एकाकी ब्रजदेव एक दिन थे बैठे हुए गेह में।
उत्सन्ना ब्रजभूमि के स्मरण से उद्विग्नता थी बड़ी।
ऊधो-संज्ञक-ज्ञान-वृध्द उनके जो एक सन्मित्र थे।
वे आये इस काल ही सदन में आनन्द में मग्न से॥1॥
आते ही मुख-म्लान देख हरि का वे दीर्घ-उत्कण्ठ हो।
बोले क्यों इतने मलीन प्रभु हैं? है वेदना कौन सी।
फूले-पुष्प-विमोहिनी-विचकता क्या हो गई आपकी।
क्यों है नीरसता प्रसार करती उत्फुल्ल-अंभोज में॥2॥
बोले वारिद-गात पास बिठला सम्मान से बन्धु को।
प्यारे सर्व-विधन ही नियति का व्यामोह से है भरा।
मेरे जीवन का प्रवाह पहले अत्यन्त-उन्मुक्त था।
पाता हूँ अब मैं नितान्त उसको आबद्ध कर्तव्य में॥3॥
शोभा-संभ्रम-शालिनी-ब्रज-धार प्रेमास्पदा-गोपिका।
माता-प्रीतिमयी प्रतीति-प्रतिमा, वात्सल्य-धाता-पिता।
प्यारे गोप-कुमार, प्रेम-मणि के पाथोधि से गोप वे।
भूले हैं न, सदैव याद उनकी देती व्यथा है हमें॥4॥
जी में बात अनेक बार यह थी मेरे उठी मैं चलूँ।
प्यारी-भावमयी सु-भूमि ब्रज में दो ही दिनों के लिए।
बीते मास कई परन्तु अब भी इच्छा न पूरी हुई।
नाना कार्य-कलाप की जटिलता होती गई बाधिका॥5॥
पेचीले नव राजनीति पचड़े जो वृध्दि हैं पा रहे।
यात्रा में ब्रज-भूमि की अहह वे हैं विघ्नकारी बड़े।
आते वासर हैं नवीन जितने लाते नये प्रश्न हैं।
होता है उनका दुरूहपन भी व्याघातकारी महा॥6॥
प्राणी है यह सोचता समझता मैं पूर्ण स्वाधीन हूँ।
इच्छा के अनुकूल कार्य्य सब मैं हूँ साध लेता सदा।
ज्ञाता हैं कहते मनुष्य वश में है काल कर्म्मादि के।
होती है घटना-प्रवाह-पतित-स्वाधीनता यंत्रिता॥7॥
देखो यद्यपि है अपार, ब्रज के प्रस्थान की कामना।
होता मैं तब भी निरस्त नित हूँ व्यापी द्विधा में पड़ा।
ऊधो दग्ध वियोग से ब्रज-धरा है हो रही नित्यश:।
जाओ सिक्त करो उसे सदय हो आमूल ज्ञानाम्बु से॥8॥
मेरे हो तुम बंधु विज्ञ-वर हो आनन्द की मुर्ति हो।
क्यों मैं जा ब्रज में सका न अब भी हो जानते भी इसे।
कैसी हैं अनुरागिनी हृदय से माता, पिता गोपिका।
प्यारे है यह भी छिपी न तुमसे जाओ अत: प्रात ही॥9॥
जैसे हो लघु वेदना हृदय की औ दूर होवे व्यथा।
पावें शान्ति समस्त लोग न जलें मेरे वियोगाग्नि में।
ऐसे ही वर-ज्ञान तात ब्रज को देना बताना क्रिया।
माता का स-विशेष तोष करना और वृध्द-गोपेश का॥10॥
जो राधा वृष-भानु-भूप-तनया स्वर्गीय दिव्यांगना।
शोभा है ब्रज प्रान्त की अवनि की स्त्री-जाति की वंशकी।
होगी हा! वह मग्नभूत अति ही मेरे वियोगाब्धिा में।
जो हो संभव तात पोत बन के तो त्राण देना उसे॥11॥
यों ही आत्म प्रसंग श्याम-वपु ने प्यारे सखा से कहा।
मर्य्यादा व्यवहार आदि ब्रज का पूरा बताया उन्हें।
ऊधो ने सब को स-आदर सुना स्वीकार जाना किया।
पीछे हो करके बिदा सुहृद से आये निजागार वे॥12॥
