Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत (नागमती-पद्मावती-विवाद-खण्ड) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat / Nagmati Padmavati Vivad Khand | Malik Muhammad Jayasi



 जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी ॥

दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी ॥

नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धमारी ॥

सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औ सिंगार-हार सब गूँथहिं ॥

तुम जो बकावरि तुम्ह सौं भर ना । बकुचन गहै चहै जो करना ॥

नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछे आपनि बारी ॥

जस सेवतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु वहू अकेली ॥


अलि जो सुदरसन कूजा , कित सदबरगै जोग ?

मिला भँवर नागेसरिहि , दीन्ह ओहि सुख-भोग ॥1॥


सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी ॥

दुवौ सवति मिलि पाट बईठी । हिय विरोध, मुख बातैं मीठी ॥

बारी दिस्टि सुरंग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई ॥

बारी सुफल अहैं तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी ॥

नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ ॥

रहा जो मधुकर कँवल-पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता ॥

जह अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ॥


फूल फूल जस फर जहाँ , देखहु हिये बिचारि ।

आँब लाग जेहि बारी जाँबु काह तेहि बारि ? ॥2॥


अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा ॥

साम जाँबु कस्तूरी चोवा । आँब ऊँच, हिरदय तेहि रोवाँ ॥

तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी ॥

जल बाढे बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाईं ॥

तुँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि, धाई मुँह-सूखी ॥

उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बैरी केरा ॥

जो देखी नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी ॥


जो सरवर-जल बाढै रहै सो अपने ठाँव ।

तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर-अंबराव ॥3॥


तुइँ अँबराव लीन्हा का जूरी ?। काहे भई नीम विष-मूरी ॥

भई बैरि कित कुटिल कटेली । तेंदू टेंटी चाहि कसेली ॥

दारिउँ दाख न तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी ?॥

औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बडहर खीरा ॥

कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर ॥

जहँ कटहर ऊमर को पूछै ?। बर पीपर का बोलहिं छूँछै ॥

जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका ॥


रहु आपनि तू बारी, मोसौं जूझु, न बाजु ।

मालति उपम न पूजै वन कर खूझा खाजु ॥4॥


जो कटहर बडहर झडबेरी । तोहि असि नाहीं, कोकाबेरी ! ॥

साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा ॥

नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं ॥

तोरे कहे होइ मोरर काहा ?। फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा ॥

