Sunday, August 14, 2022

कहानी | सवा सेर गेहुँ | मुंशी प्रेमचंद Kahani | Sawa Ser Gehu | Munshi Premchand


 
किसी गाँव में शंकर नाम का एक किसान रहता था। सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम से काम, न किसी के लेने में न देने में। छक्‍का-पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिंता न थी, ठग-विद्या न जानता था। भोजन मिला खा लिया, न मिला चबेने पर काट दी, चबेना भी न मिला तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा। विशेषकर जब साधु-महात्‍मा पदार्पण करते थे तो उसे अनिवार्यत: सांसारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था पर साधु को कैसे भूखा सुलाता? भगवान के भक्‍त ठहरे।
 
एक दिन संध्‍या समय एक महात्‍मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्‍वी मूर्ति थी, पीतांबर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखो पर। संपूर्ण वेश उन महात्‍माओं का-सा था, जो रईसों के प्रासादों में तपस्‍या, हवागाड़ियों पर देवस्‍‍थानों की परिक्रमा और योगसिद्धि प्राप्‍त करने के लिए रूचिकर भोजन करते हैं। घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे, खिलाता! प्राचीनकाल में जौ का चाहे जो कुछ महत्त्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरूषों के लिए दुष्‍पाच्‍य होता है। बड़ी चिंता हुई, महात्‍मा जी को क्‍या खिलाऊँ। आखिर निश्चिय किया कि कहीं से गेहूँ का आटा उधार लाऊँ, पर गाँव-भर में गेहूँ का आटा न मिला। गाँव में सब मनुष्‍य थे, देवता एक भी न था, अत: देवताओं का पदार्थ कैसे मिलता? सौभाग्‍य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोडे़ से गेहूँ मिल गए। उसने सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्‍त्री से कहा कि पीस दे। महात्‍मा जी ने भोजन किया, लंबी तानकर सोये। प्रात:काल आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।
  
विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी किया करते थे। शंकर ने दिल में कहा, सवा सेर गेहूँ इन्हें क्‍या लौटाऊँ, पसेरी के बदले कुछ ज्‍यादा खलिहानी दे दूँगा, यह भी समझ जाएँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्र जी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को ऊऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की। विप्र जी ने फिर कभी न माँगा। सरल शंकर को क्‍या मालूम कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए उसे दूसरा जन्‍म लेना पड़ेगा। 
   
सात साल गुजर गए। विप्र जी विप्र से महाजन हुए, शंकर किसान से मजूर हो गया। उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गए थे। शंकर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाए, किंतु परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया। जिस दिन अलग-अलग चूल्‍हे जले, वह फूट-फूटकर रोया। आज से भाई-भाई शत्रु हो जाएँगे, एक रोएगा तो दूसरा हँसेगा, एक के घर मातम होगा तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे। प्रेम का बंधन, खून का बंधन, दूध का बंधन आज टूटा जाता है। उसने भगीरथ परिश्रम से कुलमर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्‍त से सींचा था, उसको जड़ से उखड़ता देखकर उसके हृदय के टुकड़े हो जाते थे। सात दिनों तक उसने दाने की सूरत नहीं देखी। दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मुँह लपेटकर सो रहता। इस भीषण वेदना और दुस्‍सह कष्‍ट ने रक्‍त को जला दिया, मांस और मज्‍जा को घुला दिया। बीमार पड़ा तो महीनों तक खाट से न उठा। अब गुजर-बसर कैसे हो? पाँच बीघे के आधे खेत रह गए, एक बैल रह गया, खेती क्‍या खाक होती। अंत को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा-रक्षा का साधनमात्र रह गई। जीविका का भार मजूरी पर आ पड़ा। 
    
सात वर्ष बीत गए, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा तो राह में विप्र जी ने टोककर कहा, शंकर, कल आके अपने बीज बेंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कब से बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्‍या?
   
 शंकर ने चकित होकर कहा—मैंने तुमसे कब गेहूँ लिए थे, जो साढ़े पाँच मन हो गए? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का न छटांक-भर अनाज है, न एक पैसा उधार।
   
विप्र–इसी नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।
   
यह कहकर विप्र ने उस सवा सेर का जिक्र किया, जो आज से सात वर्ष पहले शंकर को दिया था। शंकर सुनकर अवाक् रह गया। ईश्‍वर! मैंने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्‍होंने मेरा कौन-सा काम किया? जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ न कुछ ‘दक्षिणा’ ले ही जाते थे। इतना स्‍वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जाएगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मैं गेहूँ तौलकर दे देता, क्‍या इसी नीयत से चुप बैठे रहे। बोला—महाराज, नाम लेकर तो मैंने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानी में सेर-सेर, दो-दो सेर दिया है। अब आप साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मैं कहाँ से दूँगा। 
    
 विप्र-लेखा जौ-जौ, बखसी सौ-सौ! तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं। चाहे एक की जगह चार पसेरी दे दो। तुम्‍हारे नाम वही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है, जिससे चाहो हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्‍हारा नाम छेंक दूँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा। 
    
शंकर–पांडे, क्यों गरीब को सताते हो? मेरे खाने का ठिकाना नहीं, इतना गेहूँ किसके घर से लाऊँगा? 
    
