Friday, September 23, 2022

कहानी | दो साथी | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Do Sathi | Subhadra Kumari Chauhan



 आनन्द और विनय दोनों, बचपन के साथी थे । प्रायमरी पाठशाला से लेकर हाई स्कूल तक दोनों ने साथ-साथ पढ़ा था । अब साथ ही-साथ दोनों कॉलेज में आये थे । दोनों में गाढ़ी मैत्री थी। परन्तु, साथ- ही-साथ विचार विभिन्नता भी काफी मात्रा में थी । दोनों का स्वभाव बिलकुल भिन्न था-आनन्द पूर्व तो विनय पश्चिम।


आनन्द अपने नाम के अनरूप ही आनन्द-प्रिय था । स्वभाव से वह उदार, शाहखर्च, प्रेमी, मिलनसार और कुछ-कुछ अभिमानी था। रुप्यों का उसके पास कोई मूल्य नहीं था । जिस दिन उसके पास मनीआर्डर आता, उस दिन से लगातार वह तब तक खर्च करता जब तक उसके रुप्ये चुक न जाते । वह बराबर दोसतों की खातिर-तवाजो करता इसमें बहुत-सा रुप्या व्यर्थ उठ जाता, उसे इसकी याद ही न रहती कि कॉलेज की फीस भी देनी है अथवा और भी दस खर्च हैं जो महीने भर तक लगे रहेंगे। दूसरे विद्यार्थियों से दूने रुप्ये पास आने पर भी उसके ऊपर हर महीने होटल वाले और पानवाले की उधारी चढ़ी रहती थी उसके साथ उठने-बैठने वाले लड़कों में से एक भी ऐसा न था जिस पर आनन्द ने कुछ न कुछ, कभी न कभी खर्च न किया हो ।

इसके विपरीत विनय मितभाषी, संयमी, कम कमखर्च और सीधे स्वभाव का था । वह बोलता कम, लेकिन अनुभव अधिक करता था । फूँक-फूँक पैर रखने की उसकी आदत थी। उसके पास इने-गिने पैसे आते थे जिनसे उसे पूरा खर्च चलाना पड़ता था । किसी का एक पैसा भी उस पर उधार न था । हज़ार तकलीफ़ में, होने पर भी वह एक पैसा उधार न लेता था । उसके मित्रों की संख्या भी सीमित थी ।


बी.ए. पास होने पर दोनों को भविष्य की चिन्ता थी । अंत में दो वर्ष तक और साथ रहेंगे इस आश के सहारे एक दिन दोनों ने लॉ कॉलेज में नाम लिखाया।


लॉ कालेज के प्रोफेसर डे की लड़की मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी कर रही थी । गणित में वह कुछ कमज़ोर थी | एक ट्यूटर की आवश्यकता थी। विनय गणित का एक मेधावी विद्यार्थी रह चुका था अतएव उसे यह ट्यूशन मिल गयी । कुछ समय बाद उसे दो और विद्यार्थी गणित पढ़ाने को और मिल गये । उसे चालीस रुप्ये माहवार मिलने लगे ।


प्रोफेसर डे की पत्नी क्रिश्चियन थी । पति-पत्नी दोनों ने अपना धर्म परिवर्तन न किया था । प्रोफेसर डे बंगाली हिन्दू ही रहे । वे मूर्ति पूजा करके रोज़ नियम से कृष्ण की उपासना करते और उनकी पत्नी इतवार को गिरजे जाती थी । उनकी लड़की मीरा का झुकाव हिन्दू धर्म की ओर था । माँ उसे मेरी और पिता मीरा कहते थे। मीरा पिता की तरह मूर्ति की उपासना करतीं और उसके दो छोटे भाई माँ के साथ गिरजे जाते थे । मीरा का झुकाव हिन्दू धर्म की ओर देखकर उसकी माँ परायः कुपित रहती थी । उसे गंवार, बेवकूफ इत्यादि सम्बोधन से पुकारा करती । माँ बेटी में बहुत अंतर था। माँ साया पहनती तो बेटी साड़ी । माँ के बाल अगर जी ढंग के कटे थे । मीरा के बाल लम्बे-लम्बे, लहराया करते थे । माँ उसे बिल्कुल न चाहती थी । मीरा जब कभी बाहर, निकलती थी तो पिता के साथ । माँ के साथ वह कहीं भी न जाती । पूर्ण रूप से वह हिन्दू थी।


