Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत ( स्तुति-खण्ड ) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat/Stuti Khand | Malik Muhammad Jayasi



 सुमिरौं आदि एक करतारू । जेहि जिउ दीन्ह कीन्ह संसारू ॥

कीन्हेसि प्रथम जोति परकासू । कीन्हेसि तेहि पिरीत कैलासू ॥

कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥

कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥

कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥

कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥

कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥


कीन्ह सबै अस जाकर दूसर छाज न काहि ।

पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि ॥1॥


कीन्हेसि सात समुन्द अपारा । कीन्हेसि मेरु, खिखिंद पहारा ॥

कीन्हेसि नदी नार, औ झरना । कीन्हेसि मगर मच्छ बहु बरना ॥

कीन्हेसि सीप, मोती जेहि भरे । कीन्हेसि बहुतै नग निरमरे ॥

कीन्हेसि बनखँढ औ जरि मूरी । कीन्हेसि तरिवर तार खजूरी ॥

कीन्हेसि साउज आरन रहईं । कीन्हेसि पंखि उडहिं जहँ चहईं ॥

कीन्हेसि बरन सेत ओ स्यामा । कीन्हेसि भूख नींद बिसरामा ॥

कीन्हेसि पान फूल बहु भौगू । कीन्हेसि बहु ओषद, बहु रोगू ॥


निमिख न लाग करत ओहि,सबै कीन्ह पल एक ।

गगन अंतरिख राखा बाज खंभ बिनु टेक ॥2॥


कीन्हेसि अगर कसतुरी बेना । कीन्हेसि भीमसेन औ चीना ॥

कीन्हेसि नाग, जो मुख विष बसा । कीन्हेसि मंत्र, हरै जेहि डसा ॥

कीन्हेसि अमृत , जियै जो पाए । कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए ॥

कीन्हेसि ऊख मीठ-रस-भरी । कीन्हेसि करू-बेल बहु फरी ॥

कीन्हेसि मधु लावै लै माखी । कीन्हेसि भौंर, पंखि औ पाँखी ॥

कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी ॥

कीन्हेसि राकस भूत परेता । कीन्हेसि भोकस देव दएता ॥


कीन्हेसि सहस अठारह बरन बरन उपराजि ।

भुगुति दुहेसि पुनि सबन कहँ सकल साजना साजि ॥3॥


कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥

कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥

कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥

कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥

कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥

कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी । कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी ॥


कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।

छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥4॥


धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥

जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥

ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥

पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥

भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥

ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥

सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥


जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।

और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥5॥


आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥

सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥

छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥

परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥

बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥

ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥

काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥


सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।

एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥6॥


अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥

परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥

ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥

जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥

वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥

हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥

और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥


जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।

बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥7॥


एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥

जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥

जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥

स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥

नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥

है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥

ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥


ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।

दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥8॥


और जो दीन्हेसि रतन अमोला । ताकर मरम न जानै भोला ॥

दीन्हेसि रसना और रस भोगू । दीन्हेसि दसन जो बिहँसै जोगू ॥

दीन्हेसि जग देखन कहँ नैना । दीन्हेसि स्रवन सुनै कहँ बैना ॥

दीन्हेसि कंठ बोल जेहि माहाँ । दीन्हेसि कर-पल्लौ, बर बाहाँ ॥

दीन्हेसि चरन अनूप चलाहीं । सो जानइ जेहि दीन्हेसि नाहीं ॥

जोबन मरम जान पै बूढा । मिला न तरुनापा जग ढूँढाँ ॥

दुख कर मरम न जानै राजा । दुखी जान जा पर दुख बाजा ॥


काया-मरम जान पै रोगी, भोगी रहै निचिंत ।

सब कर मरम गोसाईं (जान) जो घट घट रहै निंत ॥9॥


अति अपार करता कर करना । बरनि न कोई पावै बरना ॥

सात सरग जौ कागद करई । धरती समुद दुहुँ मसि भरई ॥

जावत जग साखा बनढाखा । जावत केस रोंव पँखि -पाखा ॥

जावत खेह रेह दुनियाई । मेघबूँद औ गगन तराई ॥

सब लिखनी कै लिखु संसारा । लिखि न जाइ गति-समुद अपारा ॥

ऐस कीन्ह सब गुन परगटा । अबहुँ समुद महँ बूँद न घटा ॥

ऐस जानि मन गरब न होई । गरब करे मन बाउर सोई ॥


बड गुनवंत गोसाईं, चहै सँवारै बेग ।

औ अस गुनी सँवारे, जो गुन करै अनेग ॥10॥


कीन्हेसि पुरुष एक निरमरा । नाम मुहम्मद पूनौ-करा ॥

प्रथम जोति बिधि ताकर साजी । औ तेहि प्रीति सिहिट उपराजी ॥

दीपक लेसि जगत कहँ दीन्हा । भा निरमल जग, मारग चीन्हा ॥

जौ न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंथ अँधियारा ॥

दुसरे ढाँवँ दैव वै लिखे । भए धरमी जे पाढत सिखे ॥

जेहि नहिं लीन्ह जनम भरि नाऊँ । ता कहँ कीन्ह नरक महँ ठाउँ ॥

जगत बसीठ दई ओहिं कीन्हा । दुइ जग तरा नावँ जेहि लीन्हा ॥


गुन अवगुन बिधि पूछब, होइहिं लेख औ जोख ।

वह बिनउब आगे होइ, करब जगत कर मोख ॥11॥


चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥

अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥

पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥

पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥

चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥

चारिउ एक मतै, एक बाना । एक पंथ औ एक सँधाना ॥

बचन एक जो सुना वइ साँचा । भा परवान दुहुँ जग बाँचा ॥


जो पुरान बिधि पठवा सोई पढत गरंथ ।

और जो भूले आवत सो सुनि लागे पंथ ॥12॥


सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥

ओही छाज छात औ पाटा । सब राजै भुइँ धरा लिलाटा ॥

जाति सूर औ खाँडे सूरा । और बुधिवंत सबै गुन पूरा ॥

सूर नवाए नवखँड वई । सातउ दीप दुनी सब नई ॥

तह लगि राज खडग करि लीन्हा । इसकंदर जुलकरन जो कीन्हा ॥

हाथ सुलेमाँ केरि अँगूठी । जग कहँ दान दीन्ह भरि मूठी ॥

औ अति गरू भूमिपति भारी । टेक भूमि सब सिहिट सँभारी ॥


दीन्ह असीस मुहम्मद, करहु जुगहि जुग राज ।

बादसाह तुम जगत के जग तुम्हार मुहताज ॥13॥


बरनौं सूर भूमिपति राजा । भूमि न भार सहै जेहि साजा ॥

हय गय सेन चलै जग पूरी । परबत टूटि उडहिं होइ धूरी ॥

रेनु रैनि होइ रबिहिं गरासा । मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा ॥

भुइँ उडि अंतरिक्ख मृतमंडा । खंड खंड धरती बरम्हंडा ॥

डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा । बासुकि जाइ पतारहि चाँपा ॥

