संडः : कः कोत्रा भो? (आप यहाँ कौन?)
भंडः : अहमस्सि भंडाचार्यः। (मैं हूँ भण्डाचार्य।)
सं : कुतो भवान्? (कहाँ से आ रहे हैं?)
भं : अहं अनादियवनसमाधित उत्थितः। (मैं अनादि कब्रिस्तान से उठा हूँ)
सं : विशेषः। (विशेषता क्या है?)
भं : क अभिप्रायः। (क्या मतलब?)
भं : तर्हि तु भवान् बसंत एव। (तब तो आप बसंत ही हैं।)
भं : अत्रा कः संदेहः केवलं बसंतौ, वसंतनन्दनः। (इसमें सन्देह क्या? खालिस बसंत हूँ; बसंतनन्दन हूँ।)
सं : मधुनन्दोवा माधवनंदनो वा? (चैत्रानंदन या वैशाखनंदन?)
भं : आः! किमामाक्षिपसि! नाहं मधोः कैटभाग्रजस्य नंदनः। अहं तु हिंदू पदवाक्य अतएव माधवनन्दनः। (ओह! आक्षेप क्यों करता है? मैं मधुकैटभ के बड़े भाई का बेटा नहीं हूँ। मैं हिंदू नामधारी हूँ अतः माधवनंदन हूँ।)
सं : तहिंतु सुस्वागतं ते। आगच्छ। माधवनंदन। (तब आपका स्वागत है। आइए माधवनंदन जी!)
भं : हंत, प्रणामं करोमि। (हा हंत। प्रणाम करता हूं।)
सं : आस्यतां स्थीचतांच। (आइए, विराजिए!)
भं : हं हं हं हं, भवानेव तिप्ठतु। (हः हः हः हः आप भी बैठिए।)
सं : नायं कालो व्यर्थशिष्टाचारस्य, तत् स्थीयतां, इदमासनं (यह व्यर्थ शिष्टाचार का समय नहीं है अतः बैठिए। यह आसन है।)
भं : इदमासनमास्ये। (मैं इस आसन पर बैठता हूं।)
(उभावुपनिशतः)
(दोनों बैठते हैं।)
सं : किमर्थं निर्गतोसि? (किसलिए निकले हैं?)
भं : कुतः जननीजठरकुहर पिटरात् गृहाद्वा। (कहाँ से? घर से या माता की गर्भ गठरी से?)
सं : पूर्वतस्तु निर्गत एव विभासि, परतः पृच्छामि। (गर्भ गठरी से ही निकले जान पड़ते हो; पहला प्रश्न फिर पूछता हूं किसलिए निकले हो!)
भं : होलिका रमणार्थ। (होली खेलने के लिए।)
सं : हहा! अस्मिन् घोरतरसमयेपि भवादृशा होलिका रमणमनुमोदयंति न जानासिं नायं समयो होलिकारमणस्य? भारतवर्षधने विदेशगते, क्षुत् चामपीडितेच जनपदे, कि होलिकारमणेन? (वाह! ऐसे कठिन समय भी आप जैसे लोग होली खेलने का समर्थन करते हैं, यह नहीं जानते कि यह समय होली खेलने का नहीं। भारतवर्ष का धन विदेश जाने से जनता भूख प्यास से पीड़ित है। यह क्या होली खेलने का समय है?)
भं : अस्मादृशां गृहे सर्वदैव होलिका, नाहं लोकरोदनं श्रृणोमि। लोकास्तु सर्वदैव रोदनशीलाः। (हम जैसा के घर सदा होली है। मैं लोगों का रोना नहीं सुनता। लोग तो हमेशा रोते ही रहते हैं।)
सं : तहिं भवान् ढुंढावंशजातः? (तो आप ढुंढा के वंश में उत्पन्न हुए हैं?)
भं. : नाहं ढुंढिराजः। (मैं ढुंढिराज नहीं हूं।)
सं. : नहि भो, मया उच्यते तर्हितु भवान् ढुंढावंसजातः? (नहीं जी, मैने तो यह पूछा कि क्या आप ढुंढा के कुल में पैदा हुए हैं?)
