यह मानते हुए कि ज्ञान और सौन्दर्य-बोध विश्वव्यापी वस्तु हैं, इन के केन्द्र देश, काल और परिस्थितियों से तथा प्रधानतः संस्कृति के कारण भिन्न-भिन्न अस्तित्व रखते हैं। खगोलवर्ती ज्योति केन्द्रों की तरह आलोक के लिए इनका परस्पर सम्बन्ध हो सकता है। वही आलोक शुक्र की उज्ज्वलता और शनि की नीलिमा में सौन्दर्य बोध के लिए अपनी अलग-अलग सत्ता बना लेता है।
भौगोलिक परिस्थितियाँ और काल की दीर्घता तथा उसके द्वारा होने वाले सौन्दर्य-सम्बन्धी विचारों का सतत अभ्यास एक विशेष ढंग की रूचि उत्पन्न करता है, और वही रुचि सौन्दर्यअनुभूति की तुला बन जाती है, इसीसे हमारे सजातीय विचार बनते हैं और उन्हें स्निग्धता मिलती है। इसी के द्वारा हम अपने रहन-सहन, अपनी अभिव्यक्ति का सामूहिक रूप से संस्कृत रूप में प्रदर्शन कर सकते हैं। यह संस्कृति विश्ववाद की विरोधिनी नहीं; क्योंकि इस का उपयोग तो मानव-समाज में, आरम्भिक प्राणित्व-धर्म में सीमित मनोभावों को सदा प्रशस्त और विकासोन्मुख बनाने के लिए होता है। संस्कृति मन्दिर, गिरजा और मसजिद-विहीन प्रान्तों में अन्तःप्रतिष्ठित हो कर सौन्दर्य-बोध की बाह्य सत्ताओं का सृजन करती है। संस्कृति का सामूहिक चेतनता से, मानसिक शील और शिष्टाचारों से, मनोभावों से मौलिक सम्बन्ध है। धर्मों पर भी इस का चमत्कार-पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है। ईरानी खलीफाओं के ही कला और विद्या प्रेम तथा सौन्दर्यानुभूति ने―जो उनकी गौलिक संस्कृति द्वारा उनमें विद्यमान थी―मरुभूमि के एकेश्वरवाद को सौन्दर्य से सजा कर स्पेन और ईजिष्ट तक उस का प्रचार किया, जिससे वर्तमान यूरोपीय सौन्दर्य-बोध अपने को अछूता न रख सका। संस्कृति सौन्दर्य-बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है।
इस लिए साहित्य के विवेचन में भारतीय संस्कृति और तदनुकूल सौन्दर्यानुभूति की खोज अप्रासंगिक नहीं, किन्तु आवश्यक है।साहित्य में सौन्दर्य-बोध सम्बन्धी रूचि-भेद का वह उदाहरण बड़ा मनोरंजक है जिसमें जहाँगीर ने शराब पीते हुए खुसरो के उस पद्य के गाने पर कव्वाल को पिटवा दिया था, जिसका तात्पर्य एक खंडिता का अपने प्रेमी के प्रति उपालम्भ था। जहाँगीर ने उस उक्ति को प्रेमिका के प्रति समझ कर अपना क्रोध प्रकट किया था। मौलाना ने समझाया कि खुसरो भारतीय कवि हैं, भारतीय साहित्यिक रुचि के अनुसार उसने यह स्त्री का उपालम्भ पुरुष के प्रति वर्णन किया है, तब जहाँगीर का क्रोध ठंढ़ा हुआ। यह रुचिभेद सांस्कृतिक है। यहाँ पर यह विवेचन नहीं करना है कि ऐसा उपालम्भ पुरुष को स्त्री के प्रति देना चाहिए या स्त्री को पुरुष के प्रति; किन्तु यह स्पष्ट देखा जाता है कि भारतीय साहित्य में पुरुष विरह विरल है और विरहिणी का ही वर्णन अधिक है। इसका कारण है भारतीय दार्शनिक संस्कृति। पुरुष सर्वधा निर्लिप्त और स्वतन्त्र है। प्रकृति या माया उसे प्रवृत्ति या आवरण में लाने की चेष्टा करती है; इसलिए आसक्ति का आरोपण स्त्री में ही है। नैव स्त्री न पुमानेव न चैवायम् नपुंसकः मानने पर भी व्यवहार में ब्रह्म पुरुष हैं, माया स्त्रीधर्मिणी। स्त्रीत्व में प्रवृत्ति के कारण नैसर्गिक आकर्षण मान कर उसे प्रार्थिनी बनाया गया है।
यदि हम भारतीय रुचि-भेद को लक्ष्य में न रख कर साहित्य की विवेचना करने लगेंगे, तो जहाँगीर की ही तरह प्रमाद कर बैठने की आशंका है। तो भी इस प्रसंग में यह बात न भूलनी चाहिए कि भारतीय संस्कृत वाङमय में समय-चक्र के प्रत्यावर्तनों के द्वारा इस रुचि-भेद में परिवर्तनों का आभास मिलता है। ऊपर की कही हुई सम्भावना या साहित्यिक सिद्धान्त मायावाद के प्रबलता प्राप्त करने के पीछे का भी हो सकता है; क्योंकि कालिदास ने रति का करुण विप्रलम्भ वर्णन करने के साथ ही साथ अज का भी विरह वर्णन किया है और मेघदूत तो विरही यक्ष की करुण भाव व्यंजना से परिपूर्ण एक प्रसिद्ध अमर कृति है।
