Friday, September 23, 2022

कहानी | कैलाशी नानी | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Kailashi Nani | Subhadra Kumari Chauhan



 पता नहीं मेरी कैलाशी नानी अब इस संसार में है भी कि नहीं, परंतु उनकी स्मृति इतनी ताजा है कि आज भी कैलाशी नानी वही अपनी मैली-सी घुटने के ऊपर तक की धोती और फटी हुई मिरज़ई पहने, बगल में रोटी और नमक की पोटली सँभाले और हाथों में गायों के हाँकने का डंडा लिए न जाने कितनी बार आँखों के सामने घूमती हुई दिख जाती हैं। वह गँवार अनपढ़ स्त्री, जिसे अक्षर का भी ज्ञान न था सहज ही भुला देने योग्य न थी। मेरो नानी न होकर भी वह मेरी नानी थी। मेरे मामा के गाँव में, मामा के घर से हटकर उनका छोटा-सा झोंपड़ा था, लिपा-पुता, साफ़। उस झोंपड़े में न तो कोई दरवाज़ा था, जो कभी बंद हो सके और न ही दूसरा कोई सामान। बरतनों के नाम पर कुछ मिट्टी के ठीकरे थे और बिस्तर की जगह थोड़ा पुआल पड़ा था। यही मेरी कैलाशी नानी की गृहस्थी थी। पड़ोसी ही उनके परिवार वाले थे और गाँव के बच्चे उनके परमेश्वर।


हाँ, तो मेरी कैलाशी नानी, उस गाँव के रहनेवालों के जानवर चराने ले जाया करती थीं। उस गाँव में करीब चालीस घर थे और प्रत्येक घर से एक सेर अनाज चराई में मिल जाया करता था। कैलाशी नानी की जीविका यही थी। इसी में कैलाशी नानी का दान-पुण्य हो जाया करता था और इसी अनाज को बदलकर उन्हें रोज़ के व्यवहार के लिए नमक, मिर्च, मसाला भी लेना पड़ता था। पैसे तो गांव वालों को वैसे ही बड़ी कठिनाई से देखने को मिलते हैं। कैलाशी नानी की तरह गरीबनी को पैसों का दर्शन दुर्लभ होना ही चाहिए।


इस प्रकार जीवन बिताकर भी कैलाशी नानी दुखी न थी। वे सदा प्रसन्‍न और हँसती रहती थीं। दूसरों की सेवा के लिए तत्पर रहतीं। आधी रात को भी बुला लो तो वह तुम्हारा काम कर देगीं और तुमसे किसी प्रकार की आशा न रखेंगी।


जाड़े के दिन शुरू थे। एक दिन मामा के गाँव से एक आदमी संदेशा लेकर आया कि मामा ने माँ और बच्चों को बुलवाया है। जब तक माँ ने मामा के घर चलने को तैयारी न कर डाली, तब तक हम भाई-बहनों ने उन्हें तंग कर डाला। सबसे बड़ा भाई मैट्रिक में था इसलिए उसे छोड़कर हम सभी भाई-बहनों को लेकर आखिर एक दिन माँ मामा के घर आ गई। माँ के साथ आने वाले भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ी थी। मेरी उम्र दस-ग्यारह वर्ष थी। हम भाई-बहनों को मामा के घर में और तो कुछ अच्छा न लगता, पर मामा के घर से सौ फुट दूर एक नदी बहती थी, उसमें नहाने और कैलाशी नानी के साथ ढोर चराने के लिए जाने में बड़ा आनंद आता था। कैलाशी नानी जिस जगह ढोरों को ले जाती थीं, वहाँ दूर तक जहाँ तक दृष्टि जाती सब हरा ही हरा दिखायी पड़ता था। दूर-दूर तक आम-पीपल और ढाक के वृक्ष थे। इनकी घनी छाया में दोपहर को आराम करते। गाँव के छोटे बच्चों का एक झुंड नानी के नेतृत्व में ढोर चराने निकल जाता। वहाँ केवल ढोर ही न चराए जाते थे, वहाँ कहानियाँ भी कही जातीं, पहेलियाँ पूछी जातीं और कभी-कभी रामलीला का खेल भी खेलते। हम भाई-बहनों को इस ग्रामीण जीवन में बहुत सुख मिलता। एक भाई बहुत छोटा था। वह तो माँ के साथ ही रहता था। हम तीन भाई-बहन प्राय: रोज़ कैलाशी नानी के साथ जंगल में भाग जाते।


