Wednesday, September 14, 2022

कहानी | मास्टर साहब | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Master-Sahib | Acharya Chatursen Shastri


 
(एक कर्कशा नारी के हृदय-परिवर्तन की मार्मिक कहानी।)


भामा भरी बैठी थी। मास्टर साहब ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा-यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलनेवालियां आएंगी, बहुत-कुछ बन्दोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर ली।


'पर लाचारी थी प्रभा की मां, देर हो ही गई।'


'कैसे हो गई? मैं कहती हूं, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो? इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आंखों भी नहीं सुहाती?'


'यह बात नहीं है प्रभा की मां, तनखाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इन्स्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था। तीसरे कुछ आफिस का काम भी हेडमास्टर साहब ने बता दिया। करना पड़ा। फिर आज तनखाह मिलने का दिन नहीं था-कहने-सुनने से हेडमास्टर ने बन्दोबस्त किया।'


'सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफत है। मैं पूछती हूं, देर क्यों कर दी आप लगे आल्हा गाने। देखूं रुपये कहां हैं।'


मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसकी जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट ज़मीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर भामा ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा-चालीस ही हैं, बस?


'चालीस ही पाता हूं, ज्यादा कहां से मिलते?'


'अब इन चालीस में क्या करूं? ओढ़ूँ या बिछाऊं? कहती हूं, छोड़ दो इस मास्टरी की नौकरी को, छदाम की भी तो ऊपर की आमदनी नहीं है! तुम्हारे ही मिलनेवाले तो हैं वे बाबू दाताराम-रेल में बाबू हो गए हैं। हर वक्त घर भरा-पूरा रहता है। घी में घी, चीनी में चीनी कपड़ा-लत्ता, और दफ्तर के दस कुली-चपरासी हाज़िरी भुगताते हैं वह जुदा। वे क्या तुमसे ज्यादा पढ़े हैं? क्यों नहीं रेल-बाबू हो जाते?'


'वे सब तो गोदाम से माल चुराकर लाते हैं प्रभा की मां! मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। तनखाह जो मिलती है, उसी में गुजर-बसर करना होगा।'


'करना होगा, तुमने तो कह दिया। पर इस महंगाई के ज़माने में कैसे?'


'इससे भी कम में गुजर करते हैं लोग, प्रभा की मां!'


'वे होंगे कमीन, नीच। मैं ऐसे छोटे घर की बेटी नहीं हूं।'


'पर अपनी औकात के मुताविक ही तो सबको अपनी गुजर-बसर करनी चाहिए। इसमें छोटे-बड़े घर की क्या बात है? अमीर आदमी ही बड़े आदमी नहीं होते प्रभा की मां!'


'ना, बड़े आदमी तो तुम हो, जो अपनी जोरू को रोटी-कपड़ा भी नहीं जुटा सकते। फिर तुम्हें ऐसी ही किसी कहारिन-महरिन से ब्याह करना चाहिए था। तुम्हारे घर का धन्धा भी करती, इधर-उधर चौका-वरतन करके कुछ कमा भी लाती।'


मास्टर साहब चुप हो गए। वे पत्नी से विवाद करना नहीं चाहते थे। कुछ ठहरकर उन्होंने कहा जाने दो प्रभा की मां, आज झगड़ा मत करो। वे थकित भाव से उठे, अपने हाथ से एक गिलास पानी उंडेला और पीकर चुपचाप कोट पहनने लगे। वे जानते थे कि आज अब चाय नहीं मिलेगी। उन्हें ट्यूशन पर जाना था।


भामा ने कहा-जल्दी आना, और ट्यूशन के रुपये भी लेते आना।


मास्टरजी ने विवाद नहीं बढ़ाया। उन्होंने धीरे से कहा-अच्छा। और घर से बाहर हो गए।


बहुत रात बीते जब वे घर लौटे तो घर में खूब चुहल हो रही थी। भामा की सखी-सहेलियां सजी-धजी गा-बजा रही थीं। अभी उनका खाना-पीना नहीं हुआ था। भामा ने बहुत-सा सामान बाजार से मंगा लिया था। पूड़ियां तली जा रही थीं और घी की सौंधी महक घर में फैल रही थी


पति के लौट आने पर भामा ने ध्यान नहीं दिया। वह अपनी सहेलियों की आवभगत में लगी रही। मास्टर साहब बहुत देर तक अपने कमरे में पलंग पर लेटे भामा के आने और भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे, और न जाने कब सो गए।


'रात को भूखे ही सो रहे तुम, खाना नहीं खाया?'


'कहां, तुम काम में लगी थीं, मुझे पड़ते ही नींद आई तो फिर आंख ही नहीं खुली।'


'मैं तो पहले ही जानती थी कि बिना इस दासी के लाए तुम खा नहीं सकते रोज ही तो चाकरी बजाती हूं; एक दिन मैं तनिक अपनी मिलनेवालियों में फंस गई, सो रूठकर भूखे ही सो रहे। सो एक बार नहीं सौ बार सो रहो, यहां किसी की धौंस नहीं सहनेवाले हैं।'


'लेकिन प्रभा की मां, इसमें धौंस की क्या बात है? मुझे नींद आ ही गई।'


'आ गई तो अच्छा हुआ, अब महीने के खर्च का क्या होगा?'


'ट्यूशन ही के बीस रुपये जेब में पड़े हैं, उन्हींमें काम चलाना होगा।'


'ट्यूशन के बीस रुपये? वेतो रात काम में आ गए। मैंने ले लिए थे।'


'वे भी खर्च कर दिए?'


