Monday, July 11, 2022

महाकाव्य | प्रिय प्रवास ( पन्द्रहवां सर्ग ) | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | Mahakavya | Priya pravas / Pandhrawa Sarg | Ayodhya Singh Upadhyay 'Hari Oudh'


 मन्दाक्रान्ता छन्द


छाई प्रात: सरस छवि थी पुष्प औ पल्लवों में।

कुंजों में थे भ्रमण करते हो महा-मुग्ध ऊधो।

आभा-वाले अनुपम इसी काल में एक बाला।

भावों-द्वारा-भ्रमित उनको सामने दृष्टि आई॥1॥


नाना बातें कथन करते देख पुष्पादिकों से।

उन्मत्त की तरह करते देख न्यारी-क्रियायें।

उत्कण्ठा के सहित उसका वे लगे भेद लेने।

कुंजों में या विटपचय की ओट में मौन बैठे॥2॥


थे बाला के दृग-युगल के सामने पुष्प नाना।

जो हो-हो के विकच, कर में भानु के सोहते थे।

शोभा पाता यक कुसुम था लालिमा पा निराली।

सो यों बोली निकट उसके जा बड़ी ही व्यथा से॥3॥


आहा कैसी तुझ पर लसी माधुरी है अनूठी।

तूने कैसी सरस-सुषमा आज है पुष्प पाई।

चूमूँ चाटूँ नयन भर मैं रूप तेरा विलोकूँ।

जी होता है हृदय-तल से मैं तुझे ले लगा लूँ॥4॥


क्या बातें हैं 'मधुर इतना आज तू जो बना है।

क्या आते हैं ब्रज-अवनि में मेघ सी कान्तिवाले?।

या कुंजों में अटन करते देख पाया उन्हें है।

या आ के है स-मुद परसा हस्त-द्वारा उन्होंने॥5॥


तेरी प्यारी 'मधुर-सरसा-लालिमा है बताती।

डूबा तेरा हृदय-तल है लाल के रंग ही में।

मैं होती हूँ विकल पर तू बोलता भी नहीं है।

कैसे तेरी सरस-रसना कुंठिता हो गई है॥6॥


हा! कैसी मैं निठुर तुझसे वंचिता हो रही हूँ।

जो जिह्ना हूँ कथन-रहिता-पंखड़ी को बनाती।

तू क्यों होगा सदय दुख क्यों दूर मेरा करेगा।

तू काँटों से जनित यदि है काठ का जो सगा है॥7॥


आ के जूही-निकट फिर यों बालिका व्यग्र बोली।

मेरी बातें तनिक न सुनी पातकी-पाटलों ने।

पीड़ा नारी-हृदय-तल की नारि ही जानती है।

जूही तू है विकच-वदना शान्ति तू ही मुझे दे॥8॥


तेरी भीनी-महँक मुझको मोह लेती सदा थी।

क्यों है प्यारी न वह लगती 'आज' सच्ची बता दे।

क्या तेरी है महँक बदली या हुई और ही तू।

या तेरा भी सरबस गया साथ ऊधो-सखा के॥9॥


छोटी-छोटी रुचिर अपनी श्याम-पत्रावली में।

तू शोभा से विकच जब थी भूरिता साथ होती।

ताराओं से खचित नभ सी भव्य तो थी दिखाती।

हा! क्यों वैसी सरस-छवि से वंचिता आज तू है॥10॥


वैसी ही है सकल दल में श्यामता दृष्टि आती।

तू वैसी ही अधिकतर है वेलियों-मध्य फूली।

क्यों पाती हूँ न अब तुझमें चारुता पूर्व जैसी।

क्यों है तेरी यह गत हुई क्या न देगी बता तू॥11॥


मैं पाती हूँ अधिक तुझसे क्यों कई एक बातें।

क्यों देती है व्यथित कर क्यों वेदना है बढ़ाती।

क्यों होता है न दुख तुझको वंचना देख मेरी।

क्या तू भी है निठुरपन के रंग ही बीच डूबी॥12॥


हो-हो पूरी चकित सुनती वेदना है हमारी।

या तू खोले वदन हँसती है दशा देख मेरी।

मैं तो तेरा सुमुखि! इतना मर्म्म भी हूँ न पाती।

