तन बिसँभर मन बाउर लटा । अरुझा पेम, परी सिर जटा ॥
चंद्र-बदन औ चंदन-देहा । भसम चढाइ कीन्ह तन खेहा ॥
मेखल, सिंघी, चक्र धँधारी । जोगबाट, रुदराछ, अधारी ॥
कंथा पहिरि दंड कर गहा । सिद्ध होइ कहँ गोरख कहा ॥
मुद्रा स्रवन, खंठ जपमाला । कर उदपान, काँध बघछाला ॥
पाँवरि पाँव, दीन्ह सिर छाता । खप्पर लीन्ह भेस करि राता ॥
चला भुगुति माँगै कहँ, साधि कया तप जोग ।
सिद्ध होइ पदमावति, जेहि कर हिये बियोग ॥1॥
गनक कहहिं गनि गौन न आजू । दिन लेइ चलहु, होइ सिध काजू ॥
पेम-पंथ दिन घरी न देखा । तब देखै जब होइ सरेखा ॥
जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू । कया न रकत, नैन नहिं आँसू ॥
पंडित भूल, न जानै चालू । जिउ लेत दिन पूछ न कालू ॥
सती कि बौरी पूछिहि पाँडे । औ घर पैठि कि सैंतै भाँडे ॥
मरै जो चलै गंग गति लेई । तेहि दिन कहाँ घरी को देई ?॥
मैं घर बार कहाँ कर पावा । घरी के आपन , अंत परावा ॥
हौं रे पथिक पखेरू; जेहि बन मोर निबाहु ।
खेलि चला तेहि बन कहँ, तुम अपने घर जाहु ॥2॥
चहुँ दिसि आन साँटया फेरी । भै कटकाई राजा केरी ॥
जावत अहहिं सकल अरकाना । साँभर लेहु, दूरि है जाना ॥
सिंघलदीप जाइ अब चाहा । मोल न पाउब जहाँ बेसाहा ॥
सब निबहै तहँ आपनि साँठी । साँठि बिना सो रह मुख माटी ॥
राजा चला साजि कै जोगू । साजहु बेगि चलहु सब लोगू ॥
गरब जो चडे तुरब कै पीठी । अब भुइँ चलहु सरग कै डीठी ॥
मंतर लेहु होहु सँग-लागू । गुदर जाइ ब होइहि आगू ॥
का निचिंत रे मानुस, आपन चीते आछु ।
लेहि सजग होइ अगमन, मन पछिताव न पाछु ॥3॥
बिनवै रतनसेन कै माया । माथै छात, पाट निति पाया ॥
बिलसहु नौ लख लच्छि पियारी । राज छाँडि जिनि होहु भिखारी ॥
निति चंदन लागै जेहि देहा । सो तन देख भरत अब खेहा ॥
सब दिन रहेहु करत तुम भोगू । सो कैसे साधव तप जोगू ?॥
कैसे धूप सहब बिनु छाहाँ । कैसे नींद परिहि भुइ माहाँ ?॥
कैसे ओढव काथरि कंथा । कैसे पाँव चलब तुम पंथा ?॥
कैसे सहब खीनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा ?॥
राजपाट, दर; परिगह तुम्ह ही सौं उजियार ।
बैठि भोग रस मानहु, खै न चलहु अँधियार ॥4॥
मोंहि यह लोभ सुनाव न माया । काकर सुख, काकर यह काया ॥
जो निआन तन होइहि छारा । माटहि पोखि मरै को भारा ?॥
का भूलौं एहि चंदन चोवा । बैरी जहाँ अंग कर रोवाँ ॥
हाथ, पाँव,सरन औं आँखी । ए सब उहाँ भरहि मिलि साखी ॥
सूत सूत तन बोलहिं दोखू । कहु कैसे होइहि गति मोखू ॥
जौं भल होत राज औ भोगू । गोपिचंद नहिं साधत जोगू ॥
उन्ह हिय-दीठि जो देख परेबा । तजा राज कजरी-बन सेवा ॥
देखि अंत अस होइहि गुरू दीन्ह उपदेस ।
सिंघलदीप जाब हम, माता ! देहु अदेस ॥5॥