प्रात:काल अपूर्व-यान मँगवा औ साथ ले सूत को।
ऊधो गोकुल को चले सदय हो स्नेहाम्बु से भींगते।
वे आये जिस काल कान्त-ब्रज में देखा महा-मुग्ध हो।
श्री वृन्दावन की मनोज्ञ-मधुरा श्यामायमाना-मही॥13॥
चूड़ायें जिसकी प्रशान्त-नभ में थीं देखती दूर से।
ऊधो को सु-पयोद के पटल सी सधर्म की राशि सी।
सो गोवर्धन श्रेष्ठ-शैल अधुना था सामने दृष्टि के।
सत्पुष्पों सुफलों प्रशंसित द्रुमों से दिव्य सर्वाङ्ग हो॥14॥
ऊँचा शीश सहर्ष शैल करके था देखता व्योम को।
या होता अति ही स-गर्व वह था सर्वोच्चता दर्प से।
या वार्ता यह था प्रसिध्द करता सामोद संसार में।
मैं हूँ सुन्दर मान दण्ड ब्रज की शोभा-मयी-भूमि का॥15॥
पुष्पों से परिशोभमान बहुश: जो वृक्ष अंकस्थ थे।
वे उद्धोषित थे सदर्प करते उत्फुल्लता मेरु की।
या ऊँचा करके स-पुष्प कर को फूले द्रुमों व्याज से।
श्री-पद्मा-पति के सरोज-पग को शैलेश था पूजता॥16॥
नाना-निर्झर हो प्रसूत गिरि के संसिक्त उत्संग से।
हो हो शब्दित थे सवेग गिरते अत्यन्त-सौंदर्य्य से।
जो छीटें उड़तीं अनन्त पथ में थीं दृष्टि को मोहती।
शोभा थी अति ही अपूर्व उनके उत्थान की, 'पात' की॥17॥
प्यारा था शुचि था प्रवाह उनका सद्वारि-सम्पन्न हो।
जो प्राय: बहता विचित्र-गति के गम्य-स्थलों-मध्य था।
सीधे ही वह था कहीं विहरता होता कहीं वक्र था।
नाना-प्रस्तर खंड साथ टकरा, था घूम जाता कहीं॥18॥
होता निर्झर का प्रवाह जब था सर्वत्ता उद्भिन्न हो।
तो होती उसमें अपूर्व-ध्वनि थी उन्मादिनी कर्ण की।
मानो यों वह था सहर्ष कहता सत्कीर्ति शैलेश की।
या गाता गुण था अचिन्त्य-गति का सानन्द सत्कण्ठ से॥19॥
गर्तों में गिरि कन्दरा निचय में, जो वारि था दीखता।
सो निर्जीव, मलीन, तेजहत था, उच्छ्वास से शून्य था।
पानी निर्झर का समुज्ज्वल तथा उल्लास की मूर्ति था।
देता था गति-शील-वस्तु गरिमा यों प्राणियों को बता॥20॥
देता था उसका प्रवाह उर में ऐसी उठी कल्पना।
धारा है यह मेरु से निकलती स्वर्गीय आनन्द की।
या है भूधर सानुराग द्रवता अंकस्थितों के लिए।
ऑंसू है वह ढालता विरह से किम्वा ब्रजाधीश के॥21॥
ऊधो को पथ में पयोद-स्वप्न सी गंभीरता पूरिता।
हो जाती ध्वनि एक कर्ण-गत थी प्राय: सुदूरागता।
होती थी श्रुति-गोचरा अब वही प्राबल्य पा पास ही।
व्यक्ता हो गिरि के किसी विवर से सद्वायु-संसर्गत:॥22॥
सद्भावाश्रयता अचिन्त्य-दृढ़ता निर्भीकता उच्चता।
नाना-कौशल-मूलता अटलता न्यारी-क्षमाशीलता।
होता था यह ज्ञात देख उसकी शास्ता-समा-भंगिमा।
मानो शासन है गिरीन्द्र करता निम्नस्थ-भूभाग का॥23॥
देतीं मुग्ध बना किसे न जिनको ऊँची शिखायें हिले।
शाखाएँ जिनकी विहंग-कुल से थीं शोभिता शब्दिता।
चारों ओर विशाल-शैल-वर के थे राजते कोटिश:।