मीरा अपने मास्टर से गणित के अलावा उनके धर्म, संस्कृति और आचार-विचार की बहुत-सी बातें पूछती और उन्हीं के अनुसार अपने दैनिक जीवन को बनाकर आदर्श हिन्दू-रमणी कहलाने का मधुर स्वप्न देखा करती थी । ईसाई माँ की बेटी होकर भी हिन्दू-धर्म के प्रति मीरा की आसक्ति और श्रद्धा देखकर विनय किस दिन से उसे चाहने लगा, किस दिन चुपके-ही-चुपके इस भोली-भाली नन्हीं सी पवित्रात्मा ने विनय के हृदय में अपने लिए स्थान बना लिया । विनय ने यह कभी न जाना और न जानने का उसने प्रयत्न किया । गुरु और शिष्या के भाव से ही वह एक दूसरे को देखते थे । किन्तु इस जिज्ञासु बालिका के प्रति विनय के हृदय में जो आदर और स्नेह के भाव अंकुरित हो गये थे उन्हें वह छिपा न सकता था। प्रायः आनन्द से एकान्त में बात करते समय इस परिवार की चर्चा हो उठती और उस बातचीत के अंदर से चतुर आनन्द यह तथ्य निकाल लेता कि अपनी शिष्या के प्रति विनय ऊंचे और प्रेम के भाव रखता है ।


धीरे-धीरे आनन्द के हृदय में इस लड़की को एक बार देखने की प्रबल उतकंठा जाग पड़ी । पहिले तो उसने इस उतकंठा को दबाने का, प्रयत्न किया फिर उसने सोचा कि एक बार देखने या मिलने में कोई पाप तो है नहीं । उसने अपनी इच्छा विनय पर प्रकट की दोनों मित्रों की राय थी कि देखने लायक वस्तु, को देखने में कोई हर्ज़ नहीं, हर्ज़ न देखने में ही है ।


शाम को जब विनय पढ़ाने जा रहा था, तब आनन्द उसके साथ था। प्रोफेसर डे कहीं गए हुये थे। बाहरी बरामदे में मिसेज डे से इन लोगों की मुलाकात हुई। विनय परिचय करा रहा था। उसी समय मीरा भी वहां पहुंची। कुछ गर्व के साथ उसने कहा-आप श्री मीरा देवी है जिन्हे मैं गणित पढ़ाता हूं।


मीरा चुप खड़ी रही। किसी तीसरे व्यक्ति के सामने बात करने में संकोच हो रहा था। मिसेज डे ने पुत्री की ओर देखते हुए भर्त्सना के स्वर में कहा-मेरी, मिस्टर आनन्द से शेक-हैंड करो। साधारण शिष्टाचार का भी तुम्हें ज्ञान नहीं है।


एक क्षण माता की ओर देखकर मीरा ने अपने दोनों हाथ जोड़कर आनन्द से कहा-नमस्ते!

“नमस्ते”, उत्तर मिला।

क्षण भर मीरा ने आनन्द को देखा और अपनी अध्ययनशाला की ओर चल पड़ी।


विनय के चले जाने के पश्चात्‌ आनन्द और मिसेज डे में वार्तालाप होने लगा। एक घंटे के बाद मीरा को पढ़ाकर विनय बरामदे में आया तो उसने देखा आनन्द और मिसेज डे इस प्रकार घुल-मिलकर बातें कर रहे थे, मानों बरसों से एक दूसरे से परिचित हैं। वैसे आनन्द का स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि वह लोगो से बड़ी जल्दी हिल-मिल जाता था। विशेषकर स्त्रियां तो उसके प्रभाव में बहुत जल्‍दी आ जाती थीं। वह स्त्रियों के प्रति इतना आदर, इतनी श्रद्धा और इतनी सम्मान प्रदर्शित करता कि पहली मुलाकात में ही हर एक मिलने-जुलनेवाली स्त्री उसे आदर्श पुरुष की श्रेणी में स्थान दे देती थी। इन पिछले छः महीने में विनय और मिसेज डे में सिवाय “नमस्ते” के और किसी शब्द का विनिमय न हुआ था, पर आनन्द ने एक ही दिन में अपना प्रभाव इतना अधिक कर लिया कि जब दोनों उठकर चलने लगे तब मिसेज डे ने उसे दूसरे दिन आमंत्रित किया। आनन्द ने गर्व-भरी आंखों से विनय को देखा। विनय मुस्कुरा दिया। कुछ दूर तक आने के बाद आनन्द विनय से बोला-मूर्खराज! छः महीने तक आकर भी तुम मास्टर के मास्टर ही रहे और बंदे ने एक ही दिन में मित्रता का नाता जोड़ लिया।


-बधाई देता हूं तुम्हें। पर मैं तो मास्टर की सीमा से आगे बढ़ना ही नहीं चाहता। विनय ने हंसकर कहा।

-सीमा के आगे बढ़ने के लिए जौहर चाहिए, जौहर! क्या समझे!

