Monday, July 11, 2022

महाकाव्य | प्रिय प्रवास (दसवां सर्ग ) | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | Mahakavya | Priya pravas / Daswa Sarg | Ayodhya Singh Upadhyay 'Hari Oudh'


 द्रुतविलम्बित छन्द


त्रि-घटिका रजनी गत थी हुई।

सकल गोकुल नीरव-प्राय था।

ककुभ व्योम समेत शनै: शनै:।

तमवती बनती ब्रज-भूमि थी॥1॥


ब्रज-धराधिप मौन-निकेत भी।

बन रहा अधिकाधिक-शान्त था।

तिमिर भी उसके प्रति-भाग में।

स्व-विभुता करता विधि-बध्द था॥2॥


हरि-सखा अवलोकन-सूत्र से।

ब्रज - रसापति - द्वार - समागता।

अब नहीं दिखला पड़ती रही।

गृह-गता-जनता अति शंकिता॥3॥


सकल-श्रांति गँवा कर पंथ की।

कर समापन भोजन की क्रिया।

हरि सखा अधुना उपनीत थे।

द्युति-भरे-सुथरे-यक-सद्म में॥4॥


कृश-कलेवर चिन्तित व्यस्त घी।

मलिन आनन खिन्नमना दुखी।

निकट ही उनके ब्रज-भूप थे।

विकलताकुलता-अभिभूत से॥5॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


आवेगों से विपुल विकला शीर्ण काया कृशांगी।

चिन्ता-दग्ध व्यथित-हृदया शुष्क-ओष्ठा अधीरा।

आसीना थीं निकट पति के अम्बु-नेत्र यशोदा।

खिन्ना दीना विनत-वदना मोह-मग्ना मलीना॥6॥


द्रुतविलम्बित छन्द


अति-जरा विजिता बहु-चिन्तिता।

विकलता-ग्रसिता सुख-वंचिता।

सदन में कुछ थीं परिचारिका।

अधिकृता - कृशता - अवसन्नता॥7॥


मुकुर उज्ज्वल-मंजु निकेत में।

मलिनता-अति थी प्रतिबिम्बिता।

परम - नीरसता - सह - आवृता।

सरसता-शुचिता-युत-वस्तु थी॥8॥


परम - आदर - पूर्वक प्रेम से।

विपुल-बात वियोग-व्यथा-हरी।

हरि-सखा कहते इस काल थे।

बहु दुखी अ-सुखी ब्रज-भूप से॥9॥


विनय से नय से भय से भरा।

कथन ऊद्धव का मधु में पगा।

श्रवण थीं करती बन उत्सुका।

कलपती-कँपती ब्रजपांगना॥10॥


निपट-नीरव-गेह न था हुआ।

वरन हो वह भी बहु-मौन ही।

श्रवण था करता बलवीर की।

सुखकरी कथनीय गुणावली॥11॥


मालिनी छन्द


निज मथित-कलेजे को व्यथा साथ थामे।

कुछ समय यशोदा ने सुनी सर्व-बातें।

फिर बहु विमना हो व्यस्त हो कंपिता हो।

निज-सुअन-सखा से यों व्यथा-साथ बोलीं॥12॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


