इस समय जहां हापुड़ का रेलवे स्टेशन है, वहां उन दिनों एक छोटा-सा गांव बहादुरपुरा था। यह गांव बहादुरशाह को, जब वे शाहजादे थे, पानदान के खर्चे के लिए दिया गया था। उसकी पूरी मालगुजारी उन्हींको मिलती थी। बादशाह होने के बाद भी वह उन्हींकी व्यक्तिगत जागीर रहा। और उसकी मालगुजारी उन्हींको मिलती रही।
रूपराम चौधरी इस गांव के ज़मींदार और नम्बरदार थे। हर तीसरे साल वे मालगुजारी बादशाह के हुजूर में जाकर अदा कर देते थे। इस अवसर पर वे ज़रा धूम-धाम, बाजे-गाजे के साथ जाते थे। साथ में दस-बीस आदमी भी होते थे। बादशाह दिल्ली में सबका आतिथ्य-सत्कार करते थे। रूपराम चौधरी थे कांटे के आदमी। आसपास के गांवों में उनकी बड़ी धाक थी। वे एक हौसले के आदमी थे—यद्यपि छोटे ही ज़मींदार थे—पर इज़्ज़त उनकी बहुत थी।
मालगुजारी अदा करने का समय आ गया और चौधरी मालगुजारी की रकम साथ लेकर धूम-धाम से दिल्ली चले। साथ में रथ, मझोली, फिरक, घोड़े, प्यादे-सवार, सब मिलकर कोई बीस-पच्चीस आदमियों का हजूम। आगे-आगे ऊंट पर धौंसा बजता जाता था। उन दिनों रईस लोग इसी तरह सफर किया करते थे। अब तो दिल्ली और हापुड़ डेढ़-दो घण्टे का ही सफर है। उन दिनों यह सफर तीन मंज़िल में पूरा होता था।
चौधरी की सवारी शहादरा तक आ पहुंची। शाम का झुटपुटा हो चला था। उन दिनों शहादरा एक सैनिक उपनिवेश था, जो जमुना के पूर्वी तट की रक्षा की दृष्टि से बसाया गया था। दैव-संयोग की वात कि शहादरा के किसी मेहतर की लड़की की उसी दिन शादी हो रही थी और भातई की प्रतीक्षा की जा रही थी। भातई लोग इसी दिशा से आनेवाले थे, जिधर से चौधरी की सवारी आ रही थी। देर काफी हो रही थी, और भातई आ नहीं रहे थे। बिना भात चढ़ाए शादी रुक रही थी। जब चौधरी की सवारी बाजा बजाते शहादरा के सिवाने पर पहुंची तो बेटीवाले मेहतर ने समझा कि भातई आ गए। उसने आगे बढ़कर चौधरी की अगवानी की और आदरपूर्वक डेरा दिया। सन्ध्या के अंधकार में चौधरी भी वास्तविक स्थिति न भांप सके। उन्होंने यही समझा कि कोई बिचारा गरीब आदमी है। हमको बड़ा आदमी समझकर सत्कार करता है। उसका मन अवश्य रखना चाहिए, इस विचार से चौधरी ने मुकाम कर लिया।
परन्तु बहुत देर हो जाने पर भी खाने-पीने की किसीने न पूछी। हकीकत यह है कि कायदे के अनुसार भातई जब तक भात देने की रस्म अदा नहीं कर देते, तब तक उन्हें भोजन नहीं दिया जाता। अब दिल्लगी देखिए कि मेहतर तो सोच रहा है कि भात देने में क्यों देर की जा रही है। भात की रस्म अदा हो जाए तो खाना-पीना हो। और चौधरी समझ रहे हैं—अजब तमाशा है, जब तो इतनी आवभगत से रोका, अब कोई खाने को भी नहीं पूछता।
काफी रात बीत गई और तब तक एकाएक असली भातई लोग आ गए। मेहतर भौंचक रह गया। भातई ये हैं तो वे लोग कौन हैं। और तब उसे ज्ञात हुआ कि वे भातई नहीं, बहादुरपुरा के चौधरी हैं।
मेहतर की फूंक सरक गई। वह हाथ जोड़े आकर चौधरी के कदमों में गिर गया और कहने लगा-माई-बाप, बड़ी चूक हुई, बड़ी बेअदबी हुई। मैंने आपको भातई समझ लिया।
सारी बात सुनकर चौधरी रूपराम खिलखिलाकर हंस पड़े। मेहतर को उठा कर गले से लगा लिया और कहा-बस, अब तो हम तुम्हारे भातई बन ही गए। फिक्र न करो-इतना कहकर मालगुजारी के लिए लाया हुमा सारा रुपया भात में दे दिया। चौधरी रूपराम की दरियादिली और उदारता की यह घटना, जिसने सुनी, दांतों तले उंगली दबाई। सर्वत्र चौधरी की बड़ाई और जयजयकार होने लगा। उस रात चौधरी ने वहीं मुकाम किया।
दूसरे दिन नावों का पुल पार करके चौधरी लालकिले पहुंचे और बादशाह को दीवाने-आम में जाकर मुजरा किया, कोर्निश की। बादशाह ने नज़रे-इनायत चौधरी पर डाली। कुशल-प्रश्न पूछा। और शाही मेहमानखाने में डेरा दिया। मोदी के नाम परवाना जारी कर दिया कि खाने-पीने की सब रसद चौधरी को मिल जाए। परन्तु चौधरी ने हाथ बांधकर कहा-जहांपनाह, मुझ सेवक को मुहलत मिलनी चाहिए।
'कैसी मुहलत?'
'मालगुजारी की रकम घर से लाने की मुहलत?'
'इसके क्या माने? क्या तुम मालगुजारी की रकम लेकर घर से नहीं चले थे?'
'घर से तो रकम लेकर ही चला था हुजूर।'
'तो क्या रास्ते में डाका पड़ा? रकम लुट गई?'
'जी नहीं, लुट नहीं गई। खर्च हो गई।'
बादशाह की त्यौरियां चढ़ गईं। उन्होंने समझा बेअदबी की जा रही है। पर चौधरी रूपराम ने दस्त-बस्ता सारी घटना बादशाह के रूबरू अर्ज़ कर दी। सुनकर बादशाह कुछ देर चुप खामोश बैठे रहे। फिर उन्होंने गीली आंखों से चौधरी की ओर देखकर कहा:
'मालगुजारी तो तुम उसी वक्त अदाकर चुके चौधरी,जब घर से रकम चले। अब वह रकम हमारी थी। और मेहतर की बेटी को भात तुम्हारी ओर से नहीं, हमारी ओर से अदा किया गया है। इसके बाद ही बादशाह ने मीर मुन्शी को बुलाकर हुक्म दिया-चन्द जड़ाऊ ज़ेवर, कपड़े और कुछ नकदी और वहां पहुंचा दो और कह दो कि यह शाही भात बादशाह ने तुम्हारी बेटी को दिया है।'
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