Wednesday, September 14, 2022

कहानी | कलकत्ते में एक रात | आचार्य चतुरसेन शास्त्री | Kahani | Kalkatte Mein Ek Raat | Acharya Chatursen Shastri


(बड़े-बड़े शहरों में आधुनिक सभ्यता के नये रंग-ढंग, छल-कपट के साधन भी बन गए हैं। इस कहानी का नायक उसीका शिकार है।)


कलकत्ता जाने का मेरा पहला ही मौका था। मैं संध्या-समय वहां पहुंचा, और हरीसन रोड पर एक होटल में ठहर गया। होटल में जो कमरा मेरे लिए ठीक किया गया, उसमें सब सामान ठिकाने लगा थोड़ी देर मैं सुस्ताया। फिर स्नान कर, चाय पी, कपड़े बदल एक नज़र शहर को देखने बाहर निकला।


बरसात के दिन थे। अभी कुछ देर पहले पानी पड़ चुका था। ठंडी हवा के झोंके मन को हरा कर रहे थे। चलने को तैयार होकर मैं कुछ क्षण तक तो होटल के बरांडे में खड़ा होकर बाजार की भीड़-भाड़, चहल-पहल देखने लगा। गगनचम्बी अट्टालिकाएं, प्रशस्त सड़कें, उनपर पागल की भांति धुन बांधकर आतेजाते मनुष्यों की भीड़, मोटर, ट्राम-गाड़ी, यह सब देखकर मेरा दिल घबराने लगा। मैं खड़ा होकर सोचने लगा; आखिर यहां मन में कैसे शांति उत्पन्न हो सकती है।


अंधेरा हो गया था, परन्तु बाज़ार बिजली से जगमगा रहा था। कहना चाहिए, बाज़ार की शोभा दिन की अपेक्षा रात ही को अधिक प्रतीत होती है। जो दूकानें अभी दिन के प्रकाश में सुस्त और अंधकारपूर्ण थीं, इस समय वे जगमगा रही थीं। ग्राहकों की भीड़-भाड़ के क्या कहने थे, किसीको पलक मारने की फुर्सत न थी।


कुछ देर बाज़ार की यह बहार देखकर मैं नीचे उतरा। होटल के नीचे ही एक पानवाले की बड़ी शानदार दूकान थी। दूकान छोटी थी, पर बिजली के तीन प्रकाश से जगमगा रही थी। सोडे की बोतलें, सिगरेट, पान सजे धरे थे। सोने के वर्क लगी गिलौरियां चांदी की तश्तरी में रखी थीं। मैं दूकान पर जा खड़ा हुआ। एक चवन्नी थाल में फेंककर दो बीड़ा पान लगाने को कहा। दूकानदार पान बनाने लगा, और मैं सामने लगे कदे-आदम आईने में अपनी धज देखने लगा।


पान और रेज़गारी उसने मेरे हाथ में दिए। मैंने पान खाए, और एक दृष्टि हथेली पर धरे हुए पैसों पर डालकर उन्हें जेब में डालने का उपक्रम करता हुआ ज्योंही मैं दूकान से घूमा कि एक गौरवर्ण, सुन्दर, कोमल हाथ मेरे आगे बढ़कर फैल गया। मैं चलते-चलते ठिठककर ठहर गया। मैंने पहले उस हाथ को, फिर उस सुन्दरी नवोढ़ा को ऊपर से नीचे तक देखा। वह सिर से पैर तक एक सफेद चादर लपेटे हुए थी। चादर कुछ मैली ज़रूर थी, परन्तु भिखारियों जैसी नहीं। उसने अपना मुख भी चादर में छिपा रखा था। सिर्फ दो बड़ी-बड़ी आंखें चमक रही थीं। आंखें खूव चमकीली और काली थीं। उनके ऊपर खूब पतली, कोमल भौंहें और उनके ऊपर चांदी के समान उज्ज्वल, साफ, चिकना ललाट। चिकने और चूंघरवाले बालों की एकाध लट उसपर खेल रही थी। यद्यपि एक प्रकार के भद्दे ढंग से अपने शरीर को उस साधारण चादर में लपेट रखा था, परन्तु उसमें से उसकी सुडौल देहयष्टि और उत्फुल्ल यौवन फूटा पड़ता था। उसके मुख के शेष भाग को देखने का उपाय न था। परन्तु उसपर दृष्टि डालते ही उसे देखने की प्यास प्रांखों में पैदा हो जाती थी।


