इसी समय, कुछ युवतियाँ; मेरे पास से निकलीं। उनके पैरों के लच्छे और स््लीपरों की ध्वनि मैंने साफ-साफ सुनी। वे लोग आपस में हँसती, खिलखिलाती और बातें करती हुई चली जा रही थीं। ऐसा लगता था जैसे सांसारिक चिंताओं को इनके पास पहुँचने का साहस ही नहीं होता। परंतु मुझे उनसे क्या प्रयोजन? मैंने तो उनकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं। देखकर करता भी क्या? व्यर्थ ही हृदय में एक प्रकार की टीस उठती। वेदना और बढ़ जाती। मेरे लिए तो कदाचित् विधाता ने अपने ही हाथों एक निरक्षरा और बेढंगी प्रतिमा का निर्माण किया था जो इच्छा न होने पर भी, बरबस मेरे जीवन के साथ बाँध दी गई थी; जिसके सहवास से मेरा सुखी जीवन, मेरा आशावादी हृदय, कल्पना के पंखों द्वारा ऊँची-से-ऊँची उड़ान भरने वाला मेरा मन सभी दुःख तथा घोर निराशा से न जाने कितनी भीषण वेदना का अनुभव कर रहे थे।
जिस दिन मैंने पहले-पहल यशोदा को देखा, मैं कह नहीं सकता कि मेरी मानसिक स्थिति कितनी भयंकर थी। वह रात-मिलन की पहली रात-सुहागरात थी। और मैं-मैं घर से भागकर इसी स्थान पर इससे भी अधिक उद्विग्न और व्याकुल अवस्था में छटपटा रहा था। जीवन में मुझे उससे भी अधिक आत्म-ग्लानि और व्याकुलता का सामना करना था। कदाचित् इसीलिए न जाने किस प्रकार कुछ अभिन्न-हृदय मित्रों को मेरी मानसिक स्थिति का पता लग गया। वे मेरे अभिन्न-हृदय मित्र थे। वे जानते थे कि इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए कड़ी-से-कड़ी विपत्तियों को भी झेल सकता हूँ। इसलिए वे मुझे खोजते हुए आए; और मेरे साथ ही उन्होंने वहीं पर रात बिताई।
इसके बाद क्रमशः मेरी अवस्था कुछ सँभली और बहुत कुछ तो मित्रों के आग्रह से, और कुछ-कुछ किसी प्रकार जीवन के दिन काट देने के लिए मैंने यशोदा को शिक्षिता बनाना चाहा। किंतु परिणाम कुछ न हुआ। क से कबूतर और ख से खरगोश, इसके आगे यशोदा न पढ़ सकी। उसे पढ़ने-लिखने की तरफ जैसे रुचि ही न थी। पढ़ने के लिए जब मैं उससे प्रेममय अनुरोध करता तो वह प्रायः यही कहके टाल दिया करती, अब मुझे पढ़-लिख के क्या करना है? नौकरी करवाओगे?
अपने प्रश्नों के उत्तर में इस प्रकार की बातें सुनकर मुझे कितनी मार्मिक पीड़ा होती थी, मेरा हृदय कितना विचलित हो उठता था, यशोदा न तो समझती थी, और न उसने कभी समझने का प्रयत्न ही किया। परिणाम यह हुआ कि मुझे घर से बिलकुल विरक्ति हो गई। कोई भी आकर्षण शेष न रह जाने के कारण मैं घर बहुत कम जाने लगा। महीने में एकाध बार ही मैं घर पर भोजन करता। यदि भोजन के समय किसी मित्र के घर होता तो उसके आग्रह से वहीं, अन्यथा किसी होटल में मेरा प्रतिदिन का भोजन होता। प्रायः बहुत से दिन तो चाय के एक-दो प्यालों पर ही बीत जाया करते। तात्पर्य यह कि मेरा स्नान, भोजन, सोना, जागना सभी कुछ अनियमित था। नियमित रहता भी कैसे। मैं अपनी इस उठती जवानी में ही बुढ़ापे का अनुभव कर रहा था; जीवन मुझे भार-सा प्रतीत होता, न किसी प्रकार की इच्छा शेष थी न आकांक्षा, न उत्साह था और न उमंग, जीवन को किसी प्रकार ढकेले लिए जाता था।