ऊँचे श्यामल पत्र-मान-विटपी पुष्पोपशोभी महा॥24॥
जम्बू अम्ब कदम्ब निम्ब फलसा जम्बीर औ ऑंवला।
लीची दाड़िम नारिकेल इमिली औ शिंशपा इंगुदी।
नारंगी अमरूद बिल्व बदरी सागौन शालादि भी।
श्रेणी-बध्द तमाल ताल कदली औ शाल्मली थे खड़े॥25॥
ऊँचे दाड़िम से रसाल-तरु थे औ आम्र से शिंशपा।
यों निम्नोच्च असंख्य-पादप कसे वृन्दाटवी मध्य थे।
मानो वे अवलोकते पथ रहे वृन्दावनाधीश का।
ऊँचा शीश उठा अपार-जनता के तुल्य उत्कण्ठ हो॥26॥
वंशस्थ छन्द
गिरीन्द्र में व्याप विलोकनीय थी।
वनस्थली मध्य प्रशंसनीय थी।
अपूर्व शोभा अवलोकनीय थी।
असेत जम्बालिनि-कूल जम्बु की॥27॥
सुपक्वता पेशलता अपूर्वता।
फलादि की मुग्धकरी विभूति थी।
रसाप्लुता सी बन मंजु भूमि को।
रसालता थी करती रसाल की॥28॥
सुवर्तुलाकार विलोकनीय था।
विनम्र-शाखा नयनाभिराम थी।
अपूर्व थी श्यामल-पत्र-राशि में।
कदम्ब के पुष्प-कदम्ब की छटा॥29॥
स्वकीय-पंचांग प्रभाव से सदा।
सदैव नीरोग वनान्त को बना।
किसी गुणी-वैद्य समान था खड़ा।
स्वनिम्बता-गर्वित-वृक्ष-निम्ब का॥30॥
लिये हथेली सम गात-पत्र में।
बड़े अनूठे-फल श्यामरंग के।
सदा खड़ा स्वागत के निमित्त था।
प्रफुल्लितों सा फलवान फालसा॥31॥
सुरम्य-शाखाकल-पल्लवादि में।
न डोलते थे फल मंजु-भाव से।
प्रकाश वे थे करते शनै: शनै:।
सदम्बु-निम्बू-तरु की सदम्बुता॥32॥
दिखा फलों की बहुधा अपक्वता।
स्वपत्तिायों की स्थिरता-विहीनता।
बता रहा था चलचित्त वृत्ति के।
उतावलों की करतूत ऑंवला॥33॥
रसाल-गूदा छिलका कदंश में।
कु-बीज गूदा मधुमान-अंक में।
दिखा फलों में, वर-पोच-वंश का।
रहस्य लीची-तरु था बता रहा॥34॥
विलोल-जिह्वा-युत रक्त-पुष्प से।
सुदन्त शोफी फल भग्न-अंक से।
बढ़ा रही थी वन की विचित्रता।
समाद्रिता दाड़िम की द्रुमावली॥35॥
हिला-स्व-शाखा नव-पुष्प को खिला।
नचा सु-पत्रावलि औ फलादि ला।
नितान्त था मानस पान्थ मोहता।
सुकेलि-कारी तरु-नारिकेल का॥36॥
नितान्त लघ्वी घनता विवर्ध्दिनी।
असंख्य-पत्रावलि अंकधारिणी।
प्रगाढ़-छाया-मय पुष्पशोभिनी।
अम्लान काया-इमिली सुमौलि थी॥37॥
सु-चातुरी से किसके न चित्त को।
निमग्न सा था करता विनोद में।
स्वकीय न्यारी-रचना विमुग्ध हो।
स्व-शीश-संचालन-मग्न शिंशपा॥38॥
सु-पत्र संचालित थे न हो रहे।
नहीं-स-शाखा हिलते फलादि थे।
जता रही थी निज स्नेह-शीलता।
स्व-इंगितों से रुचिरांग इंगुदी॥39॥
सुवर्ण-ढाले-तमगे कई लगा।
हरे सजीले निज-वस्त्र को सजे।
बड़े-अनूठेपन साथ था खड़ा।
महा-रँगीला तरु-नागरंग का॥40॥
अनेक-आकार-प्रकार-रंग के।
सुधा-समोये फल-पुंज से सजा।
विराजता अन्य रसाल तुल्य था।
समोदकारी अमरूद रोदसी॥41॥
स्व-अंक में पत्र प्रसून मध्य में।
लिये फलों व्याज सु-मूर्ति शंभु की।
सदैव पूजा-रत सानुराग था।
विलोलता-वर्जित-वृक्ष-बिल्व का॥42
