Wednesday, September 14, 2022

कहानी | क्रांतिकारिणी | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Krantikarini | Acharya Chatursen Shastri


 
(ग्रेट ब्रिटेन के इस्पाती शिकंजे में दबे हुए भारत की एक दर्द-भरी कराह का एक स्नैपशाट लेने का लेखक को कहीं अकस्मात् ही एक सुअवसर मिल गया है। कहानी कहते-कहते लेखक शायद हंसना चाहता था, परन्तु उसकी आंखें पहले ही गीली हो गई। साहित्यकार का सहृदय होना भी तो एक आफत ही है।)


गर्मी बड़ी तेज़ थी। पर क्या किया जाए, मित्र की कन्या के विवाह में तो जाना ज़रूरी था। तबियत ठीक न थी, छोटे बच्चे को चेचक निकल आई थी। पत्नी ने बहुत ही नाक-भौं सिकोड़ी, पर मुझे जाना ही पड़ा। मैं इण्टर क्लास के एक छोटे डिब्बे में अनमना-सा होकर जा बैठा। मन में तनिक भी प्रसन्नता न थी। बच्चे का ध्यान रह-रहकर पाता था। लू और धूप दोनों अपने ज़ोर पर थीं। डिब्बे में मैं अकेला था। गाड़ी ने सीटी दी। जो लोग प्लेटफार्म पर खड़े थे, लपककर अपने-अपने डिब्बे में चढ़ गए। मैंने देखा, मेरे डिब्बे में भी एक युवती लपककर सवार हो गई है।


उसकी आयु बीस-बाईस वर्ष की होगी। वह दुबली-पतली थी। नाक कुछ लम्बी, पर सुडौल थी। होंठ पतले और दांत श्वेत और सुन्दर थे। आंखें बड़ी-बड़ी थीं, उनमें कुछ अद्भुत गूढ़ता छिपी थी। वे चंचल भाव से चारों तरफ नाच रही थीं। साधारणतया वह एक साधारण युवती दिखलाई पड़ती थी, पर ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता था कि वह कुछ दिन पूर्व सुन्दर रही होगी अब भी वह सुन्दर थी। पर अब चिन्ता और कठोर जीवन ने उसके उठते हुए यौवन को जैसे झुलसाकर विद्रूप कर डाला था।


मैं बारम्बार उसे कनखियों से देखने लगा। मन में कुछ बुरा भाव न था; पर वह कुछ अद्भुत-सी लग रही थी। मुझे इस तरह घूरते देखकर वह कुछ विचलित हो उठी। वह बारम्बार खिड़की से बाहर मुंह निकालकर देखती थी, मानो उसके मन में यह हो रहा था कि स्टेशन पाए, और वह उतरकर भागे।


मैं अपनी हरकत पर लज्जित हुआ। वह थोड़ी देर में स्थिर हुई, और कुछ रोष-भरी दृष्टि से मेरी ओर देखने लगी। मैंने भंपकर जेब से एक अंग्रेजी दैनिक निकाला और पढ़ने लगा।


हठात् अंग्रेजी के संक्षिप्त और तीखे, किन्तु मृदुल शब्द कान में पड़े। उसने पूछा था:


'कहां जा रहे हैं?'


शुद्ध अंग्रेजी में उच्चारण सुनकर मैंने अचकचाकर उसकी ओर देखा, वह तीव्र दृष्टि से मेरी ओर ताक रही थी। वह दृष्टि एक बार बलात् मेरे हृदय में घुस गई। मैं कांप गया-क्यों? यह नहीं कह सकता। मैंने कुछ शंकित स्वर में कहा-मेरठ, आप कहां जाएंगी?


मानो मेरा प्रश्न उसने सुना ही नहीं। उसने फिर पूछा-आप वहीं रहते हैं?


