उस दिन थककर जरा दम लेने के लिए बैठ गई थी। उसी वक्त दारोगा जी अपने इक्के पर आ रहे थे। वह कितना कहती रही, हुजूरआली, मैं फिर काम करूँगी, लेकिन उन्होंने एक न सुनी थी, अपनी किताब में उसका नाम नोट कर लिया था। उसके कई दिन बाद फिर ऐसा ही हुआ। वह हलवाई से एक पैसे के सेवडे़ लेकर खा रही थी। उस वक्त दारोगा न जाने किधर से निकल पड़ा था और फिर उसका नाम लिख लिया गया था। न जाने कहाँ छिपा रहता है? जरा भी सुस्ताने लगे कि भूत की तरह आकर खड़ा हो जाता है। नाम तो उसने दो ही दिन लिखा था, पर जुर्माना कितना करता है – अल्ला जाने! आठ आने से बढ़कर एक रूपया न हो जाए। वह सिर झुकाए वेतन लेने जाती और तखमीने से कुछ ज्यादा ही कटा हुआ पाती। काँपते हाथों से रूपए लेकर आँखों में आँसू-भरे लौट आती। किससे फरियाद करे, दारोगा के सामने उसकी सुनेगा कौन?
आज फिर वही तलब का दिन था। इस महीने में उसकी दूध पीती बच्ची को खाँसी और ज्वर आने लगा था। ठंड भी खूब पड़ी थी। कुछ तो ठंड के मारे और कुछ लड़की के रोने-चिल्लाने के कारण उसे रात-भर जागना पड़ता था। कई दिन काम पर जाने में देर हो गई थी। दारोगा ने उसका नाम लिख लिया था। अब की आधे रूपए कट जाएँगे। आधे भी मिल जाएँ तो गनीमत है। कौन जाने कितना कटा है? उसने तड़के बच्ची को गोद में उठाया और झाडू लेकर सड़क पर आ पहुँची। मगर वह दुष्ट गोद से उतरती ही न थी। उसने बार-बार दारोगा के आने की धमकी दी, अभी आता होगा, मुझे भी मारेगा, तेरे भी नाक-कान काट लेगा। लेकिन लड़की को अपने नाक-कान कटवाना मंजूर था, गोद से उतरना मंजूर न था। आखिर जब वह डराने-धमकाने, प्यारने-पुचकारने, किसी उपाय से न उतरी तो अल्लारक्खी ने उसे गोद से उतार दिया और उसे रोती-चिल्लाती छोड़कर झाडू लगाने लगी। मगर वह अभागिनी एक जगह बैठकर मन-भर रोती भी न थी। अल्लारक्खी के पीछे लगी हुई बार-बार उसकी साड़ी खींचती, उसकी टाँग से लिपट जाती, फिर जमीन पर लोट जाती और एक क्षण में फिर रोने लगती।
उसने झाडू तानकर कहा, ‘चुप हो जा, नहीं तो झाडू मारूँगी, जान निकल जाएगी। अभी दारोगा दाढ़ीजार आता होगा…।’
पूरी धमकी मुँह से निकल भी न पाई थी कि दारोगा खैरातअली खाँ सामने से आकर साइकिल से उतर पड़ा। अल्लारक्खी का रंग उड़ गया, कलेजा धक्-धक् करने लगा। या मेरे अल्लाह! कहीं इसने सुन न लिया हो। मेरी आँखें फूट जाएँ। सामने से आया और मैंने देखा नहीं। कौन जानता था, आज पैरगाड़ी पर आ रहा है? रोज तो इक्के पर आता था। नाड़ियों में रक्त का दौड़ना बंद हो गया, झाडू हाथ में लिए नि:स्तब्ध खड़ी रह गई।
दारोगा ने डाँटकर कहा-काम करने चलती है तो एक पुछल्ला साथ ले लेती है। इसे घर पर क्यों नहीं छोड़ आई?
अल्लारक्खी ने कातर स्वर में कहा—इसका जी अच्छा नहीं है हुजूर, घर पर किसके पास छोड़ आती…’
‘क्या हुआ इसको?’
‘बुखार आता है हुजूर!’
‘और तू इसे यों छोड़कर रूला रही है। मरेगी या जिएगी?’
‘गोद में लिए-लिए काम कैसे करूँ हुजूर!’
‘छुट्टी क्यों नहीं ले लेती?’
‘तलब कट जाती है हुजूर, गुजारा कैसे होता?’