-उस जौहर की न मुझे आवश्यकता है, और न कभी आ ही सकेगा। दृढ़ निश्चय से हंसते हुए विनय ने उत्तर दिया।


मीरा मैट्रिक पास हो गई। अब पिता की इच्छानुसार विनय से संस्कृत पढ़ने लगी। आनन्द भी डे-परिवार का एक व्यक्ति-सा हो गया है। विनय का अधिक समय इस परिवार के साथ बीतता है। परिवार के छोटे से लेकर बड़े तक का यह प्रेम-मात्र हो गया है। बिना पढ़ाए भी प्रोफेसर डे के यहां विनय का अधिकांश समय बीतता है। मिस्टर डे का विनय पर बहुत स्नेह है। वे उसे अपने पास बुलाकर उससे बातें करते हैं...कभी-कभी उनके हृदय का गहरा विषाद और असंतोष एक दीर्घ निःश्वास के साथ बाहर निकल पड़ने को मचल उठता है। मीरा की प्रशंसा बहुत करते हैं और साथ ही उसके भविष्य की चिन्ता में एक गहरी सांस भी छूट जाती है।


बात-ही-बात में एक दिन उन्होंने मीरा के विवाह के बारे में कहा-तुम जानते हो विनय, मीरा की मां क्रिश्चियन है किंतु मेरी लड़की मीरा नहीं। मैं मीरा का विवाह...करना चाहता हूं। लड़का पढ़ा-लिखा, ऊंचे विचार वाला, स्वस्थ और सुंदर हो। धन की मुझे परवाह नहीं । मेरे पास यथेष्ट संपत्ति है जिसमें से आधी, मैं अपनी लड़की को दूंगा।


प्रोफेसर डे की आंतरिक इच्छा विनय से ही मीरा का विवाह करने की थी। इस प्रकार परोक्ष रूप से प्रस्ताव करके उन्होंने विनय के हृदय की थाह लेनी चाही। विनय असमंजस में पड़ गया। उसने सरलतापूर्वक विश्वास दिलाते हुए कहा-आप चिन्ता न कीजिए। मीरा के लिए मैं दो-तीन दिन में ही आपकी इच्छानुसार सुयोग्य वर ढूंढ़ बतलाऊंगा।


विनय विचारों में डूबता-उतराता चला जा रहा था। उसने निश्चय किया-वह स्वयं मीरा से विवाह कर लेगा। वह मीरा को अच्छी तरह जानता था और उसे यह भी भान होता था कि वह और मीरा दोनों एक दूसरे के अधिकाधिक निकट आते जा रहे हैं। उसने सोचा-मुझे मीरा के समान अच्छी लड़की शायद ही मिले। रही बूढ़ी मां की बात तो मैं उन्हें सब समझा दूंगा। निश्चय पक्का हो गया। रात को आनन्द देर से लौटा। विनय सो गया था। उस दिन सबेरे से ही कुछ ऐसी बातचीत हो गई कि दोनों अलग-अलग हुए तो शाम को मिले, वो भी मिसेज डे मकान पर।


जब विनय मीरा को पढ़ाने लगा तब उसकी मानसिक अवस्था ठीक न थी। वह आज मीरा को और ही भाव से देख रहा था। प्रायः वह सोच में डूबा-सा रहता और मीरा के कोई प्रश्न पूछने पर चौंक-सा जाता था। पुस्तक उठाते समय अचानक मीरा का हाथ उसके हाथ से छू गया। विनय सिहर उठा। मीरा ने जाना आज मास्टर साहब का पढ़ाने में मन नहीं लग रहा है। वह बोली-मास्टर साहब, आज आप किस गहरी चिंता में हैं। रहने दीजिए कल पढ़ाइएगा। पुस्तकें समेट उसने एक तरफ रख दीं।


'ठीक कहती हो मीरा। सचमुच आज मेरा जी पढ़ाने में नहीं लग रहा है। कल पढ़ाऊंगा। प्रोफेसर साहब हैं क्या?' विनय ने पकड़े जाते देखकर कहा। मीरा ने भीतर से आकर पान रखते हुए कहा-पिता जी कहीं गए हैं। अभी आते ही होंगे।


विनय एक बार साहस करके, मीरा से विवाह के बारे में सम्मति लेना चाहता था किंतु साहस न कर सका। उसने अनायास ही मीरा से प्रश्न किया-अच्छा मीरा, तुमने भविष्य में अपने लिए क्‍या निश्चय किया?


-अभी मैं क्या निश्चय करूँगी। पिताजी तो हैं। परंतु फिर भी इतना निश्चय है कि मेरी जीवन-यात्रा एक हिन्दू नारी के उच्चतम आदर्शे को लेकर ही प्रारंभ होगी।


विनय ने संतोष की एक सांस ली। प्रोफेसर साहब आए नहीं। देर काफी हो गई थी, अतएव वह चल पड़ा। फाटक पर ही आनन्द से उसकी मुलाकात हुई। विनय ने उसे अंदर जाने से रोककर यह कहते हुए कि उसे किसी गूढ़ विषय पर आनन्द से परामर्श करना है घसीटकर अपने साथ ले लिया।


दोनों अपने कमरे में जा बैठे। विनय ने कल से लेकर आज तक की सब घटनाएं आनन्द को सुना दीं और साथ ही मीरा से विवाह करने का अपना निश्चय भी। सारी बात हो जाने पर भी आनन्द के मुख से एक भी उत्साहवर्धक शब्द न सुनकर विनय को कम आश्चर्य नहीं हुआ। उसने आनन्द की ओर देखा। उसका चेहरा स्याह पड़ा जा रहा था। विनय घबराकर बोला-क्या बात है आनन्द, साफ-साफ कहो | तुम्हें यह बात पसंद नहीं है तो मैं विवाह न करूंगा। उन्हें दूसरा वर खोज दूंगा।


