एक लम्बा, ऊँचा, वृद्ध-युवक, मिट्टी-गारे से लिप्त, मोटे वस्त्र का पतलून और कोट पहने, नङ्गे सिर, नङ्गे पाँव और नङ्गे ही दिल अपनी तिनकों की टोपी मस्ती में उछालता, झूमता जा रहा है । मौज आती है तो घास पर लेट जाता है । कभी नाचता, कभी चीखता और कभी भागता है। मार्ग में पशुओं को हरे तृण का भोज उड़ाते देख आनन्द में मग्न हो जाता है। आकाश-गामी पक्षियों के उड़ान को देख हर्ष में प्रफुल्लित हो जाता है। जब कभी उसे परोपकार की सूझती है तब वह गोल गोल श्वेत शिवशङ्करों को उठा उठा कर नदी की तरङ्गों पर बरसाता है। आज इस वृक्ष के नीचे विश्राम करता है, कल उसके नीचे बैठता है। जीवन के अरण्य में वह धूप और छाँह की तरह बिचरता चला जाता है । कभी चलते चलते अकस्मात् ठहर जाता है, मानो कोई बात याद आ गई । बार बार गर्दन फेर फेर और नेत्र उठा उठा कर वह सूर्य को ताकता है । सूर्य की सुनहली सोहनी रोशनी पर वह मरता है। समीर की मन्द मन्द गति के साथ वह नृत्य करता है, मानो सहस्रों वीणायें और सितार उसको पवन के प्रवाह में सुनाई देते हैं । इस प्राकृतिक राग की आँधी के सामने मानुषिक राग, दिनकर के प्रकाश में टिमटिमाती हुई दीप-शिखा के समान तेजोहीन प्रतीत होते हैं । उसके भीतर बाहर कुछ ऐसी असाधारण मधुरता भरी है कि चञ्चरीक के समूह के समूह उसके साथ साथ लगे फिरते हैं। उसके हृदय का सहस्रदल ब्रह्म-कमल ऐसा खिला है कि सूर्य और चन्द्र भ्रमरवत् उस विकसित कमल के मधु का स्वाद लेने को जाते हैं । बारी बारी से वे उसमें मस्त होकर बन्द होते हैं और प्रकाश पाकर पुनः बाहर आते हैं।
उस सुन्दर धवल केशधारी वृद्ध के वेश में कहीं न्यागरा की दूध धारा तो नहीं फिर रही है यह मस्त वनदेव कौन है । चलता इस लटक से है मानो यही इस वन का राजा या गन्धर्व है। पत्ता पत्ता, कली कली, नली नली, डाली डाली, तने तने को यह ऐसी रहस्य- पूर्ण दृष्टि से देखता है मानो सब इसी के दिलदार और यार हैं ।। सामने से वे दो कृषक-महिलायें दूध की ठिलियाँ उठाये गाती हुई आती हैं। क्या ही अलौकिक दृश्य है। औरों को तो ये दो अबलायें अस्थि और मांस की पुतलियाँ ही प्रतीत होती हैं, परन्तु हमारे मस्तराम की आश्चर्य भरी आँखों को वे केवल बाँस की पोरियाँ ही दीखती हैं। उसकी निगृढ दृष्टि उनसे लड़ी। वे दोनों इस वृद्ध-युवक को आवारा समझ कुछ खफा हुईं, कुछ शरमाईं और कुछ मुसकराईं। उसने उनके मतलब को जान लिया । वह हँसा, खिलखिलाया और सलाम किया। नयनों से कुछ इशारे किये; आँसू बहाये। किसी की प्रशंसा की, कोई याद आया, किसी से हाथ मिलाया और उसे दिल दे दिया । यह दृश्य हमारे मस्त कवि का एक काव्य हुआ।