मैं स्वभाव से ही अध्ययनशील, विद्यानुरागी, स्वाभिमानी, भावुक और अल्पभाषी था। मैं अपने कुछ इने-गिने मित्रों को छोड़ अन्य लोगों से बहुत कम मिलता-जुलता था। प्रायः अपना अधिकांश समय अध्ययन में ही बिताया करता था। मेरी लाइब्रेरी में संसार के प्रायः सभी विद्वान्-लेखकों की कृतियाँ आलमारियों में सजी थीं। उन्हें मैं अनेक बार पढ़कर भी फिर से पढ़ने का इच्छुक था। प्रायः लाइब्रेरी में जब मैं पुस्तकों का अध्ययन करता होता और उनमें किसी सुशिक्षिता महिला के विषय में कोई प्रसंग आ जाता, तो कल्पना के उच्चतम शिखर से ही मैं अपनी जीवनसंगिनी का दर्शन करता; और वहाँ से मैं देखता कि मेरी प्रेयसी पढ़ने में, लिखने में, सामाजिक और सांसारिक प्रत्येक कार्यों में मेरी वैसी ही सहायक है जैसे पुस्तक लेखक की स्त्री, जिसका दर्शन मैं अभी पुस्तक के पृष्ठों में कर चुका हूँ। यही कारण था कि विवाह के बाद मुझे इतनी अधिक निराशा हुई। मैं कल्पना के जिस शिखर पर विचरण कर रहा था, वहाँ से एकदम नीचे गिर पड़ा।
यशोदा को पढ़ने-लिखने की ओर से उतनी ही अरुचि थी, जितनी मेरी उस ओर रुचि थी। गृहस्थी के कामों में भी वह विशेष निपुण न थी। इसके अतिरिक्त न उसमें रूप था न आकर्षण और न बातचीत का ढंग ही सुरुचि के अनुकूल था। उससे साधारण-सी बात करते समय भी मैं प्रायः झल्ला उठता, जिससे मुझे तो म्रानसिक कष्ट होता ही, साथ ही यशोदा को बिना कारण ही मेरी डॉट सुननी पड़ती, और उसे कष्ट होता। इसलिए मैंने घर जाना बहुत कम कर दिया। प्रायः जब मैं पढ़ते-पढ़ते थक जाता तब मित्रों के घर और जब किसी कारणवश मित्र लोग भी घर पर न मिलते, तब मुझे कंपनी बाग के इसी कोने में हरी-हरी दूब पर ही आश्रय मिलता था।
कभी-कभी उसी दूब पर पड़े-पड़े मैं कब सो जाता, पता नहीं। पक्षियों का कलरव सुनकर ही मेरी आँख खुलती मेरे घर वाले इन बातों को बहुत अच्छी तरह जानते थे। अपने विवाह के बाद से मैं बहुत विद्रोही स्वभाव का हो उठा था। इसलिए न तो वे लोग मुझे खोजने का प्रयत्न करते, और न मेरी दिनचर्या या तपश्चर्या में बाधा डालकर मुझे छेड़ते थे। वे जानते थे कि यदि मुझे उन्होंने छेड़ा, तो इसका परिणाम किसी प्रकार भी अच्छा न होकर, बुरा ही हो सकता है।
आज इसी प्रकार अपने जीवन से घबराकर, न जाने किस विचारधारा में डूबा हुआ, मैं लॉन पर पड़ा था। वे युवतियाँ घूमती हुई फिर लौटीं, और मेरे पास ही पड़ी हुई बेंच पर बैठ गईं।
एक बोली, यहाँ तो कोई पड़ा है जी।
दूसरी ने कहा, ऊँह! रहने भी दो, पड़ा है तो हमारा क्या कर लेगा। आओ जरा बैठ लें, फिर चलेंगे।
तीसरी उठकर खड़ी हो गई। स्वर को कुछ धीमा करके बोलो, “हमारा कर तो कुछ न लेगा। पर हमारी बातचीत की आजादी में तो बाधा आएगी। चलो, कहीं और बैठें। इतना बड़ा तो बगीचा पड़ा है। क्या यही जगह है?" वह उठी। उठकर जाने लगी। है