नवैं सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई ॥

जयफर लौंग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा ॥

हौं सो पान रंग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई ॥


लाजहिं बूडि मरसि नहिं,, उभि उठावसि बाँह ।

हौं रानी, पिय राजा; तो कहँ जोगी नाह ॥5॥


हौं पदमिनि मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा ॥

पूजा-जोग दई हम्म गढी । और महेस के माथे चढी ॥

जानै जगत कँवल कै करी । तोहि अस नहिं नागिनि बिष-भरी ॥

तुइँ सब लिए जगत के नागा । कोइल भेस न छाँडेसि कागा ॥

तू भुजइल, हौं हँसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी ॥

कंचन-करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना ॥

तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि अँधियारी ॥


ठाढि होसि जेहि ठाईं मसि लागै तेहि ठाव ।

तेहि डर राँध न बैठौं मकु साँवरि होइ जाव ॥6॥


कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा ॥

रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा ॥

कँवल-पत्र तर दारिउँ, चोली । देखे सूर देसि है खोली ॥

ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा ॥

इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कह हँसि बहरावसि ॥

सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पिय बासी ॥

सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी ?॥


सुरुज-किरन बहरावै, सरवर लहरि न पूज ।

भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूँज ॥7॥


मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी ?॥

हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार, भोर मुख देखौं ॥

मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू ॥

हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता ॥

कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह, का घटा ?॥

जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा ?॥

तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उडै मरन के पाँखी ॥


धूप न देखहि, बिषभरी ! अमृत सो सर पाव ।

जेहि नागनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव ॥8॥


फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए ॥

फिरहिं भँवर तारे नयनाहाँ । नीर बिसाइँध होइ तोहि पाहाँ ॥

मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा ॥

जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँध भए ॥

जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ ॥

मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहु के साथ चाँद कै मीचू ॥

सहस बार जौ धोवै कोई । तौहु बिसाइँध जाइ न धोई ॥


काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अँगारि ।

तेहि के खेल भरोसे तुइ जीती, मैं हारि ॥9॥


तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू ॥

बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी ॥

नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना ॥

भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी ॥

नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ ॥

दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधर-रंग जीतिउँ बिंबाहीं ॥

केहरि जितिउँ, लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वे दीन्ही ॥


पुहुप-बास मलयगिरि निरमल अंग बसाई ।

तू नागिनि आसा-लुबुध डससि काहु कहँ जाइ ॥10॥


का तोहिं गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाएँ ॥

हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक-बैना ॥

नासिक खरग, फूल धुव तारा । भौंहैं धनुक गगन गा हारा ॥

हीरा दसन सेत औ सामा । चपै बीजु जौ बिहँसै बामा ॥

बिद्रूम अधर रंग रस-राते । जूड अमिय अस, रबि नहिं ताते ॥

चाल गयंद गरब अति भारी । बसा लंक, नागेसर - करी ॥

साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी ॥


पुहुप-बास औ पवन अधारी कँवल मोर तरहेल ।

चहौं केस धरि नावौं, तोर मरन मोर खेल ॥11॥


पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही ॥

वह ओहि कहँ,वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ न कहा ॥

दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं ॥

भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा ॥

कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी ॥

कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता ॥

देवलोक देखत हुत ठाढे । लगे बान हिय, जाहिं न काढे ॥


जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु ।

रहा न कोइ धरहरिया करै दुहुन्ह महँ बीचु ॥12॥


पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लडहिं पदमिनि औ नागा ॥

दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी ॥

चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी ॥

एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा ?॥

अस गियान मन आव न कोई । कबहुँ राति, कबहुँ दिन होई ॥

धूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रहहिं एक संगा ॥

जूझ छाँडि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव-फल होऊ ॥


गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग ।

सेव करहु मिलि दूनौ तौ मानहु सुख भौग ॥13॥


अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई ॥

लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन-पलँग जहँ रहे बिछाए ॥

सीझी पाँच अमृत-जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा ॥

हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसी रहसाई ॥

सोन-मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप-मँदिर पदमावति लीन्हा ॥

मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा ॥

सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा ॥


बहु सुगंध, बहु भौग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं ।

दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं ॥14॥



(1) धमारी करै = होली की सी धमार या क्रीडा करता है । तुम जो बकावरि ...भर ना = तुम जो बकावली फूल हो क्या तुमसे राजा का जी नहीं भरता ? बकुचन गहे...करना = जो वह करना फूल को पकडना या आलिंगन करना चाहता है । नागेसरि = नागकेसर । कँवल न.... आपनि बारी = कँवल (पद्मावती) अपनी बारी या घर में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पडता है । जस सेवतीं..चमेली = जैसे सेवती और गुलाला आदि (स्त्रियाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक पद्मिनी भी है । अलि जो ....सदबरगै जोग = जो भँवरा सुदरसन फूल पर गूँजेगा वह सदबर्ग (गेंदा) के योग्य कैसे रह जायगा ?


(2) संगतराव = सँगतरा नीबू ; संगत राव, राजा का साथ । अमिलीं इमली; न मिली हुई; विरहिणी । नौरँग = नारंगी; नए आमोद-प्रमोद ।


(3) अनु = और । तजा पाकि = सरोवर का जल छोडा । अभेरा = भिडंत, रगडा । सारी = सारिका, मैना । सरवर-जल = सरोवर के जल में । बाढै =बढता है ?


(4) तुइँ अँबराव...जूरी =तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या किया है ? ऊमर = गूलर । न बाजु = न लड । खूझा खाजु = खर पतवार, नीरस फल ।


(5) झडबेरी = झडबेर, जंगली बेर । कोकाबेरी =कमलिनी । गल गल जाउ = चाहे गल जाऊँ; गलगल नीबू । सवति नहिं भाखौं = सपत्नी का नाम न लूँ । कोइ ढेल न बाहा = कोई ढेला न फेंके (उससे क्या होता है) ऊभी = उठाकर


(6) केवा = कमल कागा = कौवापन भुजइल = भुजंगा पक्षी । पोत = काँच या पत्थर की गुरिया । मसि =स्याही राँध = पास, समीप ।


(7) रोठा = रोडा, टुकडा । जेहि के हिये..कोठा = कँवल गट्टे के भीतर बहुत से बीज कोष होते हैं । गटा = कँवलगट्टा । उघेलि = खोलकर । दारिउँ = अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है । निसि भरसी = रात बिताती है तू । करसी = तू करती है । सरवर...पूज = ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती; वह जल के ऊपर उठा रहता है। भूँज = भूनती है ।


(8) हरि हर हार कीन्ह = कमल की माला विष्णु और शिव पहनते हैं । मरन के पाँखी = कीडों को जो पंख अंत समय में निकलते हैं ।


(9) जरि = जड, मून । डोम छूआ = प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के ऋणी हैं वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है


(10) आसालुबुध = सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं ।


(11) सिंगार पराए = दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है । जूड अमिय ...ताते = उन अधरों में बालसूर्य की ललाई है पर वे अमृत के समान शीतल हैं; गरम नहीं । नागेसर-करी = नागेसर फूल की कली । तरहेल नीचे पडा हुआ, अधीन ।


(12) बाजैं = लडती हैं । बाग न मोरा = बाग नहीं मोडती, अर्थात् लडाई से हटती नहीं । अनी = नोक । तनी = चोली के बंद । चौदंता = स्याम देश का एक प्रकार का हाथी;अथवा थोडी अवस्था का उद्दंड पशु (बैल, घोडे आदि के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है ) ठगलाडू = ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को बेहोश करते हैं । धरहरिया = झगडा छुडानेवाला । बीचु करै = दोनों को अलग करे, झगडा मिटाए ।


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