रोवहिं नागमती रनिवासू । केइ तुम्ह कंत दीन्ह बनबासू ?॥
अब को हमहिं करिहि भोगिनी । हमहुँ साथ होब जोगिनी ॥
की हम्ह लावहु अपने साथा । की अब मारि चलहु एहि हाथा ॥
तुम्ह अस बिछुरै पीउ पिरीता । जहँवाँ राम तहाँ सँग सीता ॥
जौ लहि जिउ सँग छाँड न काया । करिहौं सेव, पखरिहों पाया ॥
भलेहि पदमिनी रूप अनूपा । हमतें कोइ न आगरि रूपा ॥
भवै भलेहि पुरुखन कै डीठी । जिनहिं जान तिन्ह दीन्ही पीठी ॥
देहिं असीस सबै मिलि, तुम्ह माथे नित छात ।
राज करहु चितउरगढ, राखउ पिय! अहिबात ॥6॥
तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी । मूरुख सो जो मतै घर नारी ॥
राघव जो सीता सँग लाई । रावन हरी, कवन सिधि पाई ?॥
यह संसार सपन कर लेखा । बिछुरि गए जानौं नहिं देखा ॥
राजा भरथरि सुना जो ज्ञानी । जेहि के घर सोरह सै रानी ॥
कुच लीन्हे तरवा सहराई । भा जोगी, कोउ संग न लाई ॥
जोगहि काह भौग सौं काजू । चहै न धन धरनी औ राजू ॥
जूड कुरकुटा भीखहि चाहा । जोगी तात भात कर काहा ?॥
कहा न मानै राजा, तजी सबाईं भीर ।
चला छाँडि कै रोवत, फिरि कै देइ न धीर ॥7॥
रोवत माय, न बहुरत बारा । रतन चला, घर भा अँधियारा ॥
बार मोर जौ राजहि रता । सो लै चला, सुआ परबता ॥
रोवहिं रानी, तजहिं पराना । नोचहिं बार, करहिं खरिहाना ॥
चूरहिं गिउ-अभरन, उर-हारा । अब कापर हम करब सिंगारा ?॥
जा कहँ कहहिं रहसि कै पीऊ । सोइ चला, काकर यह जीऊ ॥
मरै चहहिं, पै मरै न पावहिं । उठे आगि, सब लोग बुझावहिं ॥
घरी एक सुठि भएउ अँदोरा । पुनि पाछे बीता होइ रोरा ॥
टूटे मन नौ मोती , फूटे मन दस काँच ।
लान्ह समेटि सब अभरन, होइगा दुख के नाच ॥8॥
निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँडा नगर मैलि कै धूरी ॥
राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥
माया मोह हरा सेइ हाथा ।देखेन्हि बूझि निआन न साथा ॥
छाँडेन्हि लोग कुटुँब सब कोऊ । भए निनान सुख दुख तजि दोऊ ॥
सँवरैं राजा सोइ अकेला । जेहि के पंथ चले होइ चेला ॥
नगर नगर औ गाँवहिं गाँवाँ । छाँडि चले सब ठाँवहि ठावाँ ॥
काकर मढ, काकर घर माया । ताकर सब जाकर जिउ काया ॥
चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।
कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥9॥
आगे सगुन सगुनिये ताका । दहिने माछ रूप के टाँका ॥
भरे कलस तरुनी जल आई । `दहिउ लेहु' ग्वालिनि गोहराई ॥
मालिनि आव मौर लिए गाँथे । खंजन बैठ नाग के माथे ॥
दहिने मिरिग आइ बन धाएँ । प्रतीहार बोला खर बाएँ ॥
बिरिख सँवरिया दहिने बोला । बाएँ दिसा चापु चरि डोला ॥
बाएँ अकासी धौरी आई । लोवा दरस आई दिखराई ॥