आनन्द उत्तर न दे सका। खाट पर चुपचाप लेट गया। विनय स्टोव जलाकर चाय तैयार करने लगा। चाय पीने के बाद, कुछ स्वयं होकर, आनन्द बोला-तुम्हें इस सफलता के लिए बधाई देता हूं विनय! पर एक बात है। तुमने तो कर्त्तव्यवश मीरा से विवाह करने का निश्चय किया है, किन्तु मुझे मालूम होता है कि मैं मीरा के बिना जी ही नहीं सकूंगा। मैं जो उस परिवार के साथ इतना समय व्यतीत करता हूं, वह मिसेज डे और उनके बच्चों के लिए नहीं। मीरा का आकर्षण मुझे वहां रोज खींच ले जाता है।

-किन्तु तुमने मुझसे यह तो कभी न कहा।

-कैसे कहता, अपनी दुर्बलता प्रकट करने में तो कभी-कभी संकोच होता है।

-फिर तुम क्‍या चाहते थे? आख़िर मीरा को कैसे प्राप्त करते? विनय ने प्रश्न किया।


“पहले तो उसके माता-पिता के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखता। यदि वे नहीं मानते तो मीरा को जबरन अपने साथ भाग चलने के लिए तैयार करता।


'क्या तुम आशा करते हो कि मीरा तुम्हारे साथ भाग जाने को तैयार होगी। कभी उससे प्रेम दर्शाया है! विनय ने जरा तेज होते हुए पूछा।


-प्रेम दर्शाने के लिए कभी अवसर ही न मिला पर अब इन बातों को जाने दो। मीरा के साथ तुम सुखी रहो विनय। यह मेरी कामना है।

'पर...पर तुम्हें दुखी बनाकर मैं सुखी न रह सकूंगा! तुम्हारा सुख मेरा सुख है। तुम्हारा दुख मेरा दुख है।' विनय ने अधीर होते हुए कहा।

“अब उपाय ही क्‍या है?” आनन्द कह उठा।


'घबराओ नहीं आनन्द! उपाय है। मीरा के पिता से अभी मैंने कुछ नहीं कहा उन्हें तूम्हारा नाम सुझा दूँगा,' कहते हुए विनय ने गहरी साँस ली और पलंग पर लेट गया।


सबेरे से विनय ने जिस सोने के संसार की रचना की थी, वह एक हल्के से हवा के झोंके से गिरकर मिट्टी में मिल गया । दोनों बड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहे । अचानक आनन्द उठ बैठा और बोला -नहीं विनय यह नहीं होगा । यदि तुम मीरा को सचमुच प्यार करते हो तो मैं तुम्हारे सुख के रास्ते में काँटा न बनूँगा।


विनय गंभीरता से बोला-मीरा को मैं प्यार करता हूँ या नहीं, सवाल यह नहीं है । सच बात यह है कि मैं तुम्हें दुखी नहीं देख सकता। मुझ में कष्ट सहन की क्षमता है, तुम में नहीं।


अंत में यही निश्चय हुआ कि विनय आनन्द का नाम प्रोफेसर डे को सुझावेगा । इसके बाद आनन्द हल्की तबियत से सो गया, रात भर तड़पता रहा । सूबह चाय के समय दोनों फिर साथ बैठे । विनय के चेहरे पर मुस्कुराहट थी । उसने आनन्द से कहा-आनन्द ! तुम्हारे लिए मैं मीरा को त्याग करके भी मैं मीरा को सहज ही न भुला सकूँगा, इसलिए उचित यह है कि तुम्हारे, विवाह के पहिले मैं यहां से कहीं चला जाऊं ! जाने से पहिले मैं मीरा को कुछ उपहार-स्वरूप दे जाऊंगा, उसमें तो तुम्हें कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए । कुछ ठहरकर उसने फिर कहा-एक बात और आनन्द! इसे भूलना मत! देखो मीरा को कभी किसी प्रकार का कष्ट न देना । अगर मुझे मालूम हुआ, कि तूमने उसे कभी किसी तरह का भी कष्ट दिया है तो मित्रता भूल जाऊंगा। तुम से उसका बदला लिए बिना न रहूँगा । इसे मज़ाक न समझना । बहुत सोच-समझकर कह रहा हूँ ।


'किन्तु, विनय, तुम्हें खोकर क्या मीरा के साथ मैं सूखी रह सकूँगा। तुम्हारा अभाव तो मुझे कदम-कदम पर खटकेगा ।' आनन्द के स्वर में भर्राहट थी, पीड़ा का आभास था।


कॉलेज के जीवन के बाद तो हमें अलग होना ही पड़ता । इसके लिए हृदय को दुर्बल न बनाओ पर एक बार तूस कहो कि मीरा को कभी कष्ट न दूँगा,' विनय का गला भरा आ रहा था।


