Sunday, August 14, 2022

कहानी | लॉटरी | मुंशी प्रेमचंद | Kahani | Lottery | Munshi Premchand



 जल्‍दी से मालदार हो जाने की हबस किसे नहीं होती? उन दिनों जब लाटरी के टिकट आए तो मेरे दोस्‍त विक्रम के पिता, चाचा, अम्‍मा और भाई, सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया। कौन जाने किसकी तकदीर जोर करे? किसी के नाम आए रूपया, रहेगा तो घर में ही।


मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रूपए आएँगे, तो बहुत होगा, दस-पाँच हजार उसे मिल जाएँगे। इतने रूपयों में उसका क्‍या होगा? उसकी जिंदगी में बडे़-बड़े मंसूबे थे। पहले तो उसे संपूर्ण जगत की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिंबकटू और होनोलूलू—ये सब उसके प्रोग्राम में थे। वह आँधी की तरह महीने-दो-महीने उड़कर लौट आनेवालों में न था। वह एक-एक स्‍थान में कई-कई दिन ठहरकर वहाँ के रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि का अध्‍ययन करना और संसार-यात्रा पर एक वृहद् ग्रंथ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्‍तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया-भर की उत्‍तम रचनाएँ जमा की जाएँ। पुस्‍तकालय के लिए वह दो लाख तक खर्च करने को तैयार था। बँगला, कार और फर्नीचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चाचा के नाम रूपए आए, तो पाँच हजार से ज्‍यादा का डौल नहीं, अम्‍मा के नाम आए, तो बीस हजार मिल जाएँगे; लेकिन भाई साहब के नाम आ गए, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा। वह आत्‍माभिमानी था। घरवालों से भी खैरात या पुरस्‍कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा करता था-भाई, किसी के सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड‍्ढे में डूब मरना अच्‍छा है। जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्‍थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्‍थान कर जाए। 


वह खुद बेकार था। घर में लाटरी-टिकट के लिए उसे कौन रूपया देगा? और वह माँगे भी तो कैसे? उसने बहुत सोच-विचारकर कहा—क्‍यों न हम-तुम साझे में एक टिकट ले लें?


 तजवीज मुझे भी पसंद आई। मैं उन दिनों स्‍कूल-मास्‍टर था। बीस रूपए मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रूपए का टिकट खरीदना मेरे लिए सफेद हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध, घी, जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रूपए की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी डरता था, कहीं से कोई बालेय रकम मिल जाए, तो कुछ हिम्‍मत बढ़े। 


विक्रम ने कहा—कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी।


 अँगूठी दस रूपए से कम न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था। अगर कुछ खर्च किए बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्‍या बुरा है?


 स‍हसा विक्रम फिर बोला—लेकिन भई, तुम्‍हें नकद देने पडे़ंगे। मैं पाँच रूपए नकद लिए बगैर साझा न करूँगा। 


अब मुझे औचित्‍य का ध्‍यान आ गया। बोला-नहीं दोस्‍त, यह बुरी बात है, चोरी खुल जाएगी, तो शर्मिंदा होना पड़ेगा और तुम्‍हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी। 


आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेंड हैंड किताबों की दुकान पर बेच डाली जाएँ और उस रूपए से टिकट लिया जाए। किताबों से ज्‍यादा बे जरूरत हमारे पास कोई चीज न थी। हम दोनों ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्‍होंने डिग्रियाँ लीं और आँखें फोड़ीं, और घर के रूपए बरबाद किए, वह भी जूतियाँ चटका रहे हैं, हमने वहीं हाल्‍ट कर दिया। मैं स्‍कूट मास्‍टर हो गया और विक्रम मटरगश्‍ती करने लगा। हमारी पुरानी पुस्‍तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा, उनका सत्‍त निकाल लिया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्‍हें कूडे़खाने से निकाला और झाड़-पोंछकर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँधा। मास्‍टर था, किसी बुकसेलर की दुकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे, इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रूपए का एक नोट लिए उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्‍न कभी न देखा था। किताबें चालीस रूपए से कम की न थीं, पर यह दस रूपए उस वक्‍त में हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पाँच लाख मेरे हिस्‍से में आएँगे, पाँच विक्रम के हिस्‍से में। हम अपने इसी विचार में मगन थे। 


मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा—पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी। 


विक्रम इतना संतोषी न था। बोला—पाँच लाख क्‍या, हमारे लिए तो इस वक्‍त पाँच सौ भी बहुत हैं भाई, मगर जिंदगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रा वाली स्‍कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्‍तकालय गायब हो गया। 


मैंने आ‍पत्ति की—आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्‍यादा तो न खर्च करोगे? 