इस प्रकार काल-चक्र के महान् प्रत्यावर्तनों से पूर्ण भारतीय वाङमय की सुरुचि-सम्बन्धी विचिन्नताओं के निदर्शन बहुत से मिलेंगे। उन्हें बिना देखे ही अत्यन्त शीघ्रता में आजकल अमुक वस्तु अभारतीय है अथवा भारतीय संस्कृति सुरुचि के विरुद्ध है, कह देने की परिपाटी चल पड़ी है। विज्ञ समालोचक भी हिन्दी की आलोचना करते-करते 'छायावाद', 'रहस्यवाद' आदि वादों की कल्पना कर के उन्हें विजातीय, विदेशी तो प्रमाणित करते ही हैं, यहाँ तक कहते हुए लोग सुने जाते हैं कि वर्तमान हिन्दी कविता में अचेतनों में, जड़ों में, चेतनता का आरोप करना हिन्दीवालों ने अँगरेज़ी से लिया है; क्योंकि अधिकतर आलोचकों के गीत का टेक यही रहा है कि हिन्दी में जो कुछ नवीन विकास हो रहा है वह सब बाह्य वस्तु (foreign element) है। कहीं अँगरेजी में उन्होंने देखा कि 'गाड इज़ लव'। फिर क्या? कहीं भी हिन्दी में ईश्वर के प्रेम-रूप का वर्णन देख कर उन्हें अँगरेजी के अनुवाद या अनुकरण की घोषणा करनी पड़ती है। उन्हें क्या मालूम कि प्रसिद्ध वेदान्त-ग्रन्थ पंचदशी में कहा है अयमात्मा परानंदः परप्रेमास्पदं यतः वे भूल जाते हैं कि आनन्द-वर्द्धन ने हजारों वर्ष पहले लिखा है―
भावान चेतनानपि चेतनवच्चेतनानचेतनवत्,
व्यवहारयति यथेष्टं सुकविः काव्ये स्वतन्त्रतया।
ऐसे ही कुछ सिद्धान्त पिछले काल के अलंकार और रीति-ग्रन्थों के अस्पष्ट अध्ययन के द्वारा और भी बन रहे हैं। कभी यह सुना जाता है कि भारतीय साहित्य में दुःखान्त और तथ्यवादी साहित्य अत्यन्त तिरस्कृत हैं। शुद्ध आदर्शवाद का सुखान्त प्रबन्ध ही भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। तब मानो ये आलोचकगण भारतीय संस्कृति के साहित्य-संबन्धी दो आलोक–स्तम्भों, महाभारत और रामायण की ओर से अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। ये सब भावनाएँ साधारणतः हमारे विचारों की संकीर्णता से और प्रधानतः अपनी स्वरूप-विस्मृति से उत्पन्न हैं। सांस्कृतिक सुरुचि का, समय-समय पर हुए विशेष परिवर्तनों के साथ, विस्तृत और पूर्ण विवरण देना यहाँ मेरा उद्देश्य नहीं है।
हमारे यहाँ इसका वर्गीकरण भिन्न रूप से हुआ। काव्यमीमांसा से पता चलता है कि भारत के दो प्राचीन महानगरों में दो तरह की परीक्षाएं अलग-अलग थीं। काव्यकार-परीक्षा उज्जयिनी में और शास्त्रकार-परीक्षा पाटलिपुत्र में होती थी। इस तरह भारतीय ज्ञान दो प्रधान भागों में विभक्त था। काव्य की गणना विद्या में थी और कलाओं का वर्गीकरण उपविद्या में था। कलाओं का कामसूत्र में जो विवरण मिलता है उसमें संगीत ओर चित्र तथा अनेक प्रकार की ललित कलाओं के साथ-साथ काव्यसमस्या-पूरण भी एक कला है; किन्तु वह समस्यापूर्ति (क्षोकस्य समस्या पूरणम् क्रीड़ार्धम् वादाधर्म् च) कौतुक और वादविवाद के कौशल के लिए होती थी। साहित्य में वह एक साधारण श्रेणी का कौशल मात्र समझी जाती थी। कला से जो अर्थ पाश्चात्य विचारों में लिया जाता है, वैसा भारतीय दृष्टिकोण में नहीं।
ज्ञान के वर्गीकरण में पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक रुचिभेद विलक्षण है। प्रचलित शिक्षा के कारण आज हमारी चिन्तनधारा के विकास में पाश्चात्य प्रभाव ओतप्रोत है, और इसलिए हम बाध्य हो रहे हैं अपने ज्ञान-सम्बन्धी प्रतीकों को उसी दृष्टि से देखने के लिए। यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विवेचन में हम केवल निरुपाय हो कर ही प्रवृत्त नहीं होते; किन्तु विचारविनिमय के नये साधनों की उपस्थिति के कारण संसार की विचार-धारा से कोई भी अपने को अछूता नहीं रख सकता। इस सचेतनता के परिणाम में हमें अपनी सुरुचि की ओर प्रत्यावर्तन करना चाहिए। क्योंकि हमारे मौलिक ज्ञान-प्रतीक दुर्बल नहीं हैं।
हिन्दी में आलोचना कला के नाम से आरम्भ होती है। और साधारणतः हेगेल के मतानुसार मूर्त्त और अमूर्त्त विभागों के द्वारा कलाओं में लधुत्व और महत्त्व समझा जाता है। इस विभाग में सुगमता अवश्य है; किन्तु इसका ऐतिहासिक और वैज्ञानिक विवेचन होने की संभावना जैसी पाश्चात्य साहित्य में है वैसी भारतीय साहित्य में नहीं। उनके पास अरस्तू से ले कर वर्तमान काल तक की सौन्दर्यानुभूति-सम्बन्धिनी विचार-धारा का क्रमविकास और प्रतीकों के साथ-साथ उनका इतिहास तो है ही, सबसे अच्छा साधन उनकी अविच्छिन्न सांस्कृतिक एकता भी है। हमारी भाषा के साहित्य में वैसा सामञ्जस्य नहीं है। बीच-बीच में इतने आभाव था अंधकार-काल हैं कि उनमें कितनी ही विरुद्ध संस्कृतियाँ भारतीय रंगस्थल पर अवतीर्ण और लोप होती दिखाई देती हैं, जिन्होंने हमारी सौन्दर्यानुभूति के प्रतीकों को अनेक प्रकार से विकृत करने का ही उद्योग किया है।
