यक दिन छवि-शाली अर्कजा-कूल-वाली।
नव-तरु-चय-शोभी-कुंज के मध्य बैठे।
कतिपय ब्रज-भू के भावुकों को विलोक।
बहु-पुलकित ऊधो भी वहीं जा बिराजे॥1॥
प्रथम सकल-गोपों ने उन्हें भक्ति-द्वारा।
स-विधि शिर नवाया प्रेम के साथ पूजा।
भर-भर निज-ऑंखों में कई बार ऑंसू।
फिर कह मृदु-बातें श्याम-सन्देश पूछा॥2॥
परम-सरसता से स्नेह से स्निग्धता से।
तब जन-सुख दानी का सु-सम्वाद प्यारा।
प्रवचन-पटु ऊधो ने सबों को सुनाया।
कह-कह हित-बातें शान्ति दे-दे प्रबोध॥3॥
सुन कर निज-प्यारे का समाचार सारा।
अतिशय-सुख पाया गोप की मंडली ने।
पर प्रिय-सुधि आये प्रेम-प्राबल्य द्वारा।
कुछ समय रही सो मौन हो उन्मना सी॥4॥
फिर बहु मृदुता से स्नेह से धीरता से।
उन स-हृदय गोपों में बड़ा-वृध्द जो था।
वह ब्रज-धन प्यारे-बन्धु को मुग्ध-सा हो।
निज सु-ललित बातों को सुनाने लगा यों॥5॥
वंशस्थ छन्द
प्रसून यों ही न मिलिन्द वृन्द को।
विमोहता औ करता प्रलुब्ध है।
वरंच प्यारा उसका सु-गंध ही।
उसे बनाता बहु-प्रीति-पात्र है॥6॥
विचित्र ऐसे गुण हैं ब्रजेन्दु के।
स्वभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
निबध्द सी है जिनमें नितान्त ही।
ब्रजानुरागीजन की विमुग्धता॥7॥
स्वरूप होता जिसका न भव्य है।
न वाक्य होते जिसके मनोज्ञ हैं।
मिली उसे भी भव-प्रीति सर्वदा।
प्रभूत प्यारे गुण के प्रभाव से॥8॥
अपूर्व जैसा घन-श्याम-रूप है।
तथैव वाणी उनकी रसाल है।
निकेत वे हैं गुण के, विनीत हैं।
विशेष होगी उनमें न प्रीति क्यों॥9॥
सरोज है दिव्य-सुगंध से भरा।
नृलोक में सौरभवान स्वर्ण है।
सु-पुष्प से सज्जित पारिजात है।
मयंक है श्याम बिना कलंक का॥10॥
कलिन्दजा की कमनीय-धार जो।
प्रवाहिता है भवदीय-सामने।
उसे बनाता पहले विषाक्त था।
विनाश-कारी विष-कालिनाग का॥11॥
जहाँ सुकल्लोलित उक्त धार है।
वहीं बड़ा-विस्तृत एक कुण्ड है।
सदा उसी में रहता भुजंग था।
भुजंगिनी संग लिये सहस्रश:॥12॥
मुहुर्मुहु: सर्प-समूह-श्वास से।
कलिन्दजा का कँपता प्रवाह था।
असंख्य फूत्कार प्रभाव से सदा।
विषाक्त होता सरिता सदम्बु था॥13॥
दिखा रहा सम्मुख जो कदम्ब है।
कहीं इसे छोड़ न एक वृक्ष था।
द्वि-कोस पर्यंत द्वि-कूल भानुजा।
हरा भरा था न प्रशंसनीय था॥14॥
कभी यहाँ का भ्रम या प्रमाद से।
कदम्बु पीता यदि था विहंग भी।
नितान्त तो व्याकुल औ विपन्न हो।
तुरन्त ही था प्रिय-प्राण त्यागता॥15॥
बुरा यहाँ का जल पी, सहस्रश:।
मनुष्य होते प्रति-वर्ष नष्ट थे।
