शहर भर में डाक्टर मिश्रा के मुक़ाबिले का कोई डाक्टर न था। उनकी प्रैकटिस खूब चढ़ी बढ़ी थी। यशस्वी हाथ के साथ ही साथ वे बड़े विनोद प्रिय, मिलनसार और उदार भी थे। उनकी प्रसन्न मुख और उनकी उत्साहजनक बातें मुर्दों में भी जान डाल देती थीं । रोता हुआ रोगी भी हंसने लगता था। वे रोगी के साथ इतनी घनिष्ठता दिखलाते कि जैसे बहुत निकट सम्बन्धी या मित्र हों। कभी कभी तो बीमार की उदासी दूर करने के लिए उसके हृदय में विश्वास और आशा का संचार करने के लिए वे रोगी के पास घंटों बैठ कर न जाने कहाँ कहाँ की बातें किया करते ।
इन्हें बच्चों से भी विशेष प्रेम था। यही कारण था कि वे जिधर से निकल जाते बच्चे उनसे हाथ मिलाने के लिए दौड़ पड़ते । और सबसे अधिक बच्चों को अपने पास खींच लेने का आकर्षण, उनके पास था, उनके जेब की मीठी गोलियाँ, जिन्हें वे केवल बच्चों के ही लिए रखा करते थे। वे होमियोपैथिक चिकित्सक थे। बच्चे उनसे मिलकर बिना दवा खाए मानते ही न थे, इसलिए उन्हें सदा अपने जेब में बिना दवा की गोलियाँ रखनीं पड़ती थीं।
एक दिन इसी प्रकार बच्चों ने उन्हें आ घेरा। आज उनके ताँगे पर कुछ फल और मिठाई थी जिसे डाक्टर साहब के एक मरीज़ ने उनके बच्चों के लिए रख दिया था। डाक्टर साहब ने आज दवा की मीठी गोलियों के स्थान में मिठाई देना प्रारम्भ किया। उन बच्चों में एक दस वर्ष की बालिका भी थी जिसे डाक्टर साहब ने पहिली ही बार अपने इन छोटे छोटे मित्रों में देखा था। बालिका की मुखाकृति और विशेष कर आँखों में एक ऐसी भोली और चुभती हुई मोहकता थी कि उसे स्मरण रखने के लिए उसके मुँह की ओर दूसरी वार देखने की आवश्यकता न थी। दूसरे बच्चों की तरह डाक्टर साहब ने उसे भी मिठाई देने के लिए हाथ बढ़ाया । किन्तु बालिका ने कुछ लज्जा और संकोच के साथ सिमट कर सिर हिलाते हुए मिठाई लेने से इन्कार कर दिया। यह बात ज़रा विचित्र सी थी कि बालक और मिठाई न ले । डाक्टर ने एक की जगह दो लड्डू देते हुए उससे फिर बड़े प्रेम के साथ लेने के लिए आग्रह किया । बालिका ने फिर सिर हिला कर अस्वरीकृति की सूचना दी । तब डाक्टर साहब ने पूछा-- --"क्यों बिटिया ! मिठाई क्यों नहीं लेती ?" "आज एकादशी है। आज भी कोई मिठाई खाता है ।" डाक्टर साहब हँस पड़े और बोले--"यह इतने बच्चे खा रहे हैं सो ?"
--"आदमी खा सकते हैं औरतें नहीं खातीं। हमारी दादी कहती हैं कि हमें एकादशी के दिन अन्न नहीं खाना चाहिए ।"
--"तो तुम एकादशी करती हो ?"
