Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत (बसंत-खण्ड) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat/ Basant Khand | Malik Muhammad Jayasi


दैऊ देउ कै सो ऋतु गँवाई । सिरी-पंचमी पहुँची आई ॥

भएउ हुलास नवल ऋतु माहाँ । खिन न सोहाइ धूप औ छाहाँ ॥

पदमावति सब सखी हँकारी । जावत सिंघलदीप कै बारी ॥

आजु बसंत नवल ऋतुराजा । पंचमि होइ, जगत सब साजा ॥

नवल सिंगार बनस्पति कीन्हा । सीस परासहि सेंदुर दीन्हा ॥

बिगसि फूल फूले बहु बासा । भौंर आइ लुबुधे चहुँ पासा ॥

पियर-पात -दुख झरे निपाते । सुख पल्लव उपने होइ राते ॥


अवधि आइ सो पूजी जो हींछा मन कीन्ह ।

चलहु देवगढ गोहने, चहहुँ सो पूजा दीन्ह ॥1॥


फिरी आन ऋतु-बाजन बाजे । ओ सिंगार बारिन्ह सब साजे ॥

कवँल-कली पदमावति रानी । होइ मालति जानौं बिगसानी ॥

तारा-मँडल पहिरि भल चोला । भरे सीस सब नखत अमोला ॥

सखी कुमोद सहस दस संगा । सबै सुगंध चढाए अंगा ॥

सब राजा रायन्ह कै बारी । बरन बरन पहिरे सब सारी ॥

सबै सुरूप, पदमिनी जाती । पान, फूल सेंदुर सब राती ॥

करहिं किलोल सुरंग-रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीली ॥


चहुँ दिसि रही सो बासना फुलवारी अस फूलि ।

वै बसंत सौं भूलीं, गा बसंत उन्ह भूलि ॥2॥


भै आहा पदमावति चली छत्तिस कुरि भइँ गोहन भली ॥

भइँ गोरी सँग पहिरि पटोरा । बाम्हनि ठाँव सहस अँग मोरा ॥

अगरवारि गज गौन करेई । बैसिनि पावँ हंसगति देई ॥

चंदेलिनि ठमकहिं पगु धारा । चली चौहानि, होइ झनकारा ॥

चली सोनारि सोहाग सोहाती । औ कलवारि पेम-मधु-माती ॥

बानिनि चली सेंदुर दिए माँगा । कयथिनि चली समाइँ न आँगा ॥

पटइनि पहिरि सुरँग-तन चोला । औ बरइनि मुख खात तमोला ॥


चलीं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ ।

बिस्वनाथ कै पूजा , पदमावति के साथ ॥3॥


कवँल सहाय चलीं फुलवारी । फर फूलन सब करहिं धमारी ॥

आपु आपु महँ करहिं जोहारू । यह बसंत सब कर तिवहारू ॥

चहै मनोरा झूमक होई । फर औ फूल लिएउ सब कोई ॥

फागु खेलि पुनि दाहब होरी । सैंतब खेह, उडाउब झोरी ॥

आजु साज पुनि दिवस न दूजा । खेलि बसंत लेहु कै पूजा ॥

भा आयसु पदमावति केरा । बहुरि न आइ करब हम फेरा ॥

तस हम कहँ होइहि रखवारी । पुनि हम कहाँ, कहाँ यह बारी ॥


पुनि रे चलब घर आपने पूजि बिसेसर-देव ।

जेहि काहुहि होइ खेलना आजु खेलि हँसि लेव ॥4॥


काहू गही आँब कै डारा । काहू जाँबु बिरह अति झारा ॥

कोइ नारँग कोइ झाड चिरौंजी । कोइ कटहर, बडहर, कोइ न्यौजी ॥

कोइ दारिउँ कोइ दाख औ खीरी । कोइ सदाफर, तुरँज जँभीरी ॥

कोइ जायफर, लौंग, सुपारी । कोइ नरियर, कोइ गुवा, छोहारी ॥

कोइ बिजौंर, करौंदा-जूरी । कोइ अमिली, कोइ महुअ, खजूरी ॥

काहू हरफारेवरि कसौंदा । कोइ अँवरा, कोइ राय-करौंदा ॥

काहू गही केरा कै घौरी । काहू हाथ परी निंबकौरी ॥


काहू पाई णीयरे, कोउ गए किछु दूरि ।

काहू खेल भएउ बिष, काहू अमृत-मूरि ॥5॥