‘जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्राम है। पचास हजार रूपए साल ही तो हुए? ’


 ‘चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।’


 विक्रम ने गर्म होकर कहा—मैं शान से रहना चाहता हूँ, भिखारियों की तरह नहीं।


 ‘दो हजार में तुम शान से रह सकते हो।’ 


जब तक आप अपने हिस्‍से में से दो लाख मुझे न दे देंगे, पुस्‍तकालय न बन सकेगा।


 ‘कोई जरूरी नहीं कि तुम्‍हारा पुस्‍तकालय शहर में बेजोड़ हो? 


‘मैं तो बेजोड़़ बनवाऊँगा।’


 ‘इसका तुम्‍हें अख्तियार है; लेकिन मेरे रूपए में से तुम्‍हें कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्‍हारे घर में काफी जायदाद है। तुम्‍हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्‍थी का बोझ है। दो बहनों का विवाह है, दो भाइयों की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है। मैंने तो निश्‍चय कर लिया है कि सब रूपए सीधे बैंक में जमा कर दूँगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्तें लगा दूँगा कि मेरे बाद भी कोई इस रकम में हाथ न लगा सके।’ 


विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा—हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ माँगना अन्‍याय है। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूँगा, लेकिन बैंक में सूद का दर तो बहुत गिर गया है।


 हमने कई बैंकों के सूद का दर देखा, स्‍थायी कोष का भी, सेविंग बैंक का भी। बेशक दर बहुत कम था। दो-ढाई रूपए सैकड़ा ब्‍याज पर जमा करना व्‍यर्थ है। क्‍यों न लेन-देन का कारोबार शुरू किया जाए। विक्रम भी यात्रा पर न जाएगा। दोनों के साझे में कोठी चलेगी, जब कुछ धन जमा हो जाएगा तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन में सूद भी अच्‍छा मिलेगा और अपना रौब-दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्‍छी जमानत न हो किसी को रूपया न देना चाहिए, चाहे आसामी कितनी ही मातबर क्‍यों न हो। और जमानत पर रूपया दें ही क्‍यों? जायदाद रेहन लिखकर रूपए देंगे। फिर तो कोई खटका न रहेगा। 


वह मंजिल भी तय हुई। अब यह प्रश्‍न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे। विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया। अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा। मैंने कोई उपाय न देखकर मंजूर कर लिया, और बिना किसी लिखा-पढ़ी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई।


 एक-एक करके इंतजार के दिन कटने लगे। भोर होते ही हमारी आँखें कैलेंडर पर जातीं। मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्‍कूल जाने के पहले और स्‍कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मंसूबे बाँधा करते और इस तरह सायँ-सायँ कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्‍य छिपाए रखना चाहते थे। यह रहस्‍य जब सत्‍य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्‍त लोगों को कितना विस्‍मय होगा! उस दृश्‍य का नाटकीय आनंद हम नहीं छोड़ना चाहते थे। 


एक दिन बातों-बातों में विवाह का जिक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गंभीरता से कहा—भाई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्‍यर्थ की चिंता और हाय-हाय। पत्‍नी की नाज-नखरेदारी में ही बहुत-से रूपए उड़ जाएँगे।


 मैंने इसका विरोध किया—हाँ, यह तो ठीक है, लेकिन जब तक जीवन के सुख-दुख का कोई साथी न हो, जीवन का आनंद ही क्‍या? मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्‍त नहीं हूँ। हाँ, साथी ऐसा चाहता हूँ जो अंत तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्‍नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता। 