क्या आशा है अपर तुझसे है निराशामयी तू॥13॥


जो होता है सुखित, उसको अन्य की वेदनायें।

क्या होती हैं विदित वह जो भुक्त-भोगी न होवे।

तू फूली है हरित-दल में बैठ के सोहती है।

क्या जानेगी मलिन बनते पुष्प की यातनायें॥14॥


तू कोरी है न, कुछ तुझ में प्यार का रंग भी है।

क्या देखेगी न फिर मुझको प्यार की ऑंख से तू।

मैं पूछूँगी भगिनि! तुझसे आज दो-एक बातें।

तू क्या हो के सदय बतला ऐ चमेली न देगी॥15॥


थोड़ी लाली पुलकित-करी पंखड़ी-मध्य जो है।

क्या सो वृन्दा-विपिन-पति की प्रीति की व्यंजिका है।

जो है तो तू सरस-रसना खोल ले औ बता दे।

क्या तू भी है प्रिय-गमन से यों महा-शोक-मग्ना॥16॥


मेरा जी तो व्यथित बन के बावला हो रहा है।

व्यापीं सारे हृदय-तल में वेदनायें सहस्रों।

मैं पाती हूँ न कल दिन में, रात में ऊबती हूँ।

भींगा जाता सब वदन है वारि-द्वारा दृगों के॥17॥


क्या तू भी है रुदन करती यामिनी-मध्य यों ही।

जो पत्तों में पतित इतनी वारि की बूँदियाँ हैं।

पीड़ा द्वारा मथित-उर के प्रायश: काँपती है।

या तू होती मृदु-पवन से मन्द आन्दोलिता है॥18॥


तेरे पत्तों अति-रुचिर हैं कोमला तू बड़ी है।

तेरा पौधा कुसुम-कुल में है बड़ा ही अनूठा।

मेरी ऑंखें ललक पड़ती हैं तुझे देखने को।

हा! क्यों तो भी व्यथित चित की तू न आमोदिकाहै॥19॥


हा! बोली तू न कुछ मुझसे औ बताईं न बातें।

मेरा जी है कथन करता तू हुई तद्गता है।

मेरे प्यारे-कुँवर तुझको चित्त से चाहते थे।

तेरी होगी न फिर दयिते! आज ऐसी दशा क्यों॥20॥


जूही बोली न कुछ, जतला प्यार बोली चमेली।

मैंने देखा दृग-युगल से रंग भी पाटलों का।

तू बोलेगा सदय बन के ईदृशी है न आशा।

पूरा कोरा निठुरपन के मुर्ति ऐ पुष्प बेला॥21॥


मैं पूछूँगी तदपि तुझसे आज बातें स्वकीया।

तेरा होगा सुयश मुझसे सत्य जो तू कहेगा।

क्यों होते हैं पुरुष कितने, प्यार से शून्य कोरे।

क्यों होता है न उर उनका सिक्त स्नेहाम्बु द्वारा॥22॥


आ के तेरे निकट कुछ भी मोद पाती न मैं हूँ।

तेरी तीखी महँक मुझको कष्टिता है बनाती।

क्यों होती है सुरभि सुखदा माधवी मल्लिका की।

क्यों तेरी है दुखद मुझको पुष्प बेला बता तू॥23॥


तेरी सारे सुमन-चय से श्वेतता उत्तम है।

अच्छा होता अधिक यदि तू सात्तिवकी वृत्ति पाता।

हा! होती है प्रकृति रुचि में अन्यथा कारिता भी।

तेरा एरे निठुर नतुवा साँवला रंग होता॥24॥


नाना पीड़ा निठुर-कर से नित्य मैं पा रही हूँ।

तेरे में भी निठुरपन का भाव पूरा भरा है।

हो-हो खिन्ना परम तुझसे मैं अत: पूछती हूँ।

क्यों देते हैं निठुर जन यों दूसरों को व्यथायें॥25॥


हा! तू बोला न कुछ अब भी तू बड़ा निर्दयी है।

मैं कैसी हूँ विवश तुझसे जो वृथा बोलती हूँ।

खोटे होते दिवस जब हैं भाग्य जो फूटता है।

कोई साथी अवनि-तल में है किसी का न होता॥26॥


जो प्रेमांगी सुमन बन के औ तदाकार हो के।

पीड़ा मेरे हृदय-तल की पाटलों ने न जानी।

तो तू हो के धवल-तन औ कुन्त-आकार-अंगी।