वे दो खोखले वृक्ष, वेश बदल कर और वृद्ध स्त्रियों का रूप बनाकर, सामने नजर आये। वे दोनों वृद्धायें हाथ में हाथ मिलाये कुछ अलापती जा रही हैं। उसने जिन दो पूर्व युवतियों, हुस्न की परियों, विकसित कलियों, को देखकर अपना काव्य-प्रवाह बहाया था उसी पवित्र काव्य-गङ्गा को वृक्षों के चरणों में भी छोड़ दिया। वह सौन्दर्य का कितना बड़ा पुजारी है। वह हर वस्तु में सुन्दरता ही सुन्दरता देखता है। क्यों नहीं, तत्त्ववित् है न । उसके अनुभव में आया है कि उसकी एकमात्र प्यारी नाना रूपों में प्रत्यक्ष हुई है। प्रत्येक वस्तु सुन्दर है—क्या बाँस की लम्बी लम्बी पोरियाँ और क्या वट के खोखले तने। या तो संसार की दृष्टि ही अपूर्ण है, या मेरी ही दृष्टि मदमाती है। उनमें अन्तर अवश्य है । जो आँख हर आँख में अपने ही प्यारे को देखती है वह भला तुम्हारी कला के पैमानों के कारागार में कैसे बन्द हो सकती है। बस सौन्दर्य का सच्चा पुजारी यही है । यह सब को सदा यही सुनाता है—“तुम भले, तुम भले" ।
अमेरिका के वन में नहीं, जीवन के अरण्य में यह कौन जा रहा है ? यह प्रकृति का बंभोला कौन ? यह वन का शाहदौला है कौन ? यह इतना शरीफ अमीर होकर ऐसा रिन्द फकीर है कौन ? अमेरिका 'वही मूर्ख (बहिर्मुख), तत्त्वहीन, मशीन-रूपी नरक में यह जीता जागता ब्रह्मज्ञानरूपी स्वर्ग कौन है ? इसकी उपस्थिति मात्र से मनुष्य की आभ्यन्तरिक अवस्था बदल जाती है । अमेरिका की बहिर्मुख सभ्यता को लात मार कर, बिरादरी और बादशाह से बागी होकर, कालीनों को जला कर, महलों में आग लगा कर यह कौन जाड़ा मना रहा है ? प्रभात की फेरी वाला, जङ्गल का जोगी, अमेरिका का स्वतंत्र और मस्त फकीर वाल्ट व्हिटमैन अपनी काव्यरचना करता हुआ जा रहा है । वह कोमल और ऊँचे, लम्बे और गहरे, स्वरों में एक संदेसा देता जा रहा है । सभ्यता के नगरों से यह जोगी जितनी ही दूर होता जाता है उसका स्वर उतना ही गम्भीर होता जाता है। वास्तव में मनुष्य स्वतन्त्रताप्रिय है। किसी प्रकार के दासपन को वह नहीं सह सकता। आजकल अमेरिका में लोग अमीरी से तङ्ग आ गये हैं। उनकी हँसी एक प्रकार की मिस्सी है। जो किसी को मुख दिखाना हुआ झट मल ली । वहाँ घर और वस्त्रों को कफन और कब्र बनाकर मनुष्य-जीवन का प्रवाह दबाया जाता है। चमकता हुआ कलदार ही इस बाह्य जीवन को स्थिर रखने का वहाँ खुदा है। जैसे भारतवासी फोटो उतरवाते समय ओठों और मूछों के कोण और कोटों के किनारे सँभालते हैं उसी तरह आधुनिक कलदार- सभ्यता (Dollar-Civilisation) में जीते जागते मनुष्यों को सुन्दर फोटो रूप बनकर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ता है। उनके आचरण हृदय-प्रेम की ताल में तुले नहीं होते, वे कृत्रिम होते हैं । वहाँ काव्य के नृसिंह भगवान् व्हिटमैन ने अपने उच्चनाद से हिन्दुओं की ब्रह्मविद्या और ईरान की सूफी विद्या को एक ही साथ घोषित किया है । वाल्ट व्हिटमैन के मत में वह मनुष्य ही क्या जो ब्रह्मनिष्ठ नहीं। वह एक मनुष्य के जीवन में मनुष्यमात्र का जीवन और मनुष्य मात्र के जीवन में एक मनुष्य का जीवन देखता है। उसके काव्य का प्रवाह आकाशवत् सार्वभौम है। जैसे आकाश समस्त नक्षत्र आदि को उठाये हुए है उसी तरह उसका