दादुर कतहुँ कँवल कहँ पेखा । गादुर मुख न सूर कर देखा ॥
अपने रँग जस नाच मयूरू । तेहि सरि साध करै तमचूरू ॥
जों लगि आइ तुरुक गढ बाजा । तौ लगि धरि आनौं तौ राजा ॥
नींद न लीन्ह, रैनि सब जागा । होत बिहान जाइ गढ लागा ॥
कुंभलनेर अगम गड बाँका । बिषम पंथ चढि जाइ न झाँका ॥
राजहि तहाँ गएउ लेइ कालू । होइ सामुहँ रोपा देवपालू ॥
दुवौ अनी सनमुख भइँ, लोहा भएउ असूझ ।
सत्र जूझि तब नेवरै, एक दुवौ महँ जूझ ॥1॥
जौ देवपाल राव रन गाजा । मोहि तोहि जूझ एकौझा, राजा !॥
मेलेसि साँग आइ बिष-भरी । मेटि न जाइ काल कै घरी ॥
आइ नाभि पर साँग बईठी । नाभि बेधि निकसी सो पीठी ॥
चला मारि,तब राजै मारा । टूट कंध, धड भएउ निनारा ॥
सीस काटि कै बैरी बाँधा । पावा दाँव बैर जस साधा ॥
जियत फिरा आएउ बल-भरा । माँझ बाट होइ लोहै धरा ॥
कारी घाव जाइ नहिं डोला । रही जीभ जम गही, को बोला ?॥
सुधि बुधि तौ सब बिसरी, भार परा मझ बाट ।
हस्ति घोर को काकर ? घर आनी गइ खाट ॥2॥
(1) पेखा = देखता है । गादुर = चमगादर । सूर = सूर्य । सरि =बराबरी । लोहा भएउ = युद्ध हुआ । नेवरे = समाप्त हो, निबटे ।
(2) एकौझा = अकेले, द्वंद्वयुद्ध । चला मारि...मारा =वह भाला मारकर चला जाता था तब राजा रत्नसेन ने फिरकर उसपर भी वार किया । बैरी = शत्रु देवपाल को माँझ बाट...धरा = आधे रास्ते पहुँचकर हथियार छोड दिया । कारी = गहरा, भारी । भार परा मँझ बाट = बोझ की तरह राजा रत्नसेन बीच रास्ते में गिर पडे ।
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