यह घटना सन् १८१४ के शरत्काल में घटी थी। आज उसे घटे लगभग डेढ़ सौ बरस बीत गए। भारतीय मस्तिष्क से उसकी स्मति भी लुप्त हो गई। परन्तु जहां-देहरादून के पहाड़ों में यह अमर घटना घटी थी, वहां के मनोरम-शीतल झरने और पर्वत-शृंग आज भी इसके मूक साक्षी हैं।)
उस दिनों महत्त्वाकांक्षी और मगरूर अंग्रेज़ हैस्टिग्स गवर्नर-जनरल था जो ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रतिनिधि था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की उन दिनों भारत में आर्थिक कष्टों के कारण डगमग स्थिति हो रही थी। अंग्रेज कर्मचारियों के लटखसोट और अत्याचारों से सारे भारत में क्षोभ का वातावरण उठ खड़ा हुआ था। कम्पनी के नौकर अब भारत में खुली डकैती पर उतर आए थे। प्लासी के युद्ध को हए अव ५८ वर्ष बीत चुके थे, और इस बीच में भारत को लूटकर पन्द्रह अरब रुपया इंग्लैंड में पहुंच चुका था। जिसके बल पर लंकाशायर और मैन्चेस्टर के भाप के इंजनों से चलनेवाले नये कारखाने धड़ाधड़ उन्नत हो रहे थे। इस लूट का अर्थ यह था कि अट्ठावन बरस तक निरन्तर पचीस करोड़ रुपया सालाना कंपनी के नौकर भारतवर्ष से लूटकर इंगलैंड भेजते रहे थे। निश्चय ही इस भयानक लूट के मुकावले महमूद गज़नवी और मुहम्मद गौरी के हमले बच्चों के खेल थे। अब अंग्रेज़ केवल भारत में व्यापारी ही न रह गए थे, वे अपने साम्राज्य के सपने भी साकार कर रहे थे। और अव उनकी मुख्य अभिलाषा यह थी कि जैसे आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, अमेरिका आदि देशों में अंग्रेज़ बस्तियां कायम हो चुकी थीं, वैसी ही भारत में भी हो जाएं। परन्तु उनका दृष्टिकोण यह था कि भारत के गरम मैदानों की अपेक्षा हिमालय की घाटियों में ही ये अंग्रेजी उपनिवेश स्थापित किए जाएं। जहां अंग्रेजों की अपनी नैतिक और शारीरिक शक्तियां ज्यों की त्यों कायम रह सकें। हिमालय की रमणीय घाटियों के प्रति उनका मोह बहुत था और वे देहरादून, कुमायूं, गढ़वाल के इलाकों पर अपने दांत गड़ाए हुए थे। परन्तु उन दिनों ये सब ज़िले नेपाल के स्वाधीन साम्राज्य के अन्तर्गत थे। अंग्रेज़ इससे कुछ पूर्व ही लाहौर के महाराज रणजीतसिंह को भड़काकर नेपाल से लड़ा चुके थे। पर वीर नेपालियों ने आक्रान्ताओं के अच्छी तरह दांत खट्टे किए थे। अव यह स्पष्ट था कि भारत के इस मनोरम अंचल में अंग्रेज़ यदि अपने उपनिवेश स्थापित करना चाहते हैं, तो उन्हें खुल्लम-खुल्ला नेपाल से लोहा लेना होगा।
इस समय सारन और गोरखपुर के जिलों में नेपाल की सरहदें मिलती थीं। और वहां पर कुछ भूमि कम्पनी और नेपाल की विवादग्रस्त थी, जिसके सम्बन्ध में कभी-कभी छोटे-छोटे उपद्रव होते ही रहते थे। ऐसे ही एक विवाद का बहाना उठाकर अंग्रेजों ने नेपाल सरकार से युद्ध की घोषणा कर दी।
नेपालियों की वीर जाति ने अब तक न तो पराजय का कभी सामना किया था, न पराधीनता का। यद्यपि उसकी शक्तियां सीमित थीं, परन्तु उसने अंग्रेज़ों से लोहा लेने में तनिक भी हिचक न दिखाई।
अपरिसीम लूट-खसोट के बावजूद इस समय भारत में कम्पनी की आर्थिक स्थिति इतनी नाजुक थी कि उन दिनों कम्पनी की हुण्डियां बाज़ार में बारह फीसदी बड़े पर बिकती थीं। परन्तु अंग्रेज़ ऐसे अवसरों के लिए अनेक हथकण्डे हाथ में रखते थे। उन्होंने अवध के नवाब गाजीउद्दीन हैदर की गर्दन दबोचकर ढाई करोड़ रुपया कर्ज़ ले लिया और नेपाल से युद्ध की विस्तृत योजना बनाकर युद्ध छेड़ दिया।