कु-अंगजों की बहु-कष्टदायिता।
बता रही थी जन-नेत्र-वान को।
स्व-कंटकों से स्वयमेव सर्वदा।
विदारिता हो बदरी-द्रुमावली॥43॥
समस्त-शाखा फल फूल मूल की।
सु-पल्लवों की मृदुता मनोज्ञता।
प्रफुल्ल होता चित था नितान्त ही।
विलोक सागौन सुगीत सांगता॥44॥
नितान्त ही थी नभ-चुम्बनोत्सुका।
द्रुमोच्चता की महनीय-मुर्ति थी।
खगादि की थी अनुराग-वर्ध्दिनी।
विशालता-शालविशाल-काय की॥45॥
स्वगात की श्यामलता विभूति से।
हरीतिमा से घन-पत्र-पुंज की।
अछिद्र छायादिक से तमोमयी।
वनस्थली को करता तमाल था॥46॥
विचित्रता दर्शक-वृन्द-दृष्टि में।
सदा समुत्पादन में समर्थ था।
स-दर्प नीचा तरु-पुंज को दिखा।
स्व-शीश उत्तोलन ताल वृन्द का॥47॥
सु-पक्व पीले फल-पुंज व्याज से।
अनेक बालेंदु स्वअङ्क में उगा।
उड़ा दलों व्याज हरी-हरी ध्वजा।
नितांत केला कल-केलि-लग्न था॥48॥
स्वकीय आरक्त प्रसून-पुंज से।
विहंग भृङ्गादिक को भ्रमा-भ्रमा।
अशंकितों सा वन-मध्य था खड़ा।
प्रवंचना-शील विशाल-शाल्मली॥49॥
बढ़ा स्व-शाखा मिष हस्त प्यार का।
दिखा घने-पल्लव की हरीतिमा।
परोपकारी-जन-तुल्य सर्वदा।
सशोक का शोक अ-शोक मोचता॥50॥
विमुग्धकारी-सित-पीत वर्ण के।
सुगंध-शाली बहुश: सु-पुष्प से।
असंख्य-पत्रावलि की हरीतिमा।
सुरंजिता थी प्रिय-पारिजात की॥51॥
समीर-संचालित-पत्र-पुंज में।
स्वगात की मत्तकरी-विभूति से।
विमुग्ध हो विह्नलताभिभूत था।
मधूक शाखी-मधुपान-मत्त सा॥52॥
प्रकाण्डता थी विभु कीर्ति-वर्ध्दिनी।
अनंत-शाखा-बहु-व्यापमान थी।
प्रकाशिका थी पवन प्रवाह की।
विलोलता-पीपल-पल्लवोद्भवा॥53॥
असंख्य-न्यारे-फल-पुंज से सजा।
प्रभूत-पत्रावलि में निमग्न सा।
प्रगाढ़ छायाप्रद औ जटा-प्रसू।
विटानुकारी-वट था विराजता॥54॥
महा-फलों से सजके वनस्थली।
जता रही थी यह बुध्दि-मंत को।
महान-सौभाग्य प्रदान के लिए।
प्रयोगिता है पनसोपयोगिता॥55॥
सदैव दे के विष बीज-व्याज से।
स्वकीय-मीठे-फल के समूह को।
दिखा रहा था तरु वृन्द में खड़ा।
स्व-आततायीपन पेड़ आत का॥56॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
प्यारे-प्यारे-कुसुम-कुल से शोभमाना अनूठी।
काली नीली हरित रुचि की पत्तियों से सजीली।
फैली सारी वन अवनि में वायु से डोलती थीं।
नाना-लीला निलय सरसा लोभनीया-लतायें॥57॥
वंशस्थ छन्द
स्व-सेत-आभा-मय दिव्य-पुष्प से।
वसुन्धरा में अति-मुक्त संज्ञका।
विराजती थी वन में विनोदिता।
महान - मेधाविनि - माधवी - लता॥58॥
ललामता कोमलकान्ति-मानता।
रसालता से निज पत्र-पुंज की।
स्वलोचनों को करती प्रलुब्ध थी।
प्रलोभनीया-लतिका लवंग की॥59॥
स-मान थी भूतल में विलुण्ठिता।
प्रवंचिता हो प्रिय चारु-अंक से।
तमाल के से असितावदात की।
प्रियोपमा श्यामलता प्रियंगु की॥60॥
कहीं शयाना महि में स-चाव थी।