पुनि बीनहिं सब फूल सहेली । खोजहिं आस-पास सब बेली ॥

कोइ केवडा, कोइ चंप नेवारी । कोइ केतकि मालति फुलवारी ॥

कोइ सदबरग, कुंद, कोइ करना । कोइ चमेलि, नागेसर बरना ॥

कोइ मौलसिरि, पुहुप बकौरी । कोई रूपमंजरी गौरी ॥

कोइ सिंगारहार तेहि पाहाँ । कोइ सेवती, कदम के छाहाँ ॥

कोइ चंदन फूलहिं जनु फूली । कोइ अजान-बीरो तर भूली ॥


(कोइ) फूल पाव, कोइ पाती, जेहि के हाथ जो आँट ॥

(कोइ) हारचीर अरुझाना, जहाँ छुवै तहँ काँट ॥6॥


फर फूलन्ह सब डार ओढाई । झुंड बाँधि कै पंचम गाई ॥

बाजहिं ढोल दुंदुभी भेरी । मादर, तूर, झाँझ चहु फेरी ॥

सिंगि संख, डफ बाजन बाजे । बंसी, महुअर सुरसँग साजे ॥

और कहिय जो बाजन भले । भाँति भाँति सब बाजत चले ॥

रथहिं चढी सब रूप-सोहाई । लेइ बसंत मठ-मँडप सिधाई ॥

नवल बसंत; नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी ॥

खिनहिं चलहिं; खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥


सेंदुर-खेह उडा अस, गगन भएउ सब रात ।

राती सगरिउ धरती, राते बिरिछन्ह पात ॥7॥


एहिं बिधि खेलति सिंघलरानी । महादेव-मढ जाइ तुलानी ॥

सकल देवता देखै लागे । दिस्टि पाप सब ततछन भागै ॥

एइ कबिलास इंद्र कै अछरी । की कहुँ तें आईं परमेसरी ॥

कोई कहै पदमिनी आईं । कोइ कहै ससि नखत तराईं ॥

कोई कहै फूली फुलवारी । फूल ऐसि देखहु सब बारी ॥

एक सुरूप औ सुंदर सारी । जानहु दिया सकल महि बारी ॥

मुरुछि परै जोई मुख जोहै । जानहु मिरिग दियारहि मोहै ॥


कोई परा भौंर होइ, बास लीन्ह जनु चाँप ।

कोइ पतंग भा दीपक, कोइ अधजर तन काँप ॥8॥


पदमावति गै देव-दुवारा । भीतर मँडप कीन्ह पैसारा ॥

देवहि संसै भा जिउ केरा । भागौं केहि दिसि मंडप घेरा ॥

एक जोहार कीन्ह औ दूजा । तिसरे आइ चढाएसि पूजा ॥

फर फूलन्ह सब मँडप भरावा । चंदन अगर देव नहवावा ॥

लेइ सेंदुर आगे भै खरी । परसि देव पुनि पायन्ह परी ॥

`और सहेली सबै बियाहीं । मो कहँ देव ! कतहुँ बर नाहीं ॥

हौं निरगुन जेइ कीन्ह न सेवा । गुनि निरगुनि दाता तुम देवा ॥


बर सौं जोग मोहि मेरवहु, कलस जाति हौं मानि ।

जेहि दिन हींछा पूजै बेगि चढावहुँ आनि ॥9॥


हींछि हींछि बिनवा जस जानी । पुनि कर जोरि ठाडि भइ रानी ॥

उतरु को देइ, देव मरि गएउ । सबत अकूत मँडप महँ भएउ ॥

काटि पवारा जैस परेवा । सोएव ईस, और को देवा ॥

भा बिनु जिउ नहिं आवत ओझा । बिष भइ पूरि, काल भा गोझा ॥

जो देखै जनु बिसहर-डसा । देखि चरित पदमावति हँसा ॥

भल हम आइ मनावा देवा । गा जनु सोइ, को मानै सेवा ? ॥

कौ हींछा पूरै, दुख खोवा । जेहि मानै आए सोइ सोवा ॥


जेहि धरि सखी उठावहिं, सीस विकल नहिं डोल ।

धर कोइ जीव न जानौं, मुख रे बकत कुबोल ॥10॥


ततखन एक सखी बिहँसानी । कौतुक आइ न देखहु रानी ॥

पुरुब द्वार मढ जोगी छाए । न जनौं कौन देस तें आए ॥

जनु उन्ह जोग तंत तन खेला । सिद्ध होइ निसरे सब चेला ॥

उन्ह महँ एक गुरू जो कहावा । जनु गुड देइ काहू बौरावा ॥