इस समय नेपाल का राज्य कम्पनी के राज्य से बहुत छोटा था। दोनों राज्यों के बीच पंजाब में सतलज से लेकर बिहार में कोसी नदी तक लगभग ६०० मील लम्बी सरहद थी। अंग्रेजों ने इस सरहद पर पांच मोर्चे बांधे और पांचों स्थानों से नेपाल पर आक्रमण करने का प्रबन्ध कर लिया। एक मोर्चा लुधियाना में कर्नल आक्टरलोनी के अधीन था। दूसरा मेजर-जनरल जिलेप्सी के अधीन मेरठ में था। तीसरा मेजर जनरल वुड के अधीन बनारस और गोरखपुर में था। चौथा मुर्शिदाबाद और पांचवां कोसी नदी के उस पार पूर्णिया की सरहद और सिक्किम राज्य के सिर पर था। इन सब मोर्चों पर अंग्रेज सरकार की तीस हजार सेना मय उत्तम तोपखाने के जमा की गई थी, जिसका सामना करने के लिए नेपाल-दरबार मुश्किल से बारह हजार सेना जुटा सका था। उसके पास न काफी धन था, न उत्तम हथियार। और कुटनीति में तो वे अंग्रेजों के मुकाबले बिलकुल ही कोरे थे।
मेजर जरनल जिलेप्सी ने सबसे पहले नेपाल-सीमा का उल्लंघन कर देहरादून क्षेत्र में प्रवेश किया। नाहन और देहरादून दोनों उस समय नेपाल राज्य के अधीन थे। नाहन का राजा अमरसिंह थापा था, जो नेपाल-दरबार का प्रसिद्ध सेनापति था। अमरसिंह ने अपने भतीजे बलभद्रसिंह को केवल छ: सौ गोरखा देकर जिलेप्सी के अवरोध को भेजा। बलभद्रसिंह ने बड़ी फुर्ती से देहरादून से साढ़े तीन मील दूर नालापानी की सबसे ऊंची पहाड़ी पर एक छोटा-सा अस्थायी किला खड़ा किया। यह किला बड़े-बड़े अनगढ़ कुदरती पत्थरों और जंगली लकड़ियों की सहायता से रातोंरात खड़ा किया गया था। हकीकत में किला क्या था, एक अधूरी अनगढ़ चहारदीवारी थी। परन्तु बलभद्र ने उसे किले का रूप दिया, उसपर मज़बूत फाटक चढ़ाया और उसपर नेपाली झण्डा फहराकर उसका नाम कलंगा दुर्ग रख दिया।
अभी बलभद्र के वीर गोरखा इन अनगढ़ पत्थरों के ढोंकों को एक पर एक रख ही रहे थे कि जिप्लेसी देहरादून पर आ धमका। उसने इस अद्भत किले की बात सुनी और हंसकर कर्नल मावी की अधीनता में अपनी सेना को किले पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी। जिप्लेसी की सेना में एक हजार गोरी पलटन और ढाई हज़ार देसी पैदल सेना थी। परन्तु बलभद्र के इस किले में इस समय केवल तीन सौ जवान और इतनी ही स्त्रियां और बच्चे थे। उसने उन सभी को मोर्चे पर तैनात कर दिया।
मावी ने देहरादून पहुंचकर उस अधकचरे दुर्ग को घेर लिया और अपना तोपखाना उसके सामने जमा दिया। फिर उसने रात को बलभद्र के पास दूत के द्वारा सन्देश भेजा कि किले को अंग्रेजों के हवाले कर दो। बलभद्रसिंह ने दूत के सामने ही पत्र को फाड़कर फेंक दिया और उसी दूत की ज़बानी कहला भेजा कि अंग्रेजों के स्वागत के लिए यहां नेपाली गोरखों की खुखरियां तैयार हैं।
सन्देश पाकर मावी ने रातोंरात अपनी सेना नालापानी की तलहटी में फैला दी और किले के चारों ओर से तोपों की मार आरम्भ कर दी। इसके जवाब में किले के भीतर से गोलियों की बौछारें आने लगीं। तोपों के गोलों का जवाब बन्दूक की गोलियों से देना कोई वास्तविक लड़ाई न थी। और अंग्रेज़ उनपर हंस रहे थे। परन्तु शीघ्र ही उन्हें पता लग गया कि नेपालियों के जौहर साधारण नहीं हैं। रात-दिन सात दिन तक गोलाबारी चलती रही, परन्तु कलंगा दुर्ग अजेय खड़ा रहा।