क्यों बोलेगा व्यथित चित की क्यों व्यथा जान लेगा॥27॥


चम्पा तू है विकसित मुखी रूप औ रंगवाली।

पाई जाती सुरभि तुझमें एक सत्पुष्प-सी है।

तो भी तेरे निकट न कभी भूल है भृङ्ग आता।

क्या है ऐसी कसर तुझमें न्यूनता कौन सी है॥28॥


क्या पीड़ा है न कुछ इसकी चित्त के मध्य तेरे।

क्या तू ने है मरम इसका अल्प भी जान पाया।

तू ने की है सुमुखि! अलि का कौन सा दोष ऐसा।

जो तू मेरे सदृश प्रिय के प्रेम से वंचिता है॥29॥


सर्वांगों में सरस-रज औ धूलियों को लपेटे।

आ पुष्पों में स-विधि करती गर्भ-आधन जो है।

जो ज्ञाता है 'मधुर-रस का मंजु जो गूँजता है।

ऐसे प्यारे रसिक-अलि से तू असम्मानिता है॥30॥


जो ऑंखों में 'मधुर-छवि की मूर्ति सी ऑंकता है।

जो हो जाता उदधि उर के हेतु राका-शशी है।

जो वंशी के सरस-स्वर से है सुधा सी बहाता।

ऐसे माधो-विरह-दव से मैं महादग्धिता हूँ॥31॥


मेरी तेरी बहुत मिलती वेदनायें कई हैं।

आ रोऊँ ऐ भगिनि तुझको मैं गले से लगा के।

जो रोती हैं दिवस-रजनी दोष जाने बिना ही।

ऐसी भी हैं अवनि-तल में जन्म लेती अनेकों॥32॥


मैंने देखा अवनि-तल में श्वेत ही रंग ऐसा।

जैसा चाहे जतन करके रंग वैसा उसे दे।

तेरे ऐसी रुचिर-सितता कुन्द मैंने न देखी।

क्या तू मेरे हृदय-तल के रंग में भी रँगेगा॥33॥


क्या है होना विकच इसको पुष्प ही जानते हैं।

तू कैसा है रुचिर लगता पत्तियों-मध्य फूला।

तो भी कैसी व्यथित-कर है सो कली हाय! होती।

हो जाती है विधि-कुमति से म्लान फूले बिना जो॥34॥


मेरे जी की मृदुल-कलिका प्रेम के रंग राती।

म्लाना होती अहह नित है अल्प भी जो न फूली।

क्या देवेगा विकच इसको स्वीय जैसा बना तू।

या हो शोकोपहत इसके तुल्य तू म्लान होगा॥35॥


वे हैं मेरे दिन अब कहाँ स्वीय उत्फुल्लता को।

जो तू मेरे हृदय-तल में अल्प भी ला सकेगा।

हाँ, थोड़ा भी यदि उर मुझे देख तेरा द्रवेगा।

तो तू मेरे मलिन-मन की म्लानता पा सकेगा॥36॥


हो जावेगी प्रथित-मृदुता पुष्प संदिग्ध तेरी।

जो तू होगा व्यथित न किसी कष्टिता की व्यथा से।

कैसे तेरी सुमन-अभिधा साथ ऐ कुन्द होगी।

जो होवेगा न अ-विकच तू म्लान होते चितों से॥37॥


सोने जैसा बरन जिसने गात का है बनाया।

चित्तामोदी सुरभि जिसने केतकी दी तुझे है।

यों काँटों से भरित तुझको क्यों उसी ने किया है।

दी है धूली अलि अवलि की दृष्टि-विध्वंसिनी क्यों॥38॥


कालिन्दी सी कलित-सरिता दर्शनीया-निकुंजें।

प्यारा-वृन्दा-विपिन विटपी चारु न्यारी-लतायें।

शोभावाले-विहग जिसने हैं दिये हा! उसी ने।

कैसे माधो-रहित ब्रज की मेदनी को बनाया॥39॥


क्या थोड़ा भी सजनि!इसका मर्म्म तू पा सकी है।

क्या धाता की प्रकट इससे मूढ़ता है न होती।

कैसा होता जगत सुख का धाम और मुग्धकारी।

निर्माता की मिलित इसमें वामता जो न होती॥40॥


मैंने देखा अधिकतर है भृंग आ पास तेरे।

अच्छा पाता न फल अपनी मुग्धता का कभी है।