भं : नाहं जयपुरी। (मैं जयपुरी नहीं हूं।)
सं : कः कथयति भगवान् जयपुरी, दिल्लीपरुी, गोरक्षपुरी, गिरीर्भारतीति? (कौन कहता है कि आप जयपुरी, दिल्लीपुरी, गोरखपुरी, गिरि, भारती हैं?)
भं : तहिं न सुद्धो मया ढुंढाशब्दार्थः। (तब तो मैने ढुंढा शब्द का अर्थ नहीं समझा।)
सं : ढुंढानाम्न्या राक्षस्या एव होलिकापर्वं। (ढूंढा नाम की राक्षसी का ही यह होलिका पर्व है।)
भं : आः! पुनरपि मासाक्षिपसि राक्षसवंशकलंकेन! मधूनंदनः मेबोक्तं नाहं मधुवंशीय, माधवनंदनोहं। (ओह, फिर राक्षस वंश का कलंक लगाकर मुझ पर आरोप करता है। मैंन मधुनंदन कहा; मैं मधुवंशी नहीं हूं, माधवनंदन हूं।)
सं : भवतु, केन साकं रंस्यसे होलिकाक्रीड़ः। (अच्छा, किसके साथ होली खेलेंगे?)
भं : यो मिलिष्यति-उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकं। (जो भी मिल जायेगा, विश्व परिवार है उदार वृत्त वालों का।)
सं : कया सामग्रया भवान् रिरंसुः? (किस चीज से आप होली खेलेंगे?)
भं : धवलधूलिरक्तपौडरश्यामपंकपीतागरूजादिव्यैः। अंतरंच गुलालश्च चोवा चंदनमेव च। अबीरः पिचकारी चेति वाक्यात्। (सफेद धूल, लाल पाउडर, काले कीचड़, पीले अगुरू आदि चीजों से और चोवा चंदन से भी। अबीर पिचकारी आदि वाक्यों से।)
सं : अधुना, भारते तादृक् कीर्तिकार्तारो न संति, धवलधूलिः कुत आगमिष्यति? (आजकल भारत में वैसे कीर्तिशाली नहीं रह गये हैं, सफेद धूल कहां से आयेगी?)
भं : न ज्ञात भवता? चुंगीरचित राज मार्गतः। (आपकी मालूम नहीं? चुंगी रचित शाही सड़क से।)
सं : भवतु राजमार्गतो, देवमार्गतो वा, किन्तु धवलधूलिः कुतस्तत्रा निरंतरसेककर्मप्राचुर्यात्? (शाही सड़क हो या देवताओं की सड़क परंतु बराबर बहुत छिड़काव होने से वहां धूल कहां?)
भं : आः। यथार्थनामन्। नास्ति धूल्यभावः? भारतेतु प्रायः सर्वेषामेव धूर्तनेत्रौ प्रक्षेपिता धूलिर्मिलिष्यति। (हे अन्वर्थनाम। धूल की कमी नहीं है। भारत में प्रायः सभी की आंखों में धूर्तों द्वारा झोंकी गयी धूल मिलेगी।)
सं : तहिं रक्तपौडरंकुतः मेडिकलहालात्? (तब लाल पाउडर कहां से आयेगा? क्या मेडिकल हाल से?)
भं : न बुद्धं भो भवता, रक्त पौडरं ना अबीरः, रक्तंच तत् पौडरंचेति समासः। (आप नहीं जानते, लाल पाउडर का नाम अबीर है। लाल है जो पाउडर यह समास हुआ।)
सं : रक्तं, पौडरं चेति किं वस्तुद्वयं? (लाल और पाउडर क्या दो वस्तुएँ हैं?)
भं : हा! कीदृशो भवानल्पः! नहि नहि, भो अन्यवर्णाविच्छेदक रक्त वर्णावच्छिन्नः पौडर, नाम विशिष्टजातिबोधकः स्वाभाविकधर्मवान् तत्वरूपश्चूर्णविशेषः। (आप भी कितने घोंघा हैं। नहीं नहीं, दूसरे रंगों को पृथक् करने वाले लाल रंग से युक्त एक विशिष्ट वस्तु का बोधक सहज गुण वाले चूर्ण का नाम पाउडर है।)
सं : हंहो बुद्धं भवान् वैयाकरण नैय्यायिकश्च। (हां, अब समझा। आप वैयाकरण भी हैं और नैयायिक भी)।
भं : सत्यमेव, यत्र शाद्धिकास्तत्रातार्किका इति हि प्रसिद्धः (सच है, यह तो प्रसिद्ध ही है कि जहां शब्द शास्त्री वहां तर्क शास्त्री!)