प्यासा-प्राणी श्रवण करके वारि के नाम ही को।

क्या होता है पुलकित कभी जो उसे पी न पावे।

हो पाता है कब तरणि का नाम है त्राण-कारी।

नौका ही है शरण जल में मग्न होते जनों की॥13॥


रोते-रोते कुँवर-पथ को देखते-देखते ही।

मेरी ऑंखें अहह अति ही ज्योति-हीना हुई हैं।

कैसे ऊधो भव-तम-हरी ज्योति वे पा सकेंगी।

जो देखेंगी न मृदु-मुखड़ा इन्दु-उन्माद-कारी॥14॥


सम्वादों से श्रवण-पुट भी पूर्ण से हो गये हैं।

थोड़ा छूटा न अब उनमें स्थान सन्देश का है।

सायं प्रात: प्रति-पल यही एक-वांछा उन्हें है।

प्यारी-बातें 'मधुर-मुख की मुग्ध हो क्यों सुनें वे॥15॥


ऐसे भी थे दिवस जब थी चित्त में वृध्दि पाती।

सम्वादों को श्रवण करके कष्ट उन्मूलनेच्छा।

ऊधो बीते दिवस अब वे, कामना है बिलीना।

भोले भाले विकच मुख की दर्शनोत्कण्ठता में॥16॥


प्यासे की है न जल-कण से दूर होती पिपासा।

बातों से है न अभिलषिता शान्ति पाता वियोगी।

कष्टों में अल्प उपशम भी क्लेश को है घटाता।

जो होती है तदुपरि व्यथा सो महा दुर्भगा है॥17॥


मालिनी छन्द


सुत सुखमय स्नेहों का समाधार सा है।

सदय हृदय है औ सिंधु सौजन्य का है।

सरल प्रकृति का है शिष्ट है शान्त धी है।

वह बहु विनयी, है 'मूर्ति' आत्मीयता की॥18॥


तुम सम मृदुभाषी धीर सद्बंधु ज्ञानी।

उस गुण-मय का है दिव्य सम्वाद लाया।

पर मुझ दुख-दग्ध भाग्यहीनांगना की।

यह दुख-मय-दोषा वैसि ही है स-दोषा॥19॥


हृदय-तल दया के उत्स-सा श्याम का है।

वह पर-दुख को था देख उन्मत्त होता।

प्रिय-जननि उसी की आज है शोक-मग्ना।

वह मुख दिखला भी क्यों न जाता उसे है॥20॥


मृदुल-कुसुम-सा है औ तुने तूल-सा है।

नव-किसलय-सा है स्नेह के वत्स-सा है।

सदय-हृदय ऊधो श्याम का है बड़ा ही।

अहह हृदय माँ-सा स्निग्ध तो भी नहीं है॥21॥


कर निकर सुधा से सिक्त राका शशी के।

प्रतपित कितने ही लोक को हैं बनाते।

विधि-वश दुख-दाई काल के कौशलों से।

कलुषित बनती है स्वच्छ-पीयूष-धारा॥22॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


