Wednesday, July 13, 2022

निबंध | कन्यादान | सरदार पूर्ण सिंह | Nibandh | Kanyadan | Sardar Puran Singh


 
नयनों की गंगा

धन्य हैं वे नयन जो कभी कभी प्रेम-नीर से भर पाते हैं। प्रति दिन गंगा-जल में तो स्नान होता ही है परंतु जिस पुरुष ने नयनो की प्रेम-धारा में कभी स्नान किया है वही जानता है कि इस स्नान से मन के मलिनभाव किस तरह बह जाते हैं; अंतःकरण कैसे पुष्प की तरह खिल जाता है; हृदय-ग्रन्थि किस तरह खुल जाती है; कुटिलता और नीचता का पर्वत कैसे चूर-चूर हो जाता है । सावन-भादों की वर्षा के बाद वृक्ष जैसे नवीन नवीन कोपलें धारण किये हुए एक विचित्र मनोमोहिनी छटा दिखाते हैं उसी तरह इस प्रेम-स्नान से मनुष्य की आन्तरिक अवस्था स्वच्छ, कोमल और रसभीनी हो जाती है। प्रेम-धारा के जल से सींचा हुआ हृदय प्रफुल्लित हो उठता है । हृदयस्थली में पवित्र भावों के पौधे उगते; बढ़ते और फलते हैं। वर्षा और नदी के जल से तो अन्न पैदा होता है; परन्तु नयनों की गंगा से प्रेम और वैराग्य के द्वारा मनुष्य-जीवन को आग और बर्फ से बपतिस्मा मिलता है अर्थात् नया जन्म होता है मानों प्रकृति ने हर एक मनुष्य के लिए इस नयन-नीर के रूप में मसीहा भेजा है, जिससे हर एक नर-नारी कृतार्थ हो सकते हैं । यही वह यज्ञोपवीत है जिसके धारण करने से हर आदमी द्विज हो सकता है । क्या ही उत्तम किसी ने कहा है :-


हाथ खाली मर्दमे दीदा बुतों से क्या मिलें ।

मोतियों की पंज-ए-मिजगाँ में इक माला तो हो ।।


आज हम उस अश्रु-धारा का स्मरण नहीं करते जो ब्रह्मानन्द के कारण योगी जनों के नयनों से बहती है। आज तो लेखक के लिये अपने जैसे साधारण पुरुषों की अश्रु-धारा का स्मरण करना ही इस लेख का मंगलाचरण है । प्रेम की बूंदों में यह असार संसार मिथ्या रूप होकर घुल जाता है और हम पृथ्वी से उठकर आत्मा के पवित्र नभो-मंडल में उड़ने लगते हैं । अनुभव करते हुए भी ऐसी घुली हुई अवस्था में हर कोई समाधिस्थ हो जाता है; अपने आपको भूल जाता है; शरीराध्यास न जाने कहाँ चला जाता है; प्रेम की काली घटा ब्रह्म-रूप में लीन हो जाती है । चाहे जिस शिल्पकार, चाहे जिस कला-कुशल-जन, के जीवन को देखिए उसे इह परमावस्था का स्वयं अनुभव हुए बिना अपनी कला का तत्त्व ज्ञान नहीं होता । चित्रकार सुंदरता को अनुभव करता है और तत्काल ही मारे खुशी के नयनों में जल भर लाता है । बुद्धि, प्राण, मन और तन सुंदरता में डूब जाते हैं । सारा शरीर प्रेम-वर्षा के प्रवाह में बहने लगता है । वह चित्र ही क्या जिसको देख देखकर चित्रकार की आँखें इस मदहोश करनेवाली ओस से तर न हुई हो । वह चित्रकारी ही क्या जिसने हजार बार चित्रकार को इस योग-निद्रा में न सुलाया हो ।


कवि को देखिए, अपनी कविता के रस-पान से मत्त होकर वह अन्तःकरण के भी परे आध्यात्मिक नभो-मंडल के बादलों में विचरण करता है । ये बादल चाहे आत्मिक जीवन के केंद्र हों, चाहे निर्विकल्प समाधि के मंदिर के बाहर के घेरे, इनमें जाकर कवि जरूर सोता है। उसका अस्थि-मांस का शरीर इन बादलों में घुल जाता है। कवि वहाँ ब्रह्म-रस को पान करता है और अचानक बैठे बिठाये श्रावण- भादों के मेघ की तरह संसार पर कविता की वर्षा करता है। हमारी आँखें कुछ ऐसी ही हैं। जिस प्रकार वे इस संसार के कर्त्ता को नहीं देख सकतीं उसी प्रकार आध्यात्मिक देश के बादल और धुन्ध में सोये हुए कलाधर पुरुष को नहीं देख सकतीं। उसकी कविता जो हमको मदमत्त करती है वह एक स्थूल चीज है और यही कारण है कि जो कला निपुण जन प्रतिदिन अधिक से अधिक उस आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव करता है वह अपनी एक बार अलापी हुई कविता को उस धुन से नहीं गाता जिससे वह अपने ताजे से ताजे दोहों और चौपाइयों का गान करता है । उसकी कविता के शब्द केवल इस वर्षा के दाने हैं । यह तो ऐसे कवि के शान्तरस की बात हुई । इस तरह के कवि का वीररस इसी शान्तरस के बादलों की टक्कर से पैदा हुई बिजली की गरज और चमक है। कवि को कविता में देखना तो साधारण काम है; परंतु आँखवाले उसे कहीं और ही देखते हैं । कवि की कविता और उसका आलाप उसके दिल और गले से नहीं निकलते । वे तो संसार के ब्रह्म-केन्द्र से आलापित होते हैं । केवल उस आलाप करनेवाली अवस्था का नाम कवि है । फिर चाहे वह अवस्था हरे हरे बाँस की पोरी से, चाहे नारद की वीणा से, और चाहे सरस्वती के सितार से बह निकले । वही सच्चा कवि है जो दिव्य सौंदर्य के अनुभव में लीन हो जाय और लीन होने पर जिसकी जिह्वा और कण्ठ मारे खुशी के रुक जाय, रोमांच हो उठे, निजानन्द में मत्त होकर कभी रोने लगे और कभी हँसने ।