'विनय! मैं मीरा को कभी, किसी प्रकार का कष्ट न होने दूँगा।' आनन्द आगे कुछ न कह सका । आंखें भर आयी थीं ।


शाम को जाकर विनय ने प्रोफेसर डे से मीरा के लिए आनन्द का नाम सुझाया । प्रोफेसर डे के चेहरे पर प्रसन्नता न दिख सकी जिसकी आशा विनय को थी । साथ ही विनय ने कहा-मैं किसी आवश्यक कार्य से बाहर जा रहा हूँ । जल्दी ही लौट कर आ जाऊंगा। विनय वहां से उठकर मीरा के पास गया।


मीरा पढ़ने की परतीक्षा में बैठी थी । विनय ने अपने को संभालते हुए कहा, 'मीरा, मैं आज भी तुम्हें न पढ़ा सकूंगा। मैं जरूरी काम से बाहर जा रहा हूं। कब लौटूंगा कह नहीं सकता। मैं तुम्हारे लिए कुछ पुस्तकें लाया हूं। इन्हें ध्यान से पढ़ना और समझना।' आवाज में एक दर्द था, एक अनुग्रह था। मीरा के सामने किताबों का ढेर लगाकर, एक अंगूठी मीरा की अंगुली में पहिनाते हुए कहा, “इसे कभी अंगुली से अलग न करना। मैं कहीं भी रहूं, इससे मेरी आत्मा को संतोष होगा ।” उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वह तेजी से कमरे के बाहर हो गया।


मीरा उठकर आई। वह कुछ पूछना चाहती थी पर तब तक साइकिल उठाकर विनय बहुत दूर तक जा चुका था। लौटकर मीरा ने देखा-अंगूठी पर मीरा खुदा हुआ था और किताबों पर सुंदर-सुंदर अक्षरों में विनय की कलम से उसका नाम लिखा था। किताबें ऊंचे दरजे के भारतीय साहित्य और हिंदू धर्म से संबंध रखने वाली थीं। विनय का आज का व्यवहार भोली मीरा समझ न सकी। यदि एक बार भी वह विनय की ओर आंख उठाकर देखती तो उसके हृदय का प्रचंड विषाद मीरा की समझ में आ जाता। पर मीरा में इतनी समझ कहां थी? मीरा इसी चिंता में उदास बैठी थी कि आनंद आ गया। मीरा का जी कुछ हल्का हुआ। उसने सोचा इनसे विनय के बारे में कुछ जान सकूंगी। आते ही पूछा-क्या आप लोग घर जा रहे हैं?

“नहीं, ऐसी तो कोई बात अभी नहीं है।'' कहते हुए आनन्द अपनी जगह पर बैठ गया। “किसने कहा तुमसे?” उसने मीरा से प्रश्न किया।

मीरा बेचारी क्या कहती? चुप रह गई। कुछ क्षण बाद बोली-परीक्षा हो गयी, इसलिए पूछा था।

“हम लोग कब जाएंगे यह तो विनय तय करेगा।” आनन्द ने कहा-और जाने से पहिले तुमसे कह जाएंगे। इतना कह वह कुछ मुस्कुराया।

मीरा आगे कुछ न कह सकी।


मिसेज डे ने चाय के लिए सबको बुला लिया। उस दिन आनन्द ने बहुत देर तक मिसेज डे के बंगले पर विनय की प्रतीक्षा की। प्रोफेसर साहब के आने पर ही उसे मालूम हुआ कि विनय आकर चला गया। घबराकर आनन्द अपने निवास की ओर तेजी से बढ़ा। उसे संदेह होने लगा कि शायद वह विनय से अब न मिल पाएगा। संदेह सच निकला। कमरा खाली था। मेज पर एक लिफाफा पड़ा था। झपटकर आनन्द ने उसे उठा लिया। देखा, लिखावट विनय की थी। सांस रोककर उसने पढ़ना शुरू किया-

भाई आनन्द,

जा रहा हूं। जाते समय तुमसे न मिल सका। इससे मुझे दुःख है। मेरी चिंता न करना। मैं सदा तुम्हारा मित्र हूं और रहूंगा। मीरा की रक्षा भी भली-भांति करना। उसे किसी प्रकार का कष्ट न होने देना।