मैंने क्षण-भर ही में उसे देख लिया। उसने मुझसे कुछ कहा नहीं। वह एक हाथ से अपनी चादर को शरीर से ठीक-ठीक लपेटे दूसरा हाथ मेरे आगे पसारकर खड़ी रही। उसकी दृष्टि में भीख की याचना थी, और एक गहरी करुणा भी। वह मानो कोई भेद छिपाए फिर रही थी। मैं एकाएक पागल-सा हो गया, कुछ कह न सका। मैंने हाथ के कुल पैसे उसे दे दिए।


पैसे पाकर उसने उन्हें बिना ही देखे मुट्ठी में भर लिया। फिर उसने एक विचित्र दृष्टि से मेरी ओर देखा। वह धीरे-धीरे वहां से खिसककर, सड़क के दूसरे छोर पर एक खम्भे के सहारे खड़ी हो मेरी ओर देखने लगी।


मुझे मालूम हुआ, वह मुझसे कुछ कहना चाहती है। मेरे मन में कुछ विचित्र गुदगुदी-सी पैदा होने लगी। बड़े नगर के विचित्र जीवन का मुझे कुछ ज्ञान न था। मैं देहात के शांत वातावरण में रहनेवाला आदमी। परन्तु वह स्त्री वहां खड़ी मेरी तरफ देखती ही रही। जहां वह खड़ी थी, वहां काफी अंधेरा था। कुछ देर खड़ा मैं उसे देखता रहा। मुझे उसके निकट जाना चाहिए या नहीं, मैं यही सोचने लगा। अन्त में मैं साहस करके उसके पास गया।


मुझे निकट आया देख उसने अपने मुख से चादर का प्रावरण हटा लिया, और बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी तरफ अभिप्रायपूर्ण दृष्टि से देखने लगी। जैसे अजगर अपनी प्रथम दृष्टि से अपने शिकार को स्तम्भित कर देता है, उसी प्रकार मैं स्तम्भित-सा हो गया। उस अन्धकार में भी उसके मुख-चन्द्र की आभा फूटकर निकली पड़ती थी। उसने मृदु-कोमल स्वर में कहा:


'पाप डरते तो नहीं ?'


प्रश्न सुनकर मैं अकचका गया। मैंने कहा-नहीं। कहो, क्या बात है?


'मेरे साथ प्राइए, मैं इसी ट्राम पर सवार होती हूं। आप भी इसीपर चढ़ जाइए, मुझसे दूर बैठिए, मैं जहां उतरूं, आप भी उतर जाइए।'


वह बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए ही सामने जाती हुई ट्राम पर चढ़ गई, और मैं विकारग्रस्त रोगी की भांति बिना कुछ सोचे-विचारे कूदकर ट्राम पर चढ़ गया।


बाज़ारों, चौराहों और पार्कों को पार करती हुई ट्राम चली जा रही थी। वह रहस्यमयी स्त्री एक खिड़की के बाहर मुंह निकाले बैठी थी। उसके अंग का कोई भी हिस्सा नहीं दिखाई पड़ता था। मेरा दिल घबराने लगा। कई बार मैंने ट्राम से उतरने की इच्छा की, पर जैसे शरीर कीलों से जड़ दिया गया हो, मैं उठ ही नहीं सकता था।