एक दूसरी ने उसका हाथ पकड़कर खींचा। उसे बैठाते हुए बोली, 'बैठो भी कहाँ जाओगी? अब तो वह समय है, जबकि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने की हर जगह चर्चा है। फिर उस अधिकार का हमीं क्यों न उपयोग करें? विरले ही पुरुष स्त्रियों से ऐसे दूर-दूर भागते होंगे। अन्यथा पुरुषों का तो स्वभाव होता है कि जहाँ स्त्रियों को देखा, फिर चाहे काम हो चाहे न हो, उस ओर जाएँगे अवश्य। यह रेलवे स्टेशन का, स्नान-घाटों का, सड़कों और दुकानों का हमारा प्रतिदिन का अनुभव है। यदि ठीक न कहती होऊँ तो मेरी बात न मानो! और तुम ऐसे व्यक्ति से, जिसके विषय में ठीक-ठीक पता भी नहीं कि स्त्री है कि पुरुष, ऐसे दूर भागी जा रही हो जैसे कोई संक्रामक बीमारी हो', कहते-कहते उसने फिर उसका हाथ बैठाने के लिए खींचा ।
किंतु वह बैठी नहीं, चिल्ला पड़ी, छोड़ दो सरला! तुम्हारे खींचने से मेरी अँगूठी भी गिर गई। एक तो वैसे ही मैं उसे नहीं पहिनती । आज ही पहिनी और गिर गई।
बातचीत का प्रवाह बदल गया। सब-की-सब घबराकर खड़ी हो गईं। यहाँ-वहाँ जहाँ गिरी थी, उससे बहुत दूर तक अँगूठी की खोज होने लगी। वे करीब दस मिनट तक, उठकर, बैठकर, झुककर अँगूठी खोजती रहीं, पर वह न मिली। उनमें से एक तो मेरे बहुत पास तक आ गई। मैं घबराकर उठ बैठा। आशंका हुई कि कहीं अँगूठी का चोर मैं ही न समझा जाऊँ। जी चाहा कि मैं भी उनकी अँगूठी ढूँढ़ने लगूँ। पर उनकी अँगूठी बिना उनकी अनुमति के कैसे ढूँढ़ता?
मैं जानता था कि उनकी अँगूठी खोई है, फिर भी बातचीत का सिलसिला जारी करने के लिए उनके समीप पहुँचकर, कुछ संकोच के साथ मैंने पूछा, आप लोग क्या ढूँढ़ रही हैं? क्या मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूँ?
अँगूठी की मालकिन बोल उठीं, मेरी अँगूठी गिर गई है। बड़ी कीमती अँगूठी है।
इसके बाद मैं कुछ न बोला, उन लोगों के साथ उनकी अँगूठी मैं भी ढूँढ़ने लगा। परंतु करीब आधे घंटे तक ढूँढ़ने पर भी जब अँगूठी नहीं मिली, तो वे सब हताश हो गईं। मुझे उनकी दशा पर बड़ी दया-सी आई मैंने अँगूठी की स्वामिनी से कहा, यदि आप मुझ पर विश्वास कर सकती हों तो आप निश्चिंत होकर अपने घर जाइए। अब रात बहुत हो चुकी है, कोई आदमी यहाँ आएगा नहीं और मैं रात भर यहीं रहूँगा। सवेरे उठकर आपकी अँगूठी ढूँढ़कर आपको दे जाऊँगा? बस आप मुझे अपना पता भर बतला दें।
पहिले तो वह कुछ झिझकी। सिर से पैर तक उसने एक बार मुझे देखा, फिर न जाने क्या सोचकर बोली, मेरा नाम वृजांगना है। मैं पं०...
पास की दूसरी युवती ने उसके अधूरे वाक्य को पूरा किया, पं० नवलकिशोर की स्त्री हैं।
वृजांगना फिर बोल उठी, मेरा मकान नं० 155 सिविल लाइन में है।
'वृजांगना' नाम सुनते ही मैं चौंक-सा पड़ा। 'वृजांगना' क्या वही वृजांगना है जिसके विषय में मैं बहुत कुछ सुन चुका हूँ? वही चरित्र-भ्रष्ट 'वृजांगना' है? ईश्वर! मैं सिहर उठा। मैं तो उसे देखना भी न चाहता था। किंतु अब क्या करता? उसकी अँगूठी ढूँढ़ देने का वचन दे चुका था। और वचन देने के बाद, पीछे हटना मैंने सीखा ही न था। अब मुक्ति का कोई साधन न देखकर मैं चुप ही रहा।
पास ही खड़ी हुई दूसरी युवती ने प्रश्न किया, आप रात भर यहीं रहेंगे, घर न जाएँगे?