विप्र–जिसके घर से चाहें लाओ, मैं छटांक-भर न छोडूँगा, यहाँ न दोगे, भगवान के घर दोगे।
    
शंकर काँप उठा। पढ़े-लिखे आदमी होते तो कह देते, अच्‍छी बात है, ईश्‍वर के घर ही देंगे। वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी। कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्‍या चिंता। शंकर इतना तार्किक, इतना व्‍यवहार-चतुर न था। एक तो ऋण भी ब्राह्मण का, बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल से उसे रोमांच हो आया। बोला, ‘महाराज, तुम्‍हारा जितना होगा यहीं दूँगा, ईश्‍वर के यहाँ क्‍यों दें, इस जनम में तो ठोकर खा ही रहा हूँ, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ। मगर यह कोई नियाब नहीं है। तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता? मैं तो दूँगा, लेकिन तुम्हें भगवान के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।’ 
     
विप्र–वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यों होने लगा। वहाँ तो सब अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि तो ब्राह्मण ही हैं। जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सभाँल लेंगे। तो कब देते हो? 
    
 शंकर–मेरे पास रखा तो है नहीं। किसी से माँग-जाँचकर लाऊँगा तभी न दूँगा।
    
 विप्र–मैं यह न मानूँगा। सात साल हो गए, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा। गेहूँ नहीं दे सकते, दस्‍तावेज लिख दो। 
     
शंकर–मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो, चाहे दस्‍तावेज लिखाओ। किस हिसाब से दाम रखोगे?
      
विप्र–बाजार भाव पाँच सेर का है, तुम्‍हें सवा पाँच सेर का काट दूँगा। 
      
शंकर–जब दे ही रहा हूँ तो बाजार भाव काटूँगा, पाव भर छुड़ाकर क्‍यों दोषी बनूँ?
      
हिसाब लगाया तो गेहूँ का दाम साठ रूपए हुए। साठ रूपए का दस्‍तावेज लिखा गया, तीन रूपया सैकड़े सूद। साल-भर में न देने पर सूद का दर साढ़े तीन रूपए सैकड़े, बारह आने का स्‍टाम्‍प, एक रूपया दस्‍तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पड़ी।
      
गाँवभर ने विप्र जी की निंदा की, लेकिन मुँह पर नहीं। महाजन से सभी का काम पड़ता है, उसके मुँह कौन आए।
      
शंकर ने साल-भर कठिन तपस्‍या की। मियाद के पहले रूपया अदा करने का उसने व्रत-सा कर लिया। दोपहर को पहले भी चूल्‍हा न जलता था, चबेने पर बसर होती थी, अब वह भी बंद हुआ। केवल लड़के के लिए रात को रोटियाँ रख दी जातीं। पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था। यही एक व्‍यसन था, जिसका वह कभी त्‍याग न कर सका था। अब वह व्‍यसन भी इस कठिन व्रत के भेंट हो गया। उसने चिलम पटक दी, हुक्‍का तोड़ दिया और तंबाखू की हाँडी चूर-चूर कर डाली। कपड़े पहले ही त्‍याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्‍यूनतम रेखाओं में आबद्ध हो गए। उसने समझा, पंडित जी को इतने रूपए दूँगा और कहूँगा, महाराज, बाकी रूपए भी जल्‍दी ही आपके सामने हाजिर करूँगा। पंद्रह रूपए की तो और बात है, क्‍या पंडित जी इतना भी न मानेंगे? उसने रूपए लिए और ले जाकर पंडित जी के चरण कमलों पर अर्पण कर दिए। पंडित जी ने विस्मित होकर पूछा–किसी से उधार लिए क्‍या? 
         