कु-मृत्यु पाते इस ठौर नित्य ही।
अनेकश: गो, मृग, कीट कोटिश:॥16॥
रही न जानें किस काल से लगी।
ब्रजापगा में यह व्याधि-दुर्भगा।
किया उसे दूर मुकुन्द देव ने।
विमुक्ति सर्वस्व-कृपा-कटाक्ष से॥17॥
बढ़े दिवानायक की दुरन्तता।
अनेक-ग्वाले सुरभी समूह ले।
महा पिपासातुर एक बार हो।
दिनेशजा वर्जित कूल पै गये॥18॥
परन्तु पी के जल ज्यों स-धेनू वे।
कलिन्दजा के उपकूल से बढ़े।
अचेत त्योंही सुरभी समेत हो।
जहाँ तहाँ भूतल-अंक में गिरे॥19॥
बढ़े इसी ओर स्वयं इसी घड़ी।
ब्रजांगना-वल्लभ दैव-योग से।
बचा जिन्होंने अति-यत्न से लिया।
विनष्ट होते बहु-प्राणि-पुंज को॥20॥
दिनेशजा दूषित-वारि-पान से।
विडम्बना थी यह हो गई यत:।
अत: इसी काल यथार्थ-रूप से।
ब्रजेन्द्र को ज्ञान हुआ फणीन्द्र का॥21॥
स्व-जाति की देख अतीव दुर्दशा।
विगर्हणा देख मनुष्य-मात्रा की।
विचार के प्राणि-समूह-कष्ट को।
हुए समुत्तोजित वीर-केशरी॥22॥
हितैषणा से निज-जन्म-भूमि की।
अपार-आवेश हुआ ब्रजेश को।
बनीं महा बंक गँठी हुई भवें।
नितान्त-विस्फारित नेत्र हो गये॥23॥
इसी घड़ी निश्चित श्याम-ने किया।
सशंकता त्याग अशंक-चित्त से।
अवश्य निर्वासन ही विधेय है।
भुजंग का भानु-कुमारिकांक से॥24॥
अत: करूँगा यह कार्य्य मैं स्वयं।
स्व-हस्त मैं दुर्लभ प्राण को लिये।
स्व-जाति औ जन्म-धरा निमित्त मैं।
न भीत हूँगा विकराल-व्याल से॥25॥
सदा करूँगा अपमृत्यु सामना।
स-भीत हूँगा न सुरेन्द्र-वज्र से।
कभी करूँगा अवहेलना न मैं।
प्रधान-धार्माङ्ग-परोपकार की॥26॥
प्रवाह होते तक शेष श्वास के।
स-रक्त होते तक एक भी शिरा।
स-शक्त होते तक एक लोम के।
किया करूँगा हित सर्वभूत का॥27॥
निदान न्यारे-पण सूत्र में बँधे।
ब्रजेन्दु आये दिन दूसरे यहीं।
दिनेश-आभा इस काल भूमि को।
बना रही थी महती-प्रभावती॥28॥
मनोज्ञ था काल द्वितीय याम था।
प्रसन्न था व्योम दिशा प्रफुल्ल थी।
उमंगिता थी सित-ज्योति-संकुला।
तरंग-माला-मय-भानु-नन्दिनी॥29॥
विलोक सानन्द सु-व्योम मेदिनी।
खिले हुए-पंकज पुष्पिता लता।
अतीव-उल्लासित हो स्व-वेणु ले।
कदम्ब के ऊपर श्याम जा चढ़े॥30॥
कँपा सु-शाखा बहु पुष्प को गिरा।
पुन: पड़े कूद प्रसिध्द कुण्ड में।
हुआ समुद्भिन्न प्रवाह वारि का।
प्रकम्प-कारी रव व्योम में उठा॥31॥
अपार-कोलाहल ग्राम में मचा।
विषाद फैला ब्रज सद्म-सद्म में।
ब्रजेश हो व्यस्त-समस्त दौड़ते।
खड़े हुए आ कर उक्त कुण्ड पै॥32॥
असंख्य-प्राणी ब्रज-भूप साथ ही।