यों तो पाश्चात्य वर्गीकरण में भी मतभेद दिखलाई पड़ता है। प्राचीन काल में ग्रीस का दार्शनिक प्लेटो कविता का संगीत के अन्तर्गत वर्णन करता है; किन्तु वर्तमान विचार-धारा मूर्त्त और अमूर्त्त कलाओं का भेद करते हुए भी कविता को अमूर्त्त संगीत कला से ऊँचा स्थान देती है। कला के इस तरह विभाग करनेवालों का कहना है कि मानव-सौन्दर्य-बोध का सत्ता का निदर्शन तारतम्य के द्वारा दो भागों में किया जा सकता है। एक स्थूल और बाह्य तथा भौतिक पदार्थ के आधार पर ग्रथित होने के कारण भिन्न कोटि की, मूर्त्त होती है। जिसका चाक्षुष् प्रत्यक्ष हो सके वह मूर्त्त है। गृह-निर्माण-विद्या, मूर्त्तिकला और चित्रकारी, ये कला के मूर्त्त विभाग हैं और क्रमशः अपनी कोटि में ही सूक्ष्म होते-होते अपना श्रेणी-विभाग करती हैं।
संगीत-कला और कविता अमूर्त्त कलाएँ हैं। संगीत-कला नादात्मक है और कविता उस से उच्च कोटि की अमूर्त्त कला है। काव्यकला को अमूर्त्त मानने में जो मनोवृत्ति दिखलाई देती है वह महत्त्व उसकी परम्परा के कारण है। यों तो साहित्य कला उन्हीं तर्कों के आधार पर मूर्त्त भी मानी जा सकती है; क्योंकि साहित्य कला अपनी वर्णमालाओं के द्वारा प्रत्यक्ष मूत्तिमती है। वर्णमात्रृका की विशद कल्पना तन्त्रशास्त्रों में बहुत विस्तृत रूप से की गई है। अ से आरंभ हो कर ह राक के ज्ञान का ही प्रतीक अहं है। ये जिवनी अनुभूतियाँ हैं, जितने ज्ञान हैं, अहं के—आत्मा के हैं। वे सब वर्णमाला के भीतर से ही प्रकट होते हैं। वर्णमालाओं के सम्बन्ध में अनेक प्राचीन देशों की आरम्भिक लिपियों से यह प्रमाणित है कि वह वास्तव में चित्र-लिपि है। तब तो यह कहना भ्रम होगा कि चित्रकला और वाङ्मय भिन्न-भिन्न वर्ग की वस्तुएँ हैं। इसलिए अन्य सूक्ष्मताओं और विशेषताओं का निदर्शन न करके केवल मूर्त्त और अमूर्त्त के भेद से साहित्यकला की महत्ता स्थापित नहीं की जा सकती।
सम्भव है कि इसी अमूर्त्त सम्बन्धिनी महत्ता से प्रेरित हो कर प्लेटो ने प्राचीन काल में कविता को संगीत के अन्तर्गत माना हो। उनकी विचार-पद्धति में कविता की आवश्यकता संगीत के लिए है। संभवतः अमूर्त्त संगीत आभ्यन्तर और मूर्त्त शरीर बाह्य इन्हीं दोनों आधारों पर कला की नींव ग्रीस के विचारकों ने रक्खी; सो भी बिलकुल भौतिक दृष्टि से—अध्यात्म का उसमें सम्पर्क नहीं। इसी लिए प्लेटो का शिष्य अरस्तू कला को अनुकरण (imitation) मानता है। लोकोत्तर आनंद की सत्ता का विचार ही नहीं किया गया। उसे तो शुद्ध दर्शन के लिए सुरक्षित रक्खा गया।
कौटिल्य की तरह लोकोपयोगी राजशास्त्र को प्रधान मानते हुए व्यक्तिगत जीवन के स्वास्थ्य के लिए प्लेटो संगीत और व्यायाम को मुल्य उपादेय विद्या की तरह ग्रहण करता है। संगीत का मन से और व्यायाम का शरीर से सीधा सम्बन्ध जोड़ कर वह लोक-यात्रा की उपयोगी वस्तुओं का संकलन करता है।
वर्तमान काल में सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से यह वर्गीकरण अपना अलग विचार विस्तार करने लगा है। इसके आविर्भावक हेगेल के मतानुसार कला के ऊपर धर्म-शास्त्र का और उससे भी ऊपर दर्शन का स्थान है। इस विचार-धारा का सिद्धान्त है कि मानव सौन्दर्य-बोध के द्वारा ईश्वर की सत्ता का अनुभव करता है। फिर धर्म-शास्त्र के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति लाभ करता है। फिर शुद्ध तर्क ज्ञान से उससे एकीभूत होता है।
यह भी विचार का एक कोटि-क्रम हो सकता है; परन्तु भारतीय विचार-धारा इस सम्बन्ध में जो अपना मत रखती है वह विलक्षण और अभूतपूर्व है। काव्य के सम्बन्ध में यहाँ की प्रारम्भिक और मौलिक मान्यता कुछ दूसरी थी। उपनिषद् में कहा है—तदेतत् सत्यम् मंत्रेषु कर्माणि कत्रयो याम्यपश्यंस्ताति त्रेतायाम् बहुधा सन्ततानि। कवि और ऋषि इस प्रकार पर्यायवाची शब्द प्राचीन काल में माने जाते थे। ऋषयो मंत्र द्रष्टारः। ऋषि लोग या मन्त्रों के कवि उन्हें देखते थे। यही देखना या दर्शन कवित्व की महत्ता थी।