बाएँ कुररी, दहिने कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥
जा कहँ सगुन होहिं अस औ गवनै जेहि आस ।
अस्ट महासिधि तेहि कहँ, जस कवि कहा बियास ॥10॥
भयउ पयान चला पुनि राजा । सिंगि-नाद जोगिन कर बाजा ॥
कहेन्हि आजु किछु थोर पयाना । काल्हि पयान दूरि है जाना ॥
ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई । तब हम कहब पुरुष भल सोई ॥
है आगे परबत कै बाटा । बिषम पहार अगम सुठि घाटा ॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा । ठावहिं ठाँव बैठ बटपारा ॥
हनुवँत केर सुनब पुनि हाँका । दहुँ को पार होइ, को थाका ॥
अस मन जानि सँभारहु आगू । अगुआ केर होहु पछलागू ॥
करहिं पयान भोर उठि, पंथ कोस दस जाहिं ।
पंथी पंथा जे चलहिं, ते का रहहिं ओठाहिं ॥11॥
करहु दीठी थिर होइ बटाऊ । आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ ॥
जो रे उबट होइ परे बुलाने । गए मारि, पथ चलै न जाने ॥
पाँयन पहिरि लेहु सब पौंरी काँट धसैं, न गडै अँकरौरी ॥
परे आइ बन परबत माहाँ । दंडाकरन बीझ-बन जाहाँ ॥
सघन ढाँख-बन चहुँदिसि फूला । बहु दुख पाव उहाँ कर भूला ॥
झाखर जहाँ सो छाँडहु पंथा । हिलगि मकोइ न फारहु कंथा ॥
दहिने बिदर, चँदेरी बाएँ । दहुँ कहँ होइ बाट दुइ ठाएँ ॥
एक बाट गइ सिंघल, दूसरि लंक समीप ।
हैं आगे पथ दूऔ, दहु गौनब केहि दीप ॥12॥
ततखन बोला सुआ सरेखा । अगुआ सोइ पंथ जेइ देखा ॥
सो का उडै न जेहि तन पाँखू । लेइ सो परासहि बूडत साखू ॥
जस अंधा अंधै कर संगी । पंथ न पाव होइ सहलंगी ॥
सुनु मत , काज चहसि जौं साजा । बीजानगर विजयगिरि राजा ॥
पहुचौ जहागोंड औ कोला । तजि बाएँ अँधियार, खटोला ॥
दक्खिन दहिने रहहि तिलंगा । उत्तर बाएँ गढ-काटंगा ॥
माँझ रतनपुर सिंघदुवारा ।झारखंड देइ बाँव पहारा ॥
आगे पाव उडैसा, बाएँ दिए सो बाट ।
दहिनावरत देइ कै, उतरु समुद के घाट ॥13॥
होत पयान जाइ दिन केरा । मिरिगारन महँ भएउ बसेरा ॥
कुस-साँथरि भइ सौंर सुपेती । करवट आइ बनी भुइँ सेंती ॥
चलि दस कोस ओस तन भीजा । काया मिलि तेहिं भसम मलीजा ॥
ठाँव ठाँव सब सोअहिं चेला । राजा जागै आपु अकेला ॥
जेहि के हिये पेम-रंग जामा । का तेहि भूख नीद बिसरामा ॥
बन अँधियार, रैनि अँधियारी । भादों बिरह भएउ अति भारी ॥
किंगरी हाथ गहे बैरागी । पाँच तंतु धुन ओही लागी ॥
नैन लाग तेहि मारग पदमावति जेहि दीप ।
जैस सेवातिहि सेवै बन चातक, जल सीप ॥14॥