विक्रम जरूरत से ज्‍यादा तुनुकमिजाजी से बोला—खैर, अपना-अपना दृष्टिकोण है। आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्‍चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्‍वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक। बंदा तो आजाद रहेगा, अपने मजे से जहाँ चाहा गए और जब चाहा उड़ गए और जब चाहा घर आ गए। यह नहीं कि हर वक्‍त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो। जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन जवाब तलब हुआ, कहाँ थे अब तलक? आप कहीं बाहर निकले और फौरन सवाल हुआ, कहाँ जाते हो? और कहीं दुर्भाग्‍य से पत्‍नी जी भी साथ हो गईं तब तो डूब मरने के सिवा आपके लिए कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्‍चे को जरा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े जा रहे हैं होमियोपैथिक डाक्‍टर के पास। जरा उम्र खिसकी और लौंडे मनाने लगे कि अब आप प्रस्‍थान करें और वह गुलछर्रे उड़ाएँ। मौका मिला तो आपको जहर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता। 


कुंती आ गई। वह विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्‍यारह साल की। छठे में पढ़ती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्‍ली, बड़ी शोख़। इतने धमाके से द्वार खोला कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए। 


विक्रम बिगड़कर कहा—तू बड़ी शैतान है कुंती, किसने तुझे बुलाया यहाँ?


 कुंती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा— तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बंद किए क्‍या बातें किया करते हो? जब देखो, यहीं बैठे रहते हो। न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखने; कोई जादू-मंतर जगाते होंगे।


 विक्रम ने उसकी गर्दन पकड़कर हिलाते हुए कहा—हाँ, एक मंतर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्‍हा मिले, जो रोज गिनकर पाँच हजार हंटर जमाए सड़ासड़। 


कुंती उसकी पीठ पर बैठकर बोली—मैं ऐसे दूल्‍हे से ब्‍याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूँगी और वह चाटेगा। जरा भी चीं-चपड़ करेगा तो कान गर्म कर दूँगी। अम्‍मा को लाटरी के रूपए मिलेगे, तो पचास हजार मुझे दे देंगी। बस, चैन करूँगी। मैं दोनों वक्‍त ठाकुरजी से अम्‍मा के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्‍मा कहती हैं, कुँवारी लड़कियों की दुआ कभी निष्‍फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता है, अम्‍मा को जरूर रूपए मिलेंगे।


 मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था। भादो का महीना आ गया था, मगर पानी की बूँद नहीं। तब लोगों ने चंदा करके गाँव की सब कुँवारी लड़कियों की दावत की थी और उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्‍य ही कुँवारियों की दुआ में असर होता है।


 मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे। आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्‍चय भी कर लिया। विक्रम ने कुंती से कहा—अच्‍छा, तुझसे एक बात कहें, किसी से कहेगी तो नहीं? नहीं, तू तो बड़ी अच्‍छी लड़की है, किसी से न कहेगी। मैं अबकी तुझे ख़ूब पढ़ाऊँगा और पास करा दूँगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लाटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्‍वर से प्रार्थना किया कर। अगर हमें रूपए मिले तो तेरे लिए अच्‍छे-अच्‍छे गहने बनवा देंगे। सच!


 कुंती को विश्‍वास न आया। हमने कसमें खाईं। वह नखरे करने लगी। जब हमंने उसे सिर से पाँव तक सोने-हीरे से मढ़ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने को राजी हुई।


 लेकिन उसके पेट में मनों मिठाई पच सकती थी, वह ज़रा-सी बात न पची। सीधे अंदर भागी और एक क्षण में सारे घर में वह खबर फैल गई। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्‍मा भी, चाचा भी, पिता भी, केवल बिक्रम की शुभकामना के या और किसी बात से, कौन जाने बैठे-बैठे तुम्‍हें हिमाक़त ही सूझती है। रूपए लेकर पानी में फेंक दिए। घर में इतने आदमियों ने तो टिकट लिया ही था, तुम्‍हें लेने की क्‍या जरूरत थी? क्‍या तुम्‍हें उसमें से कुछ न मिलते? और तुम भी मास्‍टर साहब, बिलकुल घोंघा हो। लड़के को अच्‍छी बातें क्‍या सिखाओगे, उसे और चौपट किए डालते हो। 