इतना विराट् वाङ्मय और प्रवचनों का वर्णमाला में स्थायी रूप रखते हुए भी कविता शुद्ध अमूर्त्त नहीं कही जा सकती। मूर्त्त और अमूर्त्त के सम्बन्ध में उपनिषद् में कहा है—द्वादेव ब्राह्मणो रूपे मूर्त्त चैयामूर्त्त च मर्त्यं चामृत च—ष्टहदारण्यक (2-3)
मूर्त्त, नश्वर और अमूर्त्त, अविनश्वर दोनों ही ब्रह्मा के रूप हैं। वायु और आकाश अमूर्त्त, अविनश्वर हैं; इनसे इतर मूर्त्त और नश्वर (परिवर्तनशील) है। इस तरह मूर्त्त और अमूर्त्त का भौतिक भेद मानते हुए भी रूप दोनों में ही माना गया है। तब यह विश्वास होता है कि हमारे यहाँ रूप की साधारण परिभाषा से विलक्षण कल्पना है। क्योंकि वृहदारण्यक में लिखा है:— स आदित्य कस्मिन् प्रतिष्ठित इति चक्षुषीति कस्मिन्नु चक्षुः प्रतिष्ठितमिति रुपेस्वित्ति वक्षुषाहि रूपाणि पश्यति कस्मिन्नु कपाणि प्रतिष्ठितानीति हृदय इति हो वाच हृदयेनहिरूपाणि जानाति हृदये ह्वेव रूपाणि प्रतिष्ठितानि।
वह आदित्य आलोक-पुख आँखों में प्रतिष्ठित है। आँखों की प्रतिष्ठा रूप में है और रूप-ग्रहण का सामर्थ्य, उस की स्थिति, हृदय में है। यह निर्वचन मूर्त्त और अमूर्त्त दोनों में रूपत्व का आरोप करता है; क्योंकि चाक्षुष प्रत्यक्ष से इतर जो वायु और अन्तरिक्ष अमूर्त्त रूप हैं उनका भी रूपानुभव हृदय ही करता है। इस दृष्टि से देखने से मूर्त्त और अमूर्त्त की सौन्दर्य-बोध सम्बन्धी दो धारणाएँ अधिक महत्त्व नहीं रखतीं। सीधी बात तो यह है कि सौन्दर्य-बोध बिना रूप के हो ही नहीं सकता। सौन्दर्य की अनुभूति के साथ ही साथ हम अपने संवेदन को आकार देने के लिए, उनका प्रतीक बनाने के लिए बाध्य हैं। इसलिए अमूर्त्त सौन्दर्यबोध कहने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
ग्रीक लोगों के सौन्दर्य-बोध में जो एक क्रम-विकास दिखलाई पड़ता है उसका परिपाक संभवतः पश्चिम में इस विचार-प्रणाली पर हुआ है कि मानव-स्वभाव सौन्दर्यानुभूति के द्वारा क्रमविकास करता है और स्थूल से परिचित होते-होते सूक्ष्म की ओर जाता है। इसमें स्वर्ग और नरक का, जगत् की जटिलता से परे एक पवित्रता और महत्व की स्थापना का मानसिक उद्योग दिखलाई देता है। और इसमें ईसाई धार्मिक संस्कृति ओतप्रोत है। कलुषित और मूर्त्त संसार निम्न कोटि में, अमूर्त्त और पवित्र ईश्वर का स्वर्ग इससे परे और उच्च कोटि में।
भारतीय उपनिषदों का प्राचीन ब्रह्मवाद इस मूर्त्त विश्व को ब्रह्म से अलग निकृष्ट स्थिति में नहीं मानता। वह विश्व को ब्रह्म का स्वरूप बताता है—
ब्रह्मैवेदमृतं पुरस्ताव् ब्रह्मपश्चादक्षिणतश्चोत्तरेण।
अधश्चोर्ध्वं च प्रसूतं ब्रह्मवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्॥
आगमों में भी शिव को शक्ति विग्रही मानते हैं। और यही पक्की अद्वैत-भावना कही गई है; अर्थात्—पुरुष का शरीर प्रकृति है। कदाचित् अर्द्धनारीश्वर की संश्लिष्ट कल्पना का मूल भी यही दार्शनिक विवेचन है। संभवतः पिछले काल में मनुष्य की सत्ता को पूर्ण मानने की प्रेरणा ही भारतीय अवतारवाद की जननी है। कला के ईसाई आलोचक हेबेल ने सम्भवतः इसी लिए कहा है-
पूर्व, भारत से पश्चिम का यह मौलिक मतभेद है। यही कारण है कि पश्चिम स्वर्गीय साम्राज्य की घोषणा करते हुए भी अधिकतर भौतिक या materialistic बना हुआ है और भारत मूर्त्ति-पूजा और पञ्च-महायज्ञों के क्रियाकाण्ड में भी आध्यात्म-भाव से अनुप्राणित है।
यही कारण है कि ग्रीस द्वारा प्रचलित पश्चिमी सौन्दर्यानुभूति बाह्य को, मुर्त्त कों, विशेषता दे कर उसकी सीमा में ही उसे पूर्ण बनाने की चेष्टा करती है और भारतीय विचार-धारा ज्ञानात्मक होने के कारण मूर्त्त और अमूर्त्त का भेद हटाते हुए वाह्य और आभ्यन्तर का एकीकरण करने का प्रयत्न करती है।
ऊपर कहा का चुका है कि सौन्दर्य-बोध में पाश्चात्य विवेचकों के मतानुसार मूर्त्त और अमूर्त्त भेद सम्बन्धी कल्पना विवेचन की रीढ़ बन रही है। जब यह अमूर्त्त के साथ सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्ध ठहराती है, तो दुर्बलता में ग्रस्त होने के कारण अपने को स्पष्ट नहीं कर पाती। इसका कारण यही है कि वे सद्भावात्मक ज्ञानमय प्रतीकों को अमूर्त्त सौन्दर्य कह कर घोषित करते हैं, जो सौन्दर्य के द्वारा ही विवेचन किये जाने पर केवल प्रेय तक पहुँच पाते हैं। श्रेय, आत्मकल्याण-कल्पना अधूरी रह जाती हैं।