--"क्यों नहीं ? हमारी दादी कहती हैं कि हमें नेम धरम से रहना चाहिए ।"
डाक्टर साहब ने दिन में बहुत से रोगी देखे, बहुत से बच्चों से प्यार किया और संभवत: दिन भर वह बालिका को भूले भी रहे । किन्तु रात को जब सोने के लिए लैम्प बुझा कर वे खाट पर लेटे तो बालिका की स्मृति उनके सामने आ गई। वह लज्जा और संकोच भरी आँख, वह भोला किन्तु दृढ़-निश्चयी चेहरा ! वह मिठाई न लेने की अस्वरीकृति का चित्र ! उनकी आँखों के सासने खिंच गया।
(2)
बाद में डाक्टर साहब को मालूम हुआ कि वह एक दूर के मुहल्ले में रहती है । उसका पिता एक ग़रीब ब्राह्मण है जो वहीं किसी मन्दिर में पुजारी का काम करता है। अभी दो वर्ष हुए जब बालिका का विवाह हुआ था और विवाह के छै महीने बाद ही वह विधवा भी हो गई ! विधवा होते ही पुरानी प्रथा के अनुसार उसके बाल काट दिए गए थे। यही कारण था कि उसका सिर मुंडा हुआ था। उस परिवार में दो विधवाएँ थीं। एक तो पुजारी की बूढ़ी माँ, दूसरी यह अभागिनी बालिका। एक का जीवन अंधकार पूर्ण भूतकाल था जिसमें कुछ सुख-स्मृतियाँ धुंधली तारिकायों की तरह चमक रही थीं। दूसरी के जीवन में था अंधकार पूर्ण भविष्य । परन्तु संतोष इतना ही था कि वह बालिका अभी उससे अपरिचित थी। दोनों की दिन-चर्या (साठ और दस वर्ष की अवस्थायों की दिनचर्या ) एक सी ही संयम पूर्ण और कठोर थी। बेचारी बालिका न जानती थी अभी उसके जीवन में संयम और यौवन के साथ युद्ध छिड़ेगा ।
इस घटना को हुए प्रायः दस वर्ष बीत गये। डाक्टर साहब उस शहर को अपनी प्रैकटिस के लिए अपर्याप्त समझ कर एक दूसरे बड़े शहर में चले गये । यहाँ उनकी डाक्टरी और भी चमकी । वे ग़रीब अमीर सभी के लिए सुलभ थे।
बड़ा शहर था। सभा-सोसाइटियों की भी खासी धूम रहती, और हर एक सभा सोसाइटी वाले यह चाहते कि डाक्टर मिश्रा सरीखे प्रभावशाली और मिलनसार व्यक्ति उनकी सभा के सदस्य हो जायें। किन्तु डाक्टर साहब को अपनी प्रैकटिस से कम फुरसत मिलती थी। वे इन बातों से दूर दी दूर रहा करते थे ।
इसी समय शुद्धी और संगठन की चर्चा ने ज़ोर पकड़ा । शताब्दियों से सोए हुए हिन्दुओं ने जाना कि उनकी संख्या दिनोंदिन कम होती जा रही है और विधर्मियों की, विशेषकर मुसलमानों की संख्या बे-हिसाब बढ़ रही है। यदि यही क्रम चलता रहा तो, सौ डेढ़ सौ वर्ष बाद हिन्दुस्तान में हिन्दुओं का नाम मात्र भले ही रह जाय, किन्तु हिन्दू तो कहीं ढूँढ़े से भी न मिलेंगे। सभी मुसल- मान हो जायँगे। इसलिए धर्म-भ्रष्ट हिन्दू और दूसरे धर्मवालों को फिर से हिन्दू बनाने और हिन्दुओं के संगठन की सबको आवश्यकता मालूम होने लगी । आर्य समाज ने बहुत बड़ा आयोजन करके दस-पाँच शुद्धियाँ भी कर डालीं। हिन्दू समाज में बड़ी हलचल मच गई। बहुत से खुश थे और बहुत से पुराने ख़याल वाले इन बातों को अनर्गल समझते थे ।
उधर मुसलमान भी उत्तेजित हो उठे, तंज़ीम और तबलीग़ की स्थापना कर दी गई। किन्तु डाक्टर मिश्रा पर इसका प्रभाव कुछ भी न पड़ता। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही समान रूप से उनके पास आते थे, और वे दोनों की चिकित्सा दत्तचित्त होकर करते । दोनों जाति के बच्चों को समान भाव से प्यार करते। उनकी आँखों में हिन्दुओं का शुद्धी-संगठन और मुसलमानों का तंज़ीम-तबलीग़ व्यर्थ के उत्पात थे।
(3)