हर एक कला-निपुण पुरुष के चरणों में वह नयनों की गंगा सदा बहती है। क्या यह आनन्द हमको विधाता ने नहीं दिया ! क्या उसी नीर में हमारे लिए राम ने अमृत नहीं भरा ! अपना निश्चय तो यह है कि हर एक मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी अद्भुत प्रेम-कला से युक्त होता है । किसी विशेष कला में निपुण न होते हुए भी राम ने हर एक हृदय में प्रेम-कला की कुञ्जी रख दी है । इस कुञ्जी के लगते ही प्रेम-कला की सम्पूर्ण सम्भूति अज्ञानियों और निरक्षरों को भी प्राप्त हो सकती है।


All arts are nothing but Samadhi applied to love.

We are all born geniuses only if we will. The painter the sculptor, the poet and the prophet have only been selected to love objects unseen by the ordinary human eye.

(कला स्वयं कुछ नहीं है, प्रेम में मन को समाहित करना ही कला है ।

हम सब प्रतिभा लेकर जन्म लेते हैं, हाँ, यदि हम उसका उपयोग करें। सामान्य आँखों से न दिखानेवाली वस्तु को प्यार कर सकने के कारण ही चित्रकार, मूर्तिकार, कवि और मसीहा विशिष्ट स्थान रखते हैं। )


कवि सदा बादलों से घिरा हुआ और तिमिराच्छन्न देश में रहता है। वहीं से चले हुए बादलों के टुकड़े माता, पिता, भ्राता, भगिनी, सुत, दारा इत्यादि के चक्षुओं पर आकर छा जाते हैं । मैंने अपनी आँखों इनको छम छम बरसते देखा है । जिस आध्यात्मिक देश में कवि, चित्रकार, योगी, पीर, पैगंबर, औलिया विचरते हैं और किसी और को घुसने नहीं देते, वह सारे का सारा देश इन आम लोगों के प्रेमाश्रुओं से घुल घुल कर बह रहा है । आयो, मित्रों ! स्वर्ग का आम नीलाम हो रहा है।


Paradise is at auction and any body can buy it.

(स्वर्ग नीलाम हो रहा है, कोई भी व्यक्ति इसे खरीद सकता है।)


सर वाल्टर स्काट ( Sir Walter Scott ) अपनी "लेडी आव दि लेक" (Lady of the Lake ) नामक कविता में बड़ी खूबी से उन अश्रुओं की प्रशंसा करते हैं जो अश्रु पिता अपनी पुत्री को आलिंगन करके उसके केशों पर मोती की लड़ी की तरह बखेरता है। इन अश्रुओं को वे अद्भुत दिव्य प्रेम के अश्रु मानते हैं । सच है, संसार के गृहस्थ मात्र के संबंधों में पिता और पुत्री का संबंध दिव्यप्रेम से भरा है। पिता का हृदय अपनी पुत्री के लिए कुछ ईश्वरीय हृदय से कम नहीं।


पाठक, अब तक न तो आपको और न मुझे ही ऊपर की लिखी हुई बातों का ऊपरी दृष्टि से कन्यादान के विषय से कुछ संबन्ध मालूम होता है। तो फिर लेखक ने सरस्वती के सम्पादक को नीली पेंसल फेरने का अधिकार क्यों न दिया। उसका कारण केवल यह है कि ऊपर और नीचे का लेख लेखक की एक विशेष देश-काल-सम्बन्धी मनो-लहरी है । पता लगे, चाहे न लगे कन्यादान से सम्बन्ध अवश्यमेव है ।


एक समय आता है जब पुत्री को अपने माता-पिता का घर छोड़कर अपने पति के घर जाना पड़ता है।


त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम् ।

उरवारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतेः। शु० यजु० "आयो, आज हम सब मिलकर अपने पतिवेदन उस त्रिकाल-दर्शी सुगंधित पुरुष का यज्ञ करें जिससे, जैसे दाना पकने पर अपने छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही हम इस घर के बंधनों से छूटकर अपने पति के अटलराज को प्राप्त हों।"


प्राचीन वैदिक काल में युवती कुवारी लड़कियाँ यज्ञाग्नि की परिक्रमा करती हुईं ऊपर को प्रार्थना ईश्वर के सिंहासन तक पहुँचाया करती थीं।


हर एक देश में यह बिछोड़ा भिन्न भिन्न प्रकार से होता है । परंतु इस बिछोड़े में त्याग-अंश नजर आता है। योरप में आदि काल से ऐसा रवाज चला आया है कि एक युवा कन्या किसी वीर, शुद्ध हृदय और सोहने नौजवान को अपना दिल चुपके चुपके पेड़ों की आड़ में, या नदी के तट पर, या वन के किसी सुनसान स्थान में, दे देती है । अपने दिल को हार देती है मानो अपने हृत्कमल को अपने प्यारे पर चढ़ा देती है; अपने आपको त्याग कर वह अपने प्यारे में लीन हो जाती है । वाह ! प्यारी कन्या तूने तो जीवन के खेल को हारकर जीत लिया । तेरी इस हार की सदा संसार में जीत ही रहेगी। उस नौजवान को तू प्रेम-मय कर देती है। एक अद्भुत प्रेम-योग से उसे अपना कर लेती है । उसके प्राण की रानी हो जाती है। देखो ! वह नौजवान दिन-रात इस धुन में है कि किस तरह वह अपने आपको उत्तम से उत्तम और महान् से महान् बनाये-वह उस वेचारी निष्पाप कन्या के और पवित्र हृदय को ग्रहण करने का अधिकारी हो जाय। प्रकृति ऐसा दान बिना पवित्रात्मा के किसी को नहीं दे सकती । नौजवान के दिल में कई प्रकार की उमङ्गें उठती हैं। उसकी नाड़ी नाड़ी में नया रक्त, नया जोश और नया जोर आता है। लड़ाई में अपनी प्रियतमा का खयाल ही उसको वीर बना देता है ।


उसी के ध्यान में यह पवित्र दिल निडर हो जाता है । मौत को जीतकर उसे अपनी प्रियतमा को पाना है।


The Paradise is under the Shade of Swords.