मेरे मुंह से अचानक निकल गया, घर? मेरा घर कहाँ है? कहाँ जाऊँ? यह बात न जाने किस धुन में मैं कह तो गया, किंतु कहने के साथ ही मुझे अफसोस भी हुआ-आखिर यह बात इनसे मैंने क्यों कही? मैं बिना घर का हूँ या घर से बहुत विरक्त, यह इन स्त्रियों के सामने प्रकट करके, मैंने क्या इनसे किसी प्रकार की सहानुभूति पाने की आशा की थी?
किंतु बहुत टटोलने पर भी अपने हृदय में, उन स्त्रियों से किसी प्रकार की सहानुभूति प्राप्त करने की लालसा मुझे न मिली, अचानक इसी समय कहीं से मंदाकिनी आकर बोल उठी, ओहो ! योगेश भैया! तुम बिना घर के कब से हो गए? अच्छी बात है? मैं जाकर भाभी से पूछूँगी कि क्या भैया को घर से निकाल दिया है?
मंदाकिनी की बात का कुछ उत्तर न देकर मैंने दृढ़ और गंभीर स्वर में वृजांगना से कहा, मैंने आपसे अभी कहा न कि मैं आपकी अँगूठी सबेरे ढूँढ़कर दे दूँगा। और उस अँगूठी के लिए मैं रात भर यहाँ रहूँगा भी! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास हो तो आप निश्चिंत होकर घर जाइए। आँगूठी आपको सबेरे मिल जाएगी।
वृजांगना ने निश्चितता की साँस ली। इस समय वह अधिक संतुष्ट जान पड़ती थी क्योंकि मुझे मंदाकिनी भी पहिचानती थी।
मंदाकिनी फिर बोली, योगेश भैया, तुम्हारे दृढ़-निश्चयी स्वभाव को कौन नहीं जानता? तुमने जब ढूँढ देने की जिम्मेदारी ली है तब बिरजा भाभी की अँगूठी मिले बिना न रहेगी।
वृजांगना ने फिर मुझ पर विनयपूर्ण दृष्टि डाली, और वह उन सब स्थियों के साथ चली गई। उस दृष्टि से जैसे उसने कहा कि मेरी अँगूठी न भूलना; जरूर ढूँढ़ देना ।
उसी बेंच पर पड़े-पड़े मैंने रात काट दी। सबेरे चिड़ियों के चहचहाने के साथ ही उठ बैठा। अभी पूरा-पूरा प्रकाश भी नहीं हो पाया था; मैंने उत्सुक आँखों को एक बार चारों तरफ अँगूठी के लिए घुमाया। किंतु वह कहीं न दिखी। फिर मैंने झुककर बेंच के नीचे देखा। नन्ही-सी अँगूठी जिसमें एक कीमती बड़ा-सा हीरा चमक रहा था, बेंच के पाए से सटी पड़ी थी। मैंने झुककर अँगूठी उठा ली। प्रयत्न करने पर भी वह मेरी किसी ऊँगली में न आई। मैंने उसे जेब में रखकर नल पर जाकर हाथ-मुँह धोया और फिर सिविल लाइन की ओर चल पड़ा।
बंगला ढूँढ़ने में मुझे विशेष प्रयत्न न करना पड़ा; क्योंकि वृजांगना और उनके पति पं० नवलकिशोर जी दोनों ही नगर के लब्धप्रतिष्ठ व्यक्तियों में से थे। चपरासी से मैंने अपना कार्ड अंदर भिजवाया, जिसके उत्तर में स्वयं वृजांगना आती हुई दिखी। उस सादी सरलता की प्रतिमा वृजांगना के प्रथम दर्शन में ही मैं उसका भक्त हो गया। वह मुझे बड़े आदर और प्रेम के साथ ड्राइंगरूम में ले गई।
टेबिल के पास बैठे हुए उसके पति अखबार पढ़ रहे थे। उसने अंदर जाते ही अपने पति का मुझसे परिचय कराया। फिर मेरी ओर देखकर उसने पति से कहा, इनके विषय में तो मैं अधिक नहीं जानती। पर इतना जानती हूँ कि कल आपने मेरे साथ अत्यंत सज्जनतापूर्ण बर्ताव किया है। आपका पूरा नाम तो अभी कार्ड पर ही देखा । इसके बाद वृजांगना ने अपने पति से शाम के समय का, अँगूठी के खोने का सारा किस्सा कह दिया। मैंने जेब से अँगूठी निकालकर धीरे से वृजांगना के सामने रख दी। अँगूठी पाकर वह कितनी प्रसन्न थी, यह उसकी कृतज्ञता-भरी आँखों और उल्लास भरे चेहरे से ही प्रकट हो रहा था। पं० नवलकिशोर जी के चेहरे पर कुछ अधिक भाव परिवर्तन न हुआ। वह केवल जरा-सा मुस्कराकर बोले, और यदि यह अँगूठी न लाते तब क्या करतीं विरजो?