कुँवर बतीसौ लच्छन राता । दसएँ लछन कहै एक बाता ॥

जानौं आहि गोपिचंद जोगी । की सो आहि भरथरी वियोगी ॥

वै पिंगला गए कजरी-आरन । ए सिंघल आए केहि कारन ?॥


यह मूरति,यह मुद्रा, हम न देख अवधूत ।

जानौं होहिं न जोगी कोइ राजा कर पूत ॥11॥


सुनि सो बात रानी रथ चढी । कहँ अस जोगी देखौं मढी ॥

लेइ सँग सखी कीन्ह तहँ फेरा । जोगिन्ह आइ अपछरन्ह घेरा ॥

नयन कचोर पेम-पद भरे । भइ सुदिस्टि जोगी सहुँ टरे ॥

जोगी दिस्टि दिस्टि सौं लीन्हा । नैन रोपि नैनहिं जिउ दीन्हा ॥

जेहि मद चढा परा तेहि पाले । सुधि न रही ओहि एक पियाले ॥

परा माति गोरख कर चेला । जिउ तन छाँडि सरग कहँ खेला ॥

किंगरी गहे जो हुत बैरागी । मरतिहु बार उहै धुनि लागी ॥

जेहि धंधा जाकर मन लागै सपनेहु सूझ सो धंध ।

तेहि कारन तपसी तप साधहिं, करहिं पेम मन बंध ॥12॥


पदमावति जस सुना बखानू । सहस-करा देखेसि तस भानू ॥

मेलेसि चंदन मकु खिन जागा । अधिकौ सूत, सीर तन लागा ॥

तब चंदन आखर हिय लिखे । भीख लेइ तुइ जोग न सिखे ॥

घरी आइ तब गा तूँ सोई । कैसे भुगुति परापति होई ?॥

अब जौं सूर अहौ ससि राता । आएउ चढि सो गगन पुनि साता ॥

लिखि कै बात सखिन सौं कही । इहै ठाँव हौं बारति रही ॥

परगट होहुँ न होइ अस भंगू । जगत या कर होइ पतंगू ॥


जा सहुँ हौं चख हेरौं सोइ ठाँव जिउ देइ ।

एहि दुख कतहुँ न निसरौं, को हत्या असि लेइ ?॥13॥


कीन्ह पयान सबन्ह रथ हाँका । परबत छाँडि सिंगलगढ ताका ॥

बलि भए सबै देवता बली । हात्यारि हत्या लेइ चली ॥

को अस हितू मुए गह बाहीं । जौं पै जिउ अपने घट नाहीं ॥

जौ लहि जिउ आपन सब कोई । बिनु जिउ कोइ न आपन होई ॥

भाइ बंधु औ मीत पियारा । बिनु जिउ घरी न राखै पारा ॥

बिनु जिउ पिंड छार कर कूरा । छार मिलावै सौ हित पूरा ॥

तेहि जिउ बिनु अब मरि भा राजा । को उठि बैठि गरब सौं गाजा ॥


परी कथा भुइँ लोटे, कहाँ रे जिउ बलि भीउँ ।

को उठाइ बैठारै बाज पियारे जीव ॥14॥


पदमावति सो मँदिर पईठी । हँसत सिंघासन जाइ बईठी ॥

निसि सूती सुनि कथा बिहारी । भा बिहान कह सखी हँकारी ॥

देव पूजि जस आइउँ काली । सपन एक निसि देखिउँ, आली ॥

जनु ससि उदय पुरुब दिसि लीन्हा । ओ रवि उदय पछिउँ दिसि कीन्हा ॥

पुनि चलि सूर चाँद पहँ आवा । चाँद सुरुज दुहुँ भएउ मेरावा ॥

दिन औ राति भए जनु एका । राम आइ रावन-गढ छेकाँ ॥

तस किछु कहा न जाइ निखेधा । अरजुन-बान राहु गा बेधा ॥


जानहु लंक सब लूटी, हनुवँ बिधंसी बारि ।

जागि उठिउँ अस देखत, सखि! कहु सपन बिचारि ॥15॥


सखी सो बोली सपन-बिचारू । काल्हि जो गइहुँ देव के बारू ॥

पूजि मनाइहुँ बहुतै भाँती । परसन आइ भए तुम्ह राती ॥

सूरुज पुरुष चाँद तुम रानी । अस वर दैउ मेरावै आनी ॥

पच्छिउँ खंड कर राजा कोई । सो आवा बर तुम्ह कहँ होई ॥

किछु पुनि जूझ लागि तुम्ह रामा । रावन सौं होइहि सँगरामा ॥

चाँद सुरुज सौं होइ बियाहू । बारि बिधंसब बेधब राहू ॥