अब उजाड़-सा मुहल्ला आ रहा था। शायद कोई मैदान था। बाज़ार पीछे छूट गए थे। दूर-दूर बिजली की बत्तियां टिमटिमा रही थीं। ट्राम कड़कती जा रही थी। रात अंधेरी थी, और बिजली के खंभों के चारों ओर अन्धकार कुछ अद्भुत-सा लग रहा था। सड़कें सुनसान थीं। बहुत कम आदमी सड़कों पर आते-जाते दिखाई पड़ते थे।


अब मैं ऊब उठा। मेरे मन में कुछ सन्देह उठ रहे थे। बड़े शहरों में बहुत-सी ठगी होती है, यह सुना था। इससे मन बहुत चंचल हो रहा था। ज्योंही ट्राम ठहरी, मैं उसपर से कूद पड़ा, साथ ही वह स्त्री भी उतर पड़ी। मैं एक ओर चलने को उद्यत हुआ ही था कि उसने बारीक और कोमल स्वर में कहा:


"उधर नहीं इधर आइए।'


मैंने रुककर देखा। उसने पास आकर वही जादू-भरी आंखें मेरी आंखों में डालकर कहा:


'तुमने कहा था, मैं डरता नहीं।'


'मैं डरता तो नहीं।'


'तब आगा-पीछा क्या सोच रहे हो, भागने की जुगत में हो?'


'मैं जानना चाहता हूं, तुम क्या चाहती हो।'


'क्या यहां खड़े-खड़े आप मेरा मतलब जानना चाहते हैं?'


'अनजाने मैं कहीं जाना नहीं चाहता।'


'तब यहां तक क्यों आए?'


'तुम कौन हो?'


'एक दुखिया स्त्री।


"कहां रहती हो?'


'निकट ही, वह क्या मकान दिखाई दे रहा है।'


उसने सामने एक साधारण घर की ओर संकेत किया।


'वहां और कौन हैं?'


'मेरा पति है।'


'वह कोई काम क्यों नहीं करता? तुम्हें भीख मांगकर उसे खिलाना पड़ता है।'


'पाप तो सब बातें यहीं खत्म कर देना चाहते हैं।'


'मैं घर नहीं जाना चाहता, तुम्हें यदि कुछ सहायता चाहिए तो मैं तुम्हें दे सकता हूं।'


'पाप चले जाइए, मुझे आपकी सहायता नहीं चाहिए।' उसने हंसकर कहा और फिर ऐंठकर चल दी।'


वह अद्भुत अज्ञात सुन्दरी बाला मुझ अपरिचित से सुनसान रात्रि में ऐसी नोक-झोंक से बातें करके चल दी। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह किसी रस्सी से बांधकर मुझे खींचे लिए जा रही है।


मैंने कहा-ठहरो, नाराज़ क्यों होती हो?


वह खड़ी हो गई।


मैंने पास जाकर कहा-आखिर तुम्हारा मतलब क्या है? साफ-साफ क्यों नहीं कहती हो?


उसने क्षण-भर उन चमकीली आंखों से मेरी तरफ देखा, मुख पर से चादर का आवरण हटाया। उस अन्धकार में भी मैं उस मोहक लावण्य को देख-कर विचलित हो गया। उसने कहा-एक औरत से डरते हो?


'डरता नहीं हूं।'


'तब चले आयो।'


वह बिना मेरा मत जाने ही चल दी। मैं मन्त्रमुग्ध की भांति उसके पीछे चल दिया।


सड़क से गलियों में और गली से एक बहुत ही सकरी गली में वह घुसती ही चली गई। अन्त में एक मकान के द्वार पर जाकर उसने कुछ संकेत किया। एक बूढ़े आदमी ने आकर द्वार खोल दिया। वह मेरी तरफ भीतर आने का संकेत कर आगे बढ़ गई। मैं भी धड़कते हृदय से भीतर घुसकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। मेरे भीतर आने पर बूढ़ा द्वार अच्छी तरह बन्द करके हमारे पीछे-पीछे आने लगा।