वृजांगना ने विश्वाससूचक स्वर में कहा, लाते कैसे नहीं? अँगूठी तो मैंने इन्हीं के ऊपर छोड़ी थी न? सबके भरोसे थोड़े मैं अपनी यह अँगूठी छोड़ आती?
नवलकिशोर थोड़ा फिर मुस्कगए। हँसी तो कुछ मुझे भी आई। परंतु यह सोचकर कि प्रथम परिचय में ही हँसने की स्वतंत्रता लेना कहीं मेरे पक्ष में अशिष्टता न समझी जाए, मैंने अपनी हँसी रोक ली; पर एक प्रश्न मेरे मस्तिष्क में बार-बार घूमने लगा। आखिर बिना परिचय के और बिना जान-पहिचान के वृजांगना ने मुझमें कौन-सी बात देखी जो वह मुझ पर इतना विश्वास कर बैठी? चेहरे से मैं नवलकिशोर को पहिचानता था, और वह मुझे; परंतु हमारा आपस में परिचय न था। उस दिन इस प्रकार उस अँगूठी ने हमारा आपस में परिचय कराया। उनके आग्रह से उस दिन मैंने उन्हीं लोगों के साथ चाय पी और उनके अनुरोध से कभी-कभी उनके घर आने भी लगा।
कुछ दिन उन लोगों के यहाँ आने-जाने के बाद, मैंने अनुभव किया, वे पति-पत्नी दोनों मिलनसार, हँसमुख, सीधे-सच्चे और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं। वृजांगना के विषय में मैंने जितनी तरह की बातें सुन रखी थीं वे मुझे सभी निर्मूल और अनर्गल प्रतीत हुईं। वृजांगना के हृदय की महानता और उसके सद्व्यवहारों ने मेरे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास के ही भाव जाग्रत किए। उन दोनों पति-पत्नी के रहन-सहन, बात-व्यवहार को देखते हुए किसी प्रकार के संदेह के लिए कोई स्थान न रह जाता था।
वृजांगना सीधी, भोली और उदार प्रवृत्ति की स्त्री थी। उनके उस छोटे-से घर में प्रेम, विश्वास, आदर और आनंद का ही आधिपत्य था। घृणा, अपमान, ईर्ष्या और डाह का वहाँ तक प्रवेश ही न हो पाता था। वृजांगना की यह धारणा थी कि अपने घर में आया हुआ शत्रु भी अपना अतिथि हो जाता है; और अतिथि का अपमान करना उसकी दृष्टि में बड़ा ही निंदनीय काम था। इसलिए अपने घर में आए हुए उन व्यक्तियों के साथ भी जिनके प्रति वृजांगना के हृदय में किसी प्रकार की श्रद्धा या आदर के भाव न होते थे, वह व्यक्ति बिना जलपान के कदाचित् ही वापिस जाता था। वह बुरे मनुष्यों से घृणा न करके उनकी बुराइयों से घृणा करती थी और भरसक उन्हें किसी प्रकार उन बुराइयों से बचाने का प्रयत्न भी करती। वह संसार के छल-प्रपंचों से परिचित न थी। उसके सामने भगवान् बुद्ध और महात्मा ईसा के महान् आदर्श थे जिनके अनुसार चलकर इस छोटी-सी जिंदगी में वह लोगों के साथ केवल कुछ भलाई ही कर जाना चाहती थी। इसीलिए उसे बहुत कम लोग समझ पाते थे। उसे तो वह समझ सकता था जो उसके पास, बहुत पास, पहुँचकर उसे देखे। दूर से देखने वालों के लिए वृजांगना एक पहेली और बड़ी जटिल पहेली थी, जिसे हल करना कोई साधारण बात न थी। मैं वृजांगना के जीवन के साथ बहुत घुल-मिल गया था। मैंने उसे अच्छी तरह देखा और भली-भाँति पहिचाना था। वृजांगना मानवी नहीं देवी थी। जिसे कदाचित् दैवी अभिशाप के ही कारण कुछ दिनों के लिए मानव-जन्म धारण करना पड़ा था। धीरे-धीरे हमारा मेल-जोल बहुत बढ़ गया। अब मेरे अभिन्न हृदय मित्रों में से यदि कोई मेरे बहुत समीप था, तो वह थी वृजांगना। अपने सच्चे स्नेह और आदर से वृजांगना ने मुझे इस तरह बाँध लिया था कि मैं उसके छोटे-छोटे आग्रह और अनुरोध को भी न टाल सकता था। अब उसके अनुरोध से मेरे सभी काम नियमित रूप से होने लगे। उसके सरल प्रेम ने मुझमें नवस्फूर्ति फूँक दी। मैं अपने आप में नए जीवन का अनुभव करने लगा। मुझे ऐसा लगता था जैसे अभी-अभी संसार में प्रवेश किया हो।