'बड़ा कसूर किया, अब फांसी चढ़ा दो।'


'नहीं, नहीं, प्रभा की मां, मेरा खयाल था चालीस रुपये में तुम काम चला लोगी, बीस बच रहेंगे। इनसे दब-भींचकर महीना कट जाएगा।'


'यह तो रोज़ का रोना है। तकदीर की बात है, यह घर मेरी ही फूटी तकदीर में लिखा था। पर क्या किया जाए, अपनी लाज तो ढकनी ही पड़ती है। लाख भूखे-नंगे हों, परायों के सामने तो नहीं रह सकते। वे सब बड़े घर की बहू-बेटियां थीं, कोई खटीक-चमारिन तो थी ही नहीं। फिर साठ-पचास रुपये की औकात ही क्या है?'


मास्टर साहब चिन्ता से सिर खुजाने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा। महीने का खर्च चलेगा कैसे, यही चिन्ता उन्हें सता रही थी। अभी दूधवाला आएगा, धोबी आएगा। वे इस माह में जूता पहनना चाहते थे-बिलकुल काम लायक न रह गया था। परन्तु अब जूता तो एक ओर रहा, और आवश्यक खर्च की ही चिन्ता सवार हो गई।


पति को चुप देखकर भामा झटका देकर उठी। उसने कहा अब इस बार तो कसूर हो गया भई, पर अब किसीको नहीं बुलाऊंगी। इस अभागे घर में तो पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।


उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया। मास्टर साहब चुपचाप खाकर स्कूल को चले गए।


भामा ने कहा--बिना कहे तो रहा नहीं जाता, अब तेली, तम्बोली, दूधवाला आकर मेरी जान खाएंगे। क्या कहूं उनसे, बोलो तो? तुम्हें तो अपनी इज्जत का खयाल ही नहीं, पर मुझसे तो इन नीचों के तकाज़े नहीं सहे जाते।


मास्टरजी ने धीमे स्वर में नीची नज़र करके कहा-करूंगा प्रबन्ध, जाता हूं।


'लेकिन, क्यों सहती हो बहिन, इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कंधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा, हम भी मनुष्य हैं-पुरुषों ही की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्थी करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवन-भर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं।'


भामा की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा-यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमतीजी! आप ही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध-धोए भी बने रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक से एक बढ़ कर भोग हैं, क्या मनुष्य का दिल उन्हें भोगना न चाहेगा?


'क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।'


'यही तो, पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।'


'हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबरी की ही होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य-पूर्ति के लिए हमने यह आज़ाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता की-पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गायन-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।'


'तो मैं श्रीमतीजी, आपके संघ और स्कूल दोनों ही की सदस्य होती हूं। जब वे स्कूल चले जाते हैं, मैं दिन-भर घर में पड़ी उनके आने का इन्तजार करती रहती हूं। सो भी इस अवस्था में नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते होंगे या मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लेंगे। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता भी नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक; सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।'


'मत सहो, मत सहो, बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।'


'यही करूंगी श्रीमतीजी, यही करूंगी।'


'तो कल आना। हमारा वार्षिकोत्सव है, बहुत-सी बड़ी-बड़ी देवियां पाएंगी उनके भाषण होंगे, भजन होंगे, नृत्य होगा, गायन होगा, नाटक होगा, प्रस्ताव होंगे और फिर प्रीतिभोज होगा। कहो, आयोगी न?'


'अवश्य पाऊंगी, अब जाती हूं।'


'अब जाओ फिर। तुम्हें देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। याद रखो, तुम्हारी जैसी ही देवियों के पैरों पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियां काटने के लिए हमने यह उद्योग किया है।'


'आप धन्य हैं श्रीमतीजी, नमस्ते।'


'नमस्ते।'


भामा ने बड़ी उत्सुकता से वह रात काटी और वह अपनी समझ में पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब उस जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन-प्रकारों से। उसने देखा, समझा-अहा, यही तो सच्चा जीवन है, कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीयविद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।


मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर, आप खा और प्रभा को खिला, पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।


भामा ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनागारपर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब-कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुपचाप जाकर सो गई।


मास्टर साहब ने कहा-और खाना?


'नहीं खाऊंगी।'


'कहां खाया?'


'खा लिया।'


और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।


भामा प्रायः नित्य ही महिला-संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी-लिखी, उन्नतिशील कहानेवाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना—उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाटदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के पासन को सुशोभित करती हैं, चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते है, जिन्हें प्रणाम करते, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ-जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकनेवाला, उनकी इच्छा में बाधा डालनेवाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।


एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी (उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था) तो भामा के पास बैठी एक महिला ने मुंह विचकाकर कहा—लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है। दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा-क्यों? ऐसा क्यों है?


'कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते रहना, हंस-हंस-कर बातें करना पसन्द करेगा भला? घर-गिरस्ती देखना नहीं, देशोद्धार करना या महिलोद्धार करना। और घर-बाहर अवारा फिरना।'


'तो फिर बीबी, बिना त्याग किए यों देश-सेवा हो भी नहीं सकती।'


'खाक देश-सेवा। जो अपने पति और बाल-बच्चों की सेवा नहीं कर सकती, अपनी घर-गिरस्ती को नहीं संभाल सकती, वह देश-सेवा क्या करेगी? देश के शांत जीवन में अशांति की आग अवश्य लगाएगी।'


भामा को ये बातें चुभ रही थीं। उससे न रहा गया, उसने तीखी होकर कहा-क्या चकचक लगाए हो बहिन, घर-गिरस्ती जाकर संभालो न, यहां वक्त बरबाद करने क्यों आई हो?