तुम्हारा अपना

विनय


पत्र समाप्त होते ही आनन्द को ऐसा लगा कि वह खड़ा न रह सकेगा। वह खाट पर गिर पड़ा और बालकों की भांति फूट-फूटकर रोने लगा। न जाने कितनी देर तक रोता रहा। बार-बार उसके मस्तिष्क में यही प्रश्न उठता रहा-मीरा के लिए उसे कितना गहरा मूल्य चुकाना पड़ा है। उसका बचपन का साथी, छात्र जीवन की अंतिम घड़ियों का साथी, उसका बाल-बंधु विनय आज उसे अकेला छोड़कर कहीं चला गया है। आज ही समझ पाया कि वह विनय को कितना प्यार करता था। न जाने किस अशुभ घड़ी में वह प्रोफेसर डे के घर गया था। वहां मीरा रूपी दीवाल आकर दोनों मित्रों के बीच में खड़ी हो गयी। वे इस प्रकार एक अनिश्चित अनजाने समय के लिए अलग हो गए। अगर उसे अभी विनय मिल जाए तो वह विनय से कह-छोड़ो यह सब। मीरा का अब ध्यान भी न करेंगे हम लोग, अब तक जैसे रहते थे वैसे ही रहेंगे। मीरा क्या, संसार की कोई भी शक्ति हम दोनों को अलग न कर सकेगी; किंतु ये विचार केवल विचार ही रह गए। जिस समय दुखित होकर आनन्द इस प्रकार रो रहा था। उस समय विनय का विषाद से ओत-प्रोत शरीर रेल पर बैठा हवा के साथ उड़ा जा रहा था। कहां जाएगा, क्‍या करेगा-विनय कुछ न जानता था। वह तो केवल आनन्द से दूर, मीरा से दूर किसी अनिश्चित स्थान में जा रहा था। जब तक वह अपने हृदय की सारी दुर्बलताओं को धोकर बहा न देगा, तब तक विनय न तो मीरा से मिलेगा न आनन्द से। आनन्द उसका मित्र है, मीरा आनन्द की पत्नी। विनय दोनों की मंगल-कामना करता है।


मीरा और आनन्द के विवाह को आज पांच साल हो गए। मीरा अब दो संतानों की मां है। पहिला लड़का साढ़े तीन साल का और दूसरा डेढ़ साल का है। पिछले साल से इस छोटे से परिवार पर बड़ा हो भीषण आर्थिक संकट उपस्थित हो गया है। विवाह के समय आनन्द को दहेज के तौर पर दस हजार रुपए प्रोफेसर डे से मिले थे। साथ ही रहने के लिए एक बंगला भी। किन्तु पास में रुपया होने और कोई रोक-टोक न होने के कारण फिजूलखर्ची होने लगी। आनन्द की आदतें और भी बिगड़ गईं। परिणाम यह हुआ कि पांच साल में पांच रुपए भी शेष न रहे सके। ईसाई मत की बेटी से विवाह करने के कारण परिवार वालों ने आनन्द का बहिष्कार कर दिया था। इधर दो साल हुए प्रोफेसर डे ने भी इस संसार को छोड़ दिया। मिसेज डे ने एक ऐंग्लोइंडियन से पुनर्विवाह कर लिया। इसलिए आनन्द को आर्थिक सहायता कहीं से भी न मिल सकती थी। मीरा के जेवर, कीमती उपहारों को बेच-बेचकर किसी प्रकार घर का काम चल रहा था।


पहिले प्रोफेसर डे के और मीरा के बहुत आग्रह करने पर भी आनन्द वकालत करने को तैयार न हुआ था । अब मुश्किल थी फीस की । एक सौ पचास रुप्ये, कहां से लाये । नौकरी के लिए भी बहूत कोशिश की पर कहीं ऐसी नौकरी न मिली, जिसे वह अपनी मर्यादा के योग्य समझता ।


इस बीच उसमें दुर्व्यसन भी बढ़ चले उसे शराब से वैसे भी घृणा न अब ज्यों-ज्यों दुर्दिन आते गये त्यों-त्यों मद्य-प्रेम बढ़ता गया । आर्थिक कठिनाइयों के साथ-साथ शराब पीने की सहूलियत बढ़ती गयी । पहले वह रात को ही पीता था अब तो चौबीस घंटे में से, एक घंटा भी ऐसा न था जो शराब पीने के लिए उपयुक्त न हो । हालत यहां तक बिगड़ी कि घर में स्त्री-बच्चों को भोजन की व्यवस्था के पहिले उसे बोतल की चाह लगी रहती थी । कभी-कभी दिन और रात वह न जाने कहां बिता देता और घर आने पर मीरा से रुप्यों की फ़रमायश करता। बात फ़रमायश पर ही समाप्त न हो जाती, मार-पीट गाली-गलौज तक नौबत पहुंचती । लज्जा के मारे मीरा कुछ बोलती न थी । जब-तक गहने या कोई बेचने वाला सामान उसके पास रहा तब तक देती रही । पर अब कुछ भी शेष न बचा था । यहाँ तक कि उसने अपनी कुछ कीमती साड़ियाँ भी आनंद को उठाकर दे दीं; किंतु पीने के बाद तो आनंद की तृष्णा और भी बढ़ जाती थी। न तो उसमें विवेक रह जाता था, न बुद्धि। नशे में वह भूल जाता था कि मीरा कहाँ से पैसा ला सकती है? पैसों के लिए वह उसे डाँटता, उससे लड़ता और कभी-कभी बड़ी निर्दयता से मारता भी था। यह बात न थी कि नशा उतरने पर उसे अपने इन नीच कृत्यों पर ग्लानि न होती हो। नशे में जो आनंद ज्वालामुखी बन जाता था, वही नशा उतरने पर मीरा से क्षमा माँगता, शराब न पीने का वादा करता और अपने वादे पर दो-चार दिन कायम भी रहता। परंतु हाथ में कुछ भी पैसा आया, आनंद फिर शराब का साथी और बाद में पशु से गया-बीता हो जाता था।


