिना किसी प्रकार की सूचना दिए ही उसके घर के लिए रवाना हो गए; सूचना न देकर यह लोग अचानक पहुँचकर सन्तोष कुमार और बूढ़ी अम्मा को आश्चर्य में डाल देना चाहते थे। चम्पा और नवलकिशोर अलीगढ़ के लिए रवाना हो गए। रास्ता बड़े आराम से कटा । गर्मी तो नाम को न थी । रिमझिम-रिमझिम बरसता हुआ पानी बड़ा ही सुहावना लग रहा था ।

जब ये लोग अलीगढ़ स्टेशन पर उतरे, उस समय कुछ अँधेरा हो चला था। गाँव स्टेशन से पाँच-छै मील दूर था; इसलिये नवल ने सोचा कि स्टेशन पर ही भोजन करके तब गांव के लिए रवाना होंगे। चम्पा को सामान के पास बिठाकर नवल भोजन की तलाश में निकला । हलवाई की दुकान पर सब चीजें तो ठीक थीं, पर पूरियाँ ज़रा ठंडी थीं। वह ताज़ा पूरियाँ बनवाने के लिये वहीं ठहर गया।

इधर सामान के पास अकेली बैठी-वैठी चम्पा का जी ऊबने लगा । वह एक पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगी । थोड़ी देर के बाद ही एक आदमी ने आकर उससे कहा कि "बाबू जी होटल में बैठे हैं अपको बुला रहे हैं।"

'पर वे तो खाना यहीं लाने वाले थे न ?

'होटल यहाँ से करीब ही है। वे कहते हैं कि आप वहीं चल के भोजन कर लें । कच्चा खाना यहाँ लाने में सुभीता न पड़ेगा।'

उठते-उठते चम्पा ने कहा--सामान के पास कौन रहेगा ?

'सामान तो कुली देखता रहेगा, आप फिकर न करें; १० मिनट में तो आप वापिस आ जायंगी ।' क्षण भर तक चम्पा ने न जाने क्या सोचा; फिर उस आदमी के साथ चल दी।

स्टेशन से बाहर पहुँचते ही उस आदमी ने पास के एक मकान की तरफ़ इशारा करके कहा, " वह सामने होटल है; बाबू जी वहीं बैठे हैं।'

चम्पा ने जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाए। पास ही एक मोटर खड़ी थी उस आदमी ने पीछे से चम्पा को उठाकर मोटर पर डाल दिया; मोटर नौ दो ग्यारह हो गई । चम्पा का चीखना-चिल्लाना कुछ भी काम न आया ।


आध घंटे के बाद जब नवल खाना लेकर लौटा तो चम्पा का कहीं पता न था । इधर-उधर बहुत खोज की। गाड़ी के एक-एक डिब्बे ढूंढ डाले, पर जब चम्पा कहीं न मिली, तो लाचार हो पुलिस में इत्तिला देनी पड़ी । परदेश में वह और कर ही क्या सकता था ? किन्तु वहाँ की पुलिस भी, ठाकुर साहब द्वारा कुछ चाँदी के सिक्कों के बल पर, सब कुछ जानती हुई अनजान बना दी जाती थी। फिर भला एक परदेशी की क्या सुनवाई होती ? जब नवल किसी भी प्रकार चम्पा का पता न लग सका, तो फिर वह संतोषकुमार के गाँव भी न जा सका। वहीं धर्मशाले में ठहर कर चम्पा की खोज करने लगा।


(6)

मोटर पर चम्पा बेहोश हो गई थी । होश आने पर उसने अपने आपको एक बड़े भारी मकान में क़ैद पाया। मकान की सजावट देखकर किसी बहुत बड़े आदमी का घर मालूम होता था। कमरे में चारों तरफ़ चार बड़े-बड़े शीशे लगे थे । दरवाज़ों और खिड़कियों पर सुन्दर रेशमी परदे लटक रहे थे । दीवालों पर बहुत-सी अश्लील और साथ ही सुन्दर तसवीरें लगी हुई थीं । एक तरह एक बढ़िया ड्रेसिंग टेबिल रखा था, जिस पर श्रृंगार का सब सामान सजाया हुआ था, बड़ी-बड़ी अलमारियों में क़ीमती रेशमी कपड़े चुने हुए रखे थे । जमीन पर दरी थी; दरी पर एक बहुत बढ़िया कालीन बिछा था । क़ालीन पर दो-तीन मसनद क़रीने से रखे थे। आस-पास चार-छै आराम कुर्सियां और कोच पड़े थे। चम्पा मसनद पर गिर पड़ी और खूब रोई। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला और एक बुढ़िया खाने की सामग्री लिए हुए अन्दर आई । भोजन रखते हुए वह बोली, यह खाना है खालो; अब रो पीटकर क्या करोगी ? यह तो यहाँ का रोज़ ही की कारबार है।

चम्पा ने भोजन को हाथ भी न लगाया । वह रोती ही रही और रोते-रोते कब उसे नींद आ गई, वह नहीं जानती। सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब दिन चढ़ आया था । वहाँ पर एक स्त्री पहले ही से उसकी कंघी चोटी करने के लिए उपस्थित थी। उसने चम्पा के सिर में कंघी करनी चाही। किन्तु एक झटके में चम्पा ने उसे दूर कर दिया। वह स्त्री बड़बड़ाती हुई चली गई।

इस प्रकार भूखी-प्यासी चम्पा ने एक दिन और दो रातें बिता दीं। तीसरे दिन सवेरे उठकर चम्पा शून्य दृष्टि से खिड़की से बाहर सड़क की ओर देख रही थी । किसी के पैरों की आहट सुनकर ज्यों ही उसने पीछे की ओर मुड़कर देखा, वह सहसा चिल्ला उठी "दादा" !!

ठाकुर खेतसिंह के मुँह से निकल गया "बेटी" !!


****

उस दिन से फिर उस गाँव की किस स्त्री पर कोई कुदृष्टि न डाल सका।


(यह कहानी ‘बिखरे मोती’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1932 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का पहला कहानी संग्रह था।)


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