स-वेग आये दृग-वारि मोचते।
ब्रजांगना साथ लिये सहस्रश:।
बिसूरती आ पहुँचीं ब्रजेश्वरी॥33॥
द्वि-दंड में ही जनता-समूह से।
तमारिजा का तट पूर्ण हो गया।
प्रकम्पिता हो बन मेदिनी उठी।
विषादितों के बहु-आर्त-नाद से॥34॥
कभी-कभी क्रन्दन-घोर-नाद को।
विभेद होती श्रुति-गोचरा रही।
महा-सुरीली-ध्वनि श्याम-वेणु की।
प्रदायिनी शान्ति विषाद-मर्दिनी॥35॥
व्यतीत यों ही घड़ियाँ कई हुईं।
पुन: स-हिल्लोल हुई पतंगजा।
प्रवाह उद्भेदित अंत में हुआ।
दिखा महा अद्भुत-दृश्य सामने॥36॥
कई फनों का अति ही भयावना।
महा-कदाकार अश्वेत शैल सा।
बड़ा-बली एक फणीश अंक से।
कलिन्दजा के कढ़ता दिखा पड़ा॥37॥
विभीषणाकार-प्रचण्ड-पन्नगी।
कई बड़े-पन्नग, नाग साथ ही।
विदार के वक्ष विषाक्त-कुण्ड का।
प्रमत्त से थे कढ़ते शनै: शनै:॥38॥
फणीश शीशोपरि राजती रही।
सु-मूर्ति शोभा-मय श्री मुकुन्द की।
विकीर्णकारी कल-ज्योति-चक्षु थे।
अतीव-उत्फुल्ल मुखारविन्द था॥39॥
विचित्र थी शीश किरीट की प्रभा।
कसी हुई थी कटि में सु-काछनी।
दुकूल से शोभित कान्त कन्धा था।
विलम्बिता थी वन-माल कण्ठ में॥40॥
अहीश को नाथ विचित्र-रीति से।
स्व-हस्त में थे वर-रज्जु को लिये।
बजा रहे थे मुरली मुहुर्मुहु:।
प्रबोधिनी-मुग्धकरी-विमोहिनी॥41॥
समस्त-प्यारा-पट सिक्त था हुआ।
न भींगने से वन-माल थी बची।
गिरा रही थीं अलकें नितान्त ही।
विचित्रता से वर-बूँद वारि की॥42॥
लिये हुए सर्प-समूह श्याम ज्यों।
कलिन्दजा कम्पित अंक से कढ़े।
खड़े किनारे जितने मनुष्य थे।
सभी महा शंकित-भीत हो उठे॥43॥
हुए कई मूर्छित घोर-त्रास से।
कई भगे भूतल में गिरे कई।
हुईं यशोदा अति ही प्रकम्पिता।
ब्रजेश भी व्यस्त-समस्त हो गये॥44॥
विलोक सारी-जनता भयातुरा।
मुकुन्द ने एक विभिन्न-मार्ग से।
चढ़ा किनारे पर सर्प-यूथ को।
उसे बढ़ाया वन-ओर वेग से॥45॥
ब्रजेन्द्र के अद्भुत-वेणु-नाद से।
सतर्क-संचालन से सु-युक्ति से।
हुए वशीभूत समस्त सर्प थे।
न अल्प होते प्रतिकूल थे कभी॥46॥
अगम्य-अत्यन्त समीप शैल के।
जहाँ हुआ कानन था, ब्रजेन्द्र ने।
कुटुम्ब के साथ वहीं अहीश को।
सदर्प दे के यम-यातना तजा॥47॥
न नाग काली-तब से दिखा पड़ा।
हुई तभी से यमुनाति निर्मला।
समोद लौटे सब लोग सद्म को।
प्रमोद सारे ब्रज-मध्य छा गया॥48॥
अनेक यों हैं कहते फणीश को।
स-वंश मारा वन में मुकुन्द ने।
कई मनीषी यह हैं विचारते।
छिपा पड़ा है वह गर्त में किसी॥49॥
सुना गया है यह भी अनेक से।