विलम्बिता थी तरु-वृन्द में कहीं।
सु-वर्ण-मापी-फल लाभ कामुका।
तपोरता कानन रत्तिाका लता॥61॥
सु-लालिमा में फलकी लगी दिखा।
विलोकनीया-कमनीय-श्यामता।
कहीं भली है बनती कु-वस्तु भी।
बता रही थी यह मंजु-गुंजिका॥62॥
द्रुतविलम्बित छन्द
नव निकेतन कान्त-हरीतिमा।
जनयिता मुरली-मधु-सिक्त का।
सरसता लसता वन मध्य था।
भरित भावुकता तरु वेणुका॥63॥
बहु-प्रलुब्ध बना पशु-वृन्द को।
विपिन के तृण-खादक-जन्तु को।
तृण-समा कर नीलम नीलिमा।
मसृण थी तृण-राजि विराजती॥64॥
तरु अनेक-उपस्कर सज्जिता।
अति-मनोरम-काय अकंटका।
विपिन को करती छविधाम थीं।
कुसुमिता-फलिता-बहु-झाड़ियाँ॥65॥
शिखरणी छन्द
अनूठी आभा से सरस-सुषमा से सुरस से।
बना जो देती थी बहु गुणमयी भू विपिन को।
निराले फूलों की विविध दलवाली अनुपमा।
जड़ी बूटी हो हो बहु फलवती थीं विलसती॥66॥
द्रुतविलम्बित छन्द
सरसतालय- सुन्दरता सने।
मुकुर-मंजुल से तरु-पुंज के।
विपिन में सर थे बहु सोहते।
सलिल से लसते मन मोहते॥67॥
लसित थीं रस-सिंचित वीचियाँ।
सर समूह मनोरम अंक में।
प्रकृति के कर थे लिखते मनो।
कल-कथा जल केलि कलाप की॥68॥
द्युतिमती दिननायक दीप्ति से।
स द्युति वारि सरोवर का बना।
अति-अनुत्ताम कांति निकेत था।
कुलिश सा कल-उज्ज्वल-काँच सा॥69॥
परम-स्निग्ध मनोरम-पत्र में।
सु-विकसे जलजात-समूह से।
सर अतीव अलंकृत थे हुए।
लसित थीं दल पै कमलासना॥70॥
विकच-वारिज-पुंज विलोक के।
उपजती उर में यह कल्पना।
सरस भूत प्रफुल्लित नेत्र से।
वन-छटा सर हैं अवलोकते॥71॥
वंशस्थ छन्द
सुकूल-वाली कलि-कालिमापहा।
विचित्र-लीला-मय वीचि-संकुला।
विराजमाना बन एक ओर थी।
कलामयी केलिवती-कलिंदजा॥72॥
अश्वेत साभा सरिता-प्रवाह में।
सु-श्वेतता हो मिलिता प्रदीप्ति की।
दिखा रही थी मणि नील-कांति में।
मिली हुई हीरक-ज्योति-पुंज सी॥73॥
विलोकनीया नभ नीलिमा समा।
नवाम्बुदों की कल-कालिमोपमा।
नवीन तीसी कुसुमोपमेय थी।
कलिंदजा की कमनीय श्यामता॥74॥
न वास किम्वा विष से फणीश के।
प्रभाव से भूधर के न भूमि के।
नितांत ही केशव-ध्यान-मग्न हो।
पतंगजा थी असितांगिनी बनी॥75॥
स-बुद्बुदा फेन-युता सु-शब्दिता।
अनन्त-आवर्त्त-मयी प्रफुल्लिता।
अपूर्वता अंकित सी प्रवाहिता।
तरंगमालाकुलिता - कलिंदजा॥76॥
प्रसूनवाले, फल-भार से नये।
अनेक थे पादप कूल पै लसे।
स्वछायया जो करते प्रगाढ़ थे।
दिनेशजा-अंक-प्रसूत-श्यामता॥77॥
कभी खिले-फूल गिरा प्रवाह में।
कलिन्दजा को करता स-पुष्प था।
गिरे फलों से फल-शोभिनी उसे।
कभी बनाता तरु का समूह था॥78॥
विलोक ऐसी तरुवृंद की क्रिया।
विचार होता यह था स्वभावत:।
कृतज्ञता से नत हो स-प्रेम वे।
पतंगजा-पूजन में प्रवृत्त हैं॥79॥
प्रवाह होता जब वीचि-हीन था।
रहा दिखाता वन-अन्य अंक में।
परंतु होते सरिता तरंगिता।