दूसरी मंजिल पर पहुंचकर उसने बूढ़े से कहा—बाबू को तुम ऊपर ले जाकर बैठाओ। मैं अभी आती हूं। यह कहकर वह तेजी से आगे बढ़ गई। मैं वहीं खड़ा उस बूढ़े का मुंह देखने लगा। उस स्थान पर बहुत अन्धकार न था, फिर भी बूढ़े का चेहरा साफ-साफ नहीं दिखलाई पड़ता था। उसने अदब से झुककर कहा चलिए। वह आगे-आगे चल दिया।


मैं उसके पीछे चढ़ता ही गया। चौथी मंजिल पर एक खुली छत थी। उस पर एक अच्छा खासा कमरा था। कमरा बंद था। बूढ़े ने अपनी जेब से चाभी निकालकर उसे खोला, स्विच दबाकर ज्वलंत रोशनी करके मुझे भीतर आने का . इशारा किया। भीतर कदम रखते ही मैं दंग रह गया। वह कमरा ऐसे अमीरी ठाठ से सजा हुआ था कि क्या कहूं? दीवारों पर खूब बढ़िया तस्वीरें लगी थीं। एक ओर पीतल के काम का कीमती छपरखट पड़ा था। फर्श पर आधे में ईरानी कालीन बिछा था, और शेष आधे में बालिश्त-भर मोटा गद्दा, जिसपर स्वच्छ चांदनी बिछी थी। दस-बारह छोटे-बड़े तकिये उसमें सजे थे। फर्नीचर बहुत नफासत से सजाया गया था। कई वाद्ययन्त्र और ग्रामोफोन केबिनेट भी वहां रखे थे।


यह सब कुछ देखकर मेरी आंखें चौंधिया गईं। एक भिक्षुक स्त्री का यह ठाठ। उसका मुझे फंसाकर लाने में क्या अभिप्राय हो सकता है। वह भिक्षुकी तो है नहीं, निस्सन्देह कोई मायाविनी है। उसके सौन्दर्य को तो मैं प्रथम ही भांप चुका हूं। अब उसके धन-वैभव का भी यह रंग-ढंग दिखलाई पड़ रहा है।


मैं महामूर्ख की भांति हक्का-बक्का होकर कमरे की प्रत्येक चीज़ को देख रहा था। बीच-बीच में घबरा भी उठता था कि कहीं कोई आफत न सिर पर आ टूटे।


वही बूढ़ा एक बड़ी ट्रे में बहुत-सा नाश्ते का सामान ले आया। उसमें अनेक बंगाली-अंग्रेजी मिठाइयां, नमकीन, चाय, फल, मेवा और न जाने क्या-क्या चीजें थीं। सब कुछ बहुत बढ़िया था। राजाओं को भी ऐसा नाश्ता शायद ही नसीब होता हो।


बूढ़े ने नाश्ता सामने रखकर कहा-मालकिन अभी तशरीफ ला रही हैं, तब तक आप थोड़ा जल खा लीजिए।


मेरा मन क्या जल खाने में था। मैंने अकचकाकर कहा-तुम्हारी मालकिन कौन हैं, कहां हैं? जो मुझे लाई थीं क्या वही हैं?


बूढ़े ने विनीत स्वर में कहा-सरकार, यह सब कुछ आप उन्हीं से पूछ लीजिए।


वह चला गया। मैं उठकर टहलने लगा। जलपान मैंने नहीं किया। अगर इसमें जहर मिला हो तब? कोई धोखे की बात हो तो? मैं उस आफत से भागने की जुगत लड़ाने लगा। परन्तु रह-रहकर मेरे पैर जकड़े जाते थे।


मैं अभी सोच ही रहा था कि एक परम सुन्दरी युवती ने कमरे में कदम रखा। वह बहुमूल्य साड़ी पहने थी, जिसके जिस्म पर सोफियाने और नाजुक रत्नजटित गहने थे। वह मुस्कराती आई और मेरे पास मसनद पर बैठ गई। उसके रूप की दुपहरी मुझसे सही न गई। मेरी आंखें चौंधियाने लगीं। वह रूप और यौवन, ऐश्वर्य और मादकता! मेरे होश उड़ गए।


