Wednesday, September 14, 2022

कहानी | हाय रे, मानव हृदय! | भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव | Kahani | Haay Re, Manav Hridya! | Bhuvneshwar Prasad Shrivastav



 स्मृति की धुँधली और गम्भीर छाया में आज वह छोटी-सी घटना उतनी प्रखर और उत्तेजित नहीं प्रतीत होती। आज जब इस प्रकाश ह्रास और अच्छाई के संसार से भागकर उस कुरूप अन्धकार में, उस उन्माद, उस उफान के साथ नयन खोलना चाहता हूँ, तब दम घुटने लगता है। आज का अर्थ है - मेरी सफलता, मेरा साहस और असंख्य स्त्री-पुरुषों की जो मेरे साथ जीवन की रेस में दौड़े हैं - विफलता और कायरता। कम-से-कम होशहवास में अपना विश्लेषण करके मैं इसी ताव को पहुँचता हूँ। यह सत्य है या नहीं, इसकी जाँच करना अब मेरी परिधि से बाहर है। समाज मेरा आदर करता है कि मैंने नि:संकोच उसके बन्धनों और तुच्छताओं के सम्मुख सिर झुकाया है; पर एक बार, हाँ अपने उन्नति के उच्च शिखर पर बैठकर कहते हुए हृदय काँपता है। मेरी आत्मा समाज के विरोध में तड़प उठी थी पर अब वह केवल कहानी है।


बीस वर्ष की बात है। मैं अपने कुछ डॉक्टर मित्रों के साथ एक छोटे-से पर्वतीय नगर में ठहरा हुआ था हम सब समवयस्क, आशावादी और समस्त चिन्ताएँ यमराज के हवाले करने वाले नवयुवक थे। दिन-रात, हास-परिहास, ताश, हाइकिं ग में कट जाता था। जीवन से आँख मिलाने का अभी किसी को अवकाश न था। एक दिन सॅंझा को जब हम लोग ताश की बाज़ी-पर-बा़ज़ी खेल रहे थे, इस दुखान्त कहानी का परदा उठा। मेरे एक विनोदी मित्र ने उसे फाटक से प्रवेश करते देखकर कहा -


'वह देखिए, र्इंट की मेम आ ही गर्इं !'


और इस प्रकार एक निर्लज्ज और हृदयहीन ठट्ठे से हमने उसका स्वागत किया, जो अपने नयनों में सारे विश्व की मर्मान्तक पीड़ा भर लाई थी।


उसकी आयु अधिक न थी पर समय ने उसके साथ भद्र व्यवहार न किया था। उसकी आँखों के चारों ओर गड्ढे पड़ गये थे, अधर सूखे थे और अपदार्थ बाँध के समान भावनाओं की बाढ़ को रोकने का विफल प्रयत्न करते थे। उसने अपने गहरे अथाह नेत्रों से हम लोगों की ओर देखकर कहा - डॉक्टर साहब !


मुझे प्रतीत हुआ, जैसे एक शब्द-बेधी बाण मेरे मर्मस्थान पर लगा और मैं तुरंत ही एक खेदपूर्ण पश्चाताप से झेंप-सा गया।


उसने अति निकट आकर कहा - मेरा पति हृदय-रोग से पीड़त है। मैंने सवारी का इन्तजाम कर लिया है, डॉक्टर साहब! इसके आगे और कुछ कहने की ताब उसमें न थी और न मुझमें सुनने की। मैंने उठकर शीघ्रता से ओवरकोट पहना और आवश्यक वस्तुएँ जेब में रखकर उसे पीछे चल दिया। मेरे मित्रों ने मुझे पागल, सनकी क्या-क्या समझा होगा, मुझे नहीं मालूम; पर उस अज्ञात रमणी के प्रति प्रस्तुत होकर मैं एक पुरुषोचित विजय, एक अभिमान अनुभव कर रहा था। थोड़ी ही दूर एक सुन्दर नवयुवक दो घोड़े लिये खड़ा था। उसने मुझे झुककर सलाम किया। हम लोग घोड़ों पर सवार हुए और अन्धकार के पथ पर तेजी से घोड़े दौड़ाते हुए एक ओर चल दिए। राह की अव्यवस्थता के कारण मुझे इस छोटी-सी रोमान पर अधिक सोचने का अवसर न मिला। पर फिर भी कई अप्रिय जासूसी कहानियों के प्लॉट मेरे मस्तिष्क में फिर गए। मुझे प्रतीत हुआ जैसे मैं एक घातक; पर सरस जाल में फँसा हुआ हूँ। अपनी बार्इं ओर उस सुन्दर नवयुवक के साथ घोड़े पर एक ओर बैठी हुई युवती मुझे कई बार मायावी प्रतीत हुई।