महिला चुप तो हो गई पर उसने तिरस्कार और अवज्ञा की दृष्टि से एक बार भामा को और एक बार सभानेत्री को देखा।


भामा सिर्फ स्त्रियों ही के जलसों में नहीं आती-जाती थी, वह उन जलसों में भी भाग लेने लगी, जिनमें पुरुष भी होते। बहुधा वह स्वयं-सेविका बनती, और ऐसे कार्यों में तत्परता दिखाकर वाहवाही लूटती। उसकी लगन, तत्परता, स्त्री-स्वातन्त्र्य की तीव्र भावना के कारण इस जाग्रत स्त्री-जगत् में उसका परिचय काफी बढ़ गया। वह अधिक विख्यात हो गई। लीडर-स्त्रियों ने उसे अपने काम की समझा, उसका आदर बढ़ा। भामा इससे और भी प्रभावित होकर इस सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ती गई और अब उसकी वह क्षुद्र-दरिद्र गिरस्ती, छोटी-सी पुत्री और समाज में अतिसाधारण-सा अध्यापक उसका पति, सब कुछ हेय हो गया।


वह बहुत कम घर पाती। बहुधा मास्टर साहब को खाना स्वयं बनाना पड़ता, चाय बनाना तो उनका नित्य-कर्म हो गया। पुत्री प्रभा की सार-संभार भी उन्हें करनी पड़ने लगी। वे स्कूल जाएं, ट्यूशन करें, बच्ची को संभालें, भोजन बनाएं और घर को भी संभालें। यह सब नित्य-नित्य सम्भव नहीं रहा। घर में अव्यवस्था और अभाव बढ़ गया। भामा और भी तीखी और निडर हो गई। वह पति पर इतना भार डालकर, उनकी यत्किचित् भी सहायता न करके, उनकी सारी सम्पत्ति को अधिकृत करके भी निरन्तर उनसे क्रुद्ध और असंतुष्ट रहने लगी। पति की क्षुद्र आय का अब सबसे बड़ा भाग उसकी साड़ियों में, चन्दों में, तांगे के भाड़े में और मित्र-मित्राणिों के चाय-पानी में खर्च होने लगा। मास्टर साहब को मित्रों से ऋण लेना पड़ा। ऋण मास-मास बढ़ने लगा और फिर भी खर्च की व्यवस्था बनी नहीं। दूध आना बन्द हो गया, घी की मात्रा कम हो गई, सांग-सब्जी में किफायत होने लगी। मास्टरजी के कपड़े फट गए, उन्होंने और एक ट्यूशन कर ली। वे रात-दिन पिसने लगे। छोटी-सी बच्ची चुपचाप अकेली घर में बैठी पिता और माता के आगमन की प्रतीक्षा करने की अभ्यस्त हो गई। बहुधा वह वहुत रात तक, सन्नाटे के पालम में, अकेली घर में डरी हुई, सहमी हुई, बैठी रहती-कभी रोती, कभी रोती-रोती सो जाती; बहुधा भूखी-प्यासी।


एक दिन जब मास्टर साहब स्कूल की तैयारी में थे, भामा ने कहा-सुनते हो, मुझे एक नई खद्दर की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने स्वयंसेविकाओं में नाम लिखाया है।


'किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में।'


भामा गरज पड़ी-अगले महीने में या अगले साल में। आखिर क्या मैं भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं। ब्याही आई हूं, बांदी नहीं।


'सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो।'


'मुझे तुम्हारे कर्मों से क्या मतलब? कमाना मर्दो का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?'


'नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी...।'


'भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।'


'तो बन्दोवस्त करूंगा।' मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता संभालकर चुपचाप चल दिए।


जलसे में भामा एक सप्ताह व्यस्त रही। वह घर न आ सकी। आठ दिन बाद जब वह आई तो उसके रंग-ढंग ही बदले हुए थे। उसमें लीडरी की बू आ गई थी। अब वह एक बच्ची की मां, एक पति की पत्नी, एक घर की गृहिणी नहीं-एक आधुनिकतम महिला-उद्धारक स्त्री थी। पुरुषों से, गृहस्थी की रूढ़ियों से, दरिद्र जीवन से सम्पूर्ण विद्रोह करनेवाली। वह बात-बात पर पति से झगड़ा करने लगी, प्रभा को अकारण ही पीटने लगी। तनिक-सी भी वात मन के विपरीत होने पर तिनककर घर से चली जाती और दो-दो दिन गायब रहती। उसकी बहुत-सी सखी-सहेलियां हो गई थीं, बहुत-से अड्डे वन गए थे, जिनमें स्कूलों की मास्टरनियां, अध्यापिकाएं, विधवाएं, प्रौढ़ाएं और स्वतन्त्र जीवन का रस लेनेवाली अन्य अनेक प्रकार की स्त्रियां थीं। उनमें से प्रायः सवोंने स्त्रियों के उद्धार का व्रत ले रखा था।


इन सब बातों से अन्ततः एक दिन मास्टर साहब का समुद्र-सा गम्भीर हृदय भी विचलित हो गया। पत्नी के प्रति उत्पन्न रोष को वे यत्न करके भी न दबा सके। प्रभा दो दिन से ज्वर में बेहोश थी, और भामा दो दिन से गायब थी-किसी कार्यवश नहीं, क्रुद्ध होकर। प्रभा ने अम्मा-अम्मा की रट लगा रखी थी। उसके होंठ सूख रहे थे, बदन तप रहा था। मास्टर साहब स्कूल नहीं जा सके थे। ट्यूशन भी नहीं, खाना भी नहीं, वे पुत्री के पास बैठे पानी से उसके होंठों को तर करते, 'अम्मा आ रही हैं' कहकर धीरज देते, फिर एक गहरी सांस के साथ हृदय के दुःख को बाहर फेंकते और अपने दांतों से होंठ दवा लेते और भामा के प्रति उत्पन्न क्रोध को दबाने की चेष्टा करते।


भामा आई तो उसने न रुग्ण पुत्री की ओर देखा, न भूख-प्यास से जर्जर चतित पति को। वह भरी हुई जाकर अपनी कोठरी में द्वार बन्द करके पड़ गई।


अन्त में मास्टर साहब ने कोठरी के द्वार पर जाकर कहा-प्रभा को बहुत तेज़ ज्वर है प्रभा की मां, तनिक आओ तो।


'मैं क्या वैद्य-डाक्टर हूं?' भीतर से भामा ने कहा।


'नहीं, वह तुम्हें बहुत याद कर रही है, तनिक उसके पास बैठो।'


'तुम बैठे तो हो।'


'वह तुम्हें पुकार रही है, आओ।'


'मैं थक रही हूं, मेरी जान मत खाओ।'


'कैसी बात कहती हो प्रभा की मां, वह तुम्हारी बेटी है।'


'तुम्हारी भी तो है।'


'बच्चों की देखभाल तो मां ही कर सकती है, प्रभा की मां?'