आ जाती है दृग-युगल में अंधता धूलि-द्वारा।

काँटों से हैं उभय उसके पक्ष भी छिन्न होते॥41॥


क्यों होती है अहह इतनी यातना प्रेमिकों की।

क्यों बाधा औ विपदमय है प्रेम का पंथ होता।

जो प्यारा औ रुचिर-विटपी जीवनोद्यान का है।

सो क्यों तीखे कुटिल उभरे कंटकों से भरा है॥42॥


पूरा रागी हृदय-तल है पुष्प बन्धु तेरा।

मर्य्यादा तू समझ सकता प्रेम के पंथ की है।

तेरी गाढ़ी नवल तन की लालिमा है बताती।

पूरा-पूरा दिवस-पति के प्रेम में तू पगा है॥43॥


तेरे जैसे प्रणय-पथ के पान्थ उत्पन्न हो के।

प्रेमी की हैं प्रकट करते पक्वता मेदनी में।

मैं पाती हूँ परम-सुख जो देख लेती तुझे हूँ।

क्या तू मेरी उचित कितनी प्रार्थनायें सुनेगा॥44॥


मैं गोरी हूँ कुँवर-वर की कान्ति है मेघ की सी।

कैसे मेरा, महर-सुत का, भेद निर्मूल होगा।

जैसे तू है परम-प्रिय के रंग में पुष्प डूबा।

कैसे वैसे जलद-तन के रंग में मैं रँगूँगी॥45॥


पूरा ज्ञाता समझ तुझको प्रेम की नीतियों का।

मैं ऐ प्यारे कुसुम तुझसे युक्तियाँ पूछती हूँ।

मैं पाऊँगी हृदय-तल में उत्तम-शांति कैसे।

जो डूबेगा न मम तन भी श्याम के रंग ही में॥46॥


'ऐसी, हो के कुसुम तुझमें प्रेम की पक्वता है।

मैं हो के भी मनुज-कुल की, न्यूनता से भरी हूँ।

कैसी लज्जा-परम-दुख की बात मेरे लिए है।

छा जावेगा न प्रियतम का रंग सर्वांग में जो॥47॥


वंशस्थ छन्द


खिला हुआ सुन्दर-वेलि-अंक में।

मुझे बता श्याम-घटा प्रसून तू।

तुझे मिली क्यों किस पूर्व-पुण्य से।

अतीव-प्यारी-कमनीय-श्यामता॥48॥


हरीतिमा वृन्त समीप की भली।

मनोहरा मध्य विभाग श्वेतता।

लसी हुई श्यामलताग्रभाग में।

नितान्त है दृष्टि विनोद-वर्ध्दिनी॥49॥


परन्तु तेरा बहु-रंग देख के।

अतीव होती उर-मध्य है व्यथा।

अपूर्व होता भव में प्रसून तू।

निमग्न होता यदि श्याम-रंग में॥50॥


तथापि तू अल्प न भाग्यवान है।

चढ़ा हुआ है कुछ श्याम रंग तो।

अभागिनी है वह, श्यामता नहीं।

विराजती है जिसके शरीर में॥51॥


न स्वल्प होती तुझमें सुगंधि है।

तथापि सम्मानित सर्व-काल में।

तुझे रखेगा ब्रज-लोक दृष्टि में।

प्रसून तेरी यह श्यामलांगता॥52॥


निवास होगा जिस ओर सूर्य का।

उसी दिशा ओर तुरंत घूम तू।

विलोकती है जिस चाव से उसे।

सदैव ऐ सूर्यमुखी सु-आनना॥53॥


अपूर्व ऐसे दिन थे मदीय भी।

अतीव मैं भी तुझ सी प्रफुल्ल थी।

विलोकती थी जब हो विनोदिता।

मुकुन्द के मंजु-मुखारविन्द को॥54॥


परन्तु मेरे अब वे न वार हैं।

न पूर्व की सी वह है प्रफुल्लता।

तथैव मैं हूँ मलिना यथैव तू।

विभावरी में बनती मलीन है॥55॥


निशान्त में तू प्रिय स्वीय कान्त से।

पुन: सदा है मिलती प्रफुल्ल हो।

परन्तु होगी न व्यतीत ऐ प्रिये।

मदीय घोरा रजनी-वियोग की॥56॥


नृलोक में है वह भाग्य-शालिनी।

सुखी बने जो विपदावसान में।

अभागिनी है वह विश्व में बड़ी।

न अन्त होवे जिसकी विपत्ति का॥57॥


मालिनी छन्द


कुवलय-कुल में से तो अभी तू कढ़ा है।