इधर कई दिनों से मीरा की अंगूठी पर, जो विनय ने उपहारस्वरूप दी थी, झगड़ा चल रहा था। आनंद अंगूठी बेचना चाहता था और मीरा उसे न देना चाहती थी। मीरा के जीवन की कटुता को बढ़ाने में मिसेज डे का पुनर्विवाह एक नए अध्याय के रूप में खुल गया था। उसे बात-बात पर आनंद ताने देता कि आखिर वह अपनी माँ की बेटी है ! उन्होंने प्रोफेसर डे को मारकर दूसरी शादी कर ली, तुम भी मुझे मारकर वही करोगी। इसलिए अंगूठी पर तुम्हारा इतना मोह है, उसे देती नहीं। मीरा ने जबान पर ताला डाल रखा था, हृदय पत्थर का बना रखा था। सबकुछ सुनती, सबकुछ सहती, पर जवाब न देती। इसी अंगूठी के पीछे एक दिन आनंद झगड़कर चला गया। दो दिन तक घर के छोटे-छोटे बच्चों को भूख से रोते-बिलखते देखकर किस माँ का हृदय चूर-चूर न होने लगेगा! मकान में नीचे कुछ किराएदार रहते थे। महीना पूरा होने को था। मीरा ने सोचा कि कुछ रुपया किराए के माँग लूँ, पर जब खबर भेजी गई तो पता चला, किराया आनंद पहले ही ले चुके हैं।

***

विनय एक कॉलेज में गणित का प्रोफेसर हो गया था। इधर कई दिनों से उसकी अंतरात्मा, अपने मित्र आनन्द और मीरा से मिलने के लिए अकुला रही थी। वह अपनी दुर्बलताओं पर विजय पा चुका था। अतएव वह बिछड़े हुओं से मिलने चल पड़ा। मोटर से ही यात्रा करने का निश्चय किया। विवाह से पहले जो बंगला प्रोफेसर डे मीरा को देने वाले थे वहां पहुंच गया। लोगों से उसे पता ज्ञात हो गया। उसने सोचा कि बिना सूचना दिए चुपके-चुपके जाकर उन्हें आश्चर्य में डाल दूंगा। चोरों की तरह जीने से चढ़कर जब विनय ऊपर पहुंचा तो देखा कि छज्जे पर दोनों बच्चे बैठे हैं। देहली पर जीने की तरफ पीठ किए मीरा बैठी है। सामने थोड़े से भुने चने पड़े हैं। उन्हें छील-छीलकर बच्चों को खिला रही है। विनय स्तब्ध-सा खड़ा रह गया। यह वही मीरा है और यह मेरे आनन्द का निवासस्थान है। फिर उसने सोचा-मैंने गलती तो नहीं की। इतने में ही मीरा ने जो पीछे देखा तो खड़ी हो गई। स्वाभाविक हंसी के साथ बोली-मास्टर साहब! आप हैं। आइए, बहुत दिनों के बाद हम लोगों की याद आयी।

कुरसी पर बैठते-बैठते विनय ने पूछा-आनन्द कहां है?


मीरा क्‍या जवाब दे। उसका चेहरा उतर-सा गया | अपनी फटी धोती संभालती हुई बोली, “बाहर गए हैं। अभी आते होंगे।” ठहरकर उसने कहा-हां! देखिए, मैंने आपकी अंगूठी कभी अंगूली से नहीं निकाली, फिर भी आप हम लोगों को भूल गए।


विनय ने पूछा, “ये बच्चे तुम्हारे हैं?” उसने सरसरी तौर से मकान के चारों ओर नजर डाली। मकान का पुराना वैभव जहां-तहां अब मरणोन्मुख अवस्था में दृष्टिगोचर हो रहा था। भीषण दरिद्रता इन सबका उपहास करती हुई अट्टाहास कर रही थी। इसी समय छोटे बच्चे के सामने का छिला हुआ चना खतम हो गया और वह भूख के मारे चिल्लाने लगा। मीरा चने छील-छीलकर खिलाने लगी। बच्चे ने चने फेंक दिए और दूध मांगा। मीरा आश्वासन दे सकी, दूध नहीं। बच्चा मचल पड़ा। बड़े लड़के ने उसे समझाते हुए कहा-मां को तंग न करो, दूध नहीं है।


विनय परिस्थिति समझ चुका था और जब उसने यह करुण दृश्य देखा तो “अभी आध घंटे में आता हूं” कहकर वह तेजी से सीढ़ी उतर बाजार की ओर बढ़ गया।