(तलवार की छाया में स्वर्ग बसता है।)


ऊँचे से ऊँचे आदर्श को अपने सामने रखकर यह राम का लाल तन-मन से दिन-रात उसके पाने का यत्न करता है। और जब उसे पा लेता है तब हाथ में विजय का फुरेरा लहराते हुए एक दिन अकस्मात् उस कन्या के सामने आकर खड़ा हो जाता है । कन्या के नयनों से गंगा बह निकलती है और उस लाल का दिल अपनी प्रियतमा की सूक्ष्म प्राणगति से लहराता है, काँपता है, और शरीर ज्ञानहीन हो जाता है। बेबस होकर वह उसके चरणों में अपने आपको गिरा देता है । कन्या तो अपने दिल को दे ही चुकी थी; अब इस नौजवान ने आकर अपना दिल अर्पण किया । इस पवित्र प्रेम ने दोनों के जीवन को रेशमी डोरों से बाँध दिया-तन मन का होश अब कहाँ है । मैं तू और तू मैं वाली मदहोशी हो गई । यह जोड़ा मानो ब्रह्म में लीन हो गया; इस प्रेम में कदूरत लेश मात्र नहीं होती । विक्टर ह्यूगो (Victor Hugo) ने ले-मिज्राबल (Les Miserables) में मेरीयस (Marius) और कौसट (Cosett) के ऐसे मिलाप का बड़ा ही अच्छा वर्णन किया है । चाँदनी रात है । मंद मंद पवन चल रही है। वृक्ष अजीब लीला में आसपास खड़े हैं । और यह कन्या और नौजवान कई दिन बाद मिले हैं । मेरीयस के लिए तो कुल संसार इस देवी का मंदिर-रूप हो रहा था। अपने हृदय की ज्योति को प्रज्वलित करके उस देवी की वह आरती करने आया है। कौसट घास पर बैठी है । कुछ मीठी मीठी प्रेम भरी बातचीत हो रही है । इतने में सरसराती हवा ने कौसट के सीने से चीर उठा दिया । जरा सी देर के लिये उस बर्फ की तरह सफेद और पवित्र छाती को नग्न कर दिया । मगर मेरीयस ने फौरन अपना मुँह परे को हटा लिया । वह तो देवी-पूजा के लिये आया है; आँख ऊपर करके नहीं देख सकता ।


रोमियो और जूलियट नामक शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक में जूलियट ने किस अंदाज से अपना दिल त्याग दिया और रोमियो के दिल की रानी हो गई !


वे किस्से-कहानियाँ जिनमें नौजवान शाहजादे अपना दिल पहले दे देते हैं अपवित्र मालूम होते हैं; और उनके लेखक प्रेम के स्वर्गीय नियम से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। कुछ शक नहीं, कहीं कहीं पर वे इस नियम को दरसा देते हैं, परन्तु सामान्य लेखों में पुरुष का दिल ही तड़पता दिखलाते हैं । कन्या अपना दिल चुपके से दे देती है । इस दिल के दे देने की खबर वायु, पुष्प, वृक्ष, तारागण इत्यादि को होती है । लैली का दिल मजनूँ की जात में पहले घुल जाना चाहिए और इस अभेदता का परिणाम यह होना चाहिए कि मजनूँ उत्पन्न हो -इस यज्ञ-कुण्ड से एक महात्मा ( मजनूं) प्रकट होना चाहिए । सोहनी मेंहीवाल (पंजाब के प्रसिद्ध कवि फाजलशाह की रचित कविता में सोहनी मेंहीवाल के प्रेम का वर्णन है । सोहनी एक कलाल की कन्या थी और मेंहीवाल फारस के एक बड़े सौदागर का पुत्र था जिसने सोहनी के प्रेम में अपना सर्वस्व लुटाकर अपनी प्रियतमा के पिता के यहाँ भैंस चराने पर नौकर हो गया ।) के किस्से में असली मेंहीवाल उस समय निकलता है जब कि सोहनी अपने दिल को लाकर हाजिर करती है । राँझा हीर (यह भी पंजाब ही के प्रसिद्ध कवि वारेशाह की कविता की कथा है।) की तलाश में निकलता जरूर है; मगर सच्चा योगी वह तभी होता है जब उसके लिए हीर अपने दिल को बेले के किसी झाड़ में छोड़ आती है। शकुन्तला जंगल की लता की तरह बेहोशी की अवस्था में ही जवान हो गई । दुष्यंत को देखकर अपने आपको खो बैठी। राजहंसों से पता पाकर दमयन्ती नल में लीन हो गई । राम के धनुष तोड़ने से पहले ही सीता अपने दिल को हार चुकी । सीता के दिल के बलिदान का ही यह असर था कि मर्यादा-पुरुषोत्तम राम भगवान् वन वन बारह वर्ष तक अपनी प्रियतमा के क्लेश निवारणार्थ रोते फिरे ।


Nothing but a perfect womanhood can call man to Purity and sacrifice, to manhood and to godhood.

