Friday, September 23, 2022

कहानी | अभियुक्ता | सुभद्राकुमारी चौहान | Kahani | Abhiyukta | Subhadra Kumari Chauhan


 1 

मजिस्ट्रेट मिस्टर मिश्रा की अदालत में एक बड़ा ही सनसनीदार मुकदमा चल रहा है। अदालत में खूब भीड़ रहती है। मामला एक बीस बरस की युवती का है, जिस पर बैरिस्टर गुप्ता के लड़के के गले से सोने की जंजीर चुराने का अपराध लगाया गया है। एक तो वैसे ही, किसी स्त्री के अदालत में आते ही न जाने कहां से अदालत के आस पास मनुष्यों की भीड़ लग जाती है, और यदि कहीं स्त्री सुन्दर हुई, फिर तो भीड़ के विषय में कहना ही क्या है ? आदमी इस तरह टूटते हैं जैसे उन्होंने कभी कोई स्त्री देखी ही न हो। इसके अतिरिक्त मजेदार बात यह भी थी कि बैरिस्टर गुप्ता स्वयं इस मामले में गवाही देने के लिए अदालत में आये थे।


बैरिस्टर गुप्ता शहर के मशहूर बैरिस्टर हैं । शहर का बच्चा-बच्चा उन्हें जानता है। सरकारी अफसर उनके घर जुआ खेलते हैं, शहर में कहीं नाच-गाना हो तो उसका प्रबन्ध बैरिस्टर साहब को ही सौंपा जाता है। शराब पीने का शौक होते हुए भी वह कलवारी में कभी नहीं जाते, कलारी स्वयं उनके घर पहुँच जाती है। सरकार- दरबार में उनका बहुत मान है, और पब्लिक में भी, क्योंकि सरकारी अफसरों से किसका काम नहीं पड़ता ! बैरिस्टर साहब हैं भी बड़े मिलनसार । पब्लिक का काम बड़ी दिलचस्पी से करते हैं। इस प्रकार के कामों में वह बहुत व्यस्त रहते हैं, और दूसरे कामों के लिए उन्हें फुरसत ही नहीं रहती।


मुकद्दमा शुरू हुआ। अभियुक्ता की ओर से कोई वकील न था। वह गरीब और असहाय थी। सरकार की ओर से 300) मासिक पाने वाले कोर्ट साहब पैरवी के लिए खड़े थे।


बैरिस्टर गुप्ता ने अपने बयान में कहा- "मैं अभियुक्ता को एक अरसे से जानता हूं। यह शहर में भीख मांगा करती थी। करीब एक महीना हुआ, एक दिन मैंने अपने मकान के पास कुछ गुण्डों को इसे छेड़ते देखा । मुझे इस पर दया आयी। उन गुण्डों को भगाकर मैं इसे अपने घर ले आया और जब मुझे मालूम हुआ कि इसका कोई भी नहीं है, तब खाने और कपड़े पर इसे अपने घरपर बच्चों को संभालने के लिए रख लिया पन्द्रह दिन काम करने के बाद एक दिन रात को यह यकायक गायब हो गयी । दूसरे दिन मैंने देखा कि बच्चे के गले की सोने की जंजीर भी नहीं है, तब मैंने पुलिस में इत्तिला दी । बाद में पुलिस ने इसे मय सोने की चेन के गिरफ्तार किया, और मुझसे चेन की शिनाख्त करवायी। मैंने वैसी ही पांच चेनों में से अपनी चेन पहचान ली। (अदालत की टेबिल पर रखी हुई चेन को हाथ में लेकर बैरिस्टर गुप्ता ने कहा) यह चेन मेरी है, मैंने खुद इसे बनवाई थी।"


बैरिस्टर गुप्ता का बयान खतम हुआ । मजिस्ट्रेट ने गम्भीर स्वर में अभियुक्ता की ओर देखकर पूछा-"तुमको बैरिस्टर साहब से कुछ सवाल करना है ?"