विनय के जाने के कुछ समय पश्चात्‌ ही आनन्द आया शराब में झूमता हुआ, उन्मत्त। उसने मीरा से खाना मांगा। बेचारी मीरा क्या देती! घर में कुछ था ही नहीं। विवेक तो दूर ही रहा पर बुद्धि भी नशे में चूर हो जाती है। आनन्द ने आव देखा न ताव, पास ही रखी कैंची उठाकर मीरा को मारी। कैंची मीरा के सिर में जोर से लगी। खून की धार बह चली। आनन्द खाट पर गिर बड़बड़ाने लगा-दरिद्री घर की है न! चने को खाने को देती है! मैं घोड़ा हूं जो चने खाऊंगा। उन्मत्त आनन्द क्‍या जाने कि वे चने भी मीरा ने अपने दो लालों की भूख शांत करने के लिए उधार लिए थे।


विनय ने आकर दूसरा ही दृश्य देखा, खून से सनी मीरा बड़े बच्चे का हाथ पकड़े और छोटे को गोद में लिए एक तरफ खड़ी है। आनन्द आँखें बन्द किए खाट पर पड़ा बड़बड़ा रहा है।


मिठाई और फलों की टोकनी विनय ने फर्श पर रखी। आवाज सुनकर आनन्द ने आखें खोलीं। विनय को देखते ही वह फट पड़ा-ओह! तुम हो विनय! तुम्हीं ने इसका दिमाग बिगाड़ रखा है! चोरी से मिलने आते हो! शरम लगती है मेरे सामने आने में।


विनय ने देखा-आनन्द होश में नहीं है। आंखें आग उगल रही हैं। वह सामने से हट गया। आनन्द ने बाज की तरफ झपटकर विनय का गला पकड़ लिया और गुस्से में बोला-उसकी तो खोपड़ी फोड़ दी है। अब तुम्हें भी मजा चखाए देता हूं।


विनय ने किसी तरह अपने को उसके पंजे से छुड़ाया और दरवाजे के पास खड़ा हो गया, “आनन्द! बात तो सुनो!” उसने भारी आवाज में कहा।


घायल शेर की भांति आनन्द बोला-बात पीछे होगी; पहिले यह लो खाने भर को, कहकर उसकी ओर झपटा। विनय सामने से हट गया। आनन्द आवेग और नशे में अपने को संभाल न सका। छज्जे से नीचे वह सड़क पर जा गिरा। उसका सिर फट गया।


बेहोश आनन्द को उठाकर विनय और कुछ पड़ोसी ऊपर ले आए। छः घंटे के उपचार के बाद आनन्द होश में आया। नशा काफूर हो चला था। विनय को देखकर उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट आ गयी।


“विनय! क्षमा करो! गरीब मीरा को मैंने बहुत सताया।” आनन्द ने मीरा की ओर देखा। उसकी आंखें क्षमा की प्रार्थना कर रही थीं। विनय कुछ न कह सका। आंखें भर आईं। आनन्द ने अपने पुराने प्रेम में घुलकर कहा-छिः विनय! रोओ मत। मेरा तो अंत ऐसा ही होने वाला था। शराब ने मुझे कहीं का न रखा। सब कुछ समझता हुआ भी मैं शराब पीना न छोड़ सका। विनय थोड़ी ब्राण्डी पिलाओ। मेरी शक्ति जीर्ण होती जा रही है। मुझे तुमसे बहुत बातें कहनी हैं।


मीरा ने आनन्द को थोड़ी-सी ब्रांडी पिलायी। आनन्द ने मीरा का हाथ पकड़ लिया। मीरा जमीन में गड़-सी गयी। उसने कहना शुरू किया-विनय! भाई! एक बार तुमने मुझसे कहा था कि मीरा को कोई कष्ट न होने पावे परंतु मैं तुम्हारे अनुरोध की रक्षा न कर सका। आज मैं तुम्हें अपने दोनों बच्चे और मीरा को सौंपता हूं। इन्होंने जीवन में कष्ट का अनुभव किया है। इन्हें किसी प्रकार का कष्ट अब न होने देना। विश्वास दिलाओ। मैं शांति से मर सकूंगा। उसकी शक्ति क्षीण हो रही थी। हाथ-पैर ठंडे पड़ते जा रहे थे। वह स्थिर दृष्टि से विनय की ओर देख रहा था। विनय अपने को न संभाल सका। आनन्द की छाती से चिपटकर रो पड़ा, “आनन्द तुम मुझे छोड़कर क्‍यों जा रहे हो। मैं तुम्हारे बिना न जी सकूंगा”, उसने सिसकते हुए कहा। आनन्द की आंखें छलछला रही थीं।


“जीना पड़ेगा तुम्हें विनय! मेरे बच्चों के लिए...मेरी मीरा...” आनन्द आगे कुछ न कह सका। पथरायी हुई आंखों से गंगा बह गयी।


(यह कहानी ‘सीधे-साधे चित्र’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1947 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का तीसरा और अंतिम कहानी संग्रह है।)


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