'पर बच्चे मां के नहीं, बाप के हैं। उन्हें ही उनकी संभाल करनी चाहिए।'


'पर तुम ज़रा बच्ची के पास तो जानो।'


'भाड़ में जाए बच्ची, मुझे ज़रा सोने दो, मेरी तबियत ठीक नहीं है।'


'यह तुम क्या कह रही हो प्रभा की मां!'


'तुम उसे नहीं समझ सकोगे। स्कूल की किताबों में वह वात नहीं लिखी।'


मास्टर साहब के शरीर का सम्पूर्ण रक्त उनके मस्तिष्क में भर गया। जीवन में पहली बार असह्य क्रोध की लहर पाई। उन्होंने आपे से बाहर होकर किन्तु धीमे स्वर में कहा-तुम ऐसी हृदयहीन हो, प्रभा की मां!-उन्होंने थूक सटका और चले गए।


सुबह बड़ी देर तक भी जब भामा अपनी कोठरी से बाहर नहीं आई तब मास्टर साहब, रात-भर की जागी हुई, फूली हुई, सुर्ख आंखों की कोर में वेदना और उदासी भरे, प्रभात की वेला में झपकी लेती, क्लांत बच्ची को चुपके से छोड़कर फिर पत्नी की कोठरी में गए। रात के गुस्से को भूलकर उन्होंने पुकारा-


प्रभा की मां, उठो तो तनिक, दिन बहुत चढ़ गया है। पर दूसरे ही क्षण उन्होंने देखा, कोठरी का द्वार खुला है और भामा वहां नहीं है, कोठरी सूनी है, विछौना खाली है। भीतर जाकर देखा, एक पुर्जा लिखा रखा था। उसमें लिखा था:


'मेरी आंखें खुल गई हैं, मैं अपने अधिकार को जान गई हूं। मैं भी आदमी हूं, जैसे तुम मर्द लोग हो, और मुझे भी मर्दो ही की भांति स्वतन्त्र रहने का अधिकार है। मैं तुम्हारे लिए गृहस्थी की गुलामी करने से इन्कार करती हूं। तुम्हारे लिए बच्चे पैदा करने, उनके मल-मूत्र उठाने, तुम्हारे सामने हाथ पसारने से इन्कार करती हूं। मैं जाती हूं और कहे जाती हूं कि तुम्हें मुझे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं। तुम्हारी चालीस रुपये की हैसियत में मैं अपने को भागीदार नहीं बना सकती।'


मास्टर साहब की आंखें फट गईं, मुंह फैला रह गया। वे वहीं चारपाई पर बैठकर दो-तीन बार उस पत्र को पढ़ गए। और सब बातों को भूलकर वे यही सोचने लगे-आखिर भामा यह सब लिख कैसे सकी? बिलकुल ग्रामोफोन की सी भाषा है, व्याख्यान के नपे-तुले शब्द, साफ-तीखी युक्ति, सुगठित भाषा। ऐसा तो वे भी नहीं लिख सकते। भामा यह सब कहां से सीख गई? क्या उसने सत्य ही उन सब गम्भीर बातों पर, स्त्री-स्वातन्त्र्य पर, सामाजिक जीवन के इस असाधारण स्त्री-विद्रोह पर पूरा-पूरा विचार कर लिया है?क्या वह जानती है कि इस मार्ग पर जाने से उसपर क्या-क्या ज़िम्मेदारियां आएंगी? मैं तो उसे जानता हूं, वह कमज़ोर दिमाग की स्त्री है, एक असहनशील पत्नी है, एक निर्मम मां है। वह इन सब बातों को समझ ही नहीं सकती। परन्तु वह यह खत लिख कैसे सकी? घर त्यागने का साहस उसमें हो सकता है, यह उसकी दिमागी कमजोरी और असहनशीलतापूर्ण हृदय का परिणाम है; परन्तु उसके कारण इतने उच्च, इतने विशाल, इतने क्रांतिमय हैं, यह भामा समझ नहीं सकती। वह सिर्फ भरी गई है, भुलावे में आई है। ईश्वर करे, उसे सुबुद्धि प्राप्त हो, वह लौट पाए-मेरे पास नहीं, मैं जानता हूं, मैं अच्छा पति नहीं, मैं उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति नहीं कर सकता। मेरी क्षुद्र आमदनी उसके लिए काफी नहीं है। फिर भी प्रभा के लिए लौट ही आना चाहिए उसे। पता नहीं कहां गई, पर उसे तलाश करना होगा। उसके गुस्से को इतना सहा है, और भी सहना होगा। और उसने समझा हो या न समझा हो, उसका यह कहना तो सही है ही कि मुझे उसे बलपूर्वक अपने दुर्भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार ही नहीं है।


क्षण-भर के लिए मास्टर स्तब्ध बैठे रहे। उनकी तनखाह के गोल-गोल चालीस रुपये झल-झल करके उनके कानों में चालीस की गिनती कर गुम-गुम होने लगे और उनकी दरिद्रता, असहाय गृहस्थी विद्रूप कर ही-ही करके उनका उपहास करने लगी।


'मैं आज उस गुलामी की बेड़ियों को तोड़ आई हूं श्रीमतीजी।'


'शाबाश, तुम्हारे साहस की जितनी तारीफ की जाए, थोड़ी है। मैं समझती हूं कि अब तुम अधिक आज़ादी से अपनी बहिनों और अपने देश की सेवा कर सकती हो।'


'आप जो कहें, वही मैं करूंगी।'


'मैं चाहती हूं, अभी तुम हमारे स्कूल में काम करो। सिर्फ सब सामान की फेहरिस्त रखना, चीज़ों को संभालना और तैयार माल को बाजार में बेचना-यही काम तुम्हें करना होगा।'


'और सब तो ठीक है, पर बाजार में बेचना, यह मुझसे कैसे होगा? मैं तो कभी बाज़ार जाती नहीं, लोगों से बात करती नहीं।'


'तो क्या मैं समझू, यह भीरुता, यह कमज़ोरी तुममें अभी बनी ही रहेगी?'