अपने प्रश्न का उत्तर न पाना मुझे अच्छा नहीं लगा, पर मैंने संयम से कहा नहीं, मैं दिल्ली रहता हूं। वहां मैं एक मित्र के यहां शादी में जा रहा हूं।


मैंने देखा, इस उत्तर से उसे कुछ संतोष हुआ, और उसके चेहरे का भाव बदल गया। इस बार उसने कोमल तथा विनम्र स्वर में पूछा-याप दिल्ली में क्या काम करते हैं?


'मैं वकील हूं।'


यह उत्तर सुनकर वह कुछ देर चुप रही, फिर उसने कहा-क्षमा कीजिए, मैं वकीलों से घृणा करती हूं, परन्तु आप एक सज्जन आदमी प्रतीत होते हैं। उसकी इस दबंगता पर मैं हैरान हो गया। पर मैं उसकी बात का बुरा न मान सका। स्वीकार करता हूं, एक प्रकार से उसका रुझाब मुझपर छा गया, मैंने अत्यन्त नम्रता से पूछा:


'क्षमा कीजिए, यदि हर्ज न हो तो आप अपना परिचय दीजिए।'


'मेरा परिचय कुछ नहीं है, पर आप चाहें तो मुझे कुछ सहायता दे सकते हैं।'


मैं कुछ सोच ही न सका। मैंने उतावली से कहा--बहुत खुशी से। मैं यदि कुछ आपकी सहायता कर सका, तो मुझे आनन्द होगा।


उसने बिना ही भूमिका के कहा:


'मैं केवल एक दिन आपके मित्र के यहां ठहरना चाहती हूं।'


मेरे मित्र मेरठ के प्रसिद्ध रईस हैं। उनका वहां अपना घर है, बहुत भारी कोठी है। इस युवती को वहां ठहराने में कोई बाधा न थी। मेरे मुंह से निकलना चाहा कि अवश्य, पर मैं सोचने लगा-यह इतनी निर्भीक, तेजस्विनी और अद्भुत युवती कौन है? एकाएक मेरे मुंह से कुछ बात न निकली।


वह कुछ देर चुपचाप मेरी तरफ देखती रही। कुछ क्षण बाद मैंने पूछा-- परन्तु आपका परिचय?


उसने रुष्ट होकर कहा-परिचय कुछ नहीं। और वह मुंह फेरकर फिर गाड़ी के बाहर देखने लगी।


न जाने क्यों मैं अपने-आपको धिक्कारने लगा। मैंने सोचा अनुचित बात कह डाली। मुझे किसी युवती का इस प्रकार परिचय पूछने का क्या अधिकार है। पर एकाएक किसी अपरिचित युवती को मैं किसीके घर में क्या कहकर ठहरा सकता हूँ।


उस युवती का कुछ ऐसा रुबाब मेरे ऊपर सवार हुआ कि मैंने अपनी कठिनाई बड़ी ही अधीनता से उसे सुना दी। उसने उसी भांति तीक्ष्ण दृष्टि से मेरी ओर ताकते हुए स्थिर स्वर से कहा-इसमें कठिनाई क्या है?"


'वे लोग आपका परिचय पूछेगे।'


'कहिए, बहिन हैं, दूर के रिश्ते की हैं। ये भी चली आई हैं। विवाह-समारोह में तो स्त्रियां विशेष उत्सुक रहती ही हैं।'


मैं अब अधिक नहीं सोच सका। मैंने कहा--तब चलिए, वह एक प्रकार से मेरा ही घर है, कुछ हर्ज नहीं। पर अब तो आप बहिन हुईं न, अब तो परिचय दीजिए।


परिचय का नाम सुनकर फिर उसकी त्योरियों में वल पड़ गए, और वह रोष में आ गई। उसने अत्यधिक रूखे स्वर में कहा-तीन बार तो कह चुकी महाशय, परिचय कुछ नहीं।


अब मुझे कुछ भी कहने का साहस न हुआ। वह भी नहीं बोली। चुपचाप गाड़ी से बाहर ताकती रही। गाजियाबाद आ गया।


मैंने बातचीत का सिलसिला शुरू करने के विचार से पूछा-आपको कुछ चाहिए तो नहीं?