मनुष्य में दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। एक तो देव-प्रवृत्ति और दूसरी राक्षसी न जाने क्यों वृजांगना को देखते ही मेरी देव-प्रवृत्ति किधर अंतर्हित हो जाती और राक्षसी प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो उठती कि उसे रोकना मेरे लिए बहुत कठिन हो जाता । वृजांगना को देखते ही मेरा ज्ञान, मेरा विवेक और मेरी बुद्धि जैसे सभी मेरा साथ छोड़ देते थे। इसके लिए मैं अपने-आपको न जाने कितना धिक्कारता था। नवलकिशोर को भैया और वृजांगना को भाभी कहा करता था। सचमुच ही उनके प्रति मेरे हृदय में यही पूज्य भाव थे। एकांत में इस दलील को सामने रखकर मैंने अपनी इन राक्षसी प्रवृत्तियों को कुचल डालने का न जाने कितना प्रयत्न किया। मैं चरित्रहीन न था; विवाहिता स्त्री मेरे लिए देवी की तरह पूज्य और आदर योग्य होती थी। वृजांगना को भी मैं इसी पूज्य दृष्टि से देखा करता था। उसके लिए मेरे हृदय में बड़े पवित्र और आदर के भाव थे; किंतु यह पवित्र भाव उसी समय तक टिक सकते जब तक वह मेरे सामने न होती।
वृजांगना जैसे ही मेरे सामने आती मुझ पर न जाने कहाँ का राक्षस सवार हो जाता। मैं एक ज्ञानहीन पशु से भी गया बीता बन जाता। मैं अपनी ही आँखों में बड़ा पतित जंचने लगता। पर मेरा हृदय मेरे काबू से बाहर था। मेरी दोनों प्रवृत्तियों का आपस में युद्ध-सा रहता था। कभी-कभी तो मैं बड़ा ही उद्विग्न और व्यथित-सा हो जाता। मेरी इस विचलित अवस्था को वृजांगना और नवलकिशोर देखते परंतु मेरी मानसिक स्थिति को वह क्या समझ सकते थे? वे अपने प्रयत्न-भर सदा हर प्रकार से मुझे खुश रखने की ही फिकर में रहते। उनका व्यवहार मेरे प्रति मधुरतर और प्रेमपूर्ण हो जाता था।
अपनी इस दानवी प्रवृत्ति को हर प्रकार से दबाने के लिए मैंने कई बार निश्चय किया कि मैं उनके घर ही न जाया करूँ। और इस उपाय में मैं कई बार आंशों तक सफल भी हुआ। परंतु मेरे ही न जाने से क्या हो सकता था? कई बार ऐसा हुआ कि मैं सुबह से शाम तक उनके घर नहीं गया, तो वृजांगना या नवलकिशोर अथवा कभी-कभी दोनों, मेरे घर पहुँच जाते और मेरा किया-कराया निश्चय मिट्टी में मिल जाता। उनके आग्रह और विशेषकर वृजांगना के प्रेमपूर्ण अनुरोध को टालने की मुझमें शक्ति न थी। विवश होकर मुझे उनके साथ फिर जाना पड़ता।
देवी वृजांगना और साधु-प्रकृति नवलकिशोर मेरे इन कुत्सित मनोभावों से परिचित न थे। मेरी दानवी प्रवृत्तियाँ कितनी भीषण, कितनी भयंकर और कितनी प्रबल हैं, मैं स्वयं भी तो न जानता था। परंतु उन्हें कुचलने के लिए, उनसे मुक्ति पाने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था, मैंने सब कुछ किया। साल भर बाद-
वही चैती पूर्णिमा थी और वही संध्या का समय, वही मन को फिसलाने वाली चांदनी रात; और थी वही वासंती हवा; आज फिर मैं बहुत उद्विग्न था। न जाने क्यों किसी मित्र का भी साथ न मिला और मैं घूमता हुआ कंपनी बाग के उसी कोने में पहुँच गया। मेरी चिर-परिचित बेंच कदाचित् मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं उस पर गिर-सा पड़ा और क्षण भर के लिए मैंने उसी शांति का अनुभव किया जो बालक माता की गोद में पाता है। क्षण भर बाद ही, साल भर पहले की एक-एक स्मृति सिनेमा के चित्रपट की तरह मेरी आँखों के सामने फिरने लगी। इस जगह हरी दूब