सत्य की उपलब्धि के लिए ज्ञान की साधना आरम्भ होती है। स्वाध्याय बुद्धि का यज्ञ है। कहा भी है—सत्यं च स्वाध्याय प्रयचने च—स्वाध्याय प्रवचन में सत्य का अन्वेषण करो। स्वाध्याय के द्वारा मानव सत् को प्राप्त होता है। हमारे सब बौद्धिक व्यापारों का सत्य की प्राप्ति के लिए सतत उद्योग होता रहता है। वह सत्य प्राकृतिक विभूतियों में, जो परिवर्तनशील होने के कारण अतृत नाम से पुकारी जाती हैं, ओत-प्रोत है। कुछ लोग कह सकते हैं कि कवि से हम सत्य की आशा न करके केवल सहृदयता ही पा सकते हैं; किन्तु सत्य केवल १+१=२ में ही नहीं सीमित है। अतृत को प्रायः बढ़ा कर देखने से सत् लघु कर दिया गया है; किन्तु सत्य विराट है। उसे सहृदयता द्वारा ही हम सर्वत्र ओत-प्रोत देख सकते हैं। उस सत्य के दो लक्षण बताये गये हैं—श्रेय और प्रेय। इसीलिए सत्य की अभिव्यक्ति हमारे वाङ्मय में दो प्रकार से मानी गई है—काव्य और शास्त्र। शास्त्र में श्रेय का आज्ञात्मक ऐहिक और आमुष्मिक विवेचन होता है और काव्य में श्रेय और प्रेय दोनों का सामजस्य होता है। शास्त्र मानव समाज में व्यवहृत सिद्धान्तों के संकलन हैं। उपयोगिता उनकी सीमा है। काव्य या साहित्य आत्मा की अनुभूतियों का नित्य नया-नया रहस्य खोलने में प्रयत्नशील है। क्योकि आत्मा को मनोमय, वाङ्मय और प्राणमय माना गया है। अयमात्मा वाङ्मयः, मनोमयः प्राणमयः (ष्टष्ठदारण्यक)। उपविज्ञात प्राण, विज्ञात वाणी और विजिज्ञास्य मन है।
इसीलिए कवित्व को आत्मा की अनुभूति कहते है। मननशक्ति और मनन से उत्पन्न हुई अथवा ग्रहण की गई निर्वचन करने की बाक्-शक्ति और इन के सामञ्जस्य को स्थिर करने वाली सजीवता अविज्ञात प्राणशक्ति ये तीनों आत्मा की मौलिक क्रियाएँ है।
मन संकल्प और विकल्पात्मक है। विकल्प विचार की परीक्षा करता है। तर्क-वितर्क कर लेने पर भी किसी संकल्पात्मक प्रेरणा के ही द्वारा जो सिद्धान्त बनता है वही शास्त्रीय व्यापार है। अनुभूतियों की परीक्षा करने के कारण और इसके द्वारा विश्लेषणात्मक होते-होते उसमें चारुत्य की, प्रेय की, कमी हो जाती है। शास्त्रसम्बन्धी ज्ञान को इसीलिए विज्ञान मान सकते हैं कि उसके मूल में परीक्षात्मक तर्को की प्ररेणा है और उनका कोटि-क्रम स्पष्ट रहता है।
काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है, जिसका सम्बन्ध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेय-मयी प्रेय रचनात्मक ज्ञान-धारा है। विश्लषरणात्मक तर्कों से और विकल्प के आरोप से मिलन न होने के कारण आत्मा की मनन क्रिया जो वाङमय रूप में अभिव्यक्त होती है वह निःसन्देह प्राणमयी और सत्य के उभय लक्षण प्रेय और श्रेय दोनों से परिपूर्ण होती है।
इसी कारण हमारे साहित्य का आरम्भ काव्यमय है। वह एक द्रष्टा कवि का सुन्दर दर्शन है। संकल्पात्मक मूल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पर्य है उसे भी समझ लेना होगा। आत्मा की मनन-शक्ति की वह असाधारण अवस्था जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है। कोई भी यह प्रश्न कर सकता है कि संकल्पात्मक मन की सब अनुभूतियाँ श्रेय और प्रेय दोनों ही से पूर्ण होती हैं, इसमें क्या प्रमाण है? किंतु इसीलिए साथ ही साथ असाधारण अवस्था का भी उल्लेख किया गया है। यह असाधारण अवस्था युगों की समष्टि अनुभूतियों में अंतर्निहित रहती है; क्योंकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान काई व्यक्तिगत सत्ता नहीं; वह एक शाश्वत चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञान-धारा है, जो व्यक्तिगत स्थानीय केन्द्रों के नष्ट हो जाने पर भी निर्विशेष रूप से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणों के समान भिन्नभिन्न संस्कृतियों के दर्पण में प्रतिफलित हो कर वह आलोक को सुन्दर और ऊर्जस्वित बनाती है।