'नहीं।' उत्तर जैसा संक्षिप्त था वैसा ही रूखा भी था। ऐसी अद्भुत स्त्री तो देखी नहीं। मैंने सोचा, बड़ा बुरा किया, जो ठहराने का वचन दिया। न जाने कौन है, पर कोई भी हो, शिक्षिता है, और बुरे विचारों की भी नहीं है। अवश्य कोई कुलीन स्त्री है। कुछ खानगी कारणों से यहीं आई होगी। अंग्रेजी पढ़ी-लिखी लड़कियां ऐसी ही उद्धत हो जाती हैं।


मैं यह सोच ही रहा था कि पांच-छः आदमी डिब्बे में चढ़ आए; इनमें एक पुलिस का दारोगा भी था। दो खुफिया पुलिस के सिपाही थे। दारोगा ने युवती की सीट पर बैठकर पूछा:


'आप कहां जाएंगी?'


वह बोली नहीं।


दारोगा साहब ने साथ के कान्स्टेबिल से कुछ संकेत किया और फिर पूछा:


'आपने सुना नहीं, मैंने आपसे ही पूछा है, आप कहां जाएंगी?'


इस बार उसने दारोगा की ओर घूमकर देखा, और शुद्ध अंग्रेजी में कहाक्या आप टिकटचेकर हैं, या रेल के कोई कर्मचारी, आप क्यों पूछते हैं और किस अधिकार से? इसके बाद उसने मेरी ओर देखकर कुछ कोपपूर्ण स्वर में शुद्ध हिन्दी भाषा में कहा:


'तुम चुपचाप बैठे तमाशा देख रहे हो, और यह आदमी बिना कारण मुझसे सवाल पर सवाल करता जा रहा है। इस बेशर्म को स्त्रियों से फालतू बातचीत करते ज़रा भी शर्म नहीं आती!'


मैं चौंक पड़ा। दारोगा मेरी ओर जिज्ञासा-भरी दृष्टि से देखने लगा। दो और भद्र पुरुष, जो डिब्बे में आ गए थे, वे भी युवती के इस करारे उत्तर से चमत्कृत हो गए। मैंने संभलकर कहा:


'वह मेरी बहिन है, हम लोग मेरठ एक शादी में जा रहे हैं। आप क्या जानना चाहते हैं?' दारोगा एकदम झेंप गया, वह शायद मुझे जानता था। युवती ने एक क्षण मेरी ओर देखा-उसके होंठ कांपे, और फिर वह खिड़की के बाहर ताकने लगी। दारोगा ने ज़रा झिझकते हुए कहा--माफ कीजिए, मैं पुलिस......।


भद्र पुरुषों ने कहा--आप चाहे जो भी हों, पर स्त्रियों से ऐसा व्यवहार आपको न करना चाहिए, खासकर जब मर्द सफर में साथ हों।


दारोगा ने कहा-आप लोग और वकील साहब और बहिनजी भी मुझे क्षमा करें। मैंने बड़ी भूल की। पर मेरा मतलव कुछ और ही था।


मैंने शेर होकर कहा-आप लोगों का हमेशा और ही मतलब हुआ करता है, पर भले घर की बहिन-बेटियों की कुछ इज़्ज़त-ग्राबरू होती है जनाब!


दारोगा साहव वहुत लल्लो-चप्पो करने लगे। बीच में एक स्टेशन और आया। मैं अभी तक दारोगाजी को डांट रहा था।


युवती ने साफ शब्दों में कहा--भाई, ज़रा पानी ले लो। मैंने गिलास में पानी लेकर उसे दिया। वह पानी पीकर चुपचाप फिर खिड़की के बाहर मुंह निकालकर बैठ गई।


मेरठ पाया, हम लोग चले। उसके पास कुछ भी सामान न था। वह काले खद्दर की एक साड़ी पहने थी और एक छोटी-सी पोटली उसके हाथ में थी। जेवर के नाम उसके बदन पर कांच की चूड़ियां तक न थीं। पैरों में जूते भी न थे। वह चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चली आई। मैंने तांगा किया और वह पीछे की सीट पर बैठ गई। मैं आगे की सीट पर बैठा और तांगा हवा हो गया।