पर व्याकुलता से मेरा लेटना, घूमती हुई रमणियों का आना, अँगूठी का गिरना और फिर उनकी खोज। मुझे याद आया, उस दिन भी मैं बहुत विकल था। संसार से विरक्त और जीवन से थका हुआ । आज मैं बहुत आंशों में संसार में अनुरक्त था, परंतु शांति जीवन में आज भी न थी। साल भर पहले की उस अशांति से आज की अशांति कहीं अधिक उद्देगपूर्ण, भीषण और प्रलयंकारी थी। इस अशांति में मैं जला जा रहा था। मुक्ति का मार्ग दूँढ़े भी न मिल रहा था। अंत में बहुत कुछ सोचने- विचारने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि मुझे यह नगर छोड़ देना चाहिए। नगर छोड़ने का पक्का निश्चय करके मैंने एक प्रकार की शक्ति-सी पाई।
नवलकिशोर बाहर गए थे। अपने घर की और वृजांगना की देखभाल वे मेरे ही ऊपर छोड़ गए थे। नगर छोड़ने से पहले पाँच मिनट के लिए वृजांगना से मिल लेना शायद अनुचित न होगा, यही सोचकर मैं उसके मकान की तरफ चला। साथ ही मुझे यह भी जानना था कि नवलकिशोर कब लौटने वाले हैं। जब मैं उनके घर पहुँचा करीब आठ बज रहे थे। वह सबसे ऊपर वाली छत पर एक कालीन डाले पड़ी थी। मुझे देखते ही उठकर बैठ गई।
मैं उसके घर आज कई दिनों में आया था। वह कुछ नाराजी के साथ अधिकारपूर्ण स्वर में किंतु मुस्कराती हुई बोली, तुमने तो आना ही छोड़ दिया योगेश? क्या किया करते हो? “वे” घर नहीं हैं तो क्या तुम्हें भी न आना चाहिए?
मैंने उसकी बात का कुछ उत्तर न देते हुए पूछा, नवल भैया कब आएँगे विरजो?
-कल सबेरे चार बजे की गाड़ी से, वह प्रसन्न होती हुई बोली।
मैंने एक निश्चिंतता की साँस ली। मैं सुबह यहाँ से जाऊँगा। उस समय तक नवलकिशोर आ जाएँगे। विरजो अकेली न पड़ेंगी। इससे मुझे प्रसन्नता ही हुई। पास ही आए हुए कई दिन के “लीडर' पड़े थे जिनसे विरजो को विशेष प्रेम न था; अतएव वे खोले भी न गए थे। मैंने तारीखवार उन्हें देखना शुरू किया। मुझे पढ़ते देख वृजांगना फिर कुछ न बोली। वह मेरे स्वभाव से भली-भाँति परिचित थी; अतएव पढ़ने-लिखने के समय वह मुझसे कभी किसी प्रकार की बातचीत न करती थी। कुछ देर बाद मेरी तंद्रा-सी टूटी । घड़ी पर नजर पड़ते ही देखा कि काफी रात बीत चुकी है। मैं तो केवल पाँच मिनट के लिए आया था।
वृजांगना सो चुकी थी। काले कालीन पर उसका मुँह पृथ्वी पर एक दूसरा पूर्णिमा का चाँद-सा दिख रहा था। उसे मैं क्षण भर देखता रहा। मेरा विवेक, मेरा ज्ञान, मेरी बुद्धि जाने कहाँ अंतर्निहित हो गई। मैं अपने आपे में न रह गया।
आज उसकी स्मृति ही सौ-सौ बिच्छुओं के दंशन से भी अधिक पीड़ा पहुँचा रही है, किंतु उस समय तो मैं शायद बेहोश था। मुझे तो होश उस समय आया जब बैंने वृजांगना को फूट-फूटकर रोते देखा । मुझे याद है उसके यही शब्द थे 'तुमने तो मुझे कहीं का न रखा योगेश ।' सचमुच मैंने घोरतम पाप किया था, जिसका प्रायश्चित कदाचित् हो ही नहीं सकता था! मुझसे अधिक पापात्मा संसार में भला कौन हो सकता था? मैं था विश्वासघाती, नीच और परस्त्रीगामी । अपना कालिमा से पुता हुआ मुँह फिर मैं वृजांगना को न दिखा सका। चुपचाप उठा और उठकर सीढ़ियों से नीचे उतरकर अपने घर आया। उस दिन मैं फिर रात भर सो न सका। अपने दुष्कृत्य पर कितना लज्जित, कितना क्षुभित और कितना क्रोधित था मैं कह नहीं सकता । बार-बार यही सोचता था कि आखिर मैं कई बार मरते-मरते क्या इसी कलुषित कार्य को करने के लिए बच गया। यदि पहले ही मर चुका होता तो यह अनर्थ होता ही क्यों?