(केवल पूर्ण नारी ही मनुष्य को पवित्रता और त्याग का पाठ पढ़ा सकती है। वही उसे मनुष्यत्व और देवत्व का सन्देश दे सकती है।)


यूरप में कन्या जब अपना दिल ऊपर लिखे गए नियम से दान करती है तब वहाँ का गृहस्थ जीवन आनन्द और सुख से भर जाता है । जहाँ खुशामद और झूठे प्रेम से कन्या फिसली, थोड़ी ही देर के बाद गृहस्थाश्रम में दुख-दर्द और राग-द्वेष प्रकट हुए । प्रेम के कानून को तोड़कर जब यूरप में उलटी गंगा बहने लगी तब वहाँ विवाह एक प्रकार की ठेकेदारी हो गया और समाज में कहीं कहीं यह खयाल पैदा हुआ कि विवाह करने से कुँवारा रहना ही अच्छा है । लोग कहते हैं कि यूरप में कन्या-दान नहीं होता; परंतु विचार से देखा जाय तो संसार में कभी कहीं भी गृहस्थ का जीवन कन्या-दान के बिना सुफल नहीं हो सकता । यूरप के गृहस्थों के दुखड़े तब तक कभी न जायँगे जब तक एक बार फिर प्रेम का कानून, जिसको शेक्सपियर ने अपने “रोमियो और जूलियट' में इस खूबी से दरसाया है, लोगों के अमल में न आवेगा । अतएव यूरप और अन्य पश्चिमी देशों में कन्या-दान अवश्यमेव होता है । वहाँ कन्या पहले अपने आपको दान कर देती है; पीछे से गिरजे में जाकर माता, पिता या और कोई सम्बन्धी फूलों से सजी हुई दूल्हन को दान करता है।


The bride is given away in Europe.

(यूरोप में वधू दे दी जाती है।)


यूरप में गृहस्थों की बेचैनी

आजकल पश्चिमी देशों में झूठी और जाहिरी शारीरिक आजादी के खयाल ने कन्या-दान की आध्यात्मिक बुनियाद को तोड़ दिया है । कन्या-दान की रीति जरूर प्रचलित है, परन्तु वास्तव में उस रीति में मानो प्राण ही नहीं । कोई अखबार खोलकर देखो, उन देशों में पति और पत्नी के झगड़े वकीलों द्वारा जजों के सामने तै होते हैं । और जज की मेज पर विवाह की सोने की अँगूठियाँ, काँच के छल्लों की तरह द्वेष के पत्थरों से टूटती हैं । गिरजे में कल के बने हुए जोड़े आज टूटे और आज के बने जोड़े कल टूटे ।


ऐसा मालूम होता है कि मौनोगेमी (स्त्री-व्रत) का नियम, जो उन लोगों की स्मृतियों और राज-नियमों में पाया जाता है, उस समय बनाया गया था जब कन्या-दान आध्यात्मिक तरीके से वहाँ होता था और गृहस्थों का जीवन सुखमय था ।


भला सच्चे कन्यादान के यज्ञ के बाद कौन सा मनुष्य-हृदय इतना नीच और पापी हो सकता है, जो हवन हुई कन्या के सिवा किसी अन्य स्त्री को बुरी दृष्टि से देखे । उस कुरबान हुई कन्या की खातिर कुल जगत् की स्त्री-जाति से उस पुरुष का पवित्र सम्बन्ध हो जाता है । स्त्री-जाति की रक्षा करना और उसे आदर देना उसके धर्म का अङ्ग हो जाता है । स्त्री-जाति में से एक स्त्री ने इस पुरुष के प्रेम में अपने हृदय की इसलिये आहुति दी है कि उसके हृदय में स्त्री-जाति की पूजा करने के पवित्र भाव उत्पन्न हों; ताकि उसके लिये कुलीन स्त्रियाँ माता समान, भगिनी समान, पुत्री समान, देवी समान हो जायँ । एक ही ने ऐसा अद्भुत काम किया कि कुल जगत् की बहनों को इस पुरुष के दिल की डोर दे दी। इसी कारण उन देशों में मौनोगेमी (स्त्री-व्रत) का नियम चला । परन्तु आजकल उस कानून की पूरे तौर पर पाबन्दी नहीं होती। देखिए, स्वार्थ-परायणता के वश होकर थोड़े से तुच्छ भोगों की खातिर सदा के लिए कुँवारापन धारण करना क्या इस कानून को तोड़ना नहीं है। लोगों के दिल जरूर बिगड़ रहे हैं । ज्यों ज्यों सौभाग्यमय गृहस्थ-जीवन का सुख घटता जाता है त्यों त्यों मुल्की और इखलाकी बेचैनी बढ़ती जाती है। ऐसा मालूम होता कि यूरप की कन्याएँ भी दिल देने के भाव को बहुत कुछ भूल गई हैं। इसी से अलबेली भोली कुमारिकायें पारल्यामेंट के झगड़ों में पड़ना चाहती हैं; तलवार और बंदूक लटकाकर लड़ने मरने को तैयार हैं । इससे अधिक यूरप के गृहस्थ-जीवन की अशान्ति का और क्या सबूत हो सकता है :-


On one side the suppragist movement is to my mind the open condemnation of the moral degneration of men who have forgotten that they have to take the inspiration of their life and its activities from the hearts of the mother, the sister, the wife and the daughter, and have to borrow all their nobleness from the divine womanhood and on the other side, it is the painful evidence of the extinction of the realisation of the ideal of Kanyadan-thence-blest of all arts by which she could rule over the hearts of men and she, the queen of the Home, was ifso fact the Queen of the Empires of man, real dictator of laws and the Presiding Deity of nations.