एक दिन डाक्टर साहब अपने दवाखाने में बैठे थे कि एक घबराया हुआ व्यक्ति जो देखने से बहुत साधारण परि- स्थिति का मुसलमान मालुम होता था, उन्हें बुलाने आया। डाक्टर साहब के पूछने पर उसने बतलाया कि उसकी स्त्री बहुत बीमार है। लगभग एक साल पहिले उसे बच्चा हुआ था उस समय वह अपने मां-बाप के घर थी। देहात में उचित देख-भाल न हो सकने के कारण वह बहुत बीमार हो गई तब रहमान उसे अपने घर लिवा लाया। लेकिन दिनों-दिन तबियत खराब ही होती जाती है। डाक्टर साहब उसके साथ ताँगे पर बैठकर बीमार के देखने के लिए चल दिए । एक तंग गली के मोड़ पर ताँगा रुक गया। यहीं ज़रा आगे कुलिया से निकल कर रहमान का घर था। मकान कच्चा था सामने के दरवाजे पर एक टाट का परदा पड़ा था जो दो-तीन जगह से फटा हुआ था। उस पर किसी ने पान की पीक मार दी थी। जिससे मटियाला सा लाल धब्बा बन गया था। सामने ज़रा सी छपरी थी और बीच में एक कोठरी । यही कोठरी रहमान के सोने, उठने-बैठने की थी और यही रसोई-घर भी थी। रहमान बीड़ी बनाया करता था । गीले दिनों में यही कोठरी बीड़ी बनाने का कारखाना भी बन जाती थी। क्योंकि छपरी में बौछार के मारे बैठना मुश्किल हो जाया करता था । कोठरी में दूसरी तरफ़ एक दरवाज़ा और था जिससे दिख रहा था कि पीछे एक छोटी सी छपरी और है जिसके कोने में टट्टी थी और टट्टी से कुछ कुछ दुर्गन्धि भी आ रही थी। रहमान पहिले भीतर गया, डाक्टर साहब दरवाज़े के बाहर ही खड़े रहे। बाद में वे भी रहमान के बुलाने पर अन्दर गये। उनके अन्दर जाते ही एक मुर्गी जैसे नवागंतुक के भय से कुड़-कुड़ाती हुई, पंख फट-फटाती हुई; डाक्टर साहब के पैरों के पास से बाहर निकल गई। डाक्टर साहब के बैठने के लिए रहमान ने एक स्टूल रख दिया। उसकी स्त्री खाट पर लेटी थी ।
वहाँ की गंदगी और कुंद हवा देख कर डाक्टर साहब घबरा गये । बीमार की नब्ज़ देखकर उन्होंने उसके फेफड़ों को देखा, परन्तु सिवा कमज़ोरी के और कोई बीमारी उन्हें न देख पड़ी ।
वे बोले--इन्हें कोई बीमारी तो नहीं है, यह सिर्फ़ बहुत ज्यादः कमज़ोर हैं। आप इन्हें शोरवा देते हैं ?
रहमान--शोरवा यह जब लें तब न ? मैं तो कह कह के तंग आ गया हूं। यह कुछ खाती ही नहीं। दूध और साबूदाना खाती हैं उससे कहीं ताकत आती है ?
'क्यों' डाक्टर साहब ने पूछा "क्या इन्हें शोरवे से परहेज़ है ?
रहमान--परहेज़ क्या होगा डाक्टर साहब ? कहती हैं कि हमें हज़म ही नहीं होता ।
डाक्टर साहब ने हँसकर कहा--वाह, हज़म कैसे न होगा, हम तो कहते हैं, सब हज़म होगा।
-"डाक्टर साहब इतनी मेहरबानी और कीजिएगा कि शोरवा इन्हें आपही पिला जाइए, क्योंकि मैं जानता हूँ यह मेरी बात कभी न मानेगीं।
डाक्टर साहब रहमान की स्त्री की तरफ़ मुड़कर बोले-- कहिये आप हमारे कहने से तो थोड़ा शोरवा ले सकती हैं न ? हज़म कराने का जिम्मा हम लेते हैं । उसने डाक्टर के आग्रह का कोई उत्तर नहीं दिया सिर्फ़ सिर हिलाकर अस्वीकृति की सूचना ही दी। उसके मुँह पर लज्जा और संकोच के भाव थे ! उसका मुँह दूसरी तरफ़ था जिससे साफ़ ज़ाहिर होता था कि वह डाक्टर के सामने अपना मुँह ढांक लेना चाहती है । डाक्टर साहब ने फिर आग्रह किया--आपको आज मेरे सामने थोड़ा शोरबा लेना ही पड़ेगा उससे आपको ज़रूर फ़ायदा होगा ।
इसपर भी उसने अस्वीकृति-सूचक सिर हिला दिया, कुछ बोली नहीं! इतने से ही डाक्टर साहब हताश न होने वाले थे। उन्होंने रहमान से पूछा कि शोरवा तैयार हो तो थोड़ा लाओ इन्हें पिलादें ।
रहमान उत्सुकता के साथ कटोरा उठाकर पिछवाड़े साफ़ करने गया । इसी अवसर पर उसकी स्त्री ने आँखें उठाकर अत्यन्त कातर दृष्टि से डाक्टर साहब की ओर देखते हुए कहा 'डाक्टर साहब मुझे माफ़ करें मैं शोरबा नहीं ले सकती"
स्वर कुछ परिचित सा था और आँखों में एक विशेष चितवन. .....जिससे डाक्टर साहब कुछ चकराए। एक धूंधली सी स्मृति उनके आँखों के सामने आ गई उनके मुँह से अपने आप ही निकल गया "क्यों" ?
छलकती हुई आँखों से स्त्री ने जवाब दिया "आज एकादशी है"।
डाक्टर साहब चौंक से उठे । विस्फारित नेत्रों से उसकी ओर देखते रह गये ।
*****
उसी दिन से डाक्टर मिश्रा भी शुद्धी और संगठन के पक्षपाती हो गये ।
(यह कहानी ‘बिखरे मोती’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1932 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का पहला कहानी संग्रह था।)
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