जब दूर, चीड़ के घने वृक्षों के पीछे जुगनुओं के समक्ष मुझे कुछ प्रकाश दिखा, तब मैंने घड़ी में टॉर्च से देखा, 9 बजे थे। पूरे 3 घण्टे के पश्चात् मैंने अपने आपको वास्तविकता के ठोस संसार में पाया।


एक छोटे-से ग्राम में पहुँचकर हमने अपने घोड़े छोड़ दिये और मैं और वह स्त्री प्रेतों के समान पत्थर की एक छोटी-सी हवेली के सम्मुख खड़े हो गए। उसने जंजीर खटकाई और भारी और स्वप्निल स्वर में भीतर से किसी ने जवाब दिया। 5 मिनट पश्चात् एक नवयुवती ने, जो सिर से पाँव तक एक मैले अलवान से ढकी थी, द्वार खोला। उसके हाथ में थमी लालटेन के मलिन प्रकाश में मैंने देखा कि वह मुझे प्रश्नात्मक सन्देह और अविश्वास से देख रही हैं। मैंने मुड़कर उस रमणी को, जो मुझे यहाँ तक लाई थी, देखा; पर वह वहाँ न थी। मैंने चारों ओर तनिक सन्देह और भय से देखा; पर वह मायावी स्त्री, जैसे अन्धकार की गंभीर आत्मा में खो-सी गई थी। मैंने उस नवयुवती को, वहीं द्वार पर खड़े हुए, विचित्र और असंभव कहानी सुनाई और पूछा कि क्या आपके यहाँ कोई रोगी है?


उसने तनिक कठिन स्वर में कहा - यहाँ कोई रोगी नहीं है; पर आप मेरे पिता से मिल सकते हैं। वह बहुत एकाकी और विषद हें; पर इसके अतिरिक्त उन्हें और कोई रोग नहीं है।


घर छोटा था। केवल तीन कमरे और एक रसोईघर था। सब वस्तुएँ अस्त-व्यस्त पड़ी थीं। टूटा हुआ फर्नीचर, चीनी के बरतन, बारहसिंघे, कुछ कीमती खालें, सब इधर-उधर लापरवाही से पड़ी थीं। एक कमरे में एक अधेड़ पुरुष चारपाई पर लेटा था। उसके चारों ओर कुछ पुस्तकें और जले हुए सिगार आगन्तुक को एक विचित्रता से आकर्षित करते थे। उसके पीले निष्प्रभ मुख को देखने से ही प्रतीत होता था कि वह रोगी है और इसका रोग कठिन है, और उसे देखकर पलक मारते मैं यह रहस्य समझ गया। किसी कारणवश वह रमणी, जो इस रोगी की शुभचिन्तिका है, अपने को प्रकट नहीं कर सकती। मेरा परिचय पाने पर उसने मुझे एक ग़र्द में डूबी हुई कुर्सी पर बिठाया और मेरी कहानी सुनकर, उठकर, सूनी और अप्रतिभ हँसी हँस पड़ा। कहा - गढ़ी तो बड़ी सुन्दर; पर डॉक्टर, शायद यहाँ न चल सके। मैंने बार-बार उससे कहा कि वह मुझे अपनी परीक्षा कर लेने दे; पर उसने टाल दिया। वह कठिन निराशावादी था। जीवन को वह एक पाप समझता था, एक पराजय, और कहता था कि एक अन्धी और नृशंस शक्ति इस कलुषित विश्व का संचालन कर रही है। उस समय मेरे लिए यह बातें कुछ अधिक अर्थ न रखती थीं, वरन् मैंने इन्हें उसके रोग का एक विधान समझा। उस लड़की ने मुझे गरम दूध का प्याला लाकर दिया और कुछ गुलगुले, और मैं उस सलज्ज कन्या की सरल प्रार्थना और उस पुरष के अनुरोध को टाल न सका। भोजन के पश्चात् मैंने एक सिगार जलाया और उस पुरुष से एक बार फिर उचित चिकित्सा का अनुरोध किया और वह भी मेरी सिन्सियरिटी को देखकर सबेरे परीक्षा के लिए प्रस्तुत हो गया।