(स्त्रियों को मताधिकार दिलाने का यह आन्दोलन मेरे विचार से एक ओर उन मनुष्यों के नैतिक पतन की खुली भर्त्सना है जो यह भूल गये हैं कि उन्हें अपने जीवन तथा कार्यों में अपनी माँ, बहिन, पत्नी तथा बेटी से प्रेरणा ग्रहण करनी होगी और नैसर्गिक नारीत्व से ही अपनी सारी उच्चता प्राप्त करनी होगी, दूसरी ओर यह कन्या-दान के उस आदर्श के लोप की अनुभूति का दुःखद उदाहरण है जो समस्त कलाओं में उच्चतम है-वह कला जिसके सहारे नारी मनुष्यों के हृदयों पर राज्य करती है और वह सत्यमेव घर की रानी, मानव साम्राज्य की सम्राज्ञी, सच्ची नियामिका और राष्ट्रों की सच्ची भाग्य-विधायिका बन सकती है।)


सच्ची स्वतंत्रता

आर्यावर्त में कन्यादान प्राचीन काल से चला आता है । कन्यादान और पतिव्रत-धर्म दोनों एक ही फल-प्राप्ति का प्रतिपादन करते हैं । आज-कल के कुछ मनुष्य कन्यादान को गुलामी की हँसली मान बैठे हैं। वे कहते हैं कि क्या कन्या कोई गाय, भैंस या घोड़ी की तरह बेजान और बेजबान है जो उसका दान किया जाता है । यह अल्पज्ञता का फल है- सीधे और सच्चे रास्ते से गुमराह होना है। ये लोग गंभीर विचार नहीं करते । जीवन के आत्मिक नियमों की महिमा नहीं जानते । क्या प्रेम का नियम सबसे उत्तम और बलवान् नहीं है ? क्या प्रेम में अपनी जान को हार देना सब के दिलों को जीत लेना नहीं है ? क्या स्वतन्त्रता का अर्थ मन की बेलगाम दौड़ है, अथवा प्रेमाग्नि में उसका स्वाहा होना है ? चाहे कुछ कहिए, सच्ची आजादी उसके भाग्य में नहीं, जो अपनी रक्षा खुशामद और सेवा से करता है । अपने आपको गँवाकर ही सच्ची स्वतन्त्रता नसीब होती है। गुरु नानक अपनी मीठी जबान में लिखते है :-"जाइ पुछहु सोहागणी वाहै किनी बाती सहु पाईऐ ॥... आपु गवाईऐ ता सहु पाईऐ अउरु कैसी चतुराई ॥" अर्थात् यदि किसी सौभाग्यवती से पूछोगे कि किन तरीकों से अपना स्वतन्त्रता-रूपी पति प्राप्त होता है तो उससे पता लगेगा कि अपने आपको प्रेमाग्नि में स्वाहा करने से मिलता है और कोई चतुराई नहीं चलती।


True freedom is the highest summit of altruism and altruism is the total extinction of self in the self of all.

(मेरे लिए स्वतन्त्रता परोपकार की भावना का चरम लक्ष्य है और परोपकार की भावना है-समष्टिगत 'स्व' में व्यक्तिगत 'स्व' का लय होना ।)


ऐसी स्वतंत्रता प्राप्त करना हर एक आर्यकन्या का आदर्श है। सच्चे आर्य-पिता की पुत्री गुलामी, कमजोरी और कमीनेपन के लालचों से सदा मुक्त है । वह देवी तो यहाँ संसार-रूपी सिंह पर सवारी करती है। वह अपने प्रेम-सागर की लहरों में सदा लहराती है । कभी सूर्य की तरह तेजस्विनी और कभी चंद्रमा की तरह शान्तिप्रदायिनी होकर वह अपने पति की प्यारी है । वह उसके दिल की महारानी है । पति के तन, मन, धन और प्राण की मालिक है । सच्चे आर्य-गृहों में इस कन्या का राज है । हे राम ! यह राज सदा अटल रहे !


इसमें कुछ संदेह नहीं कि कन्या-दान आत्मिक भाव से तो वही अर्थ रखता है जिस अर्थ में सावित्री, सीता, दमयन्ती और शकुन्तला ने अपने आपको दान किया था; और इन नमूनों में कन्यादान का आदर्श पूर्ण रीति से प्रत्यक्ष है । प्रश्न यह है कि यह आदर्श सब लोगों के लिए किस तरह कल्याणकारी हो ?


लेखक का खयाल है कि आर्य-ऋषियों की बनाई हुई विवाह- पद्धति इस प्रश्न का एक सुन्दर उत्तर है। एक तरीका तो आन्तरिक अनुभव से इस आदर्श को प्राप्त करना है वह तो, जैसा ऊपर लिख आये हैं, किसी किसी के भाग्य में होता है। परन्तु पवित्रात्माओं के आदेश से हर एक मनुष्य के हृदय पर आध्यात्मिक असर होता है । यह असर हमारे ऋषियों ने बड़े ही उत्तम प्रकार से हर एक नर-नारी के हृदय पर उत्पन्न किया है। प्रेमभाव उत्पन्न करने ही के लिये उन्होंने यह विवाह-पद्धति निकाली है। इससे प्रिया और प्रियतम का चित्त स्वतः ही परस्पर के प्रेम में स्वाहा हो जाता है । विवाह काल में यथोचित रीतियों से न सिर्फ हवन की अग्नि ही जलाई जाती है किन्तु प्रेम की अग्नि की ज्वाला भी प्रज्वलित की जाती है जिसमें पहली आहुति हृदय कमल के अर्पण के रूप में दी जाती है । सच्चा कुलपुरोहित तो वह है जो कन्या-दान के मंत्र पढ़ने से पहले ही यह अनुभव कर लेता है कि आध्यात्मिक तौर से पति और पत्नी ने अपने आपको परस्पर दान कर दिया ।