बहु-विकसित प्यारे-पुष्प में भी रमा है।

अलि अब मत जा तू कुंज में मालती की।

सुन मुझ अकुलाती ऊबती की व्यथायें॥58॥


यह समझ प्रसूनों पास में आज आई।

क्षिति-तल पर हैं ए मुर्ति-उत्फुल्लता की।

पर सुखित करेंगे ए मुझे आह! कैसे।

जब विविध दुखों में मग्न होते स्वयं हैं॥59॥


कतिपय-कुसुमों को म्लान होते विलोका।

कतिपय बहु कीटों के पड़े पेच में हैं।

मुख पर कितने हैं वायु की धौल खाते।

कतिपय-सुमनों की पंखड़ी भू पड़ी है॥60॥


तदपि इन सबों में ऐंठ देखी बड़ी ही।

लख दुखित-जनों को ए नहीं म्लान होते।

चित व्यथित न होता है किसी की व्यथा से।

बहु भव-जनितों की वृत्ति ही ईदृशी है॥61॥


अयि अलि तुझमें भी सौम्यता हूँ न पाती।

मम दुख सुनता है चित्त दे के नहीं तू।

अति-चपल बड़ा ही ढीठ औ कौतुकी है।

थिर तनक न होता है किसी पुष्प में भी॥62॥


यदि तज करके तू गूँजना धर्य्य-द्वारा।

कुछ समय सुनेगा बात मेरी व्यथा की।

तब अवगत होगा बालिका एक भू में।

विचलित कितनी है प्रेम से वंचिता हो॥63॥


अलि यदि मन दे के भी नहीं तू सुनेगा।

निज दुख तुझसे मैं आज तो भी कहूँगी।

कुछ कह उनसे, है चित्त में मोद होता।

क्षिति पर जिनकी हूँ श्यामली-मुर्ति पाती॥64॥


इस क्षिति-तल में क्या व्योम के अंक में भी।

प्रिय वपु छवि शोभी मेघ जो घूमते हैं।

इकटक पहरों मैं तो उन्हें देखती हूँ।

कह निज मुख द्वारा बात क्या-क्या न जानें॥65॥


मधुकर सुन तेरी श्यामता है न वैसी।

अति-अनुपम जैसी श्याम के गात की है।

पर जब-जब ऑंखें देख लेती तुझे हैं।

तब-तब सुधि आती श्यामली-मूर्ति की है॥66॥


तव तन पर जैसी पीत-आभा लसी है।

प्रियतम कटि में है सोहता वस्त्र वैसा।

गुन-गुन करना औ गूँजना देख तेरा।

रस-मय-मुरली का नाद है याद आता॥67॥


जब विरह विधाता ने सृजा विश्व में था।

तब स्मृति रचने में कौन सी चातुरी थी।

यदि स्मृति विरचा तो क्यों उसे है बनाया।

वपन-पटु कु-पीड़ा बीज प्राणी-उरों में॥68॥


अलि पड़ कर हाथों में इसी प्रेम के ही।

लघु-गुरु कितनी तू यातना भोगता है।

विधि-वश बँधाता है कोष में पंकजों के।

बहु-दुख सहता है विध्द हो कंटकों से॥69॥


पर नित जितनी मैं वेदना पा रही हूँ।

अति लघु उससे है यातना भृङ्ग तेरी।

मम-दुख यदि तेरे गात की श्यामता है।

तब दुख उसकी ही पीतता तुल्य तो है॥70॥


बहु बुध कहते हैं पुष्प के रूप द्वारा।

अपहृत चित होता है अनायास तेरा।

कतिपय-मति-शाली हेतु आसक्तता का।

अनुपम-मधु किम्वा गंध को हैं बताते॥71॥


यदि इन विषयों को रूप गंधदिकों को।

मधुकर हम तेरे मोह का हेतु मानें।

यह अवगत होना चाहिए भृङ्ग तो भी।

दुख-प्रद तुझको, तो तीन ही इन्द्रियाँ हैं॥72॥


पर मुझ अबला की वेदना-दायिनी हा।

समधिक गुण-वाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।

तदुपरि कितनी हैं मानवी-वंचनायें।

विचलित-कर होंगी क्यों न मेरी व्यथायें॥73॥


जब हम व्यथिता हैं ईदृशी तो तुझे क्या।

