आस्वाद के आधार पर विवेचना करने में कहा जा सकता है कि आस्वाद तो केवल सामाजिकों को ही होता है। नटों को उस में क्या? आधुनिक रंगमंच का एक दल कहता है कि "नट को आस्वाद, अनुभूति की आवश्यकता नहीं। रंग-मंच में हम बाह्य विन्यास (मेकअप) के द्वारा गूढ़ से गूढ़ भावों का अभिनय कर लेते हैं।" (The new make-up method is worked out by applying plastic material to a cast of the face, working out the desired character on it, and fashioning facial inlays of a secret composition which, affixed with water-soluble gum, also a secret, can transform the face into another. The flexibility of the material permits every expression. Barrymore, a deep student of history, hopes to play many historical characters by its use.)
("Advance" 20 Dec., 36.)
किन्तु यह विवाद भारतीय रंगमंच के प्राचीन संचालकों में भी हुआ था। इसी तरह एक पक्ष कहता था―
अष्टावेव रसानाट्येष्विति केचिदचृचुदन, तदचारुयतः किञ्चिन्नरस स्वदते नटः। अर्थात् नट को आस्वाद तो होता ही नहीं, इसलिए शान्त भी क्यों ने अभिनयोपयोगी रस माना जाय। यह कहना व्यर्थ है कि शान्तस्य शमसाध्यत्त्वान्नटे चतदसंभवात्, अष्टावेव रसाः नाट्ये न शान्तस्तत्र युज्यते। शम का अभाव नदी में होता है। शान्त का अभिनय असंभव है। नटों में तो किसी भी आस्वाद का अभाव है। इसलिए शान्त रस भी अभिनीत हो सकता है, इस की आवश्यकता नहीं कि नट परम शान्त, संयत हो ही। किन्तु साधारणीकरण में रस और आस्वाद की यह कमी मानी नहीं गयी। क्योंकि भरत ने कहा है कि―
इन्द्रियार्थश्च मनसा भाव्यते ह्यनुभावितः नवेत्तिह्यमनाः किंचिद्विषयं पञ्चगेतुकम् (24-82) इन्द्रियों के अर्थ को मन से भावना करनी पड़ती है। अनुभावित होना पड़ता है। क्योंकि अयन्मनस्क होने पर विषयों से उस का सम्बन्ध ही छूट जाता है। फिर तो क्षिप्रं संजातरोमाञ्चा वाष्पेणावृतलोचना, कुर्वीतनर्तकी हर्ष प्रीत्यावाक्यैश्च सस्मितैः (26-50) इन रोमाञ्च आदि सात्विक अनुभावों का पूर्ण अभिनय असंभव है। भरत ने तो और भी स्पष्ट कहा है―एवं बुधः परं भावं सोऽस्मीति मनसा स्मरन्।वागङ्गलीलागतिभिश्चेष्ठाभिश्च समाचरेत्। (35-15) तब यह मान लेना पड़ेगा कि रसानुभूति केवल सामाजिकों में ही नहीं प्रत्युत नटों में भी है। हाँ, रस विवेचना में भारतीयों ने कवि को भी रस का भागी माना है। अभिनवगुप्त स्पष्ट कहते हैं―कविगत साधारणीभूत संविन्मूलश्च काव्य पुरस्सरो नाट्य व्यापारः सैव च संवित् परमार्थतो रसः (अभिनव भारती 6 अध्याय) कवि में साधारणीभूत जो संवित् है, चैतन्य है, वही काव्य पुरस्सर हो कर नाट्य व्यापार में नियोजित करता है, वही मूल संवित् परमार्थं में रस है। अब यह सहज में अनुमान किया जा सकता है कि रस विवेचना में संवित् का साधारणीकरण त्रिवृत् है। कवि, नट और सामाजिक में वह अभेद भाव से एक रस हो जाता है।
इधर एक निम्न कोटि की रसानुभूति की भी कल्पना हुई है। कुछ लोग कहते हैं कि 'जब किसी अत्याचारी के अत्याचार को हम रंगमंच पर देखते हैं, तो हम उस नट से अपना साधारणीकरण नहीं कर पाते। फलतः उस के प्रति रोष भाव ही जाग्रत होता है, यह तो स्पष्ट विषमता है।' किन्तु रस में फलयोग अर्थात् अन्तिम संधि मुख्य है, इन बीच के व्यापारों में जो संचारी भावों के प्रतीक हैं रस को खोज कर उसे छिन्न-भिन्न कर देना है। ये सब मुख्य रस वस्तु के सहायक मात्र हैं। अन्वय और व्यतिरेक से, दोनों प्रकार से वस्तु निर्देश किया जाता है। इसलिए मुख्य रस का आनन्द बढ़ाने में ये सहायक मात्र ही हैं, वह रसानुभूति निम्न कोटि की नहीं होती। इस कल्पना के और भी कारण हैं। वर्तमान काल में नाटकों के विषयों के चुनाव में मतभेद है। कथा वस्तु भिन्न प्रकार से उपस्थित करने की प्रेरणा बलवती हो गयी है। कुछ लोग प्राचीन रस सिद्धान्त से अधिक महत्व देने लगे हैं―चरित्र-चित्रण पर। उन से भी अग्रसर हुआ है दूसरा दल, जो मनुष्यों के विभिन्न मानसिक आकारों के प्रति कुतूहलपूर्ण है, अथ च व्यक्ति वैचित्र्य पर विश्वास रखने वाला है। ये लोग अपनी समझी हुई कुछ विचित्रता मात्र को स्वाभाविक चित्रण कहते हैं, क्योंकि पहला चरित्र-चित्रण तो आदर्शवाद से बहुत घनिष्ट हो गया है, चारित्र्य का समर्थक है, किन्तु व्यक्ति वैचित्र्य वाले अपने को यथार्थवादियों में ही रखना चाहते हैं।
