Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत (बोहित-खण्ड) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat/ Bohit Khand | Malik Muhammad Jayasi



सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्त दत्त दुहुँ सती ॥

अपनेहि काया, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा ॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिद्धि तहँ होई ॥
निहचै चला छाँडि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू ॥
चढा बेगि, तब बोहित पेले । धनि सो पुरुष पेम जेइ खेले ॥
पेम-पंथ जौं पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा ॥
तेहि पावा उत्तिम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख-बासू ॥

एहि जीवन कै आस का ? जस सपना पल आधु ।
मुहमद जियतहि जे मुए तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु ॥1॥

जस बन रेंगि चलै गज-ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी ॥
धावहि बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं ॥
समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा ॥
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा ॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ॥
राजा सेंती किँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं ॥
तेहि रे पंथ हम चाहहिं गवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना ॥

गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ ।
जहाँ पाँव गुरु राखै , चेला राखै माथ ॥2॥

केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा ॥
यह तौ चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू ?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं ॥
राजपंखि तेहि पर मेडराहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं ॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक-मुख चारा लेइ देहीं ॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला ॥
तहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढै सोइ जो अगुमन बूझा ॥

दस महँ एक जाइ कोइ करम, धरम, तप, नेम ।
बोहित पार होइ जब तबहि कुसल औ खेम ॥3॥

राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा ॥
तुम्ह खेवहु जौ खैवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु ॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता ॥
धरती सरग जाँत-पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ ।
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम-पंथ त बाँधि न खाँगौं ॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद न डरै पैठि मरजीया ॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढँढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी ॥

सप्त पतार खोजि कै काढौं वेद गरंथ ।
सात सरग चढि धावौं पदमावति जेहि पंथ ॥4॥


(1) सत्त दत्त दुहुँ सती = सत्य या दान दोनों में सच्चा या पक्का है ।पेले = झोंक से चले ।

(2) ठाटी = ठट्ठ, झुंड । उपराहीं = अधिक (बेग से)। घाल न गने = पसंगे बराबर भी नहीं गिनता, कुछ नहीं समझता । घाल = घलुआ, थोडी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचनेवाला देता है । चाल्हा = एक मछली, चेल्हवा । नराजी = नाराज हुई । भुइँ बाजी = भूमि पर पडी । सँजूत = सावधान, तैयार । गवेजा =बातचीत । मेजा =मेंढक । कोहू = किसी को ।

(4) ओता = उतना । पट = पल्ला । खाँगौ = कसर न करूँ । मर-जीया = जी पर खेलकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तु (जैसे ,मोती,शिलाजीत, कस्तूरी) लाने वाले, जिवकिया । ढँढोरी = छानकर ।


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