कुछ सदय न होना चाहिए श्याम-बन्धो।

प्रिय निठुर हुए हैं दूर हो के दृगों से।

मत निठुर बने तू सामने लोचनों के॥74॥


नव-नव-कुसुमों के पास जा मुग्ध हो-हो।

गुन-गुन करता है चाव से बैठता है।

पर कुछ सुनता है तू न मेरी व्यथायें।

मधुकर इतना क्यों हो गया निर्दयी है॥75॥


कब टल सकता था श्याम के टालने से।

मुख पर मँडलाता था स्वयं मत्त हो के।

यक दिन वह था औ एक है आज का भी।

जब भ्रमर न मेरी ओर तू ताकता है॥76॥


कब पर-दुख कोई है कभी बाँट लेता।

सब परिचय-वाले प्यार ही हैं दिखाते।

अहह न इतना भी हो सका तो कहूँगी।

मधुकर यह सारा दोष है श्यामता का॥77॥


द्रुतविलम्बित छन्द


कमल-लोचन क्या कल आ गये।

पलट क्या कु-कपाल-क्रिया गई।

मुरलिका फिर क्यों वन में बजी।

बन रसा तरसा वरसा सुधा॥78॥


किस तपोबल से किस काल में।

सच बता मुरली कल-नादिनी।

अवनि में तुझको इतनी मिली।

मदिरता, मृदुता, मधुमानता॥79॥


चकित है किसको करती नहीं।

अवनि को करती अनुरक्त है।

विलसती तव सुन्दर अंक में।

सरसता, शुचिता, रुचिकारिता॥80॥


निरख व्यापकता प्रतिपत्ति की।

कथन क्यों न करूँ अयि वंशिके।

निहित है तब मोहक पोर में।

सफलता, कलता, अनुकूलता॥81॥


मुरलिके कह क्यों तव-नाद से।

विकल हैं बनती ब्रज-गोपिका।

किसलिए कल पा सकती नहीं।

पुलकती, हँसती, मृदु बोलती॥82॥


स्वर फुँका तव है किस मंत्र से।

सुन जिसे परमाकुल मत्त हो।

सदन है तजती ब्रज-बालिका।

उमगती, ठगती, अनुरागती॥83॥


तव प्रवंचित है बन छानती।

विवश सी नवला ब्रज-कामिनी।

युग विलोचन से जल मोचती।

ललकती, कँपती, अवलोकती॥84॥


यदि बजी फिर, तो बज ऐ प्रिये।

अपर है तुझ सी न मनोहरा।

पर कृपा कर के कर दूर तू।

कुटिलता, कटुता, मदशालिता॥85॥


विपुल छिद्र-वती बन के तुझे।

यदि समादर का अनुराग है।

तज न तो अयि गौरव-शालिनी।

सरलता, शुचिता, कुल-शीलता॥86॥


लसित है कर में ब्रज-देव के।

मुरलिके तप के बल आज तू।

इसलिए अबलाजन को वृथा।

मत सता, न जता मति-हीनता॥87॥


वंशस्थ छन्द


मदीय प्यारी अयि कुंज-कोकिला।

मुझे बता तू ढिग कूक क्यों उठी।

विलोक मेरी चित-भ्रान्ति क्या बनी।

विषादिता, संकुचिता, निपीड़िता॥88॥


प्रवंचना है यह पुष्प कुंज की।

भला नहीं तो ब्रज-मध्य श्याम की।

कभी बजेगी अब क्यों सु-बाँसुरी।

सुधाभरी, मुग्धकरी, रसोदरी॥89॥


विषादिता तू यदि कोकिला बनी।

विलोक मेरी गति तो कहीं न जा।

समीप बैठी सुन गूढ़-वेदना।

कुसंगजा, मानसजा, मदंगजा॥90॥


यथैव हो पालित काक-अंक में।

त्वदीय बच्चे बनते त्वदीय हैं।

तथैव माधो यदु-वंश में मिले।

अशोभना, खिन्न मना मुझे बना॥91॥


तथापि होती उतनी न वेदना।

न श्याम को जो ब्रज-भूमि भूलती।

नितान्त ही है दुखदा, कपाल की।

कुशीलता, आविलता, करालता॥92॥


कभी न होगी मथुरा-प्रवासिनी।

गरीबिनी गोकुल-ग्राम-गोपिका।

भला करे लेकर राज-भोग क्या।

यथोचिता, श्यामरता, विमोहिता॥93॥