विक्रम तो लाड़ला बेटा था। उसे और क्‍या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाए, तो आफत ही आ जाए। मुझ पर सारा गुस्‍सा उतरा। इसकी सोहबत में लड़का बिगड़ जाता है।


 ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत मेरी आँखों के सामने थी। मुझे बचपन की एक घटना याद आई। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मँगवाई गई थी। मेरे मामू साहब उन दिनों आए हुए थे। मैंने चुपके से कोठरी में जाकर गिलास में एक घूँट शराब डाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थीं कि मामू साहब कोठरी में आ गए और मुझे मानो सेंध में गिरफ्तार कर लिया और इतना बिगड़े, इतना बिगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया; अम्‍मा ने भी डाँटा, पिताजी ने भी डाँटा। मुझे आँसुओं से उनकी क्रोधाग्नि शांत करनी पड़ी; और दोपहर ही को मामू साहब नशे से पागल होकर गाने लगे। फिर रोए, फिर अम्‍मा को गालियाँ दी, दादा को मना करने पर भी मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आए।


 विक्रम के पिता, बडे़ ठाकुर साहब और चाचा छोटे ठाकुर साहब दोनों जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ानेवाले, पूरे नास्तिक। मगर अब दोनों बडे़ निष्‍ठावान और ईश्‍वरभक्‍त हो गए थे। बडे़ ठाकुर साहब प्रात:काल गंगास्‍नान करने जाते और मंदिरों के चक्‍कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह में चंदन लपेटे घर लौटते। छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्‍नान करते और गठिया से ग्रस्‍त होने पर भी राम नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही दोनों भाई अपने ठाकुरद्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत-कथा तन्‍मय होकर सुनते। विक्रम के बड़े भाई, प्रकाश को साधु-महात्‍माओं पर अधिक विश्‍वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों तथा कुटियों की खाक छानते और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्‍नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। उस उम्र में भी उन्‍हें सिंगार का शौक था; पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थीं। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति और निष्‍ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म स्‍वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्‍य के मन और बुद्धि का इतना संस्‍कार कर सकती है, यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्‍योतिषियों और पंडितों से कभी-कभी प्रश्‍न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।


 ज्‍यों-ज्‍यों लाटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शांति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टँगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण संदेह होने लगा कि कहीं विक्रम मुझे हिस्‍सा देने से इंकार न कर दे, तो मैं क्‍या करूँगा। साफ इंकार कर जाए कि तुमने टिकट में साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत। सब कुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डाँवाडोल हुई और मेरा काम तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुँह तक नहीं खोल सकता, अब अगर कुछ कहूँ भी तो कोई लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर आ गया है, तब तो व‍ह अभी से इंकार कर देगा। अगर नहीं आया है, तो इस संदेह से उसे मर्मांतक वेदना होगी। आदमी ऐसा तो नहीं है; मगर भाई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रूपए नहीं मिले। इस वक्‍त ईमानदार बनने में क्‍या खर्च होता है? परीक्षा का समय तो तब आएगा, जब दस लाख रूपए हाथ में होंगे। मैंने अपने अंत:करण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्‍या मैं आधे रूपए बिना कान-पूँछ हिलाए विक्रम के हवाले कर देता? कहता-तुमने मुझे पाँच रूपए उधार दिए थे, उसके दस ले लो, सौ ले लो और क्‍या करोगे; मगर नहीं, मुझसे इतनी बेईमानी न होती। 


दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा—कहीं हमारा टिकट निकल आए, तो मुझे अफसोस होगा कि नाहक तुमसे साझा किया।


 वह सरल भाव से मुस्‍कुराया, मगर यह थी उसकी आत्‍मा की झलक, जिसे वह मजाक की आड़ में छिपाना चाहता था। 


मैंने चौंककर कहा—सच! लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है? 