ज्ञान की जिस मनन-धारा का विकास पिछले काल में परम्परागत तर्कों के द्वारा एक दूसरे रूप में दिखाई देता है उसे हेतु विद्या कहते हैं; किन्तु वैदिक साहित्य के स्वरूप में उषा सूक्त और नारदीय सूक्त इत्यादि तथा उपनिषदों में अधिकांश संकल्पात्मक प्रेरणाओं की अभिव्यक्ति हैं। इसीलिए कहा है—तम्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
कला को भारतीय दृष्टि में उपविद्या मानने का जो प्रसंग आता है उससे यह प्रकट होता है कि यह विज्ञान से अधिक सम्बन्ध रखती है। उसकी रेखाएँ निश्चित सिद्धान्त तक पहुँचा देती हैं। संभवतः इसीलिए काव्य-समस्या-पूरण इत्यादि भी छन्दशास्त्र और पिङ्गल के नियमों के द्वारा बनने के कारण उपविद्या कला के अन्तर्गत माना गया है। छंदशास्त्र काव्योपजीवी कला का शास्त्र है। इसलिए यह भी विज्ञान का अथवा शास्त्रीय विषय है। वास्तुनिर्माण, मूर्त्ति और चित्र शास्त्रीय दृष्टि से शिल्प कहे जाते हैं और इन सब की विशेषता भिन्न-भिन्न होने पर भी, ये सब एक ही वर्ग की वस्तु हैं।
भवन्ति शिल्पिनो लोके चतुर्धा स्व स्व कर्मभिः स्थपतिःसूवयाही च वर्धकिस्तक्षकस्तथा। (सयमतम् ५ अध्याय।) चित्र के सम्बन्ध में भी चित्राभासमिति ख्यात पूर्वैः शिल्प विशारदैः (शिल्परत्न अध्याय 36)। इस तरह वास्तुनिर्माण, मूर्त्ति और चित्र शिल्पशास्त्र के अन्तर्गत हैं।
काव्य के प्राचीन आलोचक दण्डि ने कला के सम्बन्ध में लिखा है—नृत्यगीतमभृतयः कलाकामार्थ संश्रयाः (3-162) नृत्य गीत आदि कलाएँ कामाश्रय कलाएँ हैं। और इन कलाओं की संख्या भी वे 64 बताते हैं, जैसा कि कामशास्त्र या तन्त्रों में कहा गया है। इत्थं कला चतुःषष्ठि विरोधः साधु नीयताम् (3-171)। काव्यादर्श में दण्डि ने फलाशास्त्र के माने हुए सिद्धांतों में प्रमाद न करने के लिए कहा है; अर्थात्—काव्य में यदि इन कलाओं का कोई उल्लेख हो तो उसी कला के मतानुसार। इससे प्रकट हो जाता है कि काव्य और कला भिन्न वर्ग की वस्तु हैं। नतज्ज्ञानं नतच्छिल्पम् न सा विद्या न सा कला 117 (1 अध्याय भारत नाट्य) की व्याख्या करते हुए अभिनव गुप्त कहते हैं—कला गीत वाद्यादिका। इसी से गाने बजाने वालों को अब भी कलावन्त कहते हैं।
भामह ने भी जहाँ काव्य का विषय सम्बन्धी विभाग किया है वहाँ वस्तु के चार भेद माने हैं—देव-चरित शंसि, उत्पाद्य, कलाश्रय और शास्त्राश्रय। यहाँ भामह का तात्पर्य है कि कला सम्बन्धी विषयों को ले कर भी काव्य का विस्तार होता है। काव्य का एक विषय कला भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कला का वर्गीकरण हमारे यहाँ भिन्न रूप से हुआ है।
कलाओं में संगीत को लोग उत्तम मानते हैं क्योंकि इस में आनन्दांश वा तल्लीनता की मात्रा अधिक है; किन्तु है यह शुद्ध ध्वन्यात्मक। अनुभूति का ही वाङ्मय अस्फुट रूप है। इसीलिए इसका उपयोग काव्य के वाहन रूप में किया जाता है, जो काव्य की दृष्टि से उपयोगी और आकर्षक है।
संगीत के द्वारा मनोभावों की अभिव्यक्ति केवल ध्वन्यात्मक होती है। वाणी का सम्भवतः वह आरम्भिक स्वरूप है। वाणी के चार भेद प्राचीन ऋषियों ने माने हैं। चत्वारि वापरिमिता पदानि हानि विदुर्प्राह्मण ये मनीषिणः। गुहात्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति, नुरीया वाचं मनुष्य वदन्ति (ऋग्वेद) वाणी के ये चार भेद आगे चल कर स्पष्ट किये गये, और क्रमशः इनका नाम परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी आगमशास्त्रों में मिलता है। परा, पश्यन्ती और मध्यमा गुहा निहित हैं। बैखरी वाणी मनुष्य बोलते हैं। शास्त्रों में परा वाणी को नाद रूपा शुद्ध अहं परामर्श मयी शक्ति माना है। पश्यन्ती वाच्य और वाचक के अस्फुट विभाग, चैतन्य प्रधान, द्रष्टा रूपवाली है। मध्यमा वाच्य और वाचक का विभाग होने पर भी बुद्धि प्रधान दर्शन स्वरूपा द्रष्टा और दृश्य के अन्तराल में रहती है। वैख़री स्थानकरण और प्रयत्न के बल से स्पष्ट हो कर वर्ण की उच्चारण शैली को ग्रहण करनेवाली दृश्य प्रधान होती है।