जनरल जिलेप्सी इस समय सहारनपुर में पड़ाव डाले उत्कण्ठा से देहरादून की घाटियों की ओर ताक रहा था। जब उसे अंग्रेजी सेना के प्रयत्नों की विफलता के समाचार मिले, वह गुस्से से लाल हो गया और अपनी सुरक्षित सैन्य को ले नालापानी जा धमका। सारी स्थिति को देखने-समझने और आवश्यक व्यवस्था करने में उसे तीन दिन लग गए। उसने सेना के चार भाग किए। एक ओर की पल्टन कर्नल कारपेन्टर की अधीनता में आगे बढ़ी। दूसरी कप्तान फास्ट की कमान में, तीसरी मेजर कैली की और चौथी कप्तान कैम्पवैल की कमान में। इस प्रकार अंग्रेजों ने एकबारगी ही चारों ओर से दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। कलंगा दुर्ग पर धड़ाधड़ गोले बरस रहे थे और दुर्ग के भीतर से बन्दूकें तोपों का दनादन जवाब दे रही थीं। अंग्रेजी सेना का जो योद्धा दुर्ग की दीवार या द्वार के निकट पहुंचने की हिमाकत करता था, वहीं ढेर हो जाता था; वापस लौटता न था। इस समय नेपाली स्त्रियां भी अपने बच्चों को पीठ पर बांधकर बन्दूकें दाग रही थीं। अनेक बार अंग्रेज़ी सेना ने दुर्ग की दीवार तक पहुंचने का प्रयत्न किया, पर हर बार उन्हें निराश होना पड़ा। अनगिनत अंग्रेज़ सिपाहियों और अफसरों को गोरखा गोलियों का शिकार होकर वहीं ढेर होना पड़ा।
बार-बार की हार और विफलता से चिढ़कर जनरल जिप्लेसी स्वयं तीन कम्पनियां गोरे सिपाहियों की साथ लेकर दुर्ग के फाटक की ओर बढ़ा। परन्तु दुर्ग के ऊपर से जो गोलियों और पत्थरों की बौछारें पड़ी तो गोरी पल्टन भाग खड़ी हुई। गुस्से और खीझ में भरा जिलेप्सी अपनी नंगी तलवार हवा में घुमाता हुआ दुर्ग के फाटक तक बढ़ता चला गया। जब वह फाटक से केवल तीस गज़ के अन्तर पर था कि एक गोली उसकी छाती को पार कर गई और वह वहीं मरकर ढेर हो गया।
गोरखों के पास केवल एक ही छोटी-सी तोप थी। वह उन्होंने फाटक पर चढ़ा रखी थी। उसकी आग के मारे शत्रु आगे बढ़ने का साहस न कर सकते थे। इसके अतिरिक्त तीखे तीर भी गोरखा बरसा रहे थे।
जनरल जिलेप्सी की मृत्यु से अंग्रेजी सेना में भय की लहर दौड़ गई। परन्तु मावी ने अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व हाथ में लेकर सेना को पीछे लौटने का आदेश दिया। अंग्रेज़ी सेना बेंत से पीटे हुए कुत्ते की भांति कैम्पों में लौट आई।
मावी अब किले पर आक्रमण का साहस न कर सकता था। वह घेरा डालकर पड़ा रहा। किलेवालों को सांस लेने का अवसर मिला।
मावी ने दिल्ली सेंटर को मदद भेजने को लिखा, और वहां से भारी तोपखाना और गोरी पलटन देहरादून आ पहुंची। इसके बाद नये साज-बाज से किले का मुहासरा किया गया। अब रात-दिन किले पर गोले बरस रहे थे। गोलों के साथ दीवारों में लगे अनगढ़ पत्थर भी टूट-टूटकर करारी मार करते थे। एक-एक करके किले के आदमी कम होते जाते थे। गोली-बारूद की भी कमी होती जाती थी। परन्तु बलभद्र सिंह की मूंछे नीचे झुकती नहीं थीं। उसका उत्साह और तेज वैसा ही बना हुआ था। इसी प्रकार दिन और सप्ताह बीतते चले गए।