‘लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है।’ 


अच्‍छा मान लो, मैं तुम्‍हारे साझे से इंकार कर जाऊँ? ’ 


मेरा खून सर्द हो गया। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। 


‘मैं तुम्‍हें इतना बदनीयत नहीं समझता था।’


 ‘मगर है बहुत संभव पाँच लाख! सोचो। दिमाग चकरा जाता है।’


 ‘तो भई, अभी कुशल है, लिखा-पढ़ी कर लो। यह संशय रहे ही क्‍यों! ’


 विक्रम ने हँसकर कहा—तुम बडे़ शक्‍की हो यार! मैं तुम्‍हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है? पाँच लाख क्‍या, पाँच करोड़ भी हों, तब भी ईश्‍वर चाहेगा, तो नीयत में फर्क न आने दूँगा।


 किंतु मुझे उसके इन आश्‍वासनों पर बिलकुल विश्‍वास न आया। मन में एक संशय पैठ गया।


 मैंने कहा— यह तो मैं जानता हूँ, तुम्‍हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, पर लिखा-पढ़ी कर लेने में क्‍या हर्ज है?


 ‘फजूल ही सही।’ 


तो पक्‍के कागज पर लिखना पड़ेगा। दस लाख की कोर्ट फीस ही साढे़ सात हजार हो जाएगी। किस भ्रम में हैं आप? ’


 मैंने सोचा, बला से, सादी लिखा-पढ़ी के बल पर क़ानूनी कार्यवाही न कर सकूँगा। पर इन्‍हें लज्जित करने का, इन्‍हें जलील करने का, इन्‍हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आएगा। और दुनिया में बदनामी का भय न हो तो आदमी न जाने क्‍या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता; बोला—मुझे सादे काग़ज़ पर ही विश्‍वास हो जाएगा। 


विक्रम ने लापरवाही से कहा—जिस कागज का कोई कानूनी महत्‍व नहीं, उसे लिखकर क्‍यों समय नष्‍ट करें? 


मुझे निश्‍चय हो गया कि विक्रम की नीयत में अभी से फ़र्क़ आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने में क्‍या बाधा हो सकती है? बिगड़कर कहा—तुम्‍हारी नीयत तो अभी से खराब हो गई है। 


उसने निर्लज्‍जता से कहा—तो क्‍या तुम साबित करना चाहते हो कि ऐसी दशा में तुम्‍हारी नीयत न बदलती?


 ‘मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है।’


 ‘रहने भी दो। बडे़ नीयत वाले। अच्छे-अच्‍छों को देखा है। तुम्‍हें इसी वक्‍त लेखबद्ध होना पड़ेगा। मुझे तुम पर विश्‍वास नहीं रहा।’ 


‘अगर तुम्‍हें मुझ पर विश्‍वास नहीं, तो मैं भी नहीं लिखता।’


 ‘तो क्‍या तुम समझते हो, तुम मेरे रूपए हजम कर जाओगे? ’


 ‘किसके रूपए और कैसे रूपए? ’ 


‘मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्‍ती का ही अंत न हो जाएगा, बल्कि इससे कहीं भयंकर परिणाम होंगे।’


 हिंसा की एक ज्‍वाला-सी मेरे अदंर दहक उठी।


 सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्‍यान उधर चला गया। जहाँ दोनों ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में ही हो सकती है। राम और लक्ष्‍मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्‍या, मैंने उनमें कभी विवाद होते भी न सुना था। बड़े ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्‍छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्‍चर्य हुआ। दीवानखाने के द्वार पर जाकर खडे़ हो गए। दोनों भाई अपनी-अपनी कुर्सियों से उठकर खडे़ हो गए थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ आए थे। आँखें लाल, मुख विकृत, त्‍योरियाँ चढ़ी हुई, मुट्ठियाँ बँधी हुई। मालूम होता था, बस हाथापाई हुआ ही चाहती है।


 छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा—सम्मिलित परि‍वार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आए, वह सबका है, बराबर।


 बडे़ ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम और आगे बढ़ाया—हरगिज नहीं, अगर मैं कोई जुर्म करुँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं। मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं। यह वैयक्तिक प्रश्‍न है। 


‘इसका फैसला अदालत से होगा।’


 ‘शौक से अदालत जाइए। अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी या मेरे नाम लाटरी मिली, तो आपका उससे कोई संबंध न होगा, उसी तरह जैसे आपके नाम लाटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई संबंध न होगा।’


 ‘अगर मैं जानता कि आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीवी-बच्‍चों के नाम से टिकट ले सकता था।’


 ‘यह आपकी गलती है।’


