पूछा राजै कहु गुरु सूआ । न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ ॥
पौन बास सीतल लेइ आवा । कया दहत चंदनु जनु लावा ॥
कबहुँ न एस जुडान सरीरू । परा अगिनि महँ मलय-समीरू ॥
निकसत आव किरिन-रविरेखा । तिमिर गए निरमल जग देखा ॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगे । चमकै बीजु गगन पर लागै ॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा । औ सो चंद कचपची गरासा ॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे । ठावहिं ठाँव दीप अस बारे ॥
और दखिन दिसि नीयरे कंचन-मेरु देखाव ।
जनु बसंत ऋतु आवै तैसि तैसि बास जग आव ॥1॥
तूँ राजा जस बिकरम आदी । तू हरिचंद बैन सतबादी ॥
गोपिचंद तुइँ जीता जोगू । औ भरथरी न पूज बियोगू ॥
गोरख सिद्धि दीन्ह तोहि हाथू । तारी गुरू मछंदरनाथू ॥
जीत पेम तुइँ भूमि अकासू । दीठि परा सिंघल-कबिलासू ॥
वह जो मेघ गढ लाग अकासा । बिजुरी कनय-कोट चहु पासा ॥
तेहि पर ससि जो कचपचि भरा । राजमंदिर सोने नग जरा ॥
और जो नखत देख चहुँ पासा । सब रानिन्ह कै आहिं अवासा ॥
गगन सरोवर, ससि-कँवल कुमुद-तराइन्ह पास ।
तू रवि उआ, भौंर होइ पौन मिला लेइ बास ॥2॥
सो गढ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा ॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा ॥
अगिनि उठी, जरि बुझी निआना । धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना ॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ । बहुरा रोइ, आइ भुइँ चूआ ॥
रावन चहा सौंह होइ उतरि गए दस माथ ।
संकर धरा लिलाट भुइँ और को जोगीनाथ ?॥3॥
तहाँ देखु पदमावति रामा । भौंर न जाइ, न पंखी नामा ॥
अब तोहि देउँ सिद्धि एक जोगू । पहिले दरस होइ, तब भोगू ॥
कंचन-मेरु देखाव सो जहाँ । महादेव कर मंडप तहाँ ॥
ओहि-क खंड जस परबत मेरू । मेरुहि लागि होइ अति फेरू ॥
माघ मास, पाछिल पछ लागे । सिरी-पंचिमी होइहि आगे ॥
उघरहि महादेव कर बारू । पूजिहि जाइ सकल संसारू ॥
पदमावति पुनि पूजै आवा । होइहि एहि मिस दीठि-मेरावा ॥
तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास ।
पूजै आइ बसंत जब तब पूजै मन-आस ॥4॥
राजै कहा दरस जौं पावौं । परबत काह, गगन कहँ धावौं ॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढौं, पाँव का कहना ॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौ कीजिय बेवहारा ॥
ऊँचै चढै, ऊँच खँड सूझा । ऊँचे पास ऊँच मति बूझा ॥
ऊँचे सँग संगति निति कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै ॥
दिन दिन ऊँच होइ सो जेहि ऊँचे पर चाउ ।
ऊँचे चढत जो खसि परै ऊँच न छाँडिय काउ ॥5॥
हीरामन देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी ॥
राजा चला सँवरि सो लता । परबत कहँ जो चला परबता ॥
का परबत चढि देखै राजा । ऊँच मँडप सोने सब साजा ॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी । औ तहँ लागि सजीवन-मूरी ॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा । बैठे देवता चहूँ दुवारा ॥
भीतर मँडप चारि खँभ लागे । जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागे ॥
संख घंट घन बाजहिं सोई । औ बहु होम जाप तहँ होई ॥
महादेव कर मंडप जग मानुस तहँ आव ।
जस हींछा मन जेहि के सो तैसे फल पाव ॥6॥
(1)कचपची = कृत्तिका नक्षत्र ।
(2) आदि = आदी, बिलकुल । बैन = वचन अथवा वैन्य (वेन का पुत्र पृथु) तारी =ताली, कुंजी । मछंदरनाथ = मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ के गुरु । कनय = कनक, सोना । जमकात = एक प्रकार का खाँडा (यमकर्त्तरि) । बाजा = पहुँचा,डटा । तैस = ऐसा । निआन = अंत में । जोगीनाथ = योगीश्वर ।
(4) पछ = पक्ष । उघरहि = खुलेगा बारू =बार, द्वार । दीठि-मेरवा = परस्पर दर्शन ।
(5) बूझा =बूझ, समझता है । खसि परै = गिर पडे ।
(6)बचा कहानी = वचन और व्यवस्था । लता = पद्मलता,पद्मावती । परबता =सुआ (सुए का प्यार का नाम) का देखै = क्या देखता है कि । हींछा = इच्छा ।
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