'परश्रीमतीजी...'


'पर-वर कुछ नहीं। हरिया तुम्हारे साथ रहेगा। वह तुम्हारे कामों में खूब चंट है। सिर्फ हथलपक है, जो माल बेचता है या खरीदता है, अपनी मुट्ठी भी गर्म करता है। अब तुम्हारी निगरानी में वह ऐसा नहीं कर सकेगा।'


पर मैं काम कुछ जानती नहीं हूं श्रीमतीजी! कहीं कोई भूल-चूक हो गई तो...


'तो क्या हुआ, भूल-चूक भी इंसान से ही होती है। फिर सब काम करने ही से तो आते हैं, कोई पेट से तो सब सीखकर पैदा नहीं होता।'


'तब ठीक है श्रीमतीजी, अब मेरे खाने-पीने का क्या होगा?'


'तुम्हें बीस रुपया माहवार मिलेगा। रहने को मकान स्कूल ही में मिलेगा। काम सीख लेने पर और कुछ, और पढ़-लिख जाने पर और अधिक तनखाह मिलेगी।'


भामा जब अपने नये घर में आई, तो उसका मन बैठ रहा था। उसका सारा उत्साह ठंडा पड़ रहा था। बीस रुपये की नौकरी, दिन-भर की गुलामी, फिर बाज़ार में माल बेचना। छी, छी! मैं कैसे उन लोगों से पार पाऊंगी?


घर को उसने देखा-उसके अपने घर की एक कोठरी से भी बदतर। एक साधारण-सी कठोरी, गन्दी और सूनी। बराबर की कोठरी में चपरासी हरिया रहता था। उसकी पीकर फेंकी हुई अधजली वीड़ियां बिखरी पड़ी थीं। झाड़ महीनों से नहीं लगी थी। एक टूटी खाट और पुराना घड़ा पानी से भरा, एक कोने में रखा था।


यह सब देखकर उसे अपना घर, गरीब पर साफ-सुथरा, छोटी-सी बिटिया प्रभा और सदा शान्त-शिष्ट रहनेवाले पति की याद आने लगी। पर उसने दृढ़तापूर्वक आगे कदम बढ़ाने की ठान ली। कोठरी उसने झाड़-बुहारकर ठीक कर ली। हरिया से उसने कहा:


'लेकिन चारपाई, बिछौना, सामान? मेरे पास तो कुछ नहीं है।'


'आज-भर मेरी चारपाई ले लो, पैसे हों तो दो, मैं सामान ला दूं। कल बन्दोबस्त कर लेना।'


'लेकिन मेरे पास पैसे भी तो नहीं हैं।'


'तो तुमने बड़ी बीवी से मांगा क्यों नहीं?'


भामा को उस नीच चपरासी का 'तुम, तुम' करके बातें करना बहुत बुरा लगा। उसकी चारपाई मंगनी लेना, उसीकी बगल की सूनी कोठरी में अकेली रहना, और बिना साज-सामान गृहस्थी बसाना-उसे यह सब एक असह्य, अनहोनी-सी बात लगने लगी।


उसने सोचा-चलो, घर लौट चलूं, पर मन फिर मचल गया। उसने 'तुम' कहकर उससे बात करनेवाले हरिया से 'तू' कहकर बात की। कहा-चल जरा मेरे साथ बीवीजी के घर, मैं उनसे ज़रूरी सामान का बंदोबस्त करने को कहूं।


हरिया को यह तू-तड़ाक पसन्द नहीं आई। उसने धृष्टता से कहा-मैं स्कूल का नौकर हूं, तुम्हारा नहीं, और रात-दिन को नौकरी भी नहीं करता। मैं इस समय कहीं नहीं आ-जा सकता। वह भीतर अपनी कोठरी में चला गया।


मानिनी भामा तमाम रात भूखी-प्यासी, ठिठुरती उस कोठरी के कोने में भीतर से द्वार बन्द करके बैठी रही। एक-एक करके उसके सामने पति के प्यार, सहिष्णुता, अधीनता के चित्र खिचने लगे। उसे ख्याल हुआ-उनकी यह दरिद्रता उनकी अकर्मण्यता से नहीं है, देश के वातावरण से, लाचारी से और परम्परा से ही है। उसे रह-रहकर अपनी बच्ची की याद आने लगी, जो ज्वर में अपने सूखे होंठों से अम्मा को पुकार रही थी। उसे पति का अभ्यस्त मधुरतम सम्बोधन 'प्रभा की मां' की याद आ रही थी। झर-झर उसकी आंखों से आंसू बहते रहे, वह रोती रही। भूख-प्यास से थकित, शिथिल, गन्दी-अन्धेरी कोठरी में बैठी, वह मन ही मन कहने लगी-यही हमारी, हम स्त्रियों की स्वाधीनता का पथ है!