पवित्रा-भूता-ब्रज-भूमि त्याग के।
चला गया है वह और ही कहीं।
जनोपघाती विष-दन्त-हीन हो॥50॥
प्रवाद जो हो यह किन्तु सत्य है।
स-गर्व मैं हूँ कहता प्रफुल्ल हो।
व्रजेन्दु से ही व्रज-व्याधि है टली।
बनी फणी-हीन पतंग-नन्दिनी॥51॥
वही महा-धीर असीम-साहसी।
सु-कौशली मानव-रत्न दिव्य-धी।
अभाग्य से है ब्रज से जुदा हुआ।
सदैव होगी न व्यथा-अतीव क्यों॥52॥
मुकुन्द का है हित चित्त में भरा।
पगा हुआ है प्रति-रोम प्रेम में।
भलाइयाँ हैं उनकी बड़ी-बड़ी।
भला उन्हें क्यों ब्रज भूल जायगा॥53॥
जहाँ रहें श्याम सदा सुखी रहें।
न भूल जावें निज-तात-मात को।
कभी-कभी आ मुख-मंजु को दिखा।
रहें जिलाते ब्रज-प्राणि-पुंज को॥54॥
द्रुतविलम्बित छन्द
निज मनोहर भाषण वृध्द ने।
जब समाप्त किया बहु-मुग्ध हो।
अपर एक प्रतिष्ठित-गोप यों।
तब लगा कहने सु-गुणावली॥55॥
वंशस्थ छन्द
निदाघ का काल महा-दुरन्त था।
भयावनी थी रवि-रश्मि हो गयी।
तवा समा थी तपती वसुंधरा।
स्फुलिंग वर्षारत तप्त व्योम था॥56॥
प्रदीप्त थी अग्नि हुई दिगन्त में।
ज्वलन्त था आतप ज्वाल-माल-सा।
पतंग की देख महा-प्रचण्डता।
प्रकम्पिता पादप-पुंज-पंक्ति थी॥57॥
रजाक्त आकाश दिगन्त को बना।
असंख्य वृक्षावलि मर्दनोद्यता।
मुहुर्मुहु: उध्दत हो निनादिता।
प्रवाहिता थी पवनाति-भीषणा॥58॥
विदग्ध होके कण-धूलि राशि का।
हुआ तपे लौह कण समान था।
प्रतप्त-बालू-इव-दग्ध-भाड़ की।
भयंकरी थी महि-रेणु हो गई॥59॥
असह्य उत्ताप दुरंत था हुआ।
महा समुद्विग्न मनुष्य मात्र था।
शरीरियों की प्रिय-शान्ति-नाशिनी।
निदाघ की थी अति-उग्र-ऊष्मता॥60॥
किसी घने-पल्लववान-पेड़ की।
प्रगाढ़-छाया अथवा सुकुंज में।
अनेक प्राणी करते व्यतीत थे।
स-व्यग्रता ग्रीष्म दुरन्त-काल को॥61॥
अचेत सा निद्रित हो स्व-गेह में।
पड़ा हुआ मानव का समूह था।
न जा रहा था जन एक भी कहीं।
अपार निस्तब्ध समस्त-ग्राम था॥62॥
स्व-शावकों साथ स्वकीय-नीड़ में।
अबोल हो के खग-वृंद था पड़ा।
स-भीत मानो बन दीर्घ दाघ से।
नहीं गिरा भी तजती स्व-गेह थी॥63॥
सु-कुंज में या वर-वृक्ष के तले।
असक्त हो थे पशु पंगु से पडे।
प्रतप्त-भू में गमनाभिशंकया।
पदांक को थी गति त्याग के भगी॥64॥
प्रचंड लू थी अति-तीव्र घाम था।
मुहुर्मुहु: गर्जन था समीर का।
विलुप्त हो सर्व-प्रभाव-अन्य का।
निदाघ का एक अखंड-राज्य था॥65॥
अनेक गो-पालक वत्स धेनू ले।
बिता रहे थे बहु शान्ति-भाव से।
मुकुन्द ऐसे अ-मनोज्ञ-काल को।
वनस्थिता-एक-विराम कुंज में॥66॥
