Thursday, July 14, 2022

प्रबंध काव्य | पद्मावत (बादशाह-चढाई-खण्ड) | मलिक मोहम्मद जायसी | Prabandh Kavya | Padmavat / Badshah Chadai Khand | Malik Muhammad Jayasi



 सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तडपि घन गाजा॥

का मोहिं सिंघ देखावसि आई । कहौं तौ सारदूल धरि खाई ॥

भलेहिं साह पुहुमीपति भारी । माँग न कोउ पुरुष कै नारी ॥

जो सो चक्कवै ताकहँ राजू । मँदिर एक कहँ आपन साजू ॥

अछरी जहाँ इंद्र पै आवै । और न सुनै न देखै पावै ॥

कंस राज जीता जौ कोपी । कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी ॥

को मोहिं तें अस सूर अपारा । चढै सरग, खसि परै पतारा ॥


का तोहिं जीउ मराबौं सकत आन के दोस ?

जो नहिं बुझै समुद्र-जल सो बुझाइ कित ओस ?॥1॥


राजा ! अस न होहु रिस-राता । सुनु होइ जूड, न जरि कहु बाता ॥

मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा । बादशाह अस जानि पठावा ॥

जो तोहि भार, न औरहि लेना । पूछहि कालि उतर है देना ॥

बादशाह कहँ ऐस न बोलू । चढै तौ परै जगत महँ डोलू ॥

सूरहि चढत न लागहि बारा । तपै आगि जेहि सरग पतारा ॥

परबत उडहिं सूर के फूँके । यह गढ छार होइ एक झूँके ॥

धँसै सुमेरु, समुद गा पाटा । पुहुमी डोल, सेस-फन फाटा ॥


तासौं कौन लडाई ? बैठहु चितउर खास ।

ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमिनि एक दास ?॥2॥


जौ पै घरनि जाइ घर केरी । का चितउर, का राज चँदेरी ॥

जिउ न लेइ घर कारन कोई । सो घर देइ जो जोगी होई ॥

हौं रनथँभउर-नाह हमीरू । कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू ॥

हौं सो रतननसेन सक-बंधी । राहु बेधि जीता सैरंधी ॥

हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा । राघव सरिस समुद जो बाँधा ॥

बिक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका । सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका ॥

जौ अस लिखा भएउँ नहिं ओछा । जियत सिंघ कै गह को मोछा ?॥


दरब लेई तौ मानौं, सेव करौं गहि पाउ ।

चाहै जौ सो पदमिनी सिंघलदीपहि जाउ ॥3॥


बोलु न, राजा ! आपु जनाई । लीन्ह देवगिरि और छिताई ॥

सातौ दीप राज सिर नावहिं । औ सँग चली पदमिनी आवहिं ॥

जेहि कै सेव करै संसारा । सिंघलदीप लेत कित बारा ?॥

जिनि जानसि यह गढ तोहि पाहीं । ताकर सबै, तोर किछु नाहीं ॥

जेहि दिन आइ गढी कहँ छेकिहि । सरबस लेइ, हाथ को टेकिहि ?॥

सीस न छाँडै खेह के लागे । सो सिर छार होइ पुनि आगे ॥

सेवा करु जौ जियन तोहि, भाई । नाहिं त फेरि माँख होइ जाई ॥


जाकर जीवन दीन्ह तेहि अगमन सीस जोहारि ।

ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि ॥4॥


तुरुक! जाइ कहु मरै न धाई । होइहि इसकंदर कै नाई ॥

सुनि अमृत कदलीबन धावा । हाथ न चढा, रहा पछितावा ।

औ तेहि दीप पतँग होइ परा । अगिनि-पहार पाँव देइ जरा ॥

धरती लोह, सरग भा ताँबा । जीउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा ॥