स-वृक्ष होता वन था सहस्रधा॥80॥
न कालिमा है मिटती कपाल की।
न बाप को है पड़ती कुमारिका।
प्रतीति होती यह थी विलोक के।
तमोमयी सी तनया-तमारि को॥81॥
मालिनी छन्द
कलित-किरण-माला, बिम्ब-सौंदर्य्य-शाली।
सु-गगन-तल-शोभी सूर्य का, या शशी का।
जब रवितनया ले केलि में लग्न होती।
छविमय करती थी दर्शकों के दृगों को॥82॥
वंशस्थ छन्द
हरीतिमा का सु-विशाल-सिंधु सा।
मनोज्ञता की रमणीय-भूमि सा।
विचित्रता का शुभ-सिध्द-पीठ सा।
प्रशान्त वृन्दावन दर्शनीय था॥83॥
कलोलकारी खग-वृन्द-कूजिता।
सदैव सानन्द मिलिन्द गुंजिता।
रहीं सुकुंजें वन में विराजिता।
प्रफुल्लिता पल्लविता लतामयी॥84॥
प्रशस्त-शाखा न समान हस्त के।
प्रसारिता थी उपपत्ति के बिना।
प्रलुब्ध थी पादप को बना रही।
लता समालिंगन लाभ लालसा॥85॥
कई निराले तरु चारु-अंक में।
लुभावने लोहित पत्र थे लसे।
सदैव जो थे करते विवर्ध्दिता।
स्व-लालिमा से वन की ललामता॥86॥
प्रसून-शोभी तरु-पुंज-अंक में।
लसी ललामा लतिका प्रफुल्लिता।
जहाँ तहाँ थी वन में विराजिता।
स्मिता-समालिंगित कामिनी समा॥87॥
सुदूलिता थी अति कान्त भाव से।
कहीं स-एलालतिका-लवंग को।
कहीं लसी थी महि मंजु अंक में।
सु-लालिता सी नव माधवी-लता॥88॥
समीर संचालित मंद-मंद हो।
कहीं दलों से करता सु-केलि था।
प्रसून-वर्षा रत था, कहीं हिला।
स-पुष्प-शाखा सु-लता-प्रफुल्लिता॥89॥
कहीं उठाता बहु-मंजु वीचियाँ।
कहीं खिलाता कलिका प्रसून की।
बड़े अनूठेपन साथ पास जा।
कहीं हिलाता कमनीय-कंज था॥90॥
अश्वेत ऊदे अरुणाभ बैंगनी।
हरे अबीरी सित पीत संदली।
विचित्र-वेशी बहु अन्य वर्ण के।
विहंग से थी लसिता वनस्थली॥91॥
विभिन्न-आभा तरु रंग रूप के।
विहंगमों का दल व्योम-पंथ हो।
स-मोद आता जब था दिगंत से।
विशेष होता वन का विनोद था॥92॥
स-मोद जाते जब एक पेड़ से।
द्वितीय को तो करते विमुग्ध थे।
कलोल में हो रत मंजु-बोलते।
विहंग नाना रमणीय रंग के॥93॥
छटामयी कान्तिमती मनोहरा।
सु-चन्द्रिका से निज-नील पुच्छ के।
सदा बनाता वन को मनोज्ञ था।
कलापियों का कुल केकिनी लिये॥94॥
कहीं शुकों का दल बैठ पेड़ की।
फली-सु-शाखा पर केलि-मत्त हो।
अनके-मीठे-फल खा कदंश को।
गिरा रहा भू पर था प्रफुल्ल हो॥95॥
कहीं कपोती स्व-कपोत को लिये।
विनोदिता हो करती विहार थी।
कहीं सुनाती निज-कंत साथ थी।
स्व-काकली को कल कंठ-कोकिला॥96॥
कहीं महा-प्रेमिक था पपीहरा।
कथा-मयी थी नव शारिका कहीं।
कहीं कला-लोलुप थी चकोरिका।
ललामता-आलय-लाल थे कहीं॥97॥
महा-कदाकार बड़े-भयावने।
सुहावने सुन्दरता-निकेत से।
वनस्थली में पशु-वृन्द थे घने।
अनेक लीला-मय औ लुभावने॥98॥
नितान्त-सारल्य-मयी सुमुर्ति में।
मिली हुई कोमलता सु-लोमता।
किसे नहीं थी करती विमोहिता।
सदंगता-सुन्दरता-कुरंग की॥99॥
असेत-ऑंखें खनि-भूरि भाव की।