मुझे याद है हम लोग घर के अच्छे से अच्छे भोजन को यह कहकर छोड़ देते थे कि अच्छा नहीं बना और सच ही वह अच्छा न लगता था। कैलाशी नानी की जंगल में सूखी रोटियाँ नमक या कभी चटनी के साथ खाने में जितना स्वाद आता था, उतना स्वाद कभी किसी भोजन में नहीं आया। रोटियां भी गेहूं की नहीं; न जाने किस तरह के नाज मिलाकर बनायी जाती थीं । कैलाशी नानी को हर घर से एक ही नाज तो मिलता न था; कहीं गेहूं कहीं जौ, ज्वार, मक्का, उड़द, मूंग, अरहर सब मिलाकर इकट्ठा कर देती और रोज़, आवश्यकतानुसार किसी की चक्की से पीस लाती और दूसरे दिन के लिए रोटियां सेक रखतीं यही उनका प्रतिदिन का आहार था। यही रोटियां वह सबको खिलाती थीं, और हम लोग बड़े स्वाद से खाते थे ! कभी-कभी गांव के दुसरे बच्चे नदी में धोती फैलाकर मछली भूनते । उस दिन कैलाशी नानी रोटी भी न खाती । सत्तू खाकर ही रह जाती ।


इसी प्रकार एक दिन हम लोग कैलाशी नानी के साथ हार पर गये थे। उस दिन कैलाशी नानी ने राजा-रानी की कहानी सूनायी थी । राजा की एक राजकुमारी थी, बड़ी सुंदर बड़ी नेक! किंतु एक दिन जब वह नदी पर नहा रही थी तब परियों के देश के राजा का राजकुमार आया और राजकुमारी को घोड़े पर बैठाकर ले भागा । कहानी सुनने के बाद, कलेवा से पहिले, हम लोग बड़ी देर तक नहाते थे और तैरते थे । पानी बहुत गहरा न था पर बड़ा साफ था । नदी में नहाने का ही प्रलोभन हमें रोज यहां घसीट लाता ।


हां, तो उस दिन नहाते-नहाते मुझे यही डर लग रहा था कि कहीं परियों के देश का राजकुमार न आ जाय । वहां राजकुमार तो न आया, परंतु, जब नहा-धोकर लौटी, तो देखा कि कैलाशी नानी के पास कोई बैठा है । कपड़े जरा साफ-सुथरे थे । मैं डरी कि कहीं यही तो वह राजकुमार नहीं है । फिर घबराकर दूर तक नजर दौड़ाकर देखा, कहीं भी कोई घोड़ा न दिखा । मैं बेफिक्र हो गयी कि यह राजकुमार नहीं है वह होता तो घोड़ा जरूर होता ।


बाद में कैलाशी नानी से मालूम हुआ कि वह गांव का ज़मींदार है और कैलाशी नानी को हर महीने ढोर चरवाई में पांच सेर अनाज देता है । वह वहीं हम लोगों के पास ही पीपल के पेड़ की जड़ पर बैठ गया और हम सब भाई-बहिनों के बारे में कैलाशी नानी से बातचीत करने लगा ।


जब उसे यह मालूम हुआ कि अभी तक मेरी शादी नहीं हुई, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । क्योंकि गांव में तो उस समय लड़की के पैदा होते ही ब्याह की बातचीत हो जाती । और तीन-चार साल की होते-होते तो उसका ब्याह भी हो जाता था । उसने स्वर को धीमा करके कैलाशी नानी से कहा कि क्या कुल में कोई दाग है जो इतनी बड़ी लड़की अब तक कुँआरी है?

कैलाशी नानी ने कहा, नहीं भैया, कुल में दाग-वाग कुछ नहीं है। बड़े आदमी हैं। लड़की-लड़के सभी मदरसे में पढ़ते हैं। यही बिटिया रामायण बाँच लेती है। अंग्रेज़ी पढ़ती है। जब पढ़ लेगी तब लायक वर देखकर ब्याह करेंगे।

वह ज़मींदार जितनी देर तक बैठा रहा। बार-बार हमें ही देखता रहा।


दूसरे दिन जब कैलाशी नानी ढोर ढीलने आई तो छोटे भाई-बहन अभी सोकर नहीं उठे थे। इसलिए मैं अकेली ही नानी के साथ निकल गई। कलेवा करने से पहले हम सब बच्चे फिर नदी पर नहाने गए। जब हम जा रहे थे, तभी वह ज़मींदार फिर आया। वह कैलाशी नानी को बड़ी देर तक कुछ समझाता रहा। उसे कैलाशी नानी ने हाथ जोड़कर कुछ अस्वीकार किया। ज़मींदार ने कुछ न सुनकर नानी के पल्लू में जबरदस्ती कुछ बाँध दिया।