शंकर—न‍हीं महाराज, आपके असीस से अबकी मजूरी अच्‍छी मिली। 
         
विप्र—लेकिन यह तो साठ रूपए ही हैं। 
         
शंकर—हाँ महाराज, इतने अभी लीजिए, बाकी दो-तीन महीने में दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए। 
         
विप्र—उरिन तो तभी होंगे जब मेरी कौड़ी-कौड़ी चुका दोगे। जाकर मेरे पंद्रह रूपए और लाओ। 
         
शंकर—महाराज, इतनी दया करो, अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी-न-कभी दे ही दूँगा।
        
 विप्र—मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करना जानता हूँ। अगर पूरे रूपए न मिलेंगे तो आज से साढ़े तीन रूपए सैकड़े का ब्‍याज लगेगा। अपने रूपए चाहे अपने घर में ही रखो, चाहे मेरे यहाँ छोड़ जाओ। 
        
शंकर—अच्छा, जितना लाया हूँ उतना रख लीजिए। जाता हूँ, कहीं से पंद्रह रूपये और लाने की फिक्र करता हूँ।
        
शंकर ने सारा गाँव छान मारा, मगर किसी ने रूपए न दिए, इसलिए नहीं कि उसका विश्‍वास न था, या किसी के पास रूपया न था, बल्कि इसलिए कि पंडित जी के शिकार को छेड़ने की किसी में हिम्‍मत न थी। 
      
 क्रिया के पश्‍चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल-भर तक तपस्‍या करने पर जब ऋण से मुक्‍त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया उसने समझ लिया कि जब इतना कष्‍ट सहने पर भी साल-भर में साठ रूपए से अधिक जमा न कर सका तो अब और कौन-सा उपाय है, जिसके द्वारा उससे दूने रूपय जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ लादना है तो क्‍या मन और क्‍या सवा मन का। उसका उत्‍साह क्षीण हो गया, मेहनत से घृणा हो गई। आशा उत्‍साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें, जिनको उसने साल-भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होने वाली भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होने वाली पिशाचिनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिए बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकतियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट‌्ठा मिलता तो वह रूपए जमा न करता। कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्‍तु। जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्‍का भी लगा। उसे अब रूपए अदा करने की कोई चिंता न थी मानो उसके ऊपर किसी का एक पैसा नहीं आता। पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्‍य जाता था। अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता। इस भाँति तीन वर्ष निकल गए। विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचू‍क निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार चौंकाना उनकी नीति के विरूद्ध था।
      
 एक दिन पंडित जी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। साठ रूपए जो जमा थे वह मिनहा करने पर भी शंकर के जिम्‍मे एक सौ बीस रूपए निकले।
       
 शंकर—इतने रूपए तो उसी जन्‍म में दूँगा, इस जन्‍म में नहीं हो सकते।
        
विप्र—मैं इसी जन्‍म में लूँगा। मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा। 
       
 शंकर—एक बैल है, वह ले लीजिए; एक झोंपड़ी है, वह ले लीजिए और मेरे पास क्‍या रखा है? 
       
विप्र—मुझे बैल-बछिया लेकर क्‍या करना है। मुझे देने को तुम्‍हारे पास बहुत कुछ है।
      
 शंकर—और क्‍या महाराज?
        
विप्र—कुछ नहीं है, तुम तो हो। आ‍खिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल दे देना। सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते, जब तक मेरे रूपए नहीं चुका दो। तुम्‍हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतवार पर छोड़ दूँ। कौन इसका जिम्‍मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे? और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे स‍कते, तो मूल की कौन कहे?
       
शंकर—महाराज, सूद में तो काम करूँगा और खाऊँगा क्‍या?
        
विप्र—तुम्‍हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्‍या वे हाथ-पाँव कटा बैठेंगें? रहा मैं, तुम्‍हें आधा सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया करूँगा और क्‍या चाहिए? यह सच है कि और लोग तुम्हें छ: आने रोज देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्‍हें अपने रूपए भरने के लिए रखता हूँ।
      
 शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिंता में पड़े रहने के बाद कहा—महाराज, यह तो जन्‍म-भर की गुलामी हुई। 
       
विप्र— गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो। मैं अपने रूपए भराए बिना तुमको कभी न छोडूँगा। तुम भागोगे तो तुम्‍हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा, तब की दूसरी बात है।
       
इस निर्णय की कहीं अपील न थी। मजूर की जमानत कौन करता? कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता? दूसरे दिन उसने विप्र जी के यहाँ काम करना शुरू कर लिया। सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि यह मेरे पूर्व जन्‍म का संस्‍कार है। स्‍त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किए थे, बच्‍चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति आजीवन उसके सिर से न उतरे।
       
 शंकर ने विप्र जी के यहाँ बीस वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्‍सार संसार से प्रस्‍थान किया। एक सौ बीस रूपए अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडित जी ने उस गरीब को ईश्‍वर के दरबार में कष्‍ट देना उचित न समझा, इतने अन्‍यायी नहीं, इतने निर्दयी वे न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्र जी के यहाँ करम करता है। उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं, ईश्‍वर ही जानें।
       
पाठक, इस वृत्तांत को कपोलकल्पित न समझिए। यह सत्‍य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है।

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