काव्य सब चर और अचर, नर और नारी को, चमकते दमकते तारों की तरह, अपने में लपेटे हुए है । वह सब के मन की कहता है और सब उसको अपने मन की बात बताते हैं । गरीबों को अमीर और अमीरों को गरीब करनेवाला कवि यही है । अपने आनन्द की मस्ती में उसे काव्य की तुकबन्दी भी बन्धन प्रतीत होती है। वह प्रत्येक दोहे-चौपाई को पिङ्गल के नियम की तराजू में नहीं, किन्तु अपने हृदयानन्द के ताल में तौलता है । जो लोग मिश्र के पिरीमिड़ को उत्तम कला कौशल का नमूना मानते हैं उनकी सुन्दरता देखने की दृष्टि परदानशीनों की सी हैं। प्रकृति के बाह्य अनियमित दृश्य इन परदानशीनों के नियमित दृश्यों से कहीं बढ़ चढ़कर हैं । जो भेद समुद्र की छाती के उभार के प्रेमियों और एक युवती के वक्षस्थल के उभार के प्रेमियों में है, वही भेद व्हिटमैन के सदृश स्वतन्त्र काव्यप्रेमियों और तुकबन्दी के प्रेमियों में है। बाग बनाना तो मानुषी कला है, और जङ्गल बनाना दिव्य कला है | चित्र बनाना तो जीतों को मुर्दा बनाना है और मुर्दा प्रकृति को जीवित संसार बना देना ब्रह्मकला है । और कवि तो केवल चित्र बनाते हैं, परन्तु यह कवि जीते जागते प्राणियों को अपने काव्य में भरता है। नीचे हम वाल्ट व्हिटमैन की पोयम्स आव जॉय (Poems of Joy) नामक कविता के कुछ खण्डों का तरजुमा, नमूने के तौर पर, देते हैं :-
आनन्द-काव्य
ओः कैसे रचूँ आनन्द भरी, रसभरी, दिल भरी कविता-रागभरी,
पुंस्त्व भरी, स्त्रीत्व भरी, बालकत्व भरी, संसार भरी, अन्न भरी,
फल भरी, पुष्प भरी ॥ 1॥
ओः ! पशुओं की ध्वनि लाऊँ, मछलियों की फुर्ती, और उनके तुले हुए तैरते शरीरों को लाऊँ।
चारों ओर हो विशाल समुद्र का जल, खुले समुद्र पर हों खुले बादबाँ, और चले हमारी नैया ॥ 2 ॥
ओः ! आत्मानन्द का दरिया टूटा, पिंजड़े टूटे, दीवारें टूटी, घर बह गये और शहर बह गये ।
इस एक छोटी पृथ्वी से क्या होता है ? लाओ, दे दो सब नक्षत्र मुझे, सब सूर्य मुझे, और सब काल मुझे ॥ 3 ॥
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ओः! इस अनादि भौतिक पीड़ा को-इस प्रेमदर्द को-दरसाऊँ कैसे अपनी कविता में ।
कैसे बहाऊँ उस आत्मगङ्गा के नीर को कैसे बहाऊँ प्रेमाश्रुओं को अपनी कविता में ॥ 4 ॥
जो पृथ्वी है सो हम हैं; जो तारे हैं सो हम हैं; ओः हो ! कितनी देर हमने उल्लुओं के स्वर्ग में काट दी । हम शिला हैं, पृथ्वी में फंसे हैं; हम खुले मैदान हैं, साथ साथ पड़े हैं। हम हैं दो समुद्र, जो आन मिले हैं। पुरुष का शरीर पवित्र है, स्त्री का शरीर पवित्र है, फूलों का शरीर पवित्र है, वायु का शरीर पवित्र है, जल पवित्र है, धरती पवित्र है, आकाश पवित्र है, गोबर और तृण की झोपड़ी पवित्र है, प्रेम पवित्र है, सेवा पवित्र है, अर्पण पवित्र है । लो सब अपने आपको तुम्हारे हवाले करता हूँ। कोई भी हो, तुम सारी दुनिया के सामने मेरे हो रहो ।
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