वृहदारण्यक् में कहा है—यद्किंञ्चाविज्ञातं प्राणस्य तद्रूपं प्राणीत्य-विज्ञातः प्राण एनं तद्भूत्वाऽवति। प्राण शक्ति सम्पूर्ण अज्ञान वस्तु को अधिकृत करती है। वह अविज्ञात रहस्य हैं। इसीलिए उसका नित्य नूतन रूप दिखाई पड़ता है। फिर यत्र किञ्च विज्ञातं वाचस्तद्रूपं वाग्धि विशाता वागेनं तद्भूत्वाऽवति, जो कुछ जाना जा सका वही वाणी है; वाणी उसका स्वरूप धारण कर के, उस ज्ञान की रक्षा करती है।
ज्ञान सम्बन्धी करणों का विवेचन करने में भारतीय पद्धति ने परीक्षात्मक प्रयोग किया है। स्वप्रमितिक के ज्ञान के लिए पाँच इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष हैं। उन्हीं के द्वारा संवेदन होता है, उनमें तन्मात्रा के क्रम से वाह्य पदार्थों के भी पाँच विभाग माने गये हैं। आकाशाद वायु वाले सिद्धान्त के अनुसार आकाश का गुण शब्द ही इधर ज्ञान के आरम्भ में है। जो कुछ हम अनुभव करते हैं वाणी उसका रूप है। यह वाणी का विकास वर्णों में पूर्ण होता है और वर्णों के लिए आभ्यन्तर और बाह्य दो प्रयत्न माने गये हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न उसे कहते हैं जो वर्णों की उत्पत्ति से प्राग्भावी वायु व्यापार है। और वर्णोंत्पति कालिक व्यापार को वाह्य प्रयत्न कहा जाता है। यह वाङ्मय अभिव्यक्ति, मनन की प्राणमयी क्रिया, आत्मानुभूति की प्रकट होने की चेष्टा है। इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है―ये एकोऽत्रर्णों बहुधा शक्तियोगात वर्णाननेक्ताभिहितार्थों दधाति विचैति चान्ते विश्यम्पादौ स देवः स नो बुढ्या शुभया संयुनक्तु। भावों को व्यक्त करने का मौलिक साधन वाणी है। इसलिए वही प्रकृत है।
आर्य-साहित्य में उन वर्णों के संगठन के तीन रूप माने गये हैं— ऋक्=पद्यात्मक, यजु=गद्यात्मक और साम=संगीतात्मक। वैदिकाश्च द्विविधाः प्रगीता अप्रगीताश्वं। तत्र प्रगीताः सामानि, अगरीताश्च विविधाः छन्दोवद्धस्तद्विलक्षणाश्च। तत्र प्रथमाऋचः द्वितीया यजूषि। (सर्वदर्शन संग्रह) यही आर्य-वाणी की आरम्भिक उच्चारण शैली है, जो दूसरों के आस्वाद के लिए श्रब्य कही जाती है।
काव्य को इन आरम्भिक तीन भागों में विभक्त कर लेने पर उसकी आध्यात्मिक या मौलिक सत्ता का हम स्पष्ट आभास पा जाते हैं, और यही वाणी―जैसा कि हम ऊपर कहू आये हैं―आत्मानुभूति की मौलिक अभिव्यक्ति है।
वाणी के द्वारा अनुभूतियों को व्यक्त करने के बाद एक अन्य प्रकार का भी प्रयत्न आरम्भ होता है। दूर रहनेवाले, चाहे यह देशकाल के कारण से ही हो, केवल व्यष्टि का आश्रय लेनेवाली उच्चारणात्मक वाणी का आनन्द नहीं ले सकते। इसलिए वह व्यक्ति द्वारा प्रकट हुई आत्मानुभूति सामूहिक या समष्टि भाव से विस्तार करने का प्रयत्न करती है। और तब चित्र, लिपि, लक्षण इत्यादि सम्बन्धी अपनी बाह्य सत्ता को बनाती है।
ऊपर कहा जा चुका है कि कला को भारतीय दृष्टि में उपविद्या माना गया है। आगमों के अनुशीलन से, कला को अन्य रूप से भी बताया जा सकता है। शैवागमों में 36 तत्व माने गये हैं, उनमें कला भी एक तत्व है। ईश्वर की कर्तृत्व, सर्वज्ञत्व, पूर्णत्व, नित्यत्व और व्यापकत्व शक्ति के स्वरूप कला, विद्या, राग, नियति और काल माने जाते हैं। शक्ति संकोच के कारण जो इन्द्रिय-द्वार से शक्ति का प्रसार एवं आकुंचन होता है, इन व्यापक शक्तियों का वही संकुचित रूप बोध के लिए है। कला संकुचित कर्तृत्व शक्ति कही जाती है। भोजराज ने भी अपने तत्व-प्रकाश में कहा है—व्यञ्जयति कर्तुशक्ति कलेति तेनेह कथिता सा।
शिव-सूत्र-विमर्शिनी में क्षेमराज ने कला के सम्बन्ध में अपना विचार यों व्यक्त किया है―
कलयति स्व स्वरुपा वेशेन तत्तद् वस्तू परिच्छिनत्ति इति कला व्यापारः। इस पर टिप्पणी है :―
कलयति, स्वरूपं आवेशयति, वस्तुनि वा तत्र-तत्र प्रभातरि कलनमेव कला अर्थात्―नव-नव स्वरूप प्रथोल्लेख शालिनी संवित् वस्तुओं में या प्रमाता में स्व को, आत्मा को परिमित रूप में प्रकट करती है, इसी क्रम का नाम कला है।