यह चितउरगढ सोइ पहारू । सूर उठै तब होइ अँगारू ॥

जौ पै इसकंदर सरि लीन्हीं । समुद लेहु धँसि जस वै लीन्ही ॥

जो छरि आनै जाइ छिताई । तेहि छर औ डर होइ मिताई ॥

महूँ समुझि अस अगमन सजि राखा गढ साजु ।

काल्हि होइ जेहि आवन सो चलि आवै आजु ॥5॥


सरजा पलटि साह पहँ आवा । देव न मानै बहुत मनावा ॥

आगि जो जरै आगि पै सूझा । जरत रहै, न बुझाए बूझा ॥

ऐसे माथ न टावै देवा । चढै सुलेमाँ मानै सेवा ॥

सुनि कै अस राता सुलतानू । जैसे तपै जेठ कर कर भानू ॥

सहसौ करा रोष अस भरा । जेहि दिसि देखै तेइ दिसि जरा ॥

हिंदू देव काह बर खाँचा ? सरगहु अब न सूर सौं बाँचा ॥

एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा । सो सँग आगि दुहुँ जग कीन्हा ॥


रनथंभउर जस जरि बुझा चितउर परै सो आगि ।

फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि ॥6॥


लिखा पत्र चारिहु दिसि धाए । जावत उमरा बेगि बोलाए ॥

दुंद-घाव भा, इंद्र सकाना । डोला मेरु, सेस अकुलाना ॥

धरती डोलि, कमठ खरभरा । मथन-अरंभ समुद महँ परा ॥

साह बजाइ कढा, जग जाना । तीस कोस भा पहिल पयाना ॥

चितउर सौंह बारिगह तानी । जहँ लगि सुना कूच सुलतानी ॥

उठि सरवान गगन लगि छाए । जानहु राते मेघ देखाए ॥

जो जहँ तहँ सूता जागा । आइ जोहार कटक सब लागा ॥

हस्ति घोड औ दर पुरुष जावत बेसरा ऊँट ।


जहँ तहँ लीन्ह पलानै, कटक सरह अस छूट ॥

चले पंथ बेसर सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी ॥7॥


कारे, कुमइत, लील, सुपेते । खिंग कुरंग, बोज दुर केते ॥

अबलक, अरबी-लखी सिराजी । चौघर चाल, समँद भल, ताजी ॥

किरमिज, नुकरा, जरदे, भले । रूपकरान, बोलसर, चले ॥

पँचकल्यान, सँजाब, बखाने । महि सायर सब चुनि चुनि आने ॥

मुशकी औ हिरमिजी, एराकी । तुरकी कहे भोथार बुलाकी ॥

बिखरी चले जो पाँतिहि पाँती । बरन बरन औ भाँतिहि भाँती ॥


सिर औ पूँछ उठाए चहुँ दिसि साँस ओनाहि ।

रोष भरे जस बाउर पवन-तुरास उढाहिं ॥8॥


लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत आए ॥

मेघहि चाहि अधिक वै कारे । भएउ असूझ देखि अँधियारे ॥

जसि भादौं निसि आवै दीठी । सरग जाइ हिरकी तिन्ह पीठी ॥

सवा लाख हस्ती जब चाला । परवत सहित सबै जग हाला ॥

चले गयंद माति मद आवहिं । भागहिं हस्ती गंध जौ पावहिं ॥

ऊपर जाइ गगन सिर धँसा । औ धरती तर कहँ धसमसा ॥

भा भुइँचाल चलत जग जानी । जहँ पग धरहि उठै तहँ पानी ॥


चलत हस्त जग काँपा, चाँपा सेस पतार ।

कमठ जो धरती लेइ रहा, बैठि गएउ गजभार ॥9॥


चले जो उमरा मीर बखाने । का बरनौं जस उन्ह कर बाने ॥

खुरासान औ चला हरेऊ । गौर बँगाला रहा न केऊ ॥