मेरु धसमसै, समुद सुखाई । बन खँड टूटि खेह मिल जाई ॥

अगिलिहिं कहँ पानी लेइ बाँटा । पछिलहिं कहँ नहिं काँदौं आटा ॥


जो गढ नएउ न काहुहि चलत होइ सो चूर ।

जब वह चढै भूमिपति सेर साहि जग सूर ॥14॥


अदल कहौं पुहुमी जस होई । चाँटा चलत न दुखवै कोई ॥

नौसेरवाँ जो आदिल कहा । साहि अदल-सरि सोउ न अहा ॥

अदल जो कीन्ह उमर कै नाई । भइ अहा सगरी दुनियाई ॥

परी नाथ कोइ छुवै न पारा । मारग मानुष सोन उछारा ॥

गऊ सिंह रेंगहि एक बाटा । दूनौ पानि पियहिं एक घाटा ॥

नीर खीर छानै दरबारा । दूध पानि सब करै निनारा ॥

धरम नियाव चलै; सत भाखा । दूबर बली एक सम राखा ॥


सब पृथवी सीसहिं नई जोरि जोरि कै हाथ ।

गंग-जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ ॥15॥


पुनि रूपवंत बखानौं काहा । जावत जगत सबै मुख चाहा ॥

ससि चौदसि जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उँजियारा ॥

पाप जाइ जो दरसन दीसा । जग जुहार कै देत असीसा ॥

जैस भानु जग ऊपर तपा । सबै रूप ओहि आगे छपा ॥

अस भा सूर पुरुष निरमरा । सूर चाहि दस आगर करा ॥

सौंह दीठि कै हेरि न जाई । जेहि देखा सो रहा सिर नाई ॥

रूप सवाई दिन दिन चढा ।बिधि सुरूप जग ऊपर गढा ॥


रूपवंत मनि माथे, चंद्र घाटि वह बाढि ।

मेदिनि दरस लोभानी असतुति बिनवै ठाढि ॥16॥


पुनि दातार दई जग कीन्हा । अस जग दान न काहू दीन्हा ॥

बलि विक्रम दानी बड कहे । हातिम करन तियागी अहे ॥

सेरसाहि सरि पूज न कोऊ । समुद सुमेर भँडारी दोऊ ॥

दान डाँक बाजै दरबारा । कीरति गई समुंदर पारा ॥

कंचन परसि सूर जग भयऊ । दारिद भागि दिसंतर गयऊ ॥

जो कोइ जाइ एक बेर माँगा । जनम न भा पुनि भूखा नागा ॥

दस असमेध जगत जेइ कीन्हा । दान-पुन्य-सरि सौंह न दीन्हा ॥


ऐस दानि जग उपजा सेरसाहि सुलतान ।

ना अस भयउ न होइहि, ना कोइ देइ अस दान ॥17॥


सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥

लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥

मारग हुत अँधियार जो सूझा । भा अँजोर, सब जाना बूझा ॥

खार समुद्र पाप मोर मेला । बोहित -धरम लीन्ह कै चेला ॥

उन्ह मोर कर बूडत कै गहा । पायों तीर घाट जो अहा ॥

जाकहँ ऐस होइ कंधारा । तुरत बेगि सो पावै पारा ॥

दस्तगीर गाढे कै साथी । बह अवगाह, दीन्ह तेहि हाथी ॥


जहाँगीर वै चिस्ती निहकलंक जस चाँद ।

वै मखदूम जगत के, हौं ओहि घर कै बाँद ॥18॥


ओहि घर रतन एक निरमरा । हाजी शेख सबै गुन भरा ॥

तेहि घर दुइ दीपक उजियारे । पंथ देइ कहँ दैव सँवारे ॥

सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥

दुऔ अचल धुव डोलहि नाहीं । मेरु खिखिद तिन्हहुँ उपराहीं ॥

दीन्ह रूप औ जोति गोसाईं । कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं ॥

दुहुँ खंभ टेके सब महीं । दुहुँ के भार सिहिट थिर रही ॥

जेहि दरसे औ परसे पाया । पाप हरा, निरमल भइ काया ॥


मुहमद तेइ निचिंत पथ जेहि सग मुरसिद पीर ।

जेहिके नाव औ खेवक बेगि लागि सो तीर ॥19॥



गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥

अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥

अहलदाद भल तेहि कर गुरू । दीन दुनी रोसन सुरखुरू ॥

सैयद मुहमद कै वै चेला । सिद्द-पुरुष-संगम जेहि खेला ॥

दानियाल गुरु पंथ लखाए । हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए ॥

भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे । लिये मेरइ जहँ सैयद राजे ॥