 ‘इसीलिए कि मुझे विश्‍वास था, आप भाई हैं।’


 ‘यह जुआ है, आप‍को समझ लेना चाहिए था। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता। अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आएँ तो खानदान उसका जिम्‍मेदार न होगा।’


 ‘मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह स‍कते।’ 


‘आप न ब्रह्मा हैं, न कोई महात्‍मा।’


 विक्रम की माता ने सुना कि दोनों भाइयों में ठनी हुई है और मल्‍लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आईं और दोनों को समझाने लगीं।


 छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा— आप मुझे क्‍या समझाती हैं, उन्‍हें समझाइए जो चार-चार टिकट लिए हुए बैठे हैं। मेरे पास क्‍या है, एक टिकट। उसका क्‍या भरोसा! मेरी अपेक्षा जिन्‍हें रूपए मिलने का चौगुना चांस है, उनकी नीयत बिगड़ जाए, तो लज्‍जा और दुख की बात है।


 ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा—अच्‍छा, मेरे रूपए में से आधे तुम्‍हारे। अब तो खुश हो? 


बडे़ ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी—क्‍यों आधे ले लेंगे? मैं एक धेला भी न दूँगा। हम मुरौवत और सहृदयता से काम लें, फिर भी उन्‍हें पाँचवें हिस्‍से से ज्‍यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है?-न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक। 


छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा—सारी दुनिया का कानून आप ही तो जानते हैं।


 ‘जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है? ’


 ‘यह वकालत निकल जाएगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्‍टर खड़ा कर दूँगा।’


 ‘‍बैरिस्‍टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लंदन का।’


 ‘मैं आधा लूँगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद में मेरा आधा है।’


 इतने में विक्रम के बडे़ भाई सांहब सिर और हाथ में पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए कपड़ों पर ताजा खून के दाग लगाए, प्रसन्‍न मुख आकर एक आरामकुर्सी पर गिर पडे़। बडे़ ठाकुर ने घबराकर पूछा—यह तुम्‍हारी क्‍या हालत है जी? ऐं, यह चोट कैसे लगी? किसी से मार-पीट तो नहीं हो गई।


 प्रकाश ने कुर्सी पर लेटकर एक बार कराहा, फिर मुस्‍काराकर बोले—जी, कोई बात नहीं। ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी। ‘कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी?


‘कैसे कहते हो कि चोट नहीं लगी? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपडे़ खून से तर। यह मुआमला क्‍या है? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गई? ’


 ‘बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्‍छी हो जाएगी। घबराने की कोई बात नहीं।’ 


प्रकाश के मुख पर आशापूर्ण, शांत मुसकान थी। क्रोध, लज्‍जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था।


 बडे़ ठाकुर ने व्‍यग्र होकर पूछा—लेकिन हुआ क्‍या, यह क्‍यों नहीं बतलाते? किसी से मार-पीट हुई हो तो थाने में रपट करवा दूँ? 


प्रकाश ने हलके मन से कहा—मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब। बात यह है कि मैं जरा झक्‍कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं, वह आदमियों की सूरत से भागते हैं और पत्‍थ्‍ार लेकर मारने दौड़ते हैं। जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्‍थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा रहा, वह पारस हो गया। वह यही परीक्षा लेते हैं। आज मैं वहाँ पहुँचा, तो कोई पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिए, कोई बहुमूल्‍य भेंट लिए, कोई कपड़ों का थान लिए। झक्‍कड़ बाबा ध्‍यानावस्‍था में बैठे थे। एकाएक उन्‍होंने आँखें खोलीं और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्‍थर चुनकर उनके पीछे दौडे़। फिर क्‍या था, भगदड़ मच गई। लोग गिरते-पड़ते भागे। हुर्र हो गए। एक भी न टिका। अकेला मैं घंटाघर की तरह डटा रहा। बस उन्‍होंने पत्‍थर चला ही तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है। खोपड़ी भन्‍ना गई, खून की धार बह चली; लेकिन मैं हिला नहीं। फिर बाबा जी ने दूसरा पत्‍थर फेंका। व‍ह हाथ में लगा। मैं गिर पड़ा और बेहोश हो गया। जब होश आया, तो वहाँ सन्‍नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गए थे। अंतर्धान हो जाया करते हैं। किसे पुकारूँ, किससे सवारी लाने को कहूँ? मारे दर्द के हाथ कटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डाक्‍टर के पास गया। उन्‍होंने देखकर कहा-हड्डी टूट गई है और पट्टी बाँध दी; गर्म पानी से सेंकने को कहा है। शाम को फिर आवेंगे। मगर चोट लगी तो लगी, अब लाटरी मेरे नाम आई धरी है। यह निश्चित है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्‍कड़ बाबा की मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा की कुटी बनवा दूँगा। 