जहाँ न वृन्दावन है विराजता।

जहाँ नहीं है ब्रज-भू मनोहरा।

न स्वर्ग है वांछित, है जहाँ नहीं।

प्रवाहिता भानु-सुता प्रफुल्लिता॥94॥


करील हैं कामद कल्प-वृक्ष से।

गवादि हैं काम-दुधा गरीयसी।

सुरेश क्या है जब नेत्र में रमा।

महामना, श्यामघना लुभावना॥95॥


जहाँ न वंशी-वट है न कुंज है।

जहाँ न केकी-पिक है न शारिका।

न चाह वैकुण्ठ रखें, न है जहाँ।

बड़ी भली, गोप-लली, समाअली॥96॥


न कामुका हैं हम राज-वेश की।

न नाम प्यारा यदु-नाथ है हमें।

अनन्यता से हम हैं ब्रजेश की।

विरागिनी, पागलिनी, वियोगिनी॥97॥


विरक्ति बातें सुन वेदना-भरी।

पिकी हुई तू दुखिता नितान्त ही।

बना रहा है तब बोलना मुझे।

व्यथामयी, दाहमयी, द्विधामयी॥98॥


नहीं-नहीं है मुझको बता रही।

नितान्त तेरे स्वर की अधीरता।

वियोग से है प्रिय के तुझे मिली।

अवांछिता, कातरता, मलीनता॥99॥


अत: प्रिये तू मथुरा तुरन्त जा।

सुना स्व-वेधी-स्वर जीवितेश को।

अभिज्ञ वे हों जिससे वियोग की।

कठोरता, व्यापकता, गँभीरता॥100॥


परन्तु तू तो अब भी उड़ी नहीं।

प्रिये पिकी क्या मथुरा न जायगी?

न जा, वहाँ है न पधारना भला।

उलाहना है सुनना जहाँ मना॥101॥


वसंततिलका छन्द


पा के तुझे परम-पूत-पदार्थ पाया।

आई प्रभा प्रवह मान दुखी दृगों में।

होती विवर्ध्दित घटीं उर-वेदनायें।

ऐ पद्म-तुल्य पद-पावन चिन्ह प्यारा॥102॥


कैसे बहे न दृग से नित वारि-धारा।

कैसे विदग्ध दुख से बहुधा न होऊँ।

तू भी मिला न मुझको ब्रज में कहीं था।

कैसे प्रमोद अ-प्रमोदित प्राण पावे॥103॥


माथे चढ़ा मुदित हो उर में लगाऊँ।

है चित्त चाह सु-विभूति उसे बनाऊँ।

तेरी पुनीत रज ले कर के करूँ मैं।

सानन्द अंजित सुरंजित-लोचनों में॥104॥


लाली ललाम मृदुता अवलोकनीया।

तीसी-प्रसून-सम श्यामलता सलोनी।

कैसे पदांक तुझको पद सी मिलेगी।

तो भी विमुग्ध करती तव माधुरी है॥105॥


संयोग से पृथक हो पद-कंज से तू।

जैसे अचेत अवनी-तल में पड़ा है।

त्योंही मुकुन्द-पद पंकज से जुदा हो।

मैं भी अचिन्तित-अचेतनतामयी हूँ॥106॥


होती विदूर कुछ व्यापकता दुखों की।

पाती अलौकिक-पदार्थ वसुंधरा में।

होता स-शान्ति मम जीवन शेष भूत।

लेती पदांक तुझको यदि अंक में मैं॥107॥


हूँ मैं अतीव-रुचि से तुझको उठाती।

प्यारे पदांक अब तू मम-अंक में आ।

हा! दैव क्या यह हुआ? उह! क्या करूँ मैं।

कैसे हुआ प्रिय पदांक विलोप भू में॥108॥


क्या हैं कलंकित बने युग-हस्त मेरे।

क्या छू पदांक सकता इनको नहीं था।

ए हैं अवश्य अति-निंद्य महा-कलंकी।

जो हैं प्रवंचित हुए पद-अर्चना से॥109॥


मैं भी नितान्त जड़ हूँ यदि हाय! मैंने।

अत्यन्त भ्रान्त बन के इतना न जाना।

जो हो विदेह बन मध्य कहीं पड़े हैं।

वे हैं किसी अपर के कब हाथ आते॥110॥


पादांक पूत अयि धूलि प्रशंसनीया।

मैं बाँधती सरुचि अंचल में तुझे हूँ।

होगी मुझे सतत तू बहु शान्ति-दाता।

देगी प्रकाश तम में फिरते दृगों को॥111॥

 