ओहि सेवत मैं पाई करनी । उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी ॥


वै सुगुरू, हौं चेला , नित बिनवौं भा चेर ।

उन्ह हुत देखै पायउँ दरस गोसाईं केर ॥20॥


एक नयन कबि मुहमद गुनी । सोइ बिमोहा जेहि कबि सुनी ॥

चाँद जैस जग विधि औतारा । दीन्ह कलंक, कीन्ह उजियारा ॥

जग सूझा एकै नयनाहाँ । उआ सूक जस नखतन्ह माहाँ ॥

जौ लहि अंबहिं डाभ न होई । तौ लहि सुगँध बसाइ न सोई ॥

कीन्ह समुद्र पानि जो खारा । तौ अति भयउ असूझ अपारा ॥

जौ सुमेरु तिरसूल बिनासा । भा कंचन-गिरि, लाग अकासा ॥

जौ लहि घरी कलंक न परा । काँच होइ नहिं कंचन-करा ॥


एक नयन जस दरपन औ निरमल तेहि भाउ ।

सब रूपवंतइ पाउँ गहि मुख जोहहिं कै चाउ ॥21॥


चारि मीन कबि मुहमद पाए । जोरि मिताई सिर पहुँचाए ॥

युसूफ मलिक पँडित बहु ज्ञानी । पहिले भेद-बात वै जानी ॥

पुनि सलार कादिम मतिमाहाँ । खाँडे-दान उभै निति बाहाँ ॥

मियाँ सलौने सिंघ बरियारू । बीर खेतरन खडग जुझारू ॥

सेख बडे, बड सिद्ध बखाना । किए आदेस सिद्ध बड माना ।

चारिउ चतुरदसा गुन पढे । औ संजोग गोसाईं गढे ॥

बिरिछ होइ जौ चंदन पासा । चंदन होइ बेधि तेहि बासा ॥


मुहमद चारिउ मीत मिलि भए जो एकै चित्त ।

एहि जग साथ जो निबहा, ओहि जग बिछुरन कित्त ?॥22॥


जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥

औ बिनती पँडितन सन भजा । टूट सँवारहु, नेरवहु सजा ॥

हौं पंडितन केर पछलागा । किछु कहि चला तबल देइ डगा ॥

हिय भंडार नग अहै जो पूजी । खोली जीभ तारू कै कूँजी ॥

रतन-पदारथ बोल जो बोला । सुरस प्रेम मधु भरा अमोला ॥

जेहि के बोल बिरह कै घाया । कह तेहि भूख कहाँ तेहि माया ?॥

फेरे भेख रहै भा तपा । धूरि-लपेटा मानिक छपा ॥


मुहमद कबि जौ बिरह भा ना तन रकत न माँसु ।

जेइ मुख देखा तेइ हसा, सुनि तेहि आयउ आँसु ॥23॥


सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥

सिंघलदीप पदमिनी रानी । रतनसेन चितउर गढ आनी ॥

अलउद्दीन देहली सुलतानू । राघौ चेतन कीन्ह बखानू ॥

सुना साहि गढ छेंका आई । हिंदू तुरुकन्ह भई लराई ॥

आदि अंत जस गाथा अहै । लिखि भाखा चौपाई कहै ॥

कवि बियास कवला रस-पूरी । दूरि सो नियर, नियर सो दूरी ॥

नियरे दूर, फूल जस काँटा । दूरि जो नियरे, जस गुड चाँटा ॥


भँवर आइ बनखँड सन कँवल कै बास ।

दादुर बास न पावई भलहि जो आछै पास ॥24॥




(1) उरेहा = चित्रकारी । सीउ = शीत । कीन्हेसि...कैलासू = उसी ज्योति अर्थात् पैगंबर मुहम्मद की प्रीति के कारण स्वर्ग की सृष्टि की । (कुरान की आयत) कैलास - बिहिश्त, स्वर्ग । इस शब्द का प्रयोग जायसी ने बराबर इसी अर्थ में किया है ।