दूसरी कोठरी में हरिया और उसके यार-दोस्त चण्ड़ में दम लगा रहे थे। गन्दी बातें बक रहे थे, और बीच-बीच में भामा को लेकर बहुत-सी उचित-अनुचित बातें कह रहे थे।


'किन्तु श्रीमतीजी, भामा मेरी पत्नी है।'


'कह तो दिया, आप नहीं मिल सकते।'


'मगर मिलना बहुत ज़रूरी है। श्रीमतीजी, उसकी बच्ची बहुत बीमार है।' 'महाशय, वह आपसे मिलना नहीं चाहती, आपसे कोई सरोकार रखना नहीं चाहती। ऐसी हालत में आप उससे जबरदस्ती नहीं मिल सकते।'


'ज़बरदस्ती नहीं, श्रीमतीजी, मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूं।'


'आप नाहक हमारा सिर खाते हैं।'


'लेकिन उसने उचित नहीं किया है, उसे सोचना होगा और आपको भी उसे समझाना चाहिए। सोचिए तो सही, वह एक पति की पत्नी ही नहीं, एक बच्ची की मां भी है।'


'वह अपना हानि-लाभ सोच सकती है, उसे आपकी शिक्षा की आवश्यकता नहीं।'


'है, श्रीमतीजी है, उसे मेरी शिक्षा की सहायता की बहुत जरूरत है। वह अपना हानि-लाभ नहीं सोच सकती।'


'तो आप चाहते क्या हैं?'


'जरा उसे यहां बुलाइए, मैं उससे बात करना चाहता हूं।'


'परन्तु मैंने कहा, वह आपसे बात करना नहीं चाहती।'


'नहीं, नहीं, बात करने में हानि नहीं है।'


'ओफ, आपने तो सिर खा डाला। मैं कहती हूं, आप चले जाइए।'


'मैं उसे ले जाने के लिए आया हूं।'


'उसे आप जबरदस्ती नहीं ले जा सकते।'


'मैं उसे समझाना चाहता हूं।'


'वह आपसे मिलने को तैयार नहीं।'


'मैं उसका पति हूं श्रीमतीजी, वह मेरी पत्नी है, मेरा उसपर पूरा अधिकार है।


'तो आप अदालत में जाइए, अपने अधिकार का दावा कीजिए।'


'छी, छी! श्रीमतीजी, आप महिलाओं की हितैषिणी हैं,आप यह कभी पसन्द नहीं करेंगी।


'जी, मैं यह भी तो पसन्द नहीं करती कि पुरुष स्त्रियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी आवश्यकताओं का गुलाम बनाएं।'


'कहां, हम तो उन्हें अपने घर-बार की मालकिन बनाकर, अपनी इज्जत, प्रतिष्ठा, सब-कुछ उन्हें सौंपकर निश्चिन्त रहते हैं। जो कमाते हैं, उन्हीं के हाथ पर धरते हैं, फिर प्रत्येक वस्तु और कार्य के लिए उन्हींकी सहायता के भिखारी रहते हैं।'


'विचित्र प्रकृति के व्यक्ति हैं आप, अब मुझीसे उलझ रहे हैं। आप यह व्याख्यान किसी पत्र में छपवा दीजिएगा। आपकी युक्तियों का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है।'


'किन्तु श्रीमतीजी, आप एक पति और उसकी पत्नी के बीच इस प्रकार व्यवधान मत बनिए।'


'अच्छा तो आप मुझे धमकाना चाहते हैं?'


'मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, विनय करताहूं। आप भद्र महिला हैं। एक माता को उसकी रुग्णा पुत्री से, उसके निरीह पति से पृथक् मत कीजिए। आप बड़े घर की महिलाएं, और आपके पतिगण, यह सब विच्छेद सहन करने की शक्ति रखते हैं, हम बेचारे गरीब अध्यापक नहीं। हमारी छोटी-सी गरीब दुनिया है, शान्त छोटासा घर है, एक छोटे-से घोंसले के समान। हमलोग न ऊधो के लेने में और न माधो के देने में। दिन-भर मेहनत करते हैं-घर में पत्नी और बाहर पति, और रात को अपनी नींद सोते हैं। आप बड़े-बड़े आदमियों का शिकारी जीवन है, उसमें संघर्ष हैं, आकांक्षाएं हैं, प्रतिक्रिया है, और प्रतिस्पर्धा है। इन सबके बीच आप लोगों का व्यक्तिगत जीवन एक गौण वस्तु बन जाता है। पर हम लोग इन सब झंझटों से पाक-साफ हैं। कृपया हम जैसे निरीह प्राणियों को अपनी इस जीवन की घड़दौड़ में न घसीटिएगा। दया कीजिए। मेरी पत्नी मेरे साथ कर दीजिए, मैं उसे समझा लूंगा, उससे निपट लूंगा।'


'अच्छा तो आप चाहते हैं कि मैं चपरासी को बुलाऊं? या पुलिस को फोन करूं?'


'जी नहीं, मैं चाहता हूं कि आप भामादेवी को यहां बुला दें। मैं उन्हें अपने घर ले जाऊं।'


'यह नहीं हो सकता।' 'यह बड़ा अन्याय है, श्रीमतीजी!'


'आप जाते हैं, या चपरासी बुलाया जाए?...


'चपरासी....ओ चपरासी!'


देवीजी ने उच्च स्वर से पुकारा। अपनी टेढ़ी और घिनौनी मूंछों में हंसता हुआ हरिया आ खड़ा हुआ। अर्ध उद्दण्डता से बोला:


'क्या करना होगा मेम साहब?'


मेम साहब के कुछ कहने से प्रथम ही मास्टर साहव 'कुछ नहीं भाई, कुछ नहीं' कहते हुए अपना छाता उठा आफिस से बाहर हो गए। चलती बार वे श्रीमतीजी को नमस्ते करना भूले नहीं।


'सुना तुमने, वह खूसट आया था, दफ्तर में।'


'कौन?'


'अरे वही बागड़बिल्ला मास्टर, तुम्हारा पति।'


'लेकिन तू तमीज़ से बातें कर।'


'चे खुश, तुमसे, तुम क्या मेरी अफसर हो?'


'तो तूने समझा क्या है?'