दूर देवी के मन्दिर की शयन-आरती होने के पश्चात् रात्रि काटने के लिए मैं ग्राम के होटल में आया। यह ग्राम के नाई का मकान था, जिसके कुछ कमरे किराये पर उठाए जाते थे। मैं कपड़े उतारकर अपने कमरे में आग के सामने बैठ गया और अन्यमनस्क शाम की घटनाओं को दुहराने लगा कि बाहर किसी का व्यग्र स्वर मैंने सुना। यह सोचकर कि अलिफ़लैला की एक सौ एक रातों में देखिए, पहली रात्रि कैसे कटती है। मैं द्वार के पास आ गया, देखा - वही कन्या हाथ में लालटेन लिये मेरी ओर लड़खड़ाती हुई आ रही है। मैंने चकित और भयभीत होकर पूछा - कहिए?


उसने कहा - आपके आने के पश्चात् पिता को कुछ वेग से खाँसी आई और अब उनकी दशा चिन्ताजनक है।


मैं ओवरकोट कन्धे पर डाल कर कुछ वेग से उसके साथ चला। पीछे कुत्तों के भूँकने में एक विचित्र उन्माद और विकलता मेरे हृदय को व्यथित कर रही थी। वहाँ पहुँचने पर मैंने देखा कि अधेड़ पुरुष चारपाई पर निश्चल पड़ा है और उसके सिर के पास झुका हुआ एक वृद्ध नौकर, जो अभी बाहर से आया प्रतीत होता था, रो रहा था। मैंने पास जाकर देखा कि किसी आकस्मिक उत्तेजना से उसका हार्ट फेल हो गया है। कन्या तुरन्त सब समझ गई और विकल होकर पास ही एक टूटी हुई मेज पर झुक गई। उस वृद्ध नौकर ने उसे उठाकर सँभाला, और शव को एक नीली चादर से ढक दिया।


जब मैं हाथ धो चुका, तो मेरा ध्यान सहसा एक बड़े तैल चित्र की ओर गया, जो एक सुन्दर नवयुवती का था, और शव के सिरहाने टँगा था। एक चीत्कार के समान मेरे मुख से निकला - यही हैं वह स्त्री, जो मुझे यहाँ तक लार्इं!


कन्या मानो आकाश से गिर पड़ी और मेरी ओर अविश्वास और भय से देखकर बोली - यह मेरी माता हैं; पर इनकी मृत्यु 11 वर्ष पूर्व मेरे पैदा होने के एक वर्ष बाद हो गयी। इसको सुनकर जो मेरी अज्ञेय दशा होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई, क्योंकि वह वृद्ध सेवक मुझे मेरी बाँह पकड़कर बाहर ले गया। और, वहाँ जो कुछ उसने अवरुद्ध और कंपित कंठ से कहा, उसका सारांश यह है कि उसका स्वामी बहुत काल तक सेना में नौकर रहा और जब लौटकर आया तो देखा उसकी पत्नी एक नवयुवक और सुन्दर सारंगीवाले के प्रेम में पागल है। कुछ काल पश्चात् वह एक वर्ष की बच्ची को छोड़कर उसके साथ निकल गई और अभी थोड़े ही दिन यह मालूम हुआ कि वह पास ही के किसी नगर में कसब कमा रही है।


प्रेमी पाठको, यह कहानी समाप्त हो गई, इसका जो चाहिए परिणाम निकालिए, इससे जो चाहिए शिक्षा ग्रहण कीजिए। मुझे तो केवल किसी की एक पंक्ति याद आ गयी - 'हाय रे मानव हृदय!'


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