अभियुक्ता का चेहरा तमतमा उठा। वह तिरस्कार- सूचक स्वर में बोली-"जी नहीं; सवाल पूछना तो दूर की बात है, मैं तो इनका मुंह भी नहीं देखना चाहती।"


अभियुक्ता की इस निर्भीकता से दर्शकों के ऊपर आश्चर्य की लहर-सी दौड़ गयी।सबकी आँखें उसकी ओर फिर गयीं, बैरिस्टर गुप्ता की ओर भी लोगों का ध्यान विशेष रूप से आकर्षित हुआ। उनके मुंह से एक प्रकार की दबी हुई अस्पष्ट मर-मर ध्वनि-सी निकल पड़ी।

मुकद्दमे में और भी रंग आ गया । अब तो लोग अधिक ध्यान से मुकद्दमे की काररवाई को सुनने लगे।

बैरिस्टर गुप्ता की बातों का समर्थन पुलिस के दूसरे गवाहों ने भी किया । एक सराफ ने आकर कहा- मेरी दूकान से सोना लेकर बैरिस्टर साहब ने मेरे सामने ही यह चेन सुनार को बनाने के लिए दी थी।"

एक सुनार ने आकर बयान दिया-"यह चेन बैरिस्टर साहब के लिए मैंने ही अपने हाथ से बनाकर उन्हें दी थी।"


तफतीश करने वाले थानेदार ने बतलाया कि किस प्रकार उन्होंने अभियुक्ता का पता लगाया, और किस तरह चेन मांगते ही उसने यह चेन अपनी कमर से निकाल कर दे दी। थानेदार ने यह भी कहा कि अभियुक्ता इस चेन को अपनी मां की दी हुई बतलाती है, जिससे साफ मालूम होता है कि अभियुक्ता बहुत चालाक है ।

सरकारी गवाहों के बयान हो जाने के बाद अभियुक्ता से मजिस्ट्रेट ने पूछना शुरू किया-

"तुम्हारा नाम?"

"चुन्नी ।"

"पति का नाम ?"

"मैं कुमारी हूं।"

"अच्छा तो पिता का नाम ?"

"मैं नहीं जानती। मैं जब बहुत छोटी थी तब या तो मेरे पिता मर गये थे या कहीं चले गये थे। मैंने उन्हें देखा ही नहीं मेरी मां ने मुझे कभी उनका नाम भी नहीं बतलाया; और अब तो कुछ दिन हुए मेरी मां का भी देहान्त हो गया !"


कहते कहते अभियुक्ता की आँखें डबडबा आयीं। दोनों हाथों से अपना मुंह ढंककर वह सिसकियां लेने लगी। दर्शकों ने सहानुभूतिपूर्वक अभियुक्ता की ओर देखा; किन्तु कोर्ट इन्सपेकर ने कड़े स्वर में कहा-"यह नाटक यहां मत करो जो कुछ साहब पूछते हैं उसका जबाव दो।"

अभियुका ने अपने को संभाला और आँखें पोंछकर मजिस्ट्रेट की ओर देखने लगी।

मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा- "तुम्हारा पेशा क्या है?"

"मैं मजदूरी करती हूँ और जब काम नहीं मिलता तब भीख मांगती हूँ"-अभियुक्ता ने कहा।

मजिस्ट्रेट ने प्रश्न किया--"रहती कहाँ हो।"

"जहां जगह मिल जाती है।"

"तुमने बैरिस्टर गुप्ता के घर नौकरी की थी ?"

"जी हाँ ?"