परंतु प्यारी यह शान्ति श्याम की।
विनष्ट औ भंग हुई तुरन्त ही।
अचिन्त्य-दूरागत-भूरि-शब्द से।
अजस्र जो था अति घोर हो रहा॥67॥
पुन: पुन: कान लगा-लगा सुना।
ब्रजेन्द्र ने उत्थित घोर-शब्द को।
अत: उन्हें ज्ञात तुरन्त हो गया।
प्रचंड दावा वन-मध्य है लगी॥68॥
गये उसी ओर अनेक-गोप थे।
गवादि ले के कुछ-काल-पूर्व ही।
हुई इसी से निज बंधु-वर्ग की।
अपार चिन्ता ब्रज-व्योम-चंद्र को॥69॥
अत: बिना ध्यान किये प्रचंडता।
निदाघ की पूषण की समीर की।
ब्रजेन्द्र दौड़े तज शान्ति-कुंज को।
सु-साहसी गोप समूह संग ले॥70॥
निकुंज से बाहर श्याम ज्यों कढ़े।
उन्हें महा पर्वत धूमपुंज का।
दिखा पड़ा दक्षिण ओर सामने।
मलीन जो था करता दिगन्त को॥71॥
अभी गये वे कुछ दूर मात्र थे।
लगीं दिखाने लपटें भयावनी।
वनस्थली बीच प्रदीप्त-वह्नि की।
मुहुर्मुहु: व्योम-दिगन्त-व्यापिनी॥72॥
प्रवाहिता उध्दत तीव्र वायु से।
विधूनिता हो लपटें दवाग्नि की।
नितान्त ही थीं बनती भयंकरी।
प्रचंड - दावा - प्रलयंकरी - समा॥73॥
अनन्त थे पादप दग्ध हो रहे।
असंख्य गाठें फटतीं स-शब्द थीं।
विशेषत: वंश-अपार वृक्ष की।
बनी महा-शब्दित थी वनस्थली॥74॥
अपार पक्षी पशु त्रस्त हो महा।
स-व्यग्रता थे सब ओर दौड़ते।
नितान्त हो भीत सरीसृपादि भी।
बने महा-व्याकुल भाग थे रहे॥75॥
समीप जा के बलभद्र-बंधु ने।
वहाँ महा-भीषण-काण्ड जो लखा।
प्रवीर है कौन त्रि-लोक मध्य जो।
स्व-नेत्र से देख उसे न काँपता॥76॥
प्रचंडता में रवि की दवाग्नि की।
दुरन्तता थी अति ही विवर्ध्दिता।
प्रतीति होती उसको विलोक के।
विदग्ध होगी ब्रज की वसुंधरा॥77॥
पहाड़ से पादप तूल पुंज से।
स-मूल होते पल मध्य भस्म थे।
बडे-बड़े प्रस्तर खंड वह्नि से।
तुरन्त होते तृण-तुल्य दग्ध थे॥78॥
अनेक पक्षी उड़ व्योम-मध्य भी।
न त्राण थे पा सकते शिखाग्नि से।
सहस्रश: थे पशु प्राण त्यागते।
पतंग के तुल्य पलायनेच्छु हो॥79॥
जला किसी का पग पूँछ आदि था।
पड़ा किसी का जलता शरीर था।
जले अनेकों जलते असंख्य थे।
दिगन्त था आर्त-निनाद से भरा॥80॥
भयंकरी-प्रज्वलिताग्नि की शिखा।
दिवांधाता-कारिणि राशि धूम की।
वनस्थली में बहु-दूर-व्याप्त थी।
नितान्त घोरा ध्वनि त्रास-वर्ध्दिनी॥81॥
यहीं विलोका करुणा-निकेत ने।
गवादि के साथ स्व-बन्धु-वर्ग को।
शिखाग्नि द्वारा जिनकी शनै: शनै:।
विनष्ट संज्ञा अधिकांश थी हुई॥82॥
निरर्थ चेष्टा करते विलोक के।
उन्हें स्व-रक्षार्थ दवाग्नि गर्भ से।
दया बड़ी ही ब्रज-देव को हुई।