बहुत चेष्टा करने पर भी मैं उससे उसका नाम पूछने का साहस न कर सका। मैं सोचता था, वहां कोई नाम पूछेगा तो बताऊंगा क्या? पर फिर भी पूछ न सका। मित्र का घर आ गया और मैंने उसे बहिन कहकर भीतर भिजवा दिया। उसने जाते-जाते कहा-अवकाश पाकर आप एक घंटे में मुझसे मिल लें।-मैंने स्वीकृति दी, और वह चली गई।


एक घंटे बाद मैं भीतर उससे मिलने गया। वह स्नान आदि से निवृत्त हो तैयार बैठी थी। मुझे देखते ही उसने कहा--एक टैक्सी मेरे वास्ते ला दीजिए, मुझे कहीं जाना है।


मैंने सोचा, मेरठ-जैसे छोटे-से शहर में इसे टैक्सी में कहां जाना है। मैंने कुछ दबी जवान से कहा--तांगे से भी तो काम चल जाएगा।


उसने रुखाई से कहा--नहीं, टैक्सी चाहिए!


अजब औरत थी। ज़रा-सी बात मन के विरुद्ध हुई नहीं कि उसके नेत्रों और चेहरे पर रुखाई आई नहीं। मैंने टैक्सी मंगाने नौकर को भेज दिया। अब मेरे मन में एक बात आई, इसे कुछ रुपये भी खर्च को देने चाहिएं। पर कहूं कैसे? नाराज़ हो जाए तो?


 इसका जैसा वेष है, उसे देखते तो दरिद्र मालूम होती है, कोई सामान तक पास नहीं। मैं पशोपेश में पड़ा कुछ सोच ही रहा था, एकाएक उसने कहा-एक कष्ट और आपको दूंगी।


मैंने समझा, अवश्य यह कुछ रुपया मांगेगी। मैंने जेब से मनीबेग निकालते हुए कहा-कहिए!


उसने अपने हाथ की पोटली खोली और एक बण्डल निकालकर मेरे हाथ में थमा दिया। देखा, नोटों का गट्ठर था। सौ-सौ रुपये के नोट थे। मैं अवाक रह गया।


उसने सहज भाव से कहा--पन्द्रह हज़ार रुपये हैं। इन्हें ज़रा रख लीजिए, कहीं रास्ते में गिर-गिरा पड़ें, कहां-कहां लिए फिरूंगी।


मेरा तो सिर चकराने लगा। स्त्री है या मायामूर्ति, कपड़े तक वदन पर काफी नहीं, और पन्द्रह हजार रुपये हाथों में लिए फिरती है। और बिना गवाह-प्रमाण मुझ अपरिचित को सौंप रही है, मानो रद्दी अखबारों का गट्ठर हो। मैंने कहाठहरिए, रकम को इस भांति रखना ठीक नहीं।


उसने लापरवाही से कहा-मैं लौटकर ले लूंगी, अभी तो आप रख लीजिए।


-जिस लहजे में उसने कहा, मैं अब टालमटोल न कर सका। काठ की पुतली की भांति नोटों का बंडल हाथ में लिए विमूढ़ बना खड़ा रहा।


टैक्सी आई और वह लपककर उसमें बैठ गई। एक क्षीण मुस्कराहट उसके मुख पर आई। उसने टैक्सी से मुंह निकालकर कहा--एक बात के लिए क्षमा कीजिएगा! मैंने रेल में आपको 'तुम' कहा था। आवश्यकतावश ही यह अनुचित घनिष्ठता का वाक्य कहना पड़ा था। वह मानो और भी खुलकर मुस्करा पड़ी, और उसकी सुन्दर मोहक दंतपंक्ति की एक रेखा आंखों में चौंध लगा गई। दूसरे ही क्षण मोटर पाखों से ओझल हो गई।