उसने वीणा-विनिंदित स्वर में कहा-आपको बहुत देर इन्तज़ार करना पड़ा। आप शायद नाराज हो गए, क्यों?-वह हंस दी। मैं हंस न सका। मेरे मन में उसे देख वासना तो उद्दीप्त हो गई थी, पर मैं बुरी तरह घबरा रहा था। इस मायाजाल के भीतर क्या है, मैं जानने को छटपटा रहा था। वह और मेरे निकट खिसक आई। उसने उसी भांति हंसकर कहा-आपने नाश्ता भी नहीं किया और अब बोलते भी नहीं। इसका सबब?


उसने एक तीखे कटाक्ष का वार किया। मैंने देखा और समझा-वही है। परन्तु इसका क्या कारण हो सकता है कि यह अद्भुत स्त्री इस प्रकार भिखारिणी बनकर लोगों को फांसकर ले आती है। मैंने उससे पूछा-तब वहां आप ही थीं?


'कहां?'


'बाज़ार में और मेरे साथ भी?'


'वाह, वहां मैं क्यों होने लगी?' वह हंस दी। उसकी प्रगल्भता बढ़ रही थी और वह अधिकाधिक मेरे निकट आ रही थी।


उसने निकट पाकर स्निग्ध स्वर में कहा-आप शायद मेरी दासी की बात कह रहे हैं।


'यदि वह आपकी दासी थी तो क्या आप कृपा कर मुझपर यह भेद खोल सकेंगी कि किस कारण आप इस प्रकार जाल में फांस-फांसकर लोगों को घर में बुलाती हैं?'


मेरी बात सुनकर वह एकदम उदास हो गई।


उसने आंखों में आंसू भरकर कहा-आपको यदि कुछ ज्यादा कष्ट हुआ हो, तो आप जा सकते हैं । मैंने तो आपको एक धर्मात्मा आदमी समझकर इस आशा से कष्ट दिया था कि एक दुखिया अबला का कष्ट आप दूर करेंगे, परन्तु मर्द, जैसे सब हैं, वैसे ही आप भी हैं।


वह सिसकियां लेने लगी। मैं बहुत लज्जित हुआ। वास्तव में मैंने बहुत रूखी बात कह दी थी।


मैंने कहा-आपको इतना क्या दुःख है? मुझसे कहिए, तो मैं अपनी शक्ति भर उसे दूर करने का उपाय करूं।


'इसपर मुझे विश्वास कैसे हो?' उसने आंसुओं से भीगी हुई पलकों को मेरी ओर उठाकर कहा।


उस दृष्टि से मैं विचलित हो गया। मैंने कहा-यद्यपि मेरी आदत नहीं, फिर भी मैं कसम खाने को तैयार हूं।


उसके होंठों पर मधुर मुस्कराहट फैल गई। उसने कहा अब मुझे विश्वास हो गया इतने ही में वही बूढ़ा एक ट्रे में शराब की एक बोतल, गिलास और कुछ नमकीन ले आया।


शराब से यद्यपि मुझे परहेज़ न था, परन्तु उस समय मैंने शराब पीने से साफ इनकार कर दिया। इसपर उसने बड़े तपाक से कहा-बस, तो इसीपर आप कसम खा रहे थे। आपने अगर पहले कभी नहीं पी है, तो मैं ज़िद नहीं करती, परन्तु यदि पीते हैं, तो शौक कीजिए। गरीबों की आखिर कुछ चीज़ तो मंजूर फर्माइए।


उसने इस अंदाज से यह बात कही, और बोतल से शराब उंडेलकर मेरे मुंह में लगा दी कि मैं कुछ भी न कह सका। गले में शराब से सिंचन पाकर मैंने मन में उत्तेजना का अनुभव किया। मैं अपनी परिस्थिति को भूल गया। धीरे