आर्य-आदर्श के भग्नावशिष्ट अंश

भारतवर्ष में वैवाहिक आदर्श को इन जाति-पाँति के बखेड़ों ने अब तब कुछ टूटी फूटी दशा में बचा रखा है। कभी कभी इन बूढ़े, हठी और छू छू करनेवाले लोगो को लेखक दिल से आशीर्वाद दिया करता है कि इतने कष्ट झेलकर भी इन लोगों ने कुछ न कुछ तो पुराने आदशों के नमूने बचा रखे हैं । पत्थरों की तरह ही सही, खंडहरों के टुकड़ों की तरह ही सही, पर ये अमूल्य चिह्न इन लोगों ने रुई में बाँध बाँधकर, अपनो कुबड़ी कमर पर उठा, कुलियों की तरह इतना फासला तै करके यहाँ तक पहुंचा तो दिया । जहाँ इनके काम मूढ़ता से भरे हुए ज्ञात होते हैं, वहाँ इनकी मूर्खता की अमोलता भी साथ ही साथ भासित हो जाती है। जहाँ ये कुछ कुटिलतापूर्ण दिखाई देते हैं वहाँ इनकी कुटिलता का प्राकृतिक गुण भी नजर आ जाता है। कई एक चीजें, जो भारतवर्ष के रस्मोरवाज के खंडहरों में पड़ी हुई हैं, अत्यन्त गंभीर विचार के साथ देखने योग्य हैं। इस अजायबघर में से नये नये जीते जागते आदर्श सही सलामत निकल सकते हैं। मुझे ये खंडरात खूब भाते हैं । जब कभी अवकाश मिलता है मैं वहीं जाकर सोता हूँ। इन पत्थरो पर खुदी हुई मूर्तियों के दर्शन की अभिलाषा मुझे वहाँ ले जाती है। मुझे उन परम पराक्रमी प्राचीन ऋषियों की आवाजें इन खंडरात में से सुनाई देती हैं। ये सँदेसा पहुंचाने वाले दूर से आये हैं । प्रमुदित होकर कभी मैं इन पत्थरों को इधर टटोलता हूँ, कभी उधर रोलता हूँ। कभी हनुमान् की तरह इनको फोड़ फोड़ कर इनमें अपने राम ही को देखता हूँ। मुझे उन आवाजों के कारण सब कोई मीठे लगते हैं। मेरे तो यही शालग्राम हैं। मैं इनको स्नान कराता हूँ, इन पर फूल चढ़ाता हूँ और घण्टी बजाकर भोग लगाता हूँ । इनसे आशीर्वाद लेकर अपना हल चलाने जाता हूँ । इन पत्थरों में कई एक गुप्त भेद भी हैं । कभी कभी इनके प्राण हिलते प्रतीत होते हैं और कभी सुनसान समय में अपनी भाषा में ये बोल भी उठते हैं।