स्व को कलन करने का उपयोग, आत्म-अनुभूति की व्यंजन में प्रतिभा के द्वारा तीन प्रकार से किया जाता है—अनुकूल, प्रतिकूल और अद्भुत। ये तीन प्रकार के प्रतीक विधान काव्यजगत् में दिखाई पड़ते हैं। अनुकूल, अर्थात् ऐसा हो। यह आत्मा के विज्ञात अंश का गुणनफल है। प्रतिकूल, अर्थात् ऐसा नहीं। यह आत्मा के अविज्ञात अंश की सत्ता का ज्ञान न होने के कारण हृदय के समीप नहीं। अद्भुत―आत्मा का विजिज्ञास्य रूप, जिसे हम पूरी तरह समझ नहीं सके हैं, कि वह अनुकूल है या प्रतिकूल। इन तीन प्रकार के प्रतीक विधानों में आदर्शवाद, यथातथ्यवाद और व्यक्तिवाद इत्यादि साहित्यिक वादों के मूल सन्निहित हैं जिसकी विस्तृत आलोचना की यहाँ आवश्यकता नहीं। कला को तो शास्त्रों में उपविद्या माना है। फिर उस का साहित्य में या आत्मानुभूति में कैसा विशेष अस्तित्व है, इस प्रश्न पर विचार करने के समय यह बात ध्यान में रखनी होगी कि कला की आत्मानुभूति के साथ विशिष्ट भिन्न सत्ती नहीं, अनुभूति के लिए शब्द विन्यास कौशल तथा छन्द आदि भी अत्यन्त आवश्यक नहीं।
व्यंजना वस्तुतः अनुभूतिमयी प्रतिभा का स्वयं परिणाम है। क्योंकि सुन्दर अनुभूति का विकास सौन्दर्यपूर्ण होगा ही। कवि की अनुभूति को उसके परिणाम में हम अभिव्यक्त देखते हैं। उस अनुभूति और अभिव्यक्ति के अन्तरालवर्ती सम्बन्ध को जोड़ने के लिए हम चाहें तो कला का नाम ले सकते हैं, और कला के प्रति अधिक पक्षपातपूर्ण विचार करने पर यह कोई कह सकता हैं कि अलंकार, वक्रोक्ति और रीति और कथानक इत्यादि में कला की सत्ता मान लेनी चाहिए; किन्तु मेरा मत है कि यह सब समय- समय की मान्यता और धारणाएँ हैं। प्रतिभा का किसी कौशल विशेष पर कभी अधिक झुकाव हुआ होगा। इसी अभिव्यक्ति के बाह्य रूप की कला के नाम से काव्य में पकड़ रखने की साहित्य में प्रथा सी चल पड़ी है।
हाँ, फिर एक प्रश्न स्वयं खड़ा होता है कि काव्य में शुद्ध आत्मानुभूति की प्रधानता है या कौशलमय आकारों या प्रयोगों की?
काव्य में जो आत्मा की मौलिक अनुभूति की प्रेरणा है वहीं सौन्दर्यमयी ओर संकल्पात्मक होने के कारण अपनी श्रेयस्थिति में रमणीय आकार में प्रकट होती है। वह आकार वर्णात्मक रचना विन्यास में कौशलपूर्ण होने के कारण प्रेय भी होता है। रूप के आवरण में जो वस्तु सन्निहित हैं वही तो प्रधान होगी। इसका एक उदाहरण दिया जा सकता है। कहा जाता है कि वात्सल्य की अभिव्यक्ति में तुलसीदास सूरदास से पिछड़ गये हैं। तो क्या यह मान लेना पड़ेगा कि तुलसीदास के पास वह कौशल या शब्द-विन्यास पटुता नहीं थी, जिस के अभाव के कारण ही वे वात्सल्य की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं कर सके?
किन्तु यह बात तो नहीं है। सोलह मात्रा के छंद में अन्तर्भावों को प्रकट करने की जो विदग्धता उन्होंने दिखाई है वह कविता संसार में विरल है। फिर क्या कारण है कि रामचन्द्र के वात्सल्य-रस की अभिव्यंजना उतनी प्रभावशालिनी नहीं हुई, जितनी सूरदास के श्याम की? मैं तो कहूँगा कि यह प्रमाण है आत्मानुभूति की प्रधानता का। सूरदास के वात्सल्य में संकल्पात्मक मौलिक अनुभूति की तीव्रता है, उस विषय की प्रधानता के कारण। श्रीकृष्ण की महाभारत के युद्ध काल की प्रेरणा सूरदास के हृदय के उतने समीप न थी, जितनी शिशु गोपाल की वृन्दावन की लीलाएँ। राम चन्द्र के वात्सल्य-रस का उपयोग प्रबन्ध काव्य में तुलसीदास को करना था, उस कथानक की क्रम-परम्परा बनाने के लिए। तुलसी दास के हृदय में वास्तविक अनुभूति तो रामचन्द्र की भक्त-रक्षण-समर्थ दयालुता है, न्याय-पूर्ण ईश्वरता है, जीव की शुद्धावस्था में पाप-पुण्य निलिप्त कृष्णचन्द्र की शिशु मूर्त्ति का शुद्धाद्वैतवाद नहीं।
दोनों कवियों के शब्द-विन्यास कौशल पर विचार करने से यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि जहाँ आत्मानुभूति की प्रधानता है वहीं अभिव्यक्ति अपने क्षेत्र में पूर्ण हो सकी है। वही कौशल या विशिष्ट पद रचना युक्त काव्य शरीर सुन्दर हो सका है।
इसी लिए, अभिव्यक्ति सहृदयों के लिए अपनी वैसी व्यापक सत्ता नहीं रखती, जितनी की अनुभूति। श्रोता, पाठक और दर्शकों के हृदय में कविकृत मानसी प्रतिमा की जो अनुभूति होती है उसे सहृदयों मेंं अभिव्यक्ति नहीं कह सकते। वह भाव साम्य का कारण होने से लौट कर अपने कवि की अनुभूति वाली मौलिक वस्तु की सहानुभूति मात्र ही रह जाती है। इसलिए व्यापकता आत्मा की संकल्पात्मक मूल अनुभूति की है।
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