तीन दिन बीत गए। न वह आई, न उसका कुछ समाचार ही मिला। तीनों दिन मैं एकटक उसकी बाट देखता रहा। न सोया, न खाया, न कुछ किया। कब विवाह हुआ, और कब क्या हुआ, मुझे कुछ स्मरण नहीं, मानो हजार बोतलों का नशा सिर पर सवार था। छाती पर नोटों का गट्ठर और आंखों में वह अंतिम हास्य! बस, उस समय मैं इन्हीं दो चीज़ों को देख और जान सका। मित्र हैरान थे। पर मैं तो मानो गहरे स्वप्न में मग्न था।


तीसरे दिन डाक से एक पत्र मिला। उसमें लिखा था--भाई, मुझे क्षमा करना, अब मैं आपसे नहीं मिल सकती। वे रुपये जो आपको दे आई हूं, मेरठषड्यन्त्र केस में खर्च करने को वहां के माननीय अभियुक्तों की राय से उनके वकीलों को दे दीजिए। मैं इसी काम के लिए मेरठ गई थी। आपसे मिलकर अनायास ही मेरा यह काम हो गया। रुपया इस पत्र के पाने के चौबीस घंटे के भीतर ठिकाने पर पहुंचा दीजिए, वरना जो लोग इसकी निगरानी के लिए नियत हैं, वे इस अवधि के बाद तत्काल आपको गोली मार देंगे। सावधान! दगा या असावधानी न कीजिएगा। इस पत्र के उत्तर की आवश्यकता नहीं। रुपया ठिकाने पर पहुंचते ही मुझे तत्काल उसका पता लग जाएगा।


आपकी,

धर्म-बहिन


एक बार पत्र पढ़कर मेरा सम्पूर्ण शरीर कांप उठा, और पत्र हाथ से गिर गया। इसके बाद मैंने झटपट झुककर पत्र को उठा लिया। भय से इधर-उधर देखा, कोई देख तो नहीं रहा। मेरी आंखों में आंसू भर आए। मैं नहीं जानता, क्यों। मैंने पत्र को एक बार चूमा, और फिर आंखों और माथे से लगाया। इसके बाद उसे उसी समय जला दिया। नोटों का बण्डल अभी भी मेरी जेब में था।


रुपये मैंने किसे दिए, वह प्राण देकर भी मैं किसीको नहीं बताऊंगा। हां, इतना अवश्य कह देता है कि मैं इस काम से निपटकर शीघ्र ही दिल्ली चला पाया। पर कई दिन तक कचहरी न जा सका। ऐसा मालूम होता था, मानो शरीर की जान-सी निकल गई हो।


एक दिन संध्या समय मेरे नौकर ने कहा--कुछ लोग बहुत आवश्यक काम से आपसे भेंट किया चाहते हैं।


बैठक में जाकर देखा तो वही दारोगाजी थे। उनके साथ सुपरिण्टेण्डेण्ट पुलिस और सी० आई० डी० इन्स्पेक्टर भी थे। देखते ही मेरे देवता कूच कर गए। देखा सारा मकान घेर लिया गया है। किन्तु मैंने ज़रा रूखे स्वर से पूछा--कहिए, क्या बात है?


दारोगाजी ने थोड़ा हंसकर कहा--कुछ नहीं, ज़रा आपकी बहिनजी से एक बार मुलाकात करके उनसे कुछ पूछना है।


क्षण-भर के लिए मेरे शरीर में खून की गति रुक गई। पर वकीली दिमाग ने समय पर काम दिया।


मैंने नकली आश्चर्य प्रदर्शन करके कहा:


'उनसे आपको क्या पूछना है?'


'यह मैं आपको नहीं बता सकता।'


'यह कैसे सम्भव हो सकता है कि आप पर्देनशीन महिला से इस तरह बातचीत कर सकें!'


'बातचीत तो जनाब हो चुकी है। मैं जानता हूं कि वे पर्दे की कायल नहीं।'


मैंने और भी आश्चर्य का भाव चेहरे पर लाकर कहा-आप कब उनसे बातचीत कर चुके हैं?