सं : भवतु रक्तपौडरं कुत आनेष्यसि, आर्याणां शिरसि तदभावत्? (अच्छा लाल पाउडर लाइयेगा कहां से? आर्यों के सिर पर तो रह नहीं गया है)
भं : हहहह, रक्त रजसोपि दारिद्यं मम नारीभंडस्य! विशेषतः कुसुमाकरे ऋतौ? (आहा, मेरे नारीभंड के लिये रक्त रज का भी अभाव है, खासकर बसंत ऋतु में।)
सं : ज्ञातं परंतु श्यामपंक किं जयचंद्रादारभ्य आर्यकुलानर्थविग्रहमूलजन- कानोमुखात्, भारत ललनाया अश्रुपुर्णान्नेत्राद्वा? (समझा, परंतु क्या जयचंद से शुरू कर आर्य वंश के लिये अनर्थ और विग्रह की जड़ के जन्मदाताओं के मुंह से या नारियों के आंसू भरे नेत्रों से काला कीचड़ लाइयेगा।)
भं : नहिं, गंधविक्रेतुर्हट्टपण्यात्। (नहीं, इत्राफरोशों के बाजार से)
सं : अगरुजंकुत, आर्याणां मुख कांति समूहात्? (अगुरु कहाँ से लाइयेगा? क्या आर्यों के मुख की कान्ति से?)
भं : पांचलात्काश्मीरात्। अस्माकं तु सर्वत्रौव गतिः, यतः कुतश्चिद् गृहीत्वा क्रीडिष्यामि। (पंजाब से काश्मीर से! हम लोगों की गति सभी जगह है अतः कहीं से भी लाकर खेलूंगा।)
सं : क्रीड निश्ंचितो भवान्, कुत्रास्माकं देशचिंतातुराणां क्रीडाभिरुचिः? (आप बेफिक्र खेलिये, हम जैसे देश की चिन्ता से ग्रस्त लोगों को खेल का क्या शौक?)
भं : भवंतस्तु व्यर्थ देशचिंतातुराः भवचंचितया किं भविष्यति? (आप व्यर्थ ही देश की चिंता से व्याकुल हैं, आपके चिंता करने से क्या होगा?)
सुखं क्रीड़ रमस्व, खेल कूदखेलम् याति, पुनः क्व युवतयः, रोदनेन न किमपि भविता (सुख से खेलिए कूदिए। फिर यौवन कहाँ? रोने से क्या होता है।) भारतंतु होलिकाया मेव गंता। अत्रातु जमघंटोधूलिखेल एवावशिष्यति तन्मारय अनंतांगलराज-धानीशिखरोपरि पोलिटिकल चिंता समूहं। (भारत ही होली झोंक जायेगा। यहाँ तो यमघंट छलका खेल ही बच रहेगा या चिंता रह जायेगी भारत में अगणित अंग्रेजों की राजधानी की चोटी पर बैठे हुए राजनीतिज्ञों के पास।)
सं : मित्र, परमयमुत्साहः किंमलः इति जानासि वा त्वं? (मित्र, उत्साह तो तुम्हारा खूब है परंतु क्या इसका कारण भी जानते हो।)
भं : नहि, लोके तु शिष्टाचार एवं सर्वकर्मप्रधानो मन्यते, अतः सएव मूलं भविता अथवा पश्यचाधुनिकं विद्यार्थिनं। (नहीं, दुनिया के सभी कामों में शिष्टाचार ही प्रधान माना जाता है अतः वही कारण होगा या देख लो आजकल के विद्यार्थियों को।)
सं : भवतु तथैव करोमि। (अच्छा, ऐसा ही करूंगा।)
No comments:
Post a Comment