अकस्मात् ही किले में पानी का अकाल पड़ गया। पानी वहां नीचे की पहाड़ियों के कुछ झरनों से जाता था। और अब ये करने अंग्रेजी सेना के कब्जे में थे। उन्होंने नाले बन्द करके किले में पानी जाना एकदम बन्द कर दिया था। धीरे-धीरे प्यासी स्त्रियों और बच्चों की चीत्कारें घायलों की चीत्कारों से मिलकर करुणा का स्रोत बहाने लगीं। दीवारें अब बिल्कुल भग्न हो चुकी थीं। उनकी मरम्मत करना सम्भव न था। तोप के गोले निरन्तर अपना काम कर रहे थे। उन तोपों की भीषण गर्जना के साथ ही जख्मियों की चीखें, पानी की एक बूंद के लिए स्त्रियों और बच्चों का कातर क्रन्दन दिल को हिला रहा था। ये सारी तड़पनें, चीत्कारें और गर्जन-तर्जन सब कुछ मिलकर उस छोटे-से अनोखे दुर्ग में एक रौद्र रस का समा उपस्थित कर रहा था। और उसकी छलनी हुई भग्न दीवारों के चारों ओर अंग्रेज़ी तोपें आग और मृत्यु का लेन-देन कर रही थीं।
एकाएक ही दुर्ग की बन्दूकें स्तब्ध हो गईं। कमानें भी बंद हो गईं। अंग्रेजों ने आश्चर्य-चकित होकर देखा। इसी समय दुर्ग का फाटक खुला। अंग्रेज सेनापति सोच रहा था कि बलभद्रसिंह आत्मसमर्पण करना चाहता है। उसने तत्काल तोपों को बंद करने का आदेश दे दिया। सारी अंग्रेज़ी सेना स्तब्ध खड़ी उस भग्न दुर्ग के मुक्तद्वार की ओर उत्सुकता से देखने लगी। बलभद्र ही सबसे पहले निकला। कंधे पर बंदूक, हाथ में नंगी तलवार, कमर में खुखरी, सिर पर फौलादी चक्र, गले में लाल गुलबन्द। और उसके पीछे कुछ घायल, कुछ बेघायल योद्धा बंदूकें कंधों पर और नंगी तलवारें हाथों में लिए हुए। उनके पीछे स्त्रियां, जिनकी पीठ पर बच्चे कसकर बंधे हुए और हाथों में नंगी खुखरियां। कुल सत्तर प्राणी थे। सब प्यास से बेताब।
बलभद्र का शरीर सीधा, चेहरा हंसता हुआ, मूंछे नोकदार, ऊपर को चढी हईं। सिपाही की नपी-तुली चाल चलता हुआ वह अंग्रेजी सेना में धंसा चला गया। उसके पीछे उसके सत्तर साथी-स्त्री-पुरुष। किसी का साहस उन्हें रोकने का न हुआ। बलभद्रसिंह अंग्रेज़ी सेना के बीच से रास्ता काटता हुआ साथियों सहित नालापानी के झरनों पर जा पहुंचा। सबने जी भरकर झरने का स्वच्छ ठण्डा और ताजा पानी पिया। फिर उसने अंग्रेज़ी जनरल की ओर मुंह मोड़ा। उसी तरह बंदूक उसके कंधे पर थी और हाथ में नंगी तलवार। उसने चिल्लाकर कहा कलंगा दुर्ग अजेय है। अब मैं स्वेच्छा से उसे छोड़ता हूं।
और वह देखते ही देखते अपने साथियों सहित पहाड़ियों में गुम हो गया। अंग्रेज़ जनरल और सेना स्तब्ध खड़ी देखती रह गई।
जब अंग्रेज़ दुर्ग में पहुंचे तो वहां मर्दो, औरतों और बच्चों की लाशों के सिवा कुछ न था। ये उन वीरों के अवशेष थे जिन्होंने एक डिवीज़न सेना को एक महीने से भी अधिक रोके रखा था, और वहां के संग्राम में जनरल जिलेप्सी को मिलाकर अंग्रेजों के इकत्तीस अफसर और ७१८ सिपाही काम आए थे।
अंग्रेजों ने किले पर कब्जा कर उसे ज़मींदोज कर दिया। इस काम में उन्हें केवल कुछ घण्टे लगे।
इस समय उस स्थान पर साल वृक्षों का घना जंगल है। और रीचपाना नदी के किनारे एक छोटा-सा स्मारक बना हुआ है, जिसपर खुदा है हमारे वीर शत्रु बलभद्रसिंह और उसके वीर गोरखों की स्मृति में सम्मानोपहार.......।
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