भारत में कन्या-दान की रीति

भाई की प्यारी, माता की राजदुलारी, पिता की गुणवती पुत्री, सखियों को अलबेली सखी के विवाह का समय समीप आया । विवाह के सुहाग के लिए बाजे बज रहे हैं । सगुन मनाए जा रहे हैं। शहर और पास-पड़ोस की कन्यायें मिलकर सुरीले और मीठे सुरों में रात के शब्दहीन समय को रमणीय बना रही हैं । सबके चेहरे फूल की तरह खिल रहे हैं । परन्तु ज्यों ज्यों विवाह के दिन नजदीक आते जाते हैं त्यों त्यों विवाह होनेवाली कन्या अपनी जान को हार रही है, स्वप्नों में डूब रही है । उसके मन की अवस्था अद्भुत है । न तो वह दुखी ही है और न रजोगुणी खुशी से ही भरी है। इस कन्या की अजीब अवस्था इस समय उसे अपने शरीर से उठाकर ले गई है और मालूम नहीं कहाँ छोड़ आई है । इतना जरूर निश्चित है कि उसके जीवन का केन्द्र बदल गया है । मन और बुद्धि से परे वह किसी देव-लोक में रहती है। विवाह-लग्न आ गई । स्त्रियाँ पास खड़ी गा रही हैं । अजीब सुहाना समय है । यथासमय पुरोहित कन्या के हाथ में कङ्कण बाँध देता है । इस वक्त कन्या का दर्शन करके दिल ऐसी चुटकियाँ भरता है कि हर मनुष्य प्रेम के अश्रुओं से अपनी आँखें भर लेता है जान पड़ता है कि यह कन्या उस समय निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त होकर अपने शरीर को अपने पिता और भाइयों के हाथ में आध्यात्मिक तौर से सौंप देती है। उसकी पवित्रता और उसके शरीर की वेदनावर्द्धक अनाथावस्था माता-पिता और भाई-बहन को चुपके चुपके प्रेमाश्रुओं से स्नान कराती है । कन्या न तो रोती है और न हँसती है, और न उसे अपने शरीर की सुध ही है । इस कन्या की यह अनाथावस्था उस श्रेणी की है जिस श्रेणी को प्राप्त हुए छोटे छोटे बालक नेपोलियन जैसे दिग्विजयी नरनाथों के कंधों पर सवार होते हैं या ब्रह्म-लीन महात्मा बालक-रूप होकर दिल की बस्ती में राज करते हैं । धन्य है, ऐ तू आर्य- कन्ये ! जिसने अपने क्षुद्र-जीवन को बिल्कुल ही कुछ न समझा। शरीर को तूने ब्रह्मार्पण अथवा अपने पिता या भाई के अर्पण कर दिया । इसका शरीर-त्याग लेखक को ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई महात्मा वेदान्त की सप्तमी भूमिका में जाकर अपना देहाध्यास त्याग देता है । मैं सच कहता हूँ कि इस कन्या की अवस्था संकल्प हीन होती है । चलती-फिरती भी वह कम है। उसके शरीर की गति ऐसी मालूम होती है कि वह अब गिरी, अब गिरी। हाँ, इसे सँभालनेवाले कोई और होते हैं। दो एक चन्द्रमुखी सहेलियाँ इसके शरीर की रखवाली करती हैं। सारे सम्बन्धी इसकी रक्षा में तत्पर रहते हैं । पतिंवरा आर्य-कन्या और पतिंवरा यूरप की कन्या में आजकल भी बहुत बड़ा फर्क है । विचारशील पुरुष कह सकते हैं कि आर्यकन्या के दिल में विवाह के शारीरिक सुखों का उन दिनों लेशमात्र भी ध्यान नहीं आता है । सुशीला आर्यकन्या दिव्य नभो-मंडल में घूमती है। विवाह से एक दो दिन पहले हाथों और पाँवों में मेहंदी लगाने का समय आता है । (पंजाब में मेहँदी लगाते हैं; कहीं कहीं महावर लगाने का रिवाज है।) कन्या के कमरे में दो एक छोटे छोटे बिनौले के दीपक जल रहे हैं । एक जल का घड़ा रक्खा है । कुशासन पर अपनी सहेलियों सहित कन्या बैठी है । सम्बन्धी जन चमचमाते हुए थालों में मेहँदी लिए आ रहे हैं । कुछ देर में प्यारे भाई की बारी आई कि वह अपनी भगिनी के हाथों में मेहँदी लगाये। जिस तरह समाधिस्थ योगी के हाथों पर कोई चाहे जो कुछ करे उसे खबर नहीं होती, उसी तरह इस भोली भाली कन्या के दो छोटे छोटे हाथ इसके भाई के हाथ पर हैं; पर उसे कुछ खबर नहीं । वह नीर भरा वीर अपनी बहन के हाथों में मेहँदी लगा रहा है। उसे इस तरह मेहँदी लगाते समय कन्या के उस अलौकिक त्याग को देख कर मेरी आँखों में जल भर आया और मैंने रो दिया । ऐ मेरी बहन ! जिस त्याग को ढूँढते ढूँढते सैकड़ों पुरुषों ने जाने हार दीं और त्याग न कर सके; जिसकी तलाश में बड़े बड़े बलवान निकले और हार कर बैठ गये; क्या आज तूने उस अद्भुत त्यागादर्श रूपी वस्तु को सचमुच ही पा लिया; शरीर को छोड़ बैठी; और हमसे जुदा होकर देवलोक में रहने लग गई । आ, मैं तेरे हाथों पर मेहँदी का रंग देता हूँ । तूने अपने प्राणों की आहुति दे दी है; मैं उस आहुति से प्रज्वलित हवन की अग्नि के रंग का चिह्न मात्र तेरे हाथों और पाँवों पर प्रकाशित करता हूँ। तेरे वैराग्य और त्याग के यज्ञ को इस मेहँदी के रंग में आज मैं संसार के सामने लाता हूँ । मैं देखूँगा कि इस तेरे मेहँदी के रंग के सामने कितना भी गहरा गेरू का रंग मात होता है या नहीं । तू तो अपने आपको छोड़ बैठी। यह मेहँदी का रंग अब हम लगाकर तेरे त्याग को प्रकट करते हैं। तेरे प्राण-हीन हाथ मेरे हाथों पर पड़े क्या कह रहे हैं। तू तो चली गई, पर तेरे हाथ कह रहे हैं कि मेरी बहन ने अपने आपको अपने प्यारे और लाड़ले वीर के हाथ में दे दिया। वीर रोता है। तेरे त्याग के माहाम्त्य ने सबको रुला-रुलाकर घरवालों को एक नया जीवन दिया है। सारे घर में पवित्रता छा गई है । शान्ति, आनन्द और मंगल हो रहा है। एक कंगाल गृहस्थ का घर इस समय भरा पूरा मालूम होता है । भूखों को अन्न मिलता है । सम्बन्धी मेहमानों को भोजन देने का सामर्थ्य इस घर में भी तेरे त्याग के बल से आ गया है। सचमुच कामधेनु आकाश से उतरकर ऐसे घर में निवास करती है । पिता अपनी पुत्री को देख कर चुपके चुपके रोता है । पुत्री के महात्याग का असर हर एक के दिल पर ऐसा छा जाता है कि आजकल भी हमारे टूटे फूटे गृहस्थाश्रम के खंडरात में कन्या के विवाह के दिन दर्दनाक होते हैं। नयनो की गंगा घर में बहती है । माता-पिता और भाई को दैवी आदेश होता है कि अब कन्यादान का दिन समीप है । अपने दिल को इस गंगाजल से शुद्ध कर लो । यज्ञ होनेवाला है । ऐसा न हो कि तुम्हारे मन के सङ्कल्प साधारण क्षुद्र जीवन के सङ्कल्पों से मिलकर मलिन हो जायें। ऐसा ही होता है । पुत्री-वियोग का दुःख, विवाह का मङ्गलाचार और नयनों की गंगा का स्नान इनके मन को एकाग्र कर देता है । माता, पिता भाई, बहन और सखियाँ भी पतिवरा कन्या के पीछे आत्मिक और ईश्वरी नभ में बिना डोर पतङ्गों की तरह उड़ने लगते हैं । आर्य-कन्या का विवाह हिन्दू-जीवन में एक अद्भुत आध्यात्मिक प्रभाव पैदा करनेवाला समय होता है, जिसे गहरी आँख से देखकर हमें सिर झुकाना चाहिए ।


विवाह के बाहरी शोरोगुल में शामिल होना हमारा काम नहीं । इन पवित्रात्माओं की उच्च अवस्था का अनुभव करके उनको अपने आदर्श-पालन में सहायता देना है ! धन्य हैं वे सम्बन्धी जो उन दिनों अपने शरीरों को ब्रह्मार्पण कर देते हैं । धन्य हैं वे मित्र जो रजोगुणी हँसी को त्यागकर उस काल की महत्ता का अनुभव करके, अपने दिल को नहला धुलाकर, उस एक आर्यपुत्री की पवित्रता के चिंतन में खो देते हैं। सब मिल-जुल कर आओ, कन्या-दान का समय अब समीप है । केवल वही सम्बन्धी और वही सखियाँ जो इस आर्य-पुत्री में तन्मय हो रही हैं उस वेदी के अन्दर आ सकती हैं । जिन्होंने कन्यादान के आदर्श के माहात्म्य को जाना है वही यहाँ उपस्थित हो सकते हैं । ऐसे ही पवित्र भावों से भरे हुए महात्मा विवाहमण्डप में जमा हैं। अग्नि प्रज्वलित है । हवन की सामग्री से सत्त्वगुणी सुगंध निकल-निकल कर सबको शान्त और एकाग्र कर रही है । तारागण चमक रहे हैं । ध्रुव और सप्तर्षि पास ही आ खड़े हुए हैं। चन्द्रमा उपस्थित हुआ है । देवी और देवता इस देवलोक में विहार करनेवाली आर्य-पुत्री का विवाह देखने और उसे सौभाग्यशीला होने का आशीर्वाद देने आये हैं। समय पवित्र है। हृदय पवित्र है। वायु पवित्र है और देवी देवताओं की उपस्थिति ने सबको एकाग्र कर दिया है । अब कन्यादान का वक्त है। स्त्रियों ने कन्यादान के माहात्म्य के गीत अलापने शुरू किये हैं। सबके रोम खड़े हो रहे हैं। गले रुक रहे हैं । आँसू चल रहे हैं-