ज्यों-त्यों करके रात काटी। अभी पूरा प्रकाश भी न हो पाया था कि अपनी स्त्री से यह कहके कि मैं एक आवश्यक कार्य से कुछ दिनों के लिए बाहर जा रहा हूं, अपना जरूरी सामान लेकर घर से निकला। कहां जाने के लिए? कह नहीं सकता; किंतु जाना चाहता था दूर-संसार से बहुत दूर जहां से किसी भले आदमी पर मुझ पापी की छाया भी न पड़ सके। किंतु घर से निकलकर अभी दस कदम भी न चल पाया था कि नवलकिशोर का नौकर शीघ्रता से आता हुआ दिखा । किसी अज्ञात आशंका से मैं कांप-सा उठा; किंतु फिर भी मैंने जैसे उसे देखा ही न हो, इस भाव से तेजी से कदम बढ़ाए।
नौकर ने मुझे भारी आवाज और दुःख मिश्रित स्वर में पुकारकर कहा-ठहरो भैया! कहां जाते हो? तुम्हें बाबूजी ने जल्दी बुलाया है।
मेरे पैरों के नीचे से जैसे धरती खिसक गई | नवल ने आते ही मुझे क्यों बुलाया ? क्या वृजांगना ने उनके आते ही...मेरी समझ में कुछ न आया। फिर भी अपने को बहुत संभालकर मैंने भीखू से पूछा, इसी समय बुलाया है? क्या कोई बहुत जरूरी काम है?
बूढ़ा नौकर रो पड़ा । रोते-रोते बोला, जरूरी काम क्या है भैया, बहू जी की तबीयत बहुत गाफिल है। संझा को अच्छी भली सोई थीं और अब तो भगवान जो उठा के खड़ी करें तो खड़ी हों। नहीं तो कुछ आशा नहीं दिखती ।
मुझे चक्कर-सा आने लगा। भीखू के साथ उसी समय नवल के घर की ओर चला, रात जिस घर में फिर कभी न जाने की प्रतिज्ञा करके निकला था, उसी घर की ओर फिर विक्षिप्तों की तरह चल पड़ा। आह! किंतु वहां तो मेरे पहुंचने के पहले ही सब कुछ समाप्त हो चुका था। नवलकिशोर बच्चों की तरह फूट-फूटकर रो रहे थे।
उसका कंचन-सा शरीर चिता पर धर दिया गया। आग लगा दी गई और वह धू-धू करके जल उठी। हमारे देखते-ही-देखते उसका सोने का शरीर राख में मिल गया। इसी प्रकार मुझे भी जीते ही जला देना चाहिए। इस हरी-भरी छोटी-सी गृहस्थी को बीहड़ बनानेवाला नर-पिशाच तो मैं ही हूं न! मैं किस आग में जल रहा था इसे मेरे सिवा और कौन समझ सकता था?
सब लोगों के चले जाने के बाद बची-खुची राख को समेटकर उसी समय मैंने वह नगर छोड़ दिया। उसी राख को यहाँ रखकर मैंने उसकी समाधि बना ली है और न जाने कितनी चैती पूर्णिमा उस समाधि को पश्चात्ताप के आँसुओं से धोते हुए मैंने बिता दी हैं। पश्चात्ताप अभी तक पूरा नहीं हुआ। मैं रात-दिन जलता हूँ। एक सुंदर से फूल को धूल में मिलाने का पाप मेरे सिर पर सवार है।
(यह कहानी ‘उन्मादिनी’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1934 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का दूसरा कहानी संग्रह है।)
No comments:
Post a Comment