बडे़ ठाकुर साहब के मुख पर संतोष की झलक दिखाई दी। फौरन पलंग बिछ गया। प्रकाश उस पर लेटे। ठकुराइन पंखा झलने लगीं, उनका भी मुख प्रसन्‍न था। इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा न था।


 छोटे ठाकुर के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्‍यों ही बडे़ ठाकुर भोजन करने गए और ठकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गईं, त्‍यों ही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा—क्‍या बहुत जोर से पत्‍थर मारते हैं? जोर से तो क्‍या मारते होंगे?


 प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा—अरे, पत्‍थर नहीं मारते, बमगोला मारते हैं। देव-सा डील-डौल है, और बलवान इतने हैं कि एक घूँसे में शेर का काम तमाम कर देते हैं। कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक पत्‍थर में टें हो जाए। कितने ही तो मर गए; मगर आज तक झक्‍कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला। और दो-चार पत्‍थर मारकर ही नहीं रह जाते, जब तक आप गिर न पड़ें और बेहोश न हो जाएँ, वह मारते ही जाएँगे; मगर रहस्‍य यही है‍ कि आप जितनी ज्‍यादा चोटें खाएँगे, उतने ही अपने उद्देश्‍य के निकट पहुँचेंगे।


 प्रकाश ने ऐसा रोएँ खडे़ कर देने वाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्‍थर खाने की हिम्‍मत न पडी़। 


आखिर भाग्‍य के निपटारे का दिन आया-जुलाई की बीसवीं तारीख कत्‍ल की रात। हम प्रात:काल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वंद्व का। दोनों ठाकुरों ने घड़ी रात रहे गंगास्‍नान किया था और मंदिर में बैठे पूजन कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी। मंदिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्‍तुति करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्‍हारी कृपादृष्टि क्‍या हमारे ऊपर न होगी? तुम्‍हें क्‍या मालूम नहीं, हमने कितनी मुश्किल से टिकट खरीदे हैं। तुम अंतर्यामी हो। संसार में सबसे ज्‍यादा तुम्‍हारी दया कौन डिजर्व (deserve) करता है? विक्रम सूट-बूट पहने मंदिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा—मैं डाकखाने जाता हूँ और हवा हो गया। जरा देर में प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मंदिर के द्वार पर खडे़ कंगालों को बाँटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गई थी। और दोनों ठाकुर भगवान के चरणों में लौ लगाए हुए थे—सिर झुकाए, आँखें बंद, अनुराग में डूबे हुए।


 बडे़ ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले—भगवान तो बड़े भक्‍त-वत्‍सल हैं, क्‍यों पुजारी जी?


 पुजारी ने समर्थन किया—हाँ सरकार, भक्‍तों की रक्षा के लिए तो क्षीरसागर से दौडे़ और गज को ग्राह के मुहँ से बचाया।


 एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर ने सिर उठाया और पुजारी जी से बोले—क्‍यों पुजारी जी, भगवान तो सर्वशक्तिमान हैं, अतंर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं?


 पुजारी जी ने समर्थन किए—हाँ सरकार, अंतर्यामी न होते तो सबके मन की बात कैसे जान जाते? शबरी का प्रेम देखकर स्‍वयं उसकी मनोकामना पूरी की। 


पूजन समाप्‍त हुआ। आरती हुई। दोनों भाइयों ने आज ऊँचे स्‍वर में आरती गाई और बडे़ ठाकुर ने दो रूपए थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रूपए डाले। बडे़ ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया।


 सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी जी से पूछा—तुम्‍हारा मन क्‍या कहता है पुजारी जी?