विशेषत: देख उन्हें अशक्त-सा॥83॥
अत: सबों से यह श्याम ने कहा।
स्व-जाति-उध्दार महान-धर्म में।
चलो करें पावक में प्रवेश औ।
स-धेनू लेवें निज-जाति को बचा॥84॥
विपत्ति से रक्षण सर्व-भूत का।
सहाय होना अ-सहाय जीव का।
उबारना संकट से स्व-जाति का।
मनुष्य का सर्व-प्रधान धर्म है॥85॥
बिना न त्यागे ममता स्व-प्राण की।
बिना न जोखों ज्वलदग्नि में पड़े।
न हो सका विश्व-महान-कार्य्य है।
न सिध्द होता भव-जन्म हेतु है॥86॥
बढ़ो करो वीर स्व-जाति का भला।
अपार दोनों विधा लाभ है हमें।
किया स्व-कर्तव्य उबार जो लिया।
सु-कीर्ति पाई यदि भस्म हो गये॥87॥
शिखाग्नि से वे सब ओर हैं घिरे।
बचा हुआ एक दुरूह-पंथ है।
परन्तु होगी यदि स्वल्प-देर तो।
अगम्य होगा वह शेष-पंथ भी॥88॥
अत: न है और विलम्ब में भला।
प्रवृत्त हो शीघ्र स्व-कार्य में लगो।
स-धेनू के जो न इन्हें बचा सके।
बनी रहेगी अपकीर्ति तो सदा॥89॥
ब्रजेन्दु ने यद्यपि तीव्र-शब्द में।
किया समुत्तोजित गोप-वृन्द को।
तथापि साथी उनके स्व-कार्य में।
न हो सके लग्न यथार्थ-रीति से॥90॥
निदाघ के भीषण उग्र-ताप से।
स्व-धर्य्य थे वे अधिकांश खो चुके।
रहे-सहे साहस को दवाग्नि ने।
किया समुन्मूलन सर्व-भाँति था॥91॥
असह्य होती उनको अतीव थी।
कराल-ज्वाला तन-दग्ध-कारिणी।
विपत्ति से संकुल उक्त-पंथ भी।
उन्हें बनाता भय-भीत भूरिश:॥92॥
अत: हुए लोग नितान्त भ्रान्त थे।
विलोप होती सुधि थी शनै: शनै:।
ब्रजांगना-वल्लभ के निदेश से।
स-चेष्ट होते भर वे क्षणेक थे॥93॥
स्व-साथियों की यह देख दुर्दशा।
प्रचंड-दावानल में प्रवीर से।
स्वयं धाँसे श्याम दुरन्त-वेग से।
चमत्कृता सी वन-भूमि को बना॥94॥
प्रवेश के बाद स-वेग ही कढ़े।
समस्त-गोपालक-धेनू संग वे।
अलौकिक-स्फूर्ति दिखा त्रि-लोक को।
वसुंधरा में कल-कीर्ति वेलि बो॥95॥
बचा सबों को बलवीर ज्यों कढ़े।
प्रचंड-ज्वाला-मय-पंथ त्यों हुआ।
विलोकते ही यह काण्ड श्याम को।
सभी लगे आदर दे सराहने॥96॥
अभागिनी है ब्रज की वसुन्धरा।
बड़े-अभागे हम गोप लोग हैं।
हरा गया कौस्तुभ जो ब्रजेश का।
छिना करों से ब्रज-भूमि रत्न जो॥97॥
न वित्ता होता धन रत्न डूबता।
असंख्य गो-वंश-स-भूमि छूटता।
समस्त जाता तब भी न शोक था।
सरोज सा आनन जो विलोकता॥98॥
अतीव-उत्कण्ठित सर्व-काल हूँ।
विलोकने को यक-बार और भी।
मनोज्ञ-वृन्दावन-व्योम-अंक में।
उगे हुए आनन-कृष्णचन्द्र को॥99॥
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