जब मेरी आंख खुली, तो मैंने अपने को अपने होटल के कमरे में पलंग पर पड़ा पाया। धीरे-धीरे मैंने आंखें खोलीं। प्रातःकाल की धूप खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी। मेरा सिर चकरा रहा था, और शरीर में बड़ा दर्द था। कई मिनट तक मैं बिना हिले-डुले पड़ा रहा, जैसे शरीर का सत निकल गया हो। धीरे-धीरे मुझे रात की सब घटना स्मरण हो पाई। मैं हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। पहले मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि मैं होटल में हूं। पीछे मैंने अपने कमरे को पहचाना। सब बातें स्वप्न के समान आंखों में घूमने लगीं। सिर अब भी दर्द से फटा पड़ता था। मैं उठकर बैठ गया, और दोनों हाथों से सिर को दवाकर बैठा रहा।


मैं यहां कैसे आ गया? रात क्या मैं वहां नहीं गया था? नहीं-नहीं, सचमुच गया था। मैंने देखा, मेरे शरीर पर वही कपड़े थे, जो मैंने शाम को घूमने जाने के समय पहने थे। एकाएक मैंने देखा, मेरे हाथ की हीरे की अंगूठी गायब है। घड़ी की चेन भी नदारद है। जेब का मनीबेग भी नहीं है।


यह देखकर तो मैं बिलकुल बौखला गया। मैंने घंटी बजाई। नौकर ने आकर बताया कि आप बहुत रात गए पाए थे। आपने ज़्यादा शराब पी ली थी, इससे बदहवास हो गए थे। आपके जिन मित्र के यहां आपकी दावत थी, उनके दो नौकर आपको यहां गाड़ी पर पहुंचा गए थे।


मैंने जल्दी-जल्दी कोट बदन पर डाला, और धड़धड़ाता हुआ पुलिस-आफिस में पहुंचा। सब घटना की मैंने रिपोर्ट लिखाई। मेरा वर्णन सुनकर इंस्पेक्टर मुस्कराने लगे। वे तुरंत ही दो कांस्टेबिलों को लेकर मेरे साथ चल दिए।


मैं अनायास ही ठिकाने पर जा पहुंचा। जिस घर में जाकर मैं बेवकूफ बना था, इस समय उसके दरवाज़े में ताला पड़ा था, और उसपर 'टू लेट' का साइन-बोर्ड लगा था। पूछने पर पड़ोस के एक संभ्रांत बंगाली महाशय ने आकर कहा कि यह मकान उन्हींका है, और किराये को खाली है, तथा कई महीने से इसमें कोई नहीं रहता है। जब मैंने उनसे रात की घटना का जिक्र किया, तो वह हंसने लगे। उन्होंने कहा-बाबू का दिमाग फिर गया है। आप किसी दूसरे मकान में आए होंगे। वे हाथ का नारियल पीते हुए भीतर चले गए। हम लोग कोई सुराग न पाकर चले आए।


लगभग ढाई हजार के नोट और जवाहरात के अलावा मेरे बहुत कीमती कागज़ात भी गायब हो गए थे। वे सब उसी दिन मुझे अदालत में पेश करने थे। उसी काम से मैं कलकत्ता गया था। मुझे कोर्ट में यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनमें से कुछ ज़रूरी कागजात प्रतिपक्षी वकील की फाइल में हैं, और उनसे मेरे विरुद्ध सबूत जुटाया जा रहा है। कहना न होगा, वह चालीस हजार का मुकदमा मैं उन कागजों को गंवाकर उसी तारीख को हार बैठा।


उसी दिन मैंने कलकत्ता त्यागा। घर आकर बहुत कोशिश उस भेद को खोलने की की, पर शोक, कुछ पता न चला। इस प्रकार कलकत्ते की वह एक रात मेरे जीवन में एक काल-रात बन गई।


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