जस ऊषा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरबिला ॥


सुख सोहाग जो तुम्ह कहँ पान फूल रस भोग ।

आजु काल्हि भा चाहै, अस सपने क सँजोग ॥16॥



(1) देउ देउ कै = किसी प्रकार से, आसरा देखते देखते । हँकारा = बुलाया । बारी =कुमारियाँ । गोहने =साथ में, सेवा में ।


(2) आन = राजा की आज्ञा, डौंडी । होइ मालति = श्वेत हास द्वारा मालती के समान होकर । तारा-मंडल = एक वस्त्र का नाम, चाँद तारा । कुमोद =कुमुदिनी । आहा = वाह वाह, धन्य धन्य । छत्तिस कुरि = क्षत्रियों के छत्तीसों कुलों की । बौसिनि =बैस क्षत्रियों की स्त्रियाँ । बानिनि = बनियाइन । पउनि =पानेवाली, आश्रित, पौनी परजा । डार =डाला ।


(4) धमारि = होली की क्रीडा । जोहार =प्रणाम आदि । मनोरा झूमक = एक प्रकार के गीत जिसे स्त्रियाँ झुँड बाँधकर गाती हैं; इसके प्रत्येक पद में "मनोरा झूमक हो" यह वाक्य आता है । सैंतब = समेट कर इकट्ठा करेंगी ।


(5) जाँबु...झारा = जामुन जो विरह की ज्वाला से झुलसी सी दिखाई देती है । न्योजी = चिलगोजा । खीरी = खिरनी । गुवा =गुवाक, दक्खिनि सुपारी ।


(6) कूजा = कुब्जक , सफेदजंगली गुलाब । गौरी =श्वेत मल्लिका । अजानबीरो = एक बडा पेड जिसके संबंध में कहा जाता है कि उसके नीचे जाने से आदमी को सुध-बुध भूल जाती है । पंचम = पंचम स्वर में । मादर = मर्दल, एक प्रकार का मृदंग ।


(8) जाइ तुलानी = जा पहुँची । दियारा = लुक जो गीले कछारों में दिखाई पडता है; अथवा मृगतृष्णा । चाँप = चंपा, चंपे की महक भौंरा नहीं सह सकता ।


(9) एक...दूजा = दो बार प्रणाम किया


(10) हींछि =इच्छा करके । अकूत = परोक्ष, आकास-वाणी । ओझा = उपाध्याय, पुजारी । पूरि =पूरी । गोझा = एक पकवान, पिराक । खोवा = खोव । धर =शरीर ।


(11) तंत = तत्त्व दसएँ लछन = योगियों के बत्तीस लक्षणों में दसवाँ लक्षण `सत्य' है । पिंगला = पिंगला नाडी साधने के लिये अथवा पिंगला नाम की अपनी रानी के कारण । कजरी आरन = कदलीबन ।


(12) कचोर = कटोरा । जोगी सहुँ = जोगी के सामने, जोगी की ओर । नैन रोपि...दीन्हा =आँखों में ही पद्मावती के नेत्रों के मद को लेकर बेसुध हो गया ।


(13) मकु = कदाचित् । सूत = सोया । सीर = शीतल, ठंडा । आखर =अक्षर । ठाँव = अवसर, मौका । बारति रही = बचाती रही । भगू =रंग में भंग, उपद्रव ।


(14) ताका =उस ओर बढा। मरि भा = मर गया, मर चुका । बलि भीउँ = बलि और भीम कहलाने वाला । बाज = बिना, बगैर, छोडकर, ।


(15) बिहार = बिहार या सैर की । मेरावा = मिलन । निखेधा = वह ऐसी निषिद्ध या बुरी बात है । राहु =रोहू मछली । राहु गा बेधा = मत्स्यबेध हुआ ।


(16) जूझ ...रामा = हे बाला ! तुम्हारे लिये राम कुछ लडेंगे (राम =रत्नसेन, रावण = गंधर्वसेन)। बारि बिधंसब =संभोग के समय श्रंगार के अस्तव्यस्त होने का संकेत ।बगीचा पुरबिला = पूर्व जन्म का । संजोग = फल या व्यवस्था ।


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