‘इसे उठा ले और घर जा। हुसैनी लौटकर आए तो इधर झाडू लगाने के लिए भेज देना।’
अल्लारक्खी ने लड़की को उठा लिया और चलने को हुई, तब दारोगा जी ने पूछा—मुझे गाली क्यों दे रही थी? अल्लारक्खी की रही-सही जान भी निकल गई। काटो तो लहू नहीं। थर-थर काँपती बोली—नहीं हुजूर, मेरी आँखें फूट जाएँ, जो तुमको गाली दी हो। और वह फूट-फूटकर रोने लगी।
संध्या समय हुसैनी और अल्लारक्खी दोनों तलब लेने चले। अल्लारक्खी बहुत उदास थी।
हुसैनी ने सांत्वना दी—तू इतनी उदास क्यों है? तलब ही न कटेगी, कटने दे। अब की तेरी जान की कसम खाता हूँ, एक घूँट दारू या ताड़ी नहीं पीऊँगा।
‘मैं डरती हूँ, बरखास्त न कर दे। मेरी जीभ जल जाए। कहाँ-से-कहाँ?
‘बरखास्त कर देगा, कर दे, उसका अल्लाह भला करे। कहाँ तक रोएँ?’
‘तुम मुझे नाहक लिए चलते हो। सबकी सब हँसेंगी।’
‘बरखास्त करेगा तो पूछूँगा नहीं कि किस इल्जाम पर बरखास्त करते हो? गाली देते किसने सुना? कोई अंधेर है, जिसे चाहे, बरखास्त कर दे। और जो कहीं सुनवाई न हुई तो पंचों से फरियाद करूँगा। चौधरी के दरवज्जे पर सर पटक दूँगा।’
‘ऐसी ही एकता रहती तो दारोगा इतना जरीमाना करने पाता?’
‘जितना बड़ा रोग होता है, उतनी बड़ी दवा होती है, पगली!’
फिर भी अल्लारक्खी का मन शांत न हुआ। मुख पर विषाद का धुआँ-सा छाया हुआ था। दारोगा क्यों गाली सुनकर भी बिगड़ा नहीं, उसी वक्त उसे क्यों नहीं बरखास्त कर दिया, यह उसकी समझ में न आता था। वह कुछ दयालु भी मालूम होता था। उसका रहस्य वह न समझ पाती थी और जो चीज हमारी समझ में नहीं आती, उसी से हम डरते हैं। केवल जुरमाना करना होता तो उसने किताब पर उसका नाम लिखा होता। उसको निकालकर बाहर करने का निश्चय कर चुका है, तभी दयालु हो गया था। उसने सुना था कि जिन्हें फाँसी दी जाती है, उन्हें अंत तक खूब-पूरी मिठाई खिलाई जाती है, जिससे मिलना चाहें, उससे मिलने दिया जाता है। निश्चय बरखास्त करेगा।
म्युनिसिपैलिटी का दफ्तर आ गया। हजारों मेहतरानियाँ जमा थीं, रंग-बिरंगे कपड़े पहने, बनाव-सिंगार किए। पान-सिगरेट वाले भी आ गए थे। खोमचे वाले भी। पठानों का एक दल भी अपने असामियों से रूपए वसूल करने आ पहुँचा। ये दोनों भी जाकर खड़े हो गए।
वेतन बँटने लगा। पहले मेहतरानियों का नंबर था। जिसका नाम पुकारा जाता, वह लपककर जाती और अपने रूपए लेकर दारोगा को मुफ्त की दुआएँ देती हुई चली जाती। चंपा के बाद अल्लारक्खी का नाम बराबर पुकारा जाता था। आज अल्लारक्खी का नाम उड़ गया था। चंपा के बाद जहूरन का नाम पुकारा गया, जो अल्लारक्खी के नीचे था।
अल्लारक्खी ने हताश आँखों से हुसैनी को देखा। मेहतरानियाँ उसे देख-देखकर कानाफूसी करने लगीं। उसके जी में आया, घर चली जाए, यह उपहास नहीं सहा जाता। जमीन फट नहीं जाती कि उसमें समा जाए।
एक के बाद दूसरा नाम आता गया और अल्लारक्खी सामने के वृक्षों की ओर देखती रही। उसे अब उसकी परवाह न थी कि किसका नाम आता है, कौन जाता है, कौन उसकी ओर ताकता है, कौन उस पर हँसता है।
सहसा अपना नाम सुनकर वह चौंक पड़ी। धीरे से उठी और नवेली बहू की भाँति पग उठाती हुई चली। खंजाची ने पूरे 6 रूपए उसके हाथ पर रख दिए।
उसे आश्चर्य हुआ। खजांची ने भूल तो नहीं की? इन तीनों बरसों में पूरा वेतन तो कभी मिला नहीं। और अब की तो आधा भी मिले तो बहुत है। वह एक सेकेंड वहीं खड़ी रही कि शायद खजांची उससे रूपए वापस माँगे। जब खजांची ने पूछा, ‘अब क्यों खड़ी है, जाती क्यों नहीं?’ तब वह धीरे से बोली, ‘यह तो पूरे रूपए हैं।’
खजांची ने चकित होकर उसकी ओर देखा।
‘तो क्या चाहती है, कम मिलें?’
‘कुछ जरीमाना नहीं है?’
‘नहीं, अब की कुछ जरीमाना नहीं है।’
अल्लारक्खी चली, पर उसका मन प्रसन्न था, वह पछता रही थी कि दारोगा जी को गाली क्यों दी!
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