रहा न रूम-शाम-सुलतानू । कासमीर, ठट्ठा मुलतानू ॥

जावत बड बड तुरुक कै जाती । माँडौबाले औ गुजराती ॥

पटना, उडीसा के सब चले । लेइ गज हस्ति जहाँ लगि भले ॥

कवँरु, कामता औ पिंडवाए । देवगिरि लेइ उदयगिरि आए ॥

चला परबती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ ॥


उदय अस्त लहि देस जो को जानै तिन्ह नाँव ?॥

सातौ दीप नवौ खंड जुरे आई एक ठाँव ॥10॥


धनि सुलतान जेहिक संसारा । उहै कटक अस जोरै पारा ॥

सबै तुरुक-सिरताज बखाने । तबल बाज औ बाँधे बाने ॥

लाखन मार बहादुर जंगी । जँबुर, कमानै तीर खदंगी ॥

जीभा खोलि रअग सौं मढे । लेजिम घालि एराकिन्ह चडै ॥

चमकहिं पाखर सार-सँवारी । दरपन चाहि अधिक उजियारी ॥

बरन बरन औ पाँतिहि पाँती । चली सो सेना भाँतिहि भाँती ॥

बेहर बेहर सब कै बोली । बिधि यह खानि कहाँ दहुँ खोली ?॥


सात सात जोजन कर एक दिन होइ पयान ।

अगिलहि जहाँ पयान होइ पछिलहि तहाँ मिलान ॥11॥


डोले गढ, गढपति सब काँपै । जीउ न पेट;हाथ हिय चाँपै ॥

काँपा रनथँभउर गढ डोला । नरवर गएउ झुराइ, न बोला ॥

जूनागढ औ चंपानेरी । काँपा माडौं लेइ चँदेरी ॥

गढ गुवालियर परी मथानी । औ अँधियार मथा भा पानी ॥

कालिंजर महँ परा भगाना । भागेउ जयगढ, रहा न थाना ॥

काँपा बाँधव, नरवर राना । डर रोहतास बिजयगिरि माना ॥

काँप उदयगिरि, देवगिरि डरा । तब सो छपाइ आपु कहँ धरा ॥


जावत गढ औ गढपति सब काँपै जस पात ।

का कहँ बोलि सौहँ भा बादसाह कर छात ?॥12॥


चितउरगढ औ कुंभलनेरै । साजै दूनौ जैस सुमेरै ॥

दूतन्ह आइ कहा जहँ राजा । चढा तुरुक आवै दर साजा ॥

सुनि राजा दौराई पाती । हिंदू-नावँ जहाँ लगि जाती ॥

चितउर हिंदुन कर अस्थाना । सत्रु तुरुक हठी कीन्ह पयाना ॥

आव समुद्र रहै नहिं बाँधा । मैं होई मेड भार सिर काँधा ॥

पुरवहु साथ, तुम्हारि बडाई । नाहिँ त सत को पार छँडाई ॥

जौ लहि मेड, रहै सुखसाखा । टूटे बारि जौइ नहिं राखा ॥


सती जौ जिउ महँ सत धरै, जरै न छाँडै साथ ।

जहँ बीरा तहँ चून है पान, सोपारी, काथ ॥13॥


करत जो राय साह कै सेवा । तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा ॥

सब होइ एकमते जो सिधारे । बादसाह कहँ आइ जोहारे ॥

है चितउर हिंदुन्ह कै माता । गाढ परे तजि जाइ न नाता ॥

रतनसेन तहँ जौहर साजा । हिंदुन्ह माँझ आहि बड राजा ॥

हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा । दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा ॥

कृपा करहु चित बाँधहु धीरा । नातरू हमहिं देह हँसि बीरा ॥

पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ । मेटि न जाइ लाज सौं नाऊँ ॥


दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीच ।

तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीच ? ॥14॥


रतनसेन चितउर महँ साजा । आइ बजार बैठ सब राजा ॥

तोवँर बैस, पवाँर सो आए । औ गहलौत आइ सिर नाए ॥

पत्ती औ पँचवान, बघेले । अगरपार, चौहान, चँदेले ॥

गहरवार, परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे ॥

आगे ठाढ बजावहिं ढाढी ।पाछे धुजा मरन कै काढी ॥

बाजहिं सिंगी, संख औ तूरा । चंदन खेवरे, भरे सेंदूरा ॥

सजि संग्राम बाँध सब साका । छाँडा जियन, मरन सब ताका ॥


गगन धरति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार ।

जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो अँगवै भार ॥15॥


गढ तस सजा जौ चाहै कोई । बरिस बीस लगि खाँग न होई ॥

बाँके चाहि बाँक गढ कीन्हा । औ सब कोट चित्र कै लीन्हा ॥

खंड खंड चौखंड सँवारा । धरी विषम गोलन्ह कै मारा ॥

ठाँवहि ठाँव लीन्ह तिन्ह बाँटी । रहा न बीचु जो सँचरे चाँटी ॥

बैठे धानुक कँगुरन कँगुरा । भूमि न आँटी अँगुरन अँगुरा ॥

औ बाँधे गढ गज मतवारे । फाटै भूमि होहिं जौ ठारे ॥

बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी । बाजहिं तबल, ढोल औ भेरी ॥


भा गढ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह ।

समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह ? ॥16॥


बादशाह हठि कीन्ह पयाना । इंद्र भँडार डोल भय माना ॥

नबे लाख असवार जो चढा । जो देखा सो लोहे -मढा ॥

बीस सहस घहराहिं निसाना । गलगंजहिं भेरी असमाना ॥

बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धरती न समाई ॥

सहस पाँति गज मत्त चलावा । धँसत अकास, धरत भुइँ आवा ॥

बिरिछि उचारि पेडि सौं लेहीं । मस्तक झारि डारि मुख देहीं ॥

चढहिं पहार हिये भय लागू । बनखँड खोह न देखहिं आगू ॥


कोइ काहू न सँभारै, होत आव तस चाँप ।

धरति आपु कहँ काँपै, सरग आपु कहँ काँप ॥17॥


चलीं कमानै जिन्ह मुख गोला । आवहिं चली, धरति सब डोला ॥

लागे चक्र बज्र के गढे । चमकहिं रथ सोने सब मढे ॥

तिन्ह पर विषम कमानैं धरीं । साँचे अष्टधातु कै ढरीं ॥

सौ सौ मन वै पीयहिं दारू । लागहिं जहाँ सो टूट पहारू ॥

माती रहहिं रथन्ह पर परी । सत्रुन्ह महँ ते होहिं उठि खरी ॥

जौ लागै संसार न डोलहिं । होइ भुइकंप जीभ जौ खोलहिं ॥

सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती । खींचहि रथ, डोलहिं नहिं माती ॥


नदी नार सब पाटहिं जहाँ धरहि वै पाव ।

ऊँच खाल बन बीहड होत बराबर आव ॥18॥


कहौं सिंगार जैसि वै नारी । दारू पियहिं जैसि मतवारी ॥

उठै आगि जौ छाँडहि साँसा । धुआँ जौ लागै जाइ अकासा ॥

कुच गोला दुइ हिरदय लाए । चंचल धुजा रहहिं छिटकाए ॥

रसना लूक रहहिं मुख खोले । लंका जरै सो उनके बोले ॥

अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे । खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे ॥

बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ । सत्रुसाल गढभंजन नाऊँ ॥


तिलक पलीता माथे, दसन बज्र के बान ।

जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान ॥19॥


जेहि जेहि पंथ चली वै आवहिं । तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं ॥

जरहिं जो परवत लागि अकासा । बनखँड धिकहिं परास के पासा ॥

गैंड गयदँ जरे भए कारे । औ बन-मिरिग रोझ झवँकारे ॥

कोइल, नाग काग औ भँवरा । और जो जरे तिनहिं को सँवरा ॥

जरा समुद्र पानी भा खारा । जमुना साम भई तेहि घारा ॥

धुआँ जाम, अँतरिख भए मेघा । गगन साम भा धुँआ जो ठेघा ॥

सुरुज जरा चाँद औ राहू । धरती जरी, लंक भा दाहू ॥


धरती सरग एक भा, तबहु न आगि बुझाइ ॥

उठे बज्र जरि डुंगवै, धूम रहा जग छाइ ॥20॥


आवै डोलत सरग पतारा । काँपै धरति, न अँगवै भारा ॥

टूटहिं परबत मेरु पहारा । होइ चकचून उडहिं तेहि झारा ॥

सत-खँड धरती भइ षटखंडा । ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा ॥

इंद्र आइ तिन्ह खंडन्ह छावा । चढि सब कटक घोड दौरावा ॥

जेहि पथ चल ऐरावत हाथी । अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी ॥