'तुम वीस पाती हो, मैं भी बीस पाता हूं, तुमसे कम नहीं।'


'तो इसीसे तू मेरी बराबरी करेगा?'


'कल इतना काम कर दिया, सारा सामान बाजार से ढोकर लाया, और अब 'तू-तू' करके बातें करती हो ? ऐसी ही शाहज़ादी थीं, तो बीस रुपल्ली पर नौकरी करने और इस कोठरी में दिन काटने क्यों आई थीं?'


'देख हरिया, ज्यादा बदतमीज़ी करेगा तो अच्छा नहीं होगा।'


'क्या करोगी, मारोगी?'


'मैं कहती हूं, तू अपनी हैसियत में रह।'


'और तुम भी अपनी हैसियत में रहो। बहुत सहा, कल मैं मेम साहब से साफ कह दूंगा कि जिस-तिसकी गुलामी करना मेरा काम नहीं है। ऐसी तीन सौ साठ नौकरी मिल सकती हैं। कुछ तुम्हारी तरह घर छोड़कर भगोड़ा नहीं हूं। इज्जत रखता हूं।'


भामा का सारा ही मान बिखर गया। ओह, अभी सिर्फ दो ही दिन तो बीते हैं। इसी बीच में इतना कष्ट, इतना अपमान, इतनी वेदना, इतना सूनापन ! हे ईश्वर, क्या अभी भी मैं अपने घर लौट नहीं सकती? क्या वे मुझे माफ नहीं कर सकते? अरे, मैं कितना उनसे तीखी रहती थी, कभी सोधे मुंह बात भी नहीं की, सेवा तो एक ओर रही। आज दो-दो कौड़ी के नीच आदमी मेरे मुंह लगते हैं। मैं एक गरीब मास्टर की बीवी ही सही, फिर भी एक इज़्ज़तदार औरत तो हूं। किसी का दिया तो नहीं खाती।


वे स्वयं लेने आए थे। कितना घबड़ा रहे होंगे! प्रभा की क्या हालत होगी? हाय, मैं उसे, पेट की बच्ची को बुखार में तड़पती छोड़ आई! एक बार उसकी ओर देखा तक भी नहीं। सच तो यह है कि मैंने न कभी अपने पति का खयाल किया, न सन्तान का। मैं सदा अपने में असन्तुष्ट रही। अपने को देखा नहीं, सपने ही देखती रही।


वह उस नीच-कमीने नौकर से महज़ोरी करना रोक अपनी कोठरी में घस गई। द्वार भीतर से बन्द कर लिए, और फूट-फूटकर रोने लगी। दिन बीते, रातें वीती, सप्ताह बीते।


महीने और साल बीते। तीन साल बीत गए। एक दिन, दिवाली की रात को, मास्टर साहब अपने घर में दीये जला, प्रभा को खिला-पिला बहुत-सी वेदना, बहुत-सी. व्यथा, हृदय में भरे बैठे थे। वालिका कह रही थी-बाबूजी! अम्मां कब आएगी?


'आएगी बेटी, आएगी!'


'तुम तो रोज़ यही कहते हो। तुम झूठ बोलते हो बाबू जी।'


'झूठ नहीं बेटी, आएगी।'


'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?


'आज दिवाली है बाबूजी?'


'हां बेटी।'


'तुमने कितनी चीजें बनाई थीं-पूरी, कचौरी, रायता, हलुआ..."


'हां हां, बेटी, तुझे सब अच्छा लगा?'


'हां, बाबूजी, तुम कितनी खील लाए हो, खिलौने लाए हो-मैंने सब वहां सजाए हैं।


'बड़ी अच्छी है तू रानी बिटिया।'


'यह सब मैं अम्मा को दिखाऊंगी।'


'दिखाना।'


'देखकर वे हंसेंगी।'


'खूब हंसेंगी।'


'फिर मैं रूठ जाऊंगी।'


'नहीं, नहीं, रानी बिटिया नहीं रूठा करती।'


'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?'


मास्टरजी ने टप से एक बूंद आंसू गिराया, और पुत्री की दृष्टि बचाकर दूसरा पोंछ डाला। तभी बाहर खिड़की के पास किसीके धम्म से गिरने की आवाज़ आई।


मास्टरजी ने चौककर देखा, गुनगुनाकर कहा-क्या गिरा? क्या हुआ?


वे उठकर बाहर गए, सड़क पर दूर खम्भे पर टिमटिमाती लालटेन के प्रकाश में देखा, कोई काली-काली चीज़ खिड़की के पास पड़ी है। पास जाकर देखा, कोई स्त्री है। निकट से देखा, बेहोश है। मुंह पर लालटेन का प्रकाश डाला, मालूम हुआ भामा है।


मास्टर साहब एकदम व्यस्त हो उठे। उन्होंने सहायता के लिए इधर-उधर देखा, कोई न था, सन्नाटा था। उन्होंने दोनों बांहों में भामा को उठाया और घर के भीतर ले आए। उसे चरपाई पर लिटा दिया।


बालिका ने भय-मिश्रित दृष्टि से मूछिता माता को देखा-कुछ समझ न सकी। उसने पिता की तरफ देखा।


'तेरी अम्मा आ गई बिटिया, बीमार है यह।' फिर भामा की नाक पर हाथ रखकर देखा, और कहा-उस कोने में दूध रखा है। ला तो ज़रा।


दूध के दो-चार चम्मच कण्ठ में उतरने पर भामा ने आखें खोलीं। एक बार उसने आंखें फाड़कर घर को देखा, पति को देखा, पुत्री को देखा, और वह चीख मारकर फिर बेहोश हो गई।


मास्टरजी ने नब्ज़ देखी, कम्बल उसके ऊपर डाला। ध्यान से देखा, शरीर सूखकर कांटा हो गया है, चेहरे पर लाल-काले बड़े-बड़े दाग हैं, आंखें गढ़े में धंस गई हैं। सामने के दो दांत टूट गए हैं, आधे बाल सफेद हो गए हैं। कपड़े गन्दे, चिथड़े। पैर कीचड़ और गन्दगी में लथपथ और" और "और वे दोनों हाथों से माथा पकड़कर बैठ गए।


प्रभा ने भयभीत होकर कहा-क्या हुआ बाबूजी?