'क्या आप भूल गए, उसी दिन रेल में।'


'मैं नहीं समझता, आप किस दिन की बात कह रहे हैं?'


दारोगाजी ज़ोर से हंस पड़े। उन्होंने दाढ़ी पर हाथ फेरकर कहा-यह तो अभी मालूम हो जाएगा।


मैंने खूब गुस्से का भाव चेहरे पर लाकर कहा--किस तरह?


'पाप कृपा कर उन्हें ज़रा बुलवा दीजिए।'


मैंने क्षण-भर सोचने का बहाना किया, फिर मैंने नौकर को बुलाकर कहा जाओ, ज़रा बीबीजी को बुला लायो। क्षण-भर ही में रेवती सशरीर सामने आ खड़ी हुई।


दारोगा को काटो तो खून नहीं! मैंने उनकी तरफ न देखकर रेवती से पूछा रेवती, कभी तूने इनसे बातचीत की थी?


'कभी नहीं।'


दारोगाजी ने घबराकर कहा-ये वे नहीं हैं साहब।


मैंने रेवती को जाने का इशारा करके कहा---जनाब, मैं आपपर हतक का दावा करूंगा!


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब अब तक चुपचाप बैठे थे। बोले--आपकी कुल कितनी बहिनें हैं?'


मैंने कहा-एक यही है।


'ये आपके साथ उस दिन मेरठ जा रही थीं?'


'ये कल ही कलकत्ता से आई हैं।'


'तब उस दिन आपके साथ कौन थी?'


'किस दिन? मुझे कुछ याद नहीं आता। आप किस दिन की बात कह रहे हैं।


दारोगाजी बोल उठे—यह तो अच्छी दिल्लगी है।


मैंने कहा--जनाब, दिल्लगी के योग्य मेरा-आपका कोई रिश्ता नहीं है।


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब झल्ल्ला उठे। बोले--आपके मकान की तलाशी ली जाएगी, यह वारण्ट है।


मैंने और भी गुस्से और लाचारी के भाव दिखाकर कहा--विरोध करना फजूल है, आप जो चाहें, सो करें। मैं कानूनी कार्यवाही कर लूंगा।


छः-सात घण्टों तक तलाशी होती रही। पुलिस ने सारा घर छान डाला।


खीझकर सुपरिण्टेण्डेण्ट साहव बाहर निकल आए। मैंने भी खूब रोष दिखाकर कहा--जनाब, अब आप ज़रा तलाशी पर अपनी रिपोर्ट भी लिख दीजिए।


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब मेरी ओर घूरने लगे, पर मैंने बाजी मार ली थी। वही धवल दंत-पंक्ति मेरी आंखों में प्रकाश डालकर हृदय में साहस का संचार कर रही थीं। सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब ने कहा--क्या आप उस स्त्री के विषय में कुछ भी नहीं बताएंगे?


'किस स्त्री के सम्बन्ध में?'


'जो उस दिन आपके साथ मेरठ जा रही थी।'


'किस दिन?'


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब चुपचाप होंठ चबाते रहे। दारोगाजी झेप रहे थे। बड़बड़ा भी रहे थे। सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब ने हैट उठाकर कहा--बहुत अच्छा, अभी तो जाते हैं। लेकिन बेहतर था, आप सब बता देते।


मैंने ज़ोर से मेज़ पर हाथ पटककर कहा--कल ही मैं आपसे अपने इस अपमान का जवाब तलब करूंगा।..


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब चल दिए। मैं भी साथ ही बाहर तक आया। सैकड़ों आदमी इकट्ठे हो गए थे। जब पुलिस अपनी लारी में लद गई तो मैंने पूछा-आप ईश्वर के लिए यह तो बता दीजिए कि आप किसे ढूंढ़ते फिरते हैं?


सुपरिण्टेण्डेण्ट साहब ने खीझकर कहा-मिसेज़ भगवतीचरण को।


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