सुगीत न्यारी-गति की मनोज्ञता।
मनोहरा थी मृग-गात-माधुरी।
सुधारियों अंकित नाति-पीतता॥100॥
असेत-रक्तानन-वान ऊधमी।
प्रलम्ब-लांगूल विभिन्न-लोम के।
कहीं महा-चंचल क्रूर कौशली।
असंख्य-शाखा-मृग का समूह था॥101॥
कहीं गठीले-अरने अनेक थे।
स-शंक भूरे-शशकादि थे कहीं।
बड़े-घने निर्जन-वन्य-भूमि में।
विचित्र-चीते चल-चक्षु थे कहीं॥102॥
सुहावने पीवर-ग्रीव साहसी।
प्रमत्त-गामी पृथुलांग-गौरवी।
वनस्थली मध्य विशाल-बैल थे।
बड़े-बली उन्नत-वक्ष विक्रमी॥103॥
दयावती पुण्य भरी पयोमयी।
सु-आनना सौम्य-दृगी समोदरा।
वनान्त में थीं सुरभी सुशोभिता।
सधी सवत्सा-सरलातिसुन्दरी॥104॥
अतीव-प्यारे मृदुता-सुमूर्ति से।
नितान्त-भोले चपलांग ऊधमी।
वनान्त में थे बहु वत्स कूदते।
लुभावने कोमल-काय कौतुकी॥105॥
बसन्ततिलका छन्द
जो राज पंथ वन-भूतल में बना था।
धीरे उसी पर सधा रथ जा रहा था।
हो हो विमुग्ध रुचि से अवलोकते थे।
ऊधो छटा विपिन की अति ही अनूठी॥106॥
वंशस्थ छन्द
परन्तु वे पादप में प्रसून में।
फलों दलों वेलि-लता समूह में।
सरोवरों में सरि में सु-मेरु में।
खगों मृगों में वन में निकुंज में॥107॥
बसी हुई एक निगूढ़-खिन्नता।
विलोकते थे निज-सूक्ष्म-दृष्टि से।
शनै: शनै: जो बहु गुप्त रीति से।
रही बढ़ाती उर की विरक्ति को॥108॥
प्रशस्त शाखा तरु-वृन्द की उन्हें।
प्रतीत होती उस हस्त तुल्य थी।
स-कामना जो नभ ओर हो उठा।
विपन्न-पाता-परमेश के लिए॥109॥
कलिन्दजा के सु-प्रवाह की छटा।
विहंग-क्रीड़ा कल नाद-माधुरी।
उन्हें बनाती न अतीव मुग्ध थी।
ललामता-कुंज-लता-वितान की॥110॥
सरोवरों की सुषमा स-कंजता।
सु-मेरु औ निर्झर आदि रम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती।
अनन्त-सौन्दर्य्य-मयी वनस्थली॥111॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
कोई-कोई विटप फल थे बारहो मास लाते।
ऑंखों द्वारा असमय फले देख ऐसे द्रुमों को।
ऊधो होते भ्रम पतित थे किन्तु तत्काल ही वे।
शंकाओं को स्व-मति बल औ ज्ञान से थे हटाते॥112॥
वंशस्थ छन्द
उसी दिशा से जिस ओर दृष्टि थी।
विलोक आता रथ में स-सारथी।
किसी किरीटी पट-पीत-गौरवी।
सु-कुण्डली श्यामल-काय पान्थ को॥113॥
अतीव-उत्कण्ठित ग्वालबाल हो।
स-वेग जाते रथ के समीप थे।
परन्तु होते अति ही मलीन थे।
न देखते थे जब वे मुकुन्द को॥114॥
अनेक गायें तृण त्याग दौड़ती।
सवत्स जाती वर-यान पास थीं।
परन्तु पाती जब थीं न श्याम को।
विषादिता हो पड़ती नितान्त थीं॥115॥
अनेक-गायों बहु-गोप-बाल की।
विलोक ऐसी करुणामयी-दशा।
बड़े-सुधी-ऊद्धव चित्त मध्य भी।
स-खेद थी अंकुरिता अधीरता॥116॥
समीप ज्यों ज्यों हरि-बंधु यान के।
सगोष्ठ था गोकुल ग्राम आ रहा।
उन्हें दिखाता निज-गूढ़ रूप था।
विषाद त्यों-त्यों बहु-मुर्ति-मन्त हो॥117॥