औ जहँ जामि रही वह धूरी । अबहुँ बसै सो हरिचँद-पूरी ॥

गगन छपान खेह तस छाई । सूरुज छपा, रैनि होइ आई ॥


गएउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा अँधियार ।

हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार ॥21॥


दिनहिं राति अस परी अचाका । भा रवि अस्त, चंद्र रथ हाँका ॥

मंदिर जगत दीप परगसे । पंथी चलत बसेरै बसे ॥

दिन के पंखि चरत उडि भागे । निसिके निसरि चरै सब लागे ॥

कँवल सँकेता, कुमुदिनि फूली । चकवा बिछुरा, चकई भूली ॥

चला कटक-दल ऐस अपूरी । अगिलहि पानी, पछिलहि धूरी ॥

महि उजरी, सायर सब सूखा । वनखँड रहेउ न एकौ रूखा ॥

गिरि पहार सब मिलि गे माटी । हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी ॥


जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह ।

अब तौ दिस्ट तब आवै अंजन नैन उरेह ॥22॥


एहि विधि होत पयान सो आवा । आइ साह चितउर नियरावा ॥

राजा राव देख सब चढा । आव कटक सब लोहे-मढा ॥

चहुँ दिसि दिस्टि परा गजजूहा । साम-घटा मेघन्ह अस रूहा ॥

अध ऊरध किछु सूझ न आना । सरगलोक घुम्मरहिं निशाना ॥

चढि धौराहर देखहि रानी । धनि तुइ अस जाकर सुलतानी ॥

की धनि रतनसेन तुइँ राजा । जा कह तुरुक कटक अस साजा ॥

बेरख ढाल केरि परछाहीं । रैनि होति आवै दिन माहीं ॥


अंध-कूप भा आवै , उडत आव तस छार ।

ताल तलावा पोखर धूरि भरी जेवनार ॥23॥


राजै कहा करहु जो करना । भएउ असूझ, सूझ अब मरना ॥

जहँ लगि राज साज सब होऊ । ततखन भएउ सजोउ सँजोऊँ ॥

बाजे तबल अकूत जुझाऊ । चडै कोपि सब राजा राऊ ॥

करहिं तुखार पवन सौं रीसा । कंध ऊँच, असवार न दीसा ॥

का बरनौं अस ऊँच तुखारा । दुइ पौरी पहुँचै असवारा ॥

बाँधे मोरछाँह सिर सारहिं । भाँजहि पूछ चँवर जनु ढारहिं ॥

सजे सनाहा, पहुँची , टोपा । लोहसार पहिरे सब ओपा ॥


तैसे चँवर बनाए औ घाले गलझंप ।

बँधे सेत गजगाह तहँ ,जो देखै सो कंप ॥24॥


राज-तुरंगम बरनौं काहा ? आने छोरि इंद्ररथ-बाहा ॥

ऐस तुरंगम परहिं न दीठी । धनि असवार रहहिं तिन्ह पीठी !॥

जाति बालका समुद थहाए । सेत पूँछ जनु चँवर बनाए ॥

बरन बरन पाखर अति लोने । जानहु चित्र सँवारे सोने ॥

मानिक जडे सीस औ काँधे । चँवर लाग चौरासी बाँधे ॥

लागे रतन पदारथ हीरा । बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा ॥

चढहिं कुँवर मन करहिं उछाहू । आगे घाल गनहिं नहिं काहू ॥


सेंदुर सीस चढाए, चंदन खेवरे देह ।

सो तन कहा लुकाइय अंत होइ जो खेह ॥25॥


गज मैमँत बिखरे रजबारा । दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा ॥