(1) किंगरी = छोटी सारंगी या चिकारा । लटा = शिथिल, क्षीण । मेखल = मेखला । सिंघी = सींग का बाजा जो फूँकने से बजता है । धँधारी = एक में गुछी हुई लोहे की पतली कडियाँ जिनमें उलझे हुए डोरे या कौडी को गोरखपंथी साधु अद्भुत रीति से निकाला करते हैं; गोरखधंधा । अधारी = झोला जो दोहरा होता है । मुद्रा = स्फटिक का कुंडल जिसे गोरखपंथी कान में बहुत बडा छेद करके पहनते हैं । उदपान = कमंडलु । पाँवरि = खडाऊँ । राता = गेरुआ ।
(2) तब देखै = तब तो देखे; तब न देख सकता है । सरेखा = चतुर, होशवाला । सैंते = सँभालती या सहेजती है ।
(3) आन = आज्ञा, घोषणा । साँटिया = डौडीवाला । कटकाई = दलबल के साथ चलने की तैयारी अरकाना = अरकान-दौलत; सरदार । साँभर = संबल, कलेऊ । साँठि =पूँजी । तुरय =तुरग । गुदर होइहि = पेश होइए । आपनि चीते आछु = अपने चेत या होश में रह । आगमन = आगे, पहले से ।
(4) माया = माता । लच्छि = लक्ष्मी । कंथा =गुदडी । कुरहटा = मोटा कुटा अन्न । दर = दल या राजद्वार । परिगह = परिग्रह, परिजन, परिवार के लोग ।
(5) निआन = निदान, अंत में । पोखि = पोषण करके । साखी भरहिं =साक्ष्य या गवाही देते हैं । देख परेवा = पक्षी की सी अपनी दशा देखी । कजरीबन = कदलीवन ।
(6)भँवै = इधर-उधर घूमती है । जिनहिं..पीठी = जिनसे जान पहचान हो जाती है उन्हें छोड नए के लिये दौडा करती है ।
(7) मतै =सलाह ले । तात भात= गरम ताजा भात ।
(8) बारा = बालक, बेटा । खरिहान करहिं = ढेर लगाती है । अँदोरा = हलचल, कोलाहल
(9) पूरी = बजाकर । गेलि कै =लगाकर । निनार = न्यारे, अलग । मढ = मठ
(10) सगुनिया = शकुन जनानेवाला । माछ मछली । रूप = रूपा, चाँदी । टाँका = बरतन । मौर = फूलों का मुकुट जो विवाह में दूल्हे को पहनाया जाता है । गाँथे = गूथे हुए । बिरिख = वृष, बैल । सँवरिया = साँवला, काला । चाषु = चाष, नीलकंठ । अकासी धौरी = क्षेमकरी चील जिसका सिर सफेद और सब अंग लाल या खेरा होता है । लोवा = लोमडी । कुररी = टिटिहरी । कूचा = क्रौंच, कराकुल, कूज ।
(11) मिलान = टिकान, पडाव । ओठाहिं = उस जगह ।
(12) बटाऊ = पथिक । उबट = ऊबड-खाबड कठिन मार्ग । दंडाकरन = दंडकारण्य । बीझबन = सघन वन । झाँखर = कँटीली झाडियाँ । हिलगि =सटकर ।
(13) सरेख =सयाना, श्रेष्ठ, चतुर । लेइ सो...साखू =शाखा डूबते समय पत्ते को ही पकडता है । परास =पलास, पत्ता । सहलंगी = सँगलगा; साथी । बीजानगर = विजयानगरम् । गोंड औ कोल = जंगली जातियाँ । अँधियार = अँजारी जो बीजापुर का एक महाल था । खटोला = गढमंडला का पश्चिम भाग गढ काटंग - गढ कटंग, जबलपुर के आसपास का प्रदेश । रतनपुर =विलासपुर के जिले में आजकल है । सिंघ दुवारा = छिंदवाडा (?)। झारखंड =छत्तीसगढ और गोंडवाने का उत्तर भाग । सौंर = चादर । सेंती = से ।
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