"यह चेन तुमने उनके बच्चे के गले से चुराई !" -चेन को हाथ में लेकर मजिस्ट्रेट ने पूछा।

अभियुक्ता ने बैरिस्टर गुप्ता की ओर देखा । उसकी इस दृष्टि से घृणा और क्रोध टपक रहे थे। फिर उसने मजिस्ट्रेट की ओर देख कर दृढ़ता से कहा-"मैंने जंजीर चुरायी नहीं; वह मेरी ही है।"


यह सुनते ही बैरिस्टर गुप्ता के मुंह से व्यङ्ग पूर्ण उपहास की हलकी हंसी निकल गयी । इस व्यङ्ग से अभियुक्ता का चेहरा क्षोभ से और भी लाल हो उठा। उसने विक्षित क्रोध के स्वर में कहा-"मैं फिर कहती हैं कि जंजीर मेरी है। मेरी माँ ने मरते समय यह मुझे दी थी और कहा था कि यह तेरे पिता की यादगार है, इसे सम्हाल के रखना।"

मजिस्ट्रेट ने पूछा-"तुम बैरिस्टर साहब के घर से रात को भाग गयी थीं ?"


कुछ क्षण के लिए अभियुक्ता चुप-सी हो गयी । आहत अपमान उसके चेहरे पर तड़प उठा। फिर कुछ सोचकर वह गम्भीर स्वर में बोली-"जी हां, मैं बैरिस्टर साहब के घर से भागी। पहले जब इन्होंने मुझे गुण्डों से बचाकर अपने घर में आश्रय दिया था, तब मेरे हृदय में इनके लिए श्रद्धा और कृतज्ञताके भाव थे। परन्तु वे धीरे-धीरे घृणा और तिरस्कार में बदल गये। मैंने देखा कि बैरिस्टर साहब की खुद की नीयत ठिकाने नहीं है। वह मुझे अपनी वासना का शिकार बनाने पर तुले हुए हैं। धीरे धीरे वह मुझे हर तरह की लालच दिखाने लगे और धमकियां देने लगे। एक दिन इसी तरह की छीना- झपटी में उन्होंने मेरी यह सोने की जंजीर देख ली थी। इसी लिए चोरी का झूठा इलजाम लगाने का इन्हें मौका मिला। मैं चोरी के डरके मारे कभी जंजीर को गले में नहीं पहनती थी। सदा कमर में खोंसे रहती थी।"


अभियुक्ता का बयान सुनते ही अदालत में सन्नाटा छा गया। किसी को भी उसके बयान में किसी तरह की बनावट न मालूम हुई। बैरिस्टर साहब के प्रति घृणा और अभियुक्ता की ओर सहानुभूति के भावों से दर्शक समाज का हृदय ओत-प्रोत हो गया। सभी दिल से चाहने लगे कि वह छूट जाये । परन्तु कानूनी कठिनाइयों को सोचकर सब निराश-से हो गये। चेन उसकी होते हुए भी भला बेचारी इस बात का सबूत कहाँ से देगी कि चेन उसीकी है।


 2 

सफाई की पेशीका दिन आया। आज तो अदालत में दर्शकों की भीड़ के कारण तिलभर भी जगह खाली न थी। प्रत्येक चेहरेपर उत्सुकता छायी थी। कौन जाने क्या होता है ! "कहीं बिचारी की चेन भी छिने, और जेल भी भेजी जाय। “यह न्यायालय तो केवल न्याय के ढोंग के लिए ही होते हैं," न्यायके नामसे सरासर अन्याय होता है;" "अदालतें धनवानों की ही हैं, गरीबों की नहीं;" इस प्रकार की अनेक आलोचनाएं कानाफूसी के रूप में दर्शकों के मुंह से निकल रही थीं । अन्त में मजिस्ट्रेट की आवाज से अदालत में निस्तब्धता छा गयी। उन्होंने अभियुक्ता से पूछा-


"क्या तुम इस बात का सबूत दे सकती हो कि यह चेन तुम्हारी है ?"

"जी हां।"

"क्या सबूत है ? तुम्हारे कोई गवाह हैं ?"