मालिनी छन्द


कुछ कथन करूँगी मैं स्वकीया व्यथायें।

बन सदय सुनेगी क्या नहीं स्नेह द्वारा।

प्रति-पल बहती ही क्या चली जायगी तू।

कल-कल करती ऐ अर्कजा केलि शीला॥112॥


कल-मुरलि-निनादी लोभनीयांग-शोभी।

अलि-कुल-मति-लोपी कुन्तली कांति-शाली।

अयि पुलकित अंके आज भी क्यों न आया।

वह कलित-कपोलों कान्त आलापवाला॥113॥


अब अप्रिय हुआ है क्यों उसे गेह आना।

प्रति-दिन जिसकी ही ओर ऑंखें लगी हैं।

पल-पल जिस प्यारे के लिए हूँ बिछाती।

पुलकित-पलकों के पाँवड़े प्यार-द्वारा॥114॥


मम उर जिसके ही हेतु है मोम जैसा।

निज उर वह क्यों है संग जैसा बनाता।

विलसित जिसमें है चारु-चिन्ता उसी की।

वह उस चित की है चेतना क्यों चुराता॥115॥


जिस पर निज प्राणों को दिया वार मैंने।

वह प्रियतम कैसे हो गया निर्दयी है।

जिस कुँवर बिना हैं याम होते युगों से।

वह छवि दिखलाता क्यों नहीं लोचनों को॥116॥


सब तज हमने है एक पाया जिसे ही।

अयि अलि! उसने है क्या हमें त्याग पाया।

हम मुख जिसका ही सर्वदा देखती हैं।

वह प्रिय न हमारी ओर क्यों ताक पाया॥117॥


विलसित उर में है जो सदा देवता सा।

वह निज उर में है ठौर भी क्यों न देता।

नित वह कलपाता है मुझे कान्त हो क्यों।

जिस बिन 'कल' पाते हैं नहीं प्राण मेरे॥118॥


मम दृग जिसके ही रूप में हैं रमे से।

अहह वह उन्हें है निर्ममों सा रुलाता।

यह मन जिनके ही प्रेम में मग्न सा है।

वह मद उसको क्यों मोह का है पिलाता॥119।


जब अब अपने ए अंग ही हैं न आली।

तब प्रियतम में मैं क्या करूँ तर्कनायें।

जब निज तन का ही भेद मैं हूँ न पाती।

तब कुछ कहना ही कान्त को अज्ञता है॥120॥


दृग अति अनुरागी श्यामली-मूर्ति के हैं।

युग श्रुति सुनना हैं चाहते चारु-तानें।

प्रियतम मिलने को चौगुनी लालसा से।

प्रति-पल अधिकाती चित्त की आतुरी है॥121॥


उर विदलित होता मत्त वृध्दि पाती।

बहु विलख न जो मैं यामिनी-मध्य रोती।

विरह-दव सताता, गात सारा जलाता।

यदि मम नयनों में वारि-धारा न होती॥122॥


कब तक मन मारूँ दग्ध हो जी जलाऊँ।

निज-मृदुल-कलेजे में शिला क्यों लगाऊँ।

वन-वन विलपूँ या मैं धंसूँ मेदिनी में।

निज-प्रियतम प्यारी मुर्ति क्यों देख पाऊँ॥123॥


तव तट पर आ के नित्य ही कान्त मेरे।

पुलकित बन भावों में पगे घूमते हैं।

यक दिन उनको पा प्रीत जी से सुनाना।

कल-कल-ध्वनि-द्वारा सर्व मेरी व्यथायें॥124॥


विधि वश यदि तेरी धार में आ गिरूँ मैं।

मम तन ब्रज की ही मेदिनी में मिलाना।

उस पर अनुकूला हो, बड़ी मंजुता से।

कल-कुसुम अनूठी-श्यामता के उगाना॥125॥


घन-तन रत मैं हूँ तू असेतांगिनी है।

तरलित-उर तू है चैन मैं हूँ न पाती।

अयि अलि बन जा तू शान्ति-दाता हमारी।

अति-प्रतपित मैं हूँ ताप तू है भगाती॥126॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


रोई आ के कुसुम-ढिग औ भृङ्ग के साथ बोली।

वंशी-द्वारा-भ्रमित बन के बात की कोकिला से।

देखा प्यारे कमल-पग के अंक को उन्मना हो।

पीछे आयी तरणि-तनया-तीर उत्कण्ठिता सी॥127॥


द्रुतविलम्बित छन्द


तदुपरान्त गई गृह-बालिका।

व्यथित ऊद्धव को अति ही बना।

सब सुना सब ठौर छिपे गये।

पर न बोल सके वह अल्प भी॥128॥



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