सेत गयंद, पीत औ राते । हरे साम घूमहिं मद माते ॥

चमकहिं दरपन लोहे सारी । जनु परबत पर परी अँबारी ॥

सिरी मेलि पहिराई सूँडैं । देखत कटक पाँय तर रूदैं ॥

सोना मेलि कै दंत सँवारे । गिरिवर टरहिं सो उन्ह के टारे ॥

परबत उलटि भूमि महँ मारहिं । परै जो भीर पत्र अस झारहिं ॥

अस गयंद साजै सिंघली । मोटी कुरुम-पीठि कलमली ॥


ऊपर कनक-मंजुसा लाग चँवर और ढार ।

भलपति बैठे भाल लेइ औ बैठे धनुकार ॥ 26॥


असु-दल गज-दल दूनौ साजे । औ घन तबल जुझाऊ बाजे ॥

माथे मुकुट ,छत्र सिर साजा । चढा बजाइ इंद्र अस राजा ॥

आगे रथ सेना सब ठाढी । पाछे धुजा मरन कै काढी ॥

चढा बजाइ चढा जस इंदू । देवलोक गोहने भए हिंदू ॥

वैसे ही राजा रत्नसेन के साथ हिन्दू लोग चले ।

जानहु चाँद नखत लेइ चढा । सूर कै कटक रैनि-मसि मढा ॥

जौ लगि सूर जाइ देखरावा । निकसि चाँद घर बाहर आवा ॥

गगन नखत जस गने न जाहीं । निकसि आए तस धरती माहीं ॥


देखि अनी राजा कै जग होइ गएउ असूझ ।

दहुँ कस होवै चाहै चाँद सूर के जूझ ॥27॥



(1)दैउ = (दैव) आकाश में । मँदिर एक कहँ...साजू = घर बचाने भर को मेरे पास भी सामान है पै = ही कोपी = कोप करके । सकत = भरसक । दोस = दोष ।


(2) राता लाल । जो तोहि भार ...लेना = तेरी जवाबदेही तेरे ऊपर है । डोलू = हलचल । बारा = देर । जेहि = जिसकी ।


(3) घरनि = गृहिणी , स्त्री । जिउ न लेइ = चाहे जी ही न ले ले । हमीरू = रणथंभौर का राजा हमीर । सक-बंधी = साका चलानेवाला । सैरंधी = सैरंध्री ,द्रौपदी । राहु = रोहू मछली । जाउ =जावै ।


(4) आपु जनाई = अपने को बहुत बडा प्रकट करके । छिताई = कोई स्त्री (1) सीस न छाँडै...लागे = धुल पड जाने से सिर न कटा, छोटी सी बात के लिये प्राण न दे । माख = क्रोध, नाराजगी ।


(5) कै नाई = की सी दशा । धरती लोह...ताँबा = उस आग के पहाड की धरती लोहे के समान दृढ है और उसकी आँच से आकाश ताम्रवर्ण हो जाता है । जौ पै इसकंदर....कीन्ही = जो तुमने सिकंदर की बराबरी की है तो । छर और डर = छल और भय दिखाने से ।


(6) देव = राजा ; राक्षस । सुलेमाँ = यहूदियों का बादशाह सुलेमान जिसने देवों और परियों को जीतकर वश में कर लिया था । बर खाँचा = क्या हठ दिखाता है । रनथँभउर = रण- थंभौर का प्रसिद्ध वीर हमीर अलाउद्दीन से लडकर मारा गया था ।


(7) दुंद घाव = डंके पर चोट । सकाना = डरा । अरंभ = शोर । बारिगाह = बारगाह, दरबार (1) बारिगह तानी = दरबार बढा । सरवान = झंडा या तंबू । सूता = सोया हुआ । दर = दल, सेना । बेसरा = खच्चर । वलाने लीन्ह = घोडे कसे । सरह = शलभ, टिड्डी ।