"मेरा सबूत और गवाह वही चेन है,"--अभियुक्ता ने चेन की ओर इशारा करते हुए कहा।

सबने संदेह-सूचक सिर हिलाया। कुछ ने सोचा शायद यह लड़की पागल हो गयी है।

मजिस्ट्रेट ने पूछा- "वह कैसे?" अब उनकी दिलचस्पी और बढ़ गयी थी।

"चेन मेरे हाथ में दीजिये, मैं आप को बतला दूंगी।"


मजिस्ट्रेट के इशारे से कोर्ट साहब ने चेन उठा कर अभियुक्ता के हाथ में दे दी। चेन दो-लड़ी थी और उसके बीच में एक हृदय के आकार का छोटा-सा लाकेट लगा था, जो ऊपर से देखने में ठोस मालूम पडता था; परन्तु अभियुक्ता ने उसे इस तरह दबाया कि वह खुल गया। उसे खोलकर उसने मजिस्ट्रेट साहब को दिखलाया, फिर बोली-

"यही मेरा सबूत है, यह मेरे पिता की तसवीर है।"


मजिस्ट्रेट ने उत्सुकता से वह लाकेट अपने हाथ में लेकर देखा- देखा, और देखते ही रह गए । लाकेट के अन्दर एक 20 वर्ष के युवक का फोटा था। मजिस्ट्रेट ने उसे देखा उनकी दृष्टि के सामने से अतीत का एक धुंधलासा चित्रपट फिर गया।


बीस वर्ष पहले वह कालेज में बी० ए० फाइनल में पढ़ते थे। उनके मेस की महराजिन बुढ़िया थी, इसलिए कभी-कभी उनकी नातिन भी रोटी बनाने आ जाया करती थी। उसका बनाया हुआ भोजन बहुत मधुर होता था। वह थी भी बड़ी हंसमुख और भोली। धीरे-धीरे वह उसे अच्छी अच्छी चीजें देने लगे। छिप छिपकर मिलना-जुलना भी आरम्भ हुआ । वह रात के समय बुढ़िया महराजिन और उसकी नातिन को उसके घर तक पहुँचाने भी जाने लगे। एक रात को वह लड़की अकेली थी। चाँदनी रात थी और वसन्ती हवा भी चल रही थी । घने वृक्षों के नीचे अन्धकार और चांदनी के टुकडे आँख-मिचौनी खेल रहे थे। वहीं कहीं एकान्त स्थान में उन्होंने अपने आपको खो दिया।


कालेज बन्द हुआ, और बिदाई का समय आया। उस रोती हुई प्रेयसी को उन्होंने एक सोने की चेन मय फोटोवाले लाकेट के अपनी यादगार में दी। सिसक्यिों और हृदय-स्पन्दन के साथ बड़ी कठिनाई से वह विदा हुए । यह उनका अन्तिम मिलन था। उसके बाद वह उस कालेजमें पढ़ने के लिए नहीं गये, क्योंकि वहां ला क्लास नहीं था। वह धीरे-धीरे उन सब बातों को स्वप्न की तरह भूल गये। किन्तु, आज इस लाकेट ने उनके उस प्रणय के परिणाम को उनके सामने प्रत्यक्ष लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने सोचा "तो क्या यह मेरी ही".........इतने में लाकेट उनके हाथ से छूटकर टेबल पर खटसे गिर पड़ा; उसकी आवाजसे वह चौंक-से पड़े। दर्शक भी चौंक उठे। मजिस्ट्रेट ने सिर नीचा किये हुए कहा - अभियुक्ता निर्दोष है, उसे जाने दो।" यह कहते हुए वह तुरन्त उठकर खड़े हो गये। जैसे न्यायाधीश की कुर्सी ने उन्हें काट खाया हो।

 

(यह कहानी ‘उन्मादिनी’ कहानी संग्रह में संकलित है। जिसका प्रकाशन सन् 1934 में हुआ था। यह सुभद्राकुमारी चौहान का दूसरा कहानी संग्रह है।)


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