हम लोग भी रोटी खाने आए पर आज कैलाशी नानी रोज़ की तरह खुश न थी। उनके चेहरे पर एक तरह की उदासी थी जो छिपाए न छिपती थी। उन्होंने हमें खिलाया पिलाया और फिर कहानी सुनाने बैठीं, किंतु कहानी में उनका मन न लगा। अन्य दिनों की तरह जब मैं बच्चों के साथ ढोर हाँकने जाने लगी तो जाने न दिया। उन्होंने मुझे अपने पास ही बिठाए रखा। मैंने जिद की तो मुझे डाँट भी दिया।


शाम हो चुकी थी। माँ तुलसी के पास दिया जला रही थीं। कैलाशी नानी छिपती हुई-सी माँ के पास आईं और इशारे से बुलाकर अलग कमरे में ले गई। उन्होंने माँ से कहा कि वह अपने बच्चों समेत जल्दी से जल्दी घर वापस चली जाए। कारण कि वह ज़मींदार हम दोनों बहनों को अपने नालायक पुत्रों की वधू बनाना चाहता है। ज़मींदार का मेरे मामा से बहुत दिनों से बैर चला आ रहा था। शायद वह अपने इस बैर का बदला इस प्रकार लेना चाहता है। वह चाहता है कि कैलाशी के साथ ढोर चराने जाने पर वह हम दोनों बहनों की माँग में अपने पुत्रों से सिंदूर भरवा दे। इस प्रकार हम दोनों बहनें उसकी पुत्र-वाधुएँ बन जाएँगी। मामा जानकर भी कुछ न कर सकेंगे। इस काम में वाह कैलाशी नानी की सहायता लेना चाहता था, इसलिए दस रुपए उनके पल्लू में जबरदस्ती बाँध दिए थे। चालीस रुपए काम पूरा हो जाने पर देने का वादा किया था।


कैलाशी नानी ने शपथ लेते हुए वह दस रुपए कमर से निकालकर माँ को दिखाए और फिर बोली, ''बिटिया झूठ नहीं कहती मेरे पास तो दस पैसे भी नहीं फिर ये दस कलदार कहाँ से आए? ये उसी अधर्मी ने बाँध दिए हैं। तुम बिटिया को लेकर चली जाओ। जिस गाँव का ज़मींदार इतना अधर्मी है, तुम यहाँ फिर न आना। बिटिया का शादी-ब्याह करके ससुराल भेजकर ही फिर आना।

कैलाशी ने यह भी कहा कि वह हमारे जाते ही इन रुपयों को ज़मींदार के आगे फेंक देगी। अधर्म का पैसा वह कभी स्वीकार न करेगी।

मुझे याद आया कि एक दिन इकन्‍नी लेकर मैं नानी के साथ चली गई और कैलाशी नानी ने मुझसे लेकर वह बहुत सँभालकर रख ली और शाम को लौटकर वह माँ को वापिस कर दी।


माँ ने जब वह इकन्‍नी उन्हीं को वापस दे दी तो कैलाशी नानी के चेहरे से ऐसा भाव टपक रहा था-जैसे उन्हें कहीं का खज़ाना मिल गया हो। कई बार इकन्‍नी को उलट-पुलट कर देखने के बाद कैलाशी नानी ने उसे कमर में खोंस लिया। माँ को जाने कितने आशीर्वाद देती हुई वह गई थीं।


वही कैलाशी नानी आज कमर में दस कलदार बाँधे थीं। कल ज़रा-सी बात पर चालीस रुपए और मिलने वाले थे। पर कैलाशी नानी अधर्म का पैसा नहीं लेना चाहती थीं। उन्होंने कहा कि अगले दिन वह हमें वहाँ से भेजे बिना ढोर चराने नहीं जाएगी और जमींदार के रुपए उसके दरवाजे पर जाकर फेंक देंगी, फिर तो चाहे वह महीने का पाँच सेर अनाज भी बंद कर दे; कैलाशी डरती नहीं। वह कहीं भी जाकर ढोर चराकर पेट पाल लेगी। माँ उसकी बात पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। कोई कैसे उनकी पुत्रियों की माँग में सिंदूर भरकर घर में रख लेगा। मेरे पिता जी प्रसिद्ध वकील हैं। वे ज़मींदार को जेलखाने की हवा खिला सकते थे, फिर भी माँ कैलाशी नानी के आग्रह को न टाल सकीं। दूसरे दिन वह हमें लेकर घर चली आईं।


तब से आज तक कैलाशी नानी का हमें कोई समाचार नहीं मिला था।


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


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