दिनान्त था थे दिननाथ डूबते।
स-धेनू आते गृह ग्वाल-बाल थे।
दिगन्त में गोरज थी विराजिता।
विषाण नाना बजते स-वेणु थे॥118॥
खड़े हुए थे पथ गोप देखते।
स्वकीय-नाना-पशु-वृन्द का कहीं।
कहीं उन्हें थे गृह-मध्य बाँधते।
बुला-बुला प्यार उपेत कंठ से॥119॥
घड़े लिये कामिनियाँ, कुमारियाँ।
अनेक-कूपों पर थीं सुशोभिता।
पधारती जो जल ले स्व-गेह थीं।
बजा-बजा के निज नूपुरादि को॥120॥
कहीं जलाते जन गेह-दीप थे।
कहीं खिलाते पशु को स-प्यार थे।
पिला-पिला चंचल-वत्स को कहीं।
पयस्विनी से पय थे निकालते॥121॥
मुकुन्द की मंजुल कीर्ति गान की।
मची हुई गोकुल मध्य धूम थी।
स-प्रेम गाती जिसको सदैव थी।
अनेक-कर्माकुल प्राणि-मण्डली॥122॥
हुआ इसी काल प्रवेश ग्राम में।
शनै: शनै: ऊद्धव-दिव्य यान का।
विलोक आता जिसको, समुत्सुका।
वियोग-दग्ध-जन-मण्डली हुई॥123॥
जहाँ लगा जो जिस कार्य्य में रहा।
उसे वहाँ ही वह छोड़ दौड़ता।
समीप आया रथ के प्रमत्त सा।
विलोकने को घन-श्याम-माधुरी॥124॥
विलोकते जो पशु-वृन्द पन्थ थे।
तजा उन्होंने पथ का विलोकना।
अनेक दौड़े तज धेनू बाँधना।
अबाधिता पावस आपगोपमा॥125॥
रहे खिलाते पशु धेनू-दूहते।
प्रदीप जो थे गृह-मध्य बालते।
अधीर हो वे निज-कार्य्य त्याग के।
स-वेग दौड़े वदनेन्दु देखने॥126॥
निकालती जो जल कूप से रही।
स रज्जु सो भी तज कूप में घड़ा।
अतीव हो आतुर दौड़ती गई।
ब्रजांगना-वल्लभ को विलोकने॥127॥
तजा किसी ने जल से भरा घड़ा।
उसे किसी ने शिर से गिरा दिया।
अनेक दौड़ीं सुधि गात की गँवा।
सरोज सा सुन्दर श्याम देखने॥128॥
वयस्क बूढ़े पुर-बाल बालिका।
सभी समुत्कण्ठित औ अधीर हो।
स-वेग आये ढिग मंजु यान के।
स्व-लोचनों की निधि-चारु लूटने॥129॥
उमंग-डूबी अनुराग से भरी।
विलोक आती जनता समुत्सुका।
पुन: उसे देख हुई प्रवंचिता।
महा-मलीना विमनाति-कष्टिता॥130॥
अधीर होने हरि-बन्धु भी लगे।
तथापि वे छोड़ सके न धीर को।
स्व-यान को त्याग लगे प्रबोधने।
समागतों को अति-शांत भाव से॥131॥
बसंततिलका छन्द
यों ही प्रबोध करते पुरवासियों का।
प्यारी-कथा परम-शांत-करी सुनाते।
आये ब्रजाधिप-निकेतन पास ऊधो।
पूरा प्रसार करती करुणा जहाँ थी॥132॥
मालिनी छन्द
करुण-नयन वाले खिन्न उद्विग्न ऊबे।
नृपति सहित प्यारे बंधु औ सेवकों के।
सुअन-सुहृद-ऊधो पास आये यहाँ ही।
फिर सदन सिधारे वे उन्हें साथ लेके॥133॥
सुफलक-सुत ऐसा ग्राम में देख आया।
यक जन मथुरा ही से बड़ा-बुध्दिशाली।
समधिक चित-चिंता गोपजों में समाई।
सब-पुर-उर शंका से लगा व्यग्र होने॥134॥
पल-पल अकुला के दीर्घ-संदिग्ध होके।
विचलित-चित से थे सोचते ग्रामवासी।
वह परम अनूठे-रत्न आ ले गया था।
अब यह ब्रज आया कौन-सा रत्न लेने॥135॥
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