"बिछुड़ती दुलहन वतन से है जब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;

कि फिर न आने की है कोई ढब खड़े हैं रोम और गला रुके हैं;

यह दीनो-दुनिया तुम्हें मुबारक हमारा दूल्हा हमें सलामत;

पै याद रखना यह आखिरी छवि खड़े हैं रोम और गला रुके हैं।"

(स्वामी राम)


अब प्यारा वीर देव-लोक में रमती देवी के समान अपनी समाधिस्थ बहन के शरीर को अपने हाथों में उठाये इस देवी के भाग्यवान् पति के साथ प्रज्वलित अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे देता है। इस सोहने नौजवान का दिल भी अजीब भावों से भर गया है। शरीर उसका भी उसके मन से गिर रहा है। उसे एक पवित्रात्मा कन्या का दिल, जान, प्राण सबका सब अभी दान मिलता है। समय की अजीब पवित्रता, माता-पिता, भाई, बहन और सखियों के दिलों की आशायें, सत्वगुणी संकल्पों का समूह, आये हुए देवी-देवताओं के आशीर्वाद, अग्नि और मेहँदी के रंग की लाली, कन्या की निरवलम्बता, अनाथता, त्याग, वैराग्य और दिव्य अवस्था आदि ये सबके सब इस नौजवान के दिल पर ऐसा आध्यात्मिक असर करते हैं कि सदा के लिए अपने आपको वह इस देवी के चरणों में अर्पण कर देता है। हमारे देश के इस पारस्परिक अर्पण का दिव्य समय (Divine time of mutual self-surrender = परस्पर आत्म समर्पण का दैवी काल) कुल दुनिया के ऐसे समय से अधिक हृदयंगम होता है । कन्या की समाधि अभी नहीं खुली । परन्तु ऐसी योग-निद्रा में सोई हुई पत्नी के ऊपर यह आर्य नौजवान न्यौछावर हो चुका । इसके लिए तो पहली बार ही प्रेम की बिजली इस तरह गिरी कि उसको खबर तक भी न हुई कि उसका दिल उसके पहलू में प्रेमाग्नि से कब तड़पा कब उछला, कब कूदा और कब हवन हो गया । अब भाई अपनी बहन को अपने दिल से उसके पति के हवाले कर चुका । पिता और माता ने अपने नयनों से गंगा-जल लेकर अपने अंगों को धोया और अपनी मेहँदी रँगी पुत्री को उसके पति के हवाले कर दिया। ज्योंही उस कन्या का हाथ अपने पति के हाथ पर पड़ा त्योंही उस देवी की समाधि खुली । देवी और देवताओं ने भी पति और पत्नी के सिर पर हाथ रखकर अटल सुहाग का आशीर्वाद दिया। देवलोक में खुशी हुई। मातृलोक का यज्ञ पूरा हुआ । चन्द्रमा और तारागण, ध्रुव और सप्तर्षि इसके गवाह हुए । मानो ब्रह्मा ने स्वयं आकर इस संयोग को जोड़ा । फिर क्यों न पति और पत्नी परस्पर प्रेम में लीन हों ? कुल जगत् टूट फूटकर प्रलयलीन सा हो गया; इस पत्नी के लिए केवल पति ही रह गया । और, इसी तरह, कुल जगत् टूटफूट प्रलय-लीन हो गया। इस पति के लिए केवल पत्नी ही रह गई । क्या रँगीला जोड़ा है जो कुल जगत् को प्रलय-गर्भ में लीन कर अनन्ताकाश में प्रेम की बाँसुरी बजाते हुए बिचर रहा है। प्यारे ! हमारे यहाँ तो यही राधा-कृष्ण घर घर बिचरते हैं :-


“The reduction of the whole universe to a single being and the expansion of that single being even to God is love."

-Victor Hugo

(समस्त सृष्टि का एक भूत में परिणत हो जाना तथा उस एक भूत का देवत्व में विकास पाना ही प्रेम है। विक्टर ह्यूगो)


सीता ने बारह वर्ष का वनवास कबूल किया; महलों में रहना न कबूल किया । दमयन्ती जंगल जंगल नल के लिये रोती फिरी । सावित्री ने प्रेम के बल से यम को जीतकर अपने पति को वापस लिया। गांधारी ने सारी उम्र अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर बिता दी। ब्राह्म-समाज के महात्मा भाई प्रतापचन्द्र मजूमदार अपने अमरीका के “लौवल लेकचर” में कन्यादान के असर को, जो उनके दिल पर हुआ था, अमरीका-निवासियों के सम्मुख इस तरह प्रकट करते हैं :- "यदि कुल संसार की स्त्रियाँ एक तरफ खड़ी हों और मेरी अपढ़ प्रियतमा पत्नी दूसरी तरफ खड़ी हो तो मैं अपनी पत्नी ही की तरफ दौड़ जाऊँगा ।"


ऋषि लोग सँदेसा भेजते हैं कि इस आदर्श का पूर्ण अनुभव से पालन करने में कुल जगत् का कल्याण होगा । हे भारतवासियो ! इस यज्ञ के माहात्म्य का आध्यात्मिक पवित्रता से अनुभव करो । इस यज्ञ में देवी और देवताओं को निमंत्रित करने की शक्ति प्राप्त करो । विवाह को मखौल न जानो । यज्ञ का खेल न करो । झूठी खुदगर्जी की खातिर इस आदर्श को मटियामेट न करो । कुल जगत के कल्याण को सोचो ।


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