(2)खिखिंद = किष्किंधा । निरमरे = निर्मल । साउज = वे जानवर जिनका शिकार किया जाता है । आरन = आरण्य । बाज = बिना । जैसे दीन दुख दारिद दलै को कृपा बारिधि बाज

(3)बेना = खस । भीमसेन, चीना = कमूर के भेद । लीबा = लोमडी । इंदुर=चूहा । चाँटी=चींटी । भौकस=दानव । सहस अठारह=अठारह हजार प्रकार के जीव (इसलाम के अनुसार)

(4)भूँजहिं=भोगते हैं । बरियार=बलवान ।

(5) उपाई=उत्पन्न की । आस हर=निराश ।

(6) भाँजै=भंजन करता है, नष्ट करता है ।

(7) सिरजना=रचना ।

(8) बेहरा=अलग (बिहरना=फटना)।

(11) पूनौ करा=पूर्निमा की कला । प्रथम....उपराजी=कुरान में लिखा है कि यह संसार मुहम्मद के लिये रचा गया, मुहम्मद न होते तो यह दुनिया न होती । जगत-बसीठ=संसार में ईश्वर का संदेसा लानेवाला , पैगंबर । लेख जोख=कर्मों का हिसाब । दुसरे ठाँव....वै लिखे = ईश्वर ने मुहम्मद को दूसरे स्थान पर लिखा अर्थात् अपने से दूसरा दरजा दिया । पाढत = पढंत, मंत्र, आयत । (12) सिदिक = सच्चा । दीन =धर्म, मत । बाना = रीति ,ढंग । संधान = खोज, उद्देश्य, लक्ष्य

(13) छात = छत्र । पाट = सिंहासन । सूर =शेरशाह सूर जाति का पठान था । जुलकरन = जुलकरनैन, सिकंदर की एक अरबी उपाधि काँदौ = कर्दम, कीचड ।

(15) अहा = था । भई अहा = वाह वाह हुई । नाथ = नाक में पहनने की नथ । पारा = सकता है । निनारा = अलग 2(निर्णय)।

(16)मुख चाहा = मुँह देखता है। आगर =अग्र, बढकर । चाहि = अपेक्षाकृत (बढकर) । करा = कला। ससि चौदसि=पूर्णिमा (मुसलमान प्रथम चंद्रदर्शन अर्थात द्वितीया से तिथि गिनते हैं, इससे पूर्णिमा को उन की चौदहवीं तिथि पडती है ।)

(17) डाँक = डंका । सौंह न दीन्हा = सामना न किया ।

(18) लेसा =जलाया । कंधार = कर्णधार, केवट । हाथी दीन्ह = हाथ दिया, बाँह का सहारा दिया । अँजोर = उजाला । खिखिंद = किष्किंध पर्वत ।

(19) खेवक = खेनेवाला, मल्लाह ।

(20) खेवा = नाव का बोझ । सुरखुरू = सुर्खरू, मुख पर तेज धारण करनेवाले । उताइल = जल्दी । मेरइ लिये = मिला लिया । सैयद राजे = सैयद राजे हामिदशाह । उन्ह हुत = उनके द्वारा ।

(21) नयनाहाँ = नयन से, आँख से । डाभ = आम के फल के मुँह पर का तीखा चेप ।चोपी ।

(22) मतिमाहाँ = मतिमान् । उभै = उठती है । जुझारू = योद्धा । चतुरदसा गुन = चौदह विद्याएँ ।

(23) बिनती भजा = बिनती की (करता हूँ)। टूट = त्रुटि, भूल । डगा = डुग्गी बजाने की लकडी । तारु = (क) तालू । (ख) ताला कूँजी = कुँजी । फेरे भेष = वेष बदलते हुए । तपा = तपस्वी ।

(24) आछै = है । जैसे - कह कबीर कछु अछिलो न जहिया ।


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