(8) कनकानी = एक प्रकार के घोडे जो गदहे से कुछ ही बडे और बडे कदमबाज होते हैं । कुमइत = कुमैत । खिंग = सफेद घोडा, जिसके मुँह पर का पट्टा और चारों सुम गुलाबीपन लिए हों । कुरंग = कुलंग । लखी = लाखी । सिराजी = शीराज के । चौघर = सरपट या पोइयाँ चाल, किरमिज = किरमिजी रंग के । तुरास = बेग ।


(9) लोहसार = फौलाद । अँधियारा = काले । हिरकी = लगी,सटी । तिन्ह = उनकी । हस्ती = दिग्गज । तर कहँ = नीचे को । उठै तहँ पानी = गड्ढा हो जाता है और नीचे से पानी निकल पडता है ।


(10) बाने = वेश, सजावट । हरेऊ = हरेव, `हरउअती' सरस्वती, प्राचीन पारसी हरह्वेती या अरगंदाब नदी के आसपास का प्रदेश, जो हिंदूकुश के दक्षिण-पश्चिम पडता है । गौर =गौड; वंग देश की राजधानी । शाम = अरब के उत्तर शाम का मुल्क । कामता, पिंडवा = कोई प्रदेश । मगर अराकान जहाँ मग नाम की जाति रहती है ।


(11) जँबुर = जंबूर, एक प्रकार की तोप जो ऊँटों पर चलती थी । कमान = तोप । खदंगी = खदंग, बाण । जीभा =जीभ । लजिम एक प्रकार की कमान जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का सीकड लगा रहता है और जिससे एक प्रकार की कसरत करते हैं । एराकिन्ह = एराक देश के घोडों पर । पाखर = लडाई की झूल । सार = लोहा । बहर-बहर = अलग-अलग । माँडो लेई = माँडौगढ से लेकर । मथानी परी = हलचल मचा । अँधियार = अँधियार और खटोला, दक्षिण के दो स्थान । पात = पत्ता । बोलि = चढाई बोलकर । छात = छत्र ।


(13) जैस सुमेरै = जैसे सुमेरु ही हैं । दर = दल । पाती = पत्री , चिट्ठी । मेड = बाँध । बाँधा = ऊपर लिया । नाहिं त सत...छँडाई = नहीं तो हमारा सत्य (प्रतिज्ञा) कौन छुडा सकता है, अर्थात् मैं अकेले ही अडा रहूँगा । टूटे = बाँध टूटने पर । बारि = बारी ,बगीचा ।


(14) राय = राजा । परेवा = चिडियाँ, यहाँ दूत । जौहर = लडाई के समय की चिता जो गढ में उस समय तैयार की जाती थी जब राजपूत बडे भारी शत्रु से लडने निकलते थे और जिसमें हार का समाचार पाते ही सब स्त्रियाँ कूद पडती थीं । पतँग कै लेखा = पतंगों का सा हाल है । बीरा देहु = बिदा करो कि हम वहाँ जाकर राजा की ओर से लडें ।


(15) कुरै = कुल । दाढी = बाजा बजानेवाली एक जाति । खेवे = खौर लगाए हुए । अँगवै = ऊपर लेता है, सहता है ।


(16) तस = ऐसा । खाँग = सामान की कमी । बाँके चाहि बाँक = विकट से विकट । मारा = माला, समूह । बीचु = अंतर, खाली जगह । सँचरे = चले । चाँटी = चींटी । ठारे = ठाढे, खडे । सहसमुख = सहस्त्र धारावाली ।


(17) इंद्र-भँडार = इंद्रलोक । बैरख = बैरक, झंडे । पेडि = पेडी, तना । आगू = आगे चाँप = रेलपेल , धक्का ।


(18) कमानें = तोपें । चक्र = पहिए । दारू = बारूद; शराब । माती = `दारू'शब्द का प्रयोग कर चुके हैं इसलिये । बषाबर = समतल ।