 पुजारी बोला—सरकार की फतह है। 


छोटे ठाकुर ने पूछा—और मेरी? 


पुजारी ने उसी मुस्‍तैदी से कहा—आपकी भी फतह है। 


बडे़ ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मंदिर से निकले।

 ‘प्रभु जी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभु जी…. ’ 

एक मिनट में छोटे ठाकुर भी मंदिर से गाते हुए निकले।

 ‘अब पत राखे मोरे दयानिधि, तोरी गति लखि न परे…. ’ 


मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करनी चाही, पर उन्‍होंने थाल हटाकर कहा—आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितना गई है?


 मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि तभी विक्रम मुस्‍कुराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गए। दोनों ठाकुर सामने खड़े थे। दोनों ठाकुर बाज की तरह झपटे। प्रकाश की थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्‍माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता ही नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं। 


बडे़ ठाकुर ने आकाश की ओर देखा—बोलो राजा रामचंद्र की जय! 


छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी—बोलो—हनुमान जी की जय!


 प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ बोला—दुहाई झक्‍कड़ बाबा की। 


विक्रम ने जोर से कहकहा मारा, फिर अलग खड़ा होकर बोला—जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूँगा। बोलो, है मंजूर? 


बडे़ ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा—पहले बता तो।


 ‘ना! यों नहीं बताता।’ 


छोटे ठाकुर बिगडे़—बताने के लिए लाख? शाबास।


 प्रकाश ने त्‍योरी चढा़ई—क्‍या डाकखाना हमने देखा नहीं है? 


‘अच्‍छा तो अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।’ 


सभी लोग फौजी—अटेंशन की दशा में निश्‍चल खड़े हो गए।


 ‘होश हवास ठीक रखना।’

 सभी पूर्ण सचेत हो गए। 


‘अच्‍छा, तो सुनिए कान खोलकर। इस शहर का सफाया है। इस शहर का ही नहीं, संपूर्ण भारत का सफाया है। अमरीका के एक हब्‍शी का नाम आ गया।


 बडे़ ठाकुर झल्‍लाए—झूठ-झूठ, बिलकुल झूठ।


 छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला—कभी नहीं। तीन महीने की तपस्‍या यों ही रही? वाह! 


प्रकाश ने छाती ठोंककर क‍हा—यहाँ सिर फुड़वाए और हाथ तुड़वाए बैठे हैं, दिल्‍लगी है।


 इतने में और पचीसों आदमी उधर से रोनी सूरत लिए निकले। वे बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्‍मत को रो‍ते चले आ रहे थे—मार ले गया, अमरीका का हब्‍शी! अभागा! पिशाच! दुष्‍ट! 


अब कैसे किसी को विश्‍वास न आता? बड़े ठाकुर झल्‍लाए हुए मंदिर में गए और पुजारी को डिसमिस कर दिया—इसीलिए तुम्‍हें इतने दिनों से पाल रखा है। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो! 


छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गई। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गए। मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा-सोंटा लिया और झक्‍कड़ बाबा की मरम्‍मत करने चला। 


माता जी ने केवल इतना कहा—सबों ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्‍या करें? किसी के हाथ से थोडे़ ही छीन लाएँगे? 


रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर बोला—चलो, होटल से कुछ खा आएँ। घर में तो चूल्‍हा नहीं जला।


 मैंने पूछा—तुम डाकखाने से आए तो बहुत प्रसन्‍न क्‍यों थे? 


उसने कहा—जब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हँसी आई। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिंदुस्‍तान में इसके हजार गुने से कम न होंगे और दुनिया में तो लाख गुने से भी ज्‍यादा हो जाएँगे। मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया और मुझे हँसी आई। जैसे कोई दानी पुरूष छटाँक भर अन्‍न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को न्‍यौता दे बैठे—और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि…


 मैं भी हँसा—हाँ, बात तो यथार्थ में यही है और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे; मगर सच बताना, तुम्‍हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं?


 विक्रम मुसकुराकर बोला—अब क्‍या करोगे पूछकर? पर्दा ढका रहने दो। 


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