'कुछ नहीं बिटिया!' उन्होंने एक गहरी सांस ली। भामा को अच्छी तरह कम्बल उढ़ा दिया। इसी बीच भामा ने फिर आंखें खोलीं। होश में आते ही वह उठने लगी। मास्टरजी ने बाधा देकर कहा-उठो मत, प्रभा की मां, बहुत कमजोर हो। क्या थोड़ा दूध दूं?


भामा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। रोते-रोते हिचकियां बंध गई।


मास्टरजी ने घबराकर कहा-यह क्या नादानी है, सब ठीक हो जाएगा। सब ठीक।


'पर मैं जाऊंगी, ठहर नहीं सकती।'


'भला यह भी कोई बात है, तुम्हारी हालत क्या है यह तो देखो।'


भामा ने दोनों हाथों से मुंह ढक लिया। उसने कहा-तुम क्या मेरा एक उपकार कर दोगे? थोड़ा ज़हर मुझे दे दोगे? मैं वहां सड़क पर जाकर खा लूंगी।


'यह क्या बात करती हो प्रभा की मां! हौसला रखो, सब ठीक हो जाएगा।'


'हाय मैं कैसे कहूं?'


'आखिर बात क्या है?'


'यह पापिन एक बच्चे की मां होनेवाली है, तुम नहीं जानते।'


'जान गया प्रभा की मां, पर घबराओ मत, सब ठीक हो जाएगा।'


'हाय मेरा घर!'


'अब इन बातों की इस समय चर्चा मत करो।'


'तुम क्या मुझे क्षमा कर दोगे?'


'दुनिया में सब-कुछ सहना पड़ता है, सब-कुछ देखना पड़ता है।'


'अरे देवता, मैंने तुम्हें कभी नहीं पहचाना।'


'कुछ बात नहीं, कुछ बात नहीं, एक नींद तुम सो लो, प्रभा की मां।'


'आहह मरी, आह पीर।


'अच्छा, अच्छा! प्रभा बिटिया, तू ज़रा मां के पास बैठ, मैं अभी आता हूं बेटी। प्रभा की मां, घबराना नहीं, पास ही एक दाई रहती है, दस मिनट लगेंगे। हौसला रखना।' और वह कर्तव्यनिष्ठ मास्टर साहब, जल्दी-जल्दी घर से निकलकर, दिवाली की जलती हुई अनगिनत दीप-पंक्तियों को लगभग अनदेखा कर, तेज़ी से एक अंधेरी गली की ओर दौड़ चले।


'चरण-रज दो मालिक।'


'वाहियात बात है, प्रभा की मां।'


'अरे देवता, चरण-रज दो, प्रो पतितपावन, मो अशरण-शरण, ओ दीनदयाल. चरण-रज दो।'


'तुम पागल हो गई हो, प्रभा की मां।'


'पागल हो जाऊंगी। तीन साल में दुनिया देख ली, दुनिया समझ डाली; पर इस अन्धी ने तुम्हें न देखा, तुम्हें न समझा।'


'यह तुम फालतू बकबक करती रहोगी तो फिर ज्वर हो जाने का भय है। बिटिया प्रभा, अपनी मां को थोड़ा दूध तो दे।'


'मैं भैया को देखूंगी, बाबूजी।'


भामा ने पुत्री को छाती से लगाकर कहा, 'मेरी बच्ची, तू अपने बाप की बेटी है-इस पतिता मां को छू दे जिससे वह पाप-मुक्त हो जाए।'


'नाहक बिटिया को परेशान मत करो, प्रभा की मां।'


'हाय, पर मैं तुम्हें मुंह कैसे दिखाऊंगी?'


'प्रभा की मां, दुनिया में सब-कुछ होता है। तुमने इतना कष्ट पाया है, अब समझ गई हो। उन सब बातों को याद करने से क्या होगा? जो होना था हुआ, अब आगे की सुध लो। हां, अब मुझे तनखा साठ रुपये मिल रही है, प्रभा की मां। और ट्यूशन से भी तीस-चालीस पीट लाता हूं। और एक चीज़ देखो, प्रभा ने खुद पसन्द करके अपनी अम्मा के लिए खरीदी थी, उस दिवाली को।'


वे एक नवयुवक की भांति उत्साहित हो उठे, बक्स से एक रेशमी साड़ी निकाली और भामा के हाथ में देकर कहा-तनिक देखो तो।


भामा ने हाथ बढ़ाकर पति के चरण छुए। उसने रोते-रोते कहा-मुझे साड़ी नहीं, गहना नहीं, सुख नहीं, सिर्फ तुम्हारी शुभदृष्टि चाहिए। नारी-जीवन का तथ्य मैं समझ गई हूं; किन्तु अपना नारीत्व खोकर। वह घर की सम्राज्ञी है, और उसे खूब सावधानी से अपने घर को चारों ओर से बन्द करके अपने साम्राज्य का स्वच्छन्द उपभोग करना चाहिए, जिससे बाहर की वायु उसमें प्रविष्ट न हो, फिर वह साम्राज्य चाहे भी जैसा-लघु, तुच्छ, विपन्न, असहाय क्यों न हो।


मास्टर साहब ने कहा-प्रभा की मां, तुम तो मुझसे भी ज्यादा पण्डिता हो गईं। कैसी-कैसी बातें सीख लीं तुमने प्रभा की मां!-वे ही-ही करके हंसने लगे।


उनकी आंखों में अमल-धवल उज्ज्वल अश्रु-बिन्दु झलक रहे थे।


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