(19) कहौं सिंगार...मतवारी = इन पद्यों में तोपों को स्त्री के रूपक में दिखाया है । तरिवन = ताटंक नाम का कान का गहना। टूटहिं काँधे = साथियों के कंधे टूट जाते हैं । बीर सिंगार = वीररस । बान = गोले । हेरहिं = ताकती हैं । चुरकुल = चकनाचूर ।


(20) धिकहिं = तपते हैं । परास के बनखँड = पलाश के लाल फूल जो दिखाई देते हैं वे मानों वन के तपे हुए अंश हैं । गैंड = गैंडा रोझ = नीलगाय । झवँकारे = झाँवरे । ठेवा = ठहरा , रुका । डुंगवै = डूँगर, पहाड । उठे बज्र जरि....छाइ = इस वज्र से (जैसे कि इंद्र के वज्र से ) पहाड जल उठे ।


(21) चकचून = चकनाचूर । सत-खँड....षटखंडा = पृथ्वी पर की इतनी धूल ऊपर उडकर जा जमी कि पृथ्वी के सात खंड या स्तर के स्थान पर छः ही खंड रह गए और ऊपर के लोकों के सात के स्थान पर आठ खंड हो गए । जेहि पथ...आथी = ऊपर जो लोक बन गए उन पर इंद्र ऐरावत हाथी लेकर चले जिसके चलने का मार्ग ही आकाशगंगा है । आथी = है । हरिचंद पूरी = वह लोक जिसमें हरिश्चंद्र गए । मसियार = मशाल ।


(22) अचाका = अचानक , एकाएक । सँकेता = संकुचित हुआ । अपूरी = भरा हुआ । अगिलहि पानी...धूरी = अगली सेना को तो पानी मिलता है पर पिछली को धूल ही मिलती है । उजरी = उजडी । जिन्ह घर खेह...खेह = जिनके घर धूल में खो गए हैं, अर्थात् संसार के मायामोह में जिन्हें परलोक नहीं दिखाई पडता है । उरेह = लगाये ।


(23) रूहा = चढा । सुलतानी = बादशाहत । की धनि...राजा = या तो राजा तू धन्य है । बैरख = झंडा । परछाहीं = परछाईं से । जेबनार = लोगों को रसोई में ।


(24) सँजोऊ = तैयारी । अकूत -एकाएक, सहसा अथवा बहुत से । जुझाऊ =युद्ध के । तुखार = घोडा । रीसा = ईर्ष्या , बराबरी । पौरी = सीढी के डंडे । मोरछाँह = मोरछल । सनाहा = बकतर । पहुँची = बचाने का आवरण । ओपा = चमकते हैं । गलझंप = गले की झूल (लोहे की) । गजगाह = हाथी की झूल ।


(25) इंद्ररस-बाहा = इंद्र का रथ खींचनेवाले । बालका = घोडे । पाखर = झूल । चौरासी = घुघुरुओं का गुच्छा । बाहन दीन्ह....बीरा = जिनको सवारी के लिये वे घोडे दिए उन्हें लडाई का बीडा भी दिया । घाल गनहिं नहिं = कुछ नही समझते । सेंदूर = यहाँ रोली समझना चाहिये । खेवरे = खौरे, खौर लगाए हुए


(26) रजबारा = राजद्वार । दरपन = चार-आईन ;बकतर । लोहे सारी = लोहे की बनी । अँबारी = मंडपदार हौदा । सिरी = माथे का गहना । रूँदैं = रौंदते हैं । कलमली = खल बलाई । मँजूसा = हौदा । ढार = ढाल । भलपति = भाला चलानेवाले । धनुकार = धनुष चलाने वाले ।


(27) असुदल = अश्वदल । देवलोक ...इंद्र = जैसे इंद्र के साथ देवता चलते हैं सूर के कटक = बादशाह की फौज । रैनि मसि = रात की अँधेरी । चाँद = राजा रत्नसेन । नखत = राजा की सेना । अनी = सेना । होवै चाहै = हुआ चाहता है ।


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