यह विचारणीय है कि चरित्र-चित्रण को प्रधानता देनेवाले ये दोनों पक्ष रस से कहाँ तक सम्बद्ध होते हैं। इन दोनों पक्षों का रस से सीधा सम्बन्ध तो नहीं दिखाई देता; क्योंकि इस में वर्तमान युग की मानवीय मान्यताएँ अधिक प्रभाव डाले चुकी हैं, जिस में व्यक्ति अपने को विरुद्ध स्थिति में पाता है। फिर उसे साधारणतः अभेद वाली कल्पना, रस का साधारणीकरण कैसे हृदयंगम हो? वर्तमान युग बुद्धिवादी है, आपाततः उसे दुःख को प्रत्यक्ष सत्य मान लेना पड़ा है। उस के लिए संघर्ष करना अनिवार्य सा है। किन्तु इस में एक बात और भी है। पश्चिम को उपनिवेश बनाने वाले आर्यों ने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए मानवीय भावनाएँ विशेष परिस्थिति उत्पन्न कर देती हैं। उन परिस्थितियों से व्यक्ति अपना सामंजस्य नहीं कर पाता। कदाचित् दुर्गम भूभागों में, उपनिवेशों की खोज में, उन लोगों ने अपने को विपरीत दशा में ही भाग्य से लड़ते हुए पाया। उन लोगों ने जीवन की इस कठिनाई पर अधिक ध्यान देने के कारण इस जीवन को (ट्रेजडी) दुःखमय ही समझ पाया। और यह उन की मनुष्यता की पुकार थी, आजीवन लड़ने के लिए। ग्रीक और रोमन लोगों को बुद्धिवाद भाग्य से, और उस के द्वारा उत्पन्न दुःखपूर्णता से संघर्ष करने के लिए अधिक अग्रसर करता रहा। उन्हें सहायता के लिए संघबद्ध होने पर भी, व्यक्तित्व के, पुरुषार्थ के विकास के लिए, मुक्त अवसर देता रहा। इसलिए उन का बुद्धिवाद, उन की दुःख भावना के द्वारा अनुप्राणित रहा। इसी को साहित्य में उन लोगों ने प्रधानता दी। यह भाग्य या नियति की विजय थी।
परन्तु अपने घर में सुव्यवस्थित रहनेवाले आर्यों के लिए यह आवश्यक न था, यद्यपि उन के एक दल ने संसार में सब से बड़े बुद्धिवाद और दुःख सिद्धान्त का प्रचार किया, जो विशुद्ध दार्शनिक ही रहा। साहित्य में उसे स्वीकार नहीं किया गया। हाँ, यह एक प्रकार का विद्रोह ही माना गया। भारतीय आर्यों को निराशा न थी। करुण रस था, उस में दया, सहानुभूति की कल्पना से अधिक थी रसानुभूति। उन्हों ने प्रत्येक भावना में अभेद, निर्विकार आनन्द लेने में अधिक सुख माना।
आत्मा की अनुभूति व्यक्ति और उस के चरित्र-वैचित्र्य को ले कर ही अपनी सृष्टि करती है। भारतीय दृष्टिकोण रस के लिए इन चरित्र और व्यक्ति वैचित्र्यों को रस का साधन मानता रहा, साध्य नहीं। रस में चमत्कार ले आने के लिए इन को बीच का माध्यम सा ही मानता आया। सामाजिक इतिहास में, साहित्य-सृष्टि के द्वारा, मानवीय वासनाओं को संशोधित करने वाला पश्चिम का सिद्धान्त व्यापारों में चरित्र निर्माण का पक्षपाती है। यदि मनुष्य ने कुछ भी अपने को कला के द्वारा सम्हाल पाया, तो साहित्य ने संशोधन का काम कर लिया। दया और सहानुभूति उत्पन्न कर देना ही उस का ध्येय रहा और है भी। वर्तमान साहित्यिक प्रेरणा―जिस में व्यक्ति वैचित्र्य और यथार्थवाद मुख्य हैं―मूल में संशोधनात्मक ही हैं। कहीं व्यक्ति से सहानुभूति उत्पन्न कर के समाज का संशोधन है; और कहीं समाज की दृष्टि से व्यक्ति का! किन्तु दया और सहानुभूति उत्पन्न कर के भी वह दुःख को अधिक प्रतिष्ठित करता है, निराशा को अधिक आश्रय देता है। भारतीय रसवाद में मिलन, अभेद सुख की सृष्टि मुख्य है। रस में लोकमंगल की कल्पना, प्रच्छन्न रूप से अन्तर्निहित है। सामाजिक स्थूल रूप से नहींं, किन्तु दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर। वासना से ही क्रिया सम्पन्न होती है, और क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उन महती लीलाओं से विद्रोह करता है। यह है पश्चिम की कला का गुणनफल! रसवाद में वासनात्मकतया स्थित मनोवृत्तियाँ, जिन के द्वारा चरित्र की सृष्टि होती है, साधारणीकरण के द्वारा आनन्दमय बना दी जाती हैं। इसलिए वह वासना का संशोधन न कर के उन का साधारणीकरण करता है। इस समीकरण के द्वारा जिस अभिन्नता की रसस्सृष्टि वह करता है, उस में व्यक्ति की विभिन्नता, विशिष्टता हट जाती है; और साथ ही सब तरह की भावनाओं को एक धरातल पर हम एक मानवीय वस्तु कह सकते हैं। सब प्रकार के भाव एक दूसरे के पूरक बन कर, चरित्र और वैचित्र्य के आधार पर रूपक बना कर, रस की सृष्टि करते हैं। रसवाद की यही पूर्णता है।
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