मेरे प्यारे स-कुशल सुखी और सानन्द तो हैं?।

कोई चिन्ता मलिन उनको तो नहीं है बनाती?।

ऊधो छाती बदन पर है म्लानता भी नहीं तो?।

जी जाती हैं हृदयतल में तो नहीं वेदनायें?॥23॥


मीठे-मेवे मृदुल नवनी और पक्वान्न नाना।

उत्कण्ठा के सहित सुत को कौन होगी खिलाती।

प्रात: पीता सु-पय कजरी गाय का चाव से था।

हा! पाता है न अब उसको प्राण-प्यारा हमारा॥24॥


संकोची है अति सरल है धीर है लाल मेरा।

होती लज्जा अमित उसको माँगने में सदा थी।

जैसे लेके स-रुचि सुत को अंक में मैं खिलाती।

हा! वैसी ही अब नित खिला कौन माता सकेगी॥25॥


मैं थी सारा-दिवस मुख को देखते ही बिताती।

हो जाती थी व्यथित उसको म्लान जो देखती थी।

हा! ऐसे ही अब वदन को देखती कौन होगी।

ऊधो माता-सदृश ममता अन्य की है न होती॥26॥


खाने पीने शयन करने आदि की एक-वेला।

जो जाती थी कुछ टल कभी तो बड़ा खेद होता।

ऊधो ऐसी दुखित उसके हेतु क्यों अन्य होगी।

माता की सी अवनितल में है अ-माता न होती॥27॥


जो पाती हूँ कुँवर-मुख के जोग मैं भोग-प्यारा।

तो होती हैं हृदय-तल में वेदनायें-बड़ी ही।

जो कोई भी सु-फल सुत के योग्य मैं देखती हूँ।

हो जाती हूँ परम-व्यथिता, हूँ महादग्ध होती॥28॥


जो लाती थीं विविध-रँग के मुग्धकारी खिलौने।

वे आती हैं सदन अब भी कामना में पगी सी।

हा! जाती हैं पलट जब वे हो निराशा-निमग्ना।

तो उन्मत्त-सदृश पथ की ओर मैं देखती हूँ॥29॥


आते लीला निपुण-नट हैं आज भी बाँध आशा।

कोई यों भी न अब उनके खेल को देखता है।

प्यारे होते मुदित जितने कौतुकों से सदा ही।

वे ऑंखों में विषम-दव हैं दर्शकों के लगाते॥30॥


प्यारा खाता रुचिर नवनी को बड़े चाव से था।

खाते-खाते पुलक पड़ता नाचता-कूदता था।

ए बातें हैं सरस नवनी देखते याद आती।

हो जाता है मधुरतर औ स्निग्ध भी दग्धकारी॥31॥


हा! जो वंशी सरस रव से विश्व को मोहती थी।

सो आले में मलिन वन औ मूक हो के पड़ी है।

जो छिद्रों से अमृत बरसा मूर्ति थी मुग्धता की।

सो उन्मत्त परम-विकला उन्मना है बनाती॥32॥


प्यारे ऊधो सुरत करता लाल मेरी कभी है?।­

क्या होता है न अब उसको ध्यान बूढ़े-पिता का।

रो, रो हो-हो विकल अपने वार जो हैं बिताते।

हा! वे सीधे सरल-शिशु हैं क्या नहीं याद आते॥33॥


कैसे भूलीं सरस-खनि सी प्रीति की गोपिकायें।

कैसे भूले सुहृदपन के सेतु से गोप-ग्वाले।

शान्ता धीरा 'मधुरहृदया प्रेम-रूपा रसज्ञा।

कैसे भूली प्रणय-प्रतिमा-राधिका मोहमग्ना॥34॥


कैसे वृन्दा-विपिन बिसरा क्यों लता-वेलि भूली।

कैसे जी से उतर ब्रज की कुंज-पुंजे गई हैं।

कैसे फूले विपुल-फल से नम्र भूजात भूले।

कैसे भूला विकच-तरु सो अर्कजा-कूल वाला॥35॥


सोती-सोती चिहुँक कर जो श्याम को है बुलाती।

ऊधो मेरी यह सदन की शारिका कान्त-कण्ठा।

पाला-पोसा प्रति-दिन जिसे श्याम ने प्यार से है।

हा! कैसे सो हृदय-तल से दूर यों हो गई है॥36॥


जा कुंजों में प्रति-दिन जिन्हें चाव से था चराया।

जो प्यारी थीं ब्रज-अवनि के लाडिले को सदा ही।

खिन्ना, दीना, विकल वन में आज जो घूमती हैं।

ऊधो कैसे हृदय-धन को हाय! वे धेनू भूलीं॥37॥


ऐसा प्राय: अब तक मुझे नित्य ही है जनाता।

गो गोपों के सहित वन से सद्म है श्याम आता।

यों ही आ के हृदय-तल को बेधता मोह लेता।

मीठा-वंशी-सरस-रव है कान से गूँज जाता॥38॥


रोते-रोते तनिक लग जो ऑंख जाती कभी है।

हा! त्योंही मैं दृग-युगल को चौंक के खोलती हूँ।

प्राय: ऐसा प्रति-रजनि में ध्यान होता मुझे है।

जैसे आ के सुअन मुझको प्यार से है जगाता॥39॥


ऐसा ऊधो प्रति-दिन कई बार है ज्ञात होता।

कोई यों है कथन करता लाल आया तुम्हारा।

भ्रान्ता सी मैं अब तक गई द्वार पै बार लाखों।

हा! ऑंखों से न वह बिछुड़ी-श्यामली-मुर्ति देखी॥40॥


फूले-अंभोज सम दृग से मोहते मानसों को।

प्यारे-प्यारे वचन कहते खेलते मोद देते।

ऊधो ऐसी अनुमिति सदा हाय! होती मुझे है।

जैसे आता निकल अब ही लाल है मंदिरों से॥41॥


आ के मेरे निकट नवनी लालची लाल मेरा।

लीलायें था विविध करता धूम भी था मचाता।

ऊधो बातें न यक पल भी हाय! वे भूलती हैं।

हा! छा जाता दृग-युगल में आज भी सो समाँ है॥42॥


मैं हाथों से कुटिल-अलकें लाल की थी बनाती।

पुष्पों को थी श्रुति-युगल के कुण्डलों में सजाती।

मुक्ताओं को शिर मुकुट में मुग्ध हो थी लगाती।

पीछे शोभा निरख मुख की थी न फूले समाती॥43॥


मैं प्राय: ले कुसुमकलिका चाव से थी बनाती।

शोभा-वाले विविध गजरे क्रीट औ कुण्डलों को।

पीछे हो हो सुखित उनको श्याम को थी पिन्हाती।

औ उत्फुल्ला ग्रथित-कलिका तुल्य थी पूर्ण होती॥44॥


पैन्हे-प्यारे-वसन कितने दिव्य-आभूषणों को।

प्यारी-वाणी विहँस कहते पूर्ण-उत्फुल्ल होते।

शोभा-शाली-सुअन जब था खेलता मन्दिरों में।

तो पा जाती अमरपुर की सर्व सम्पत्तिा मैं थी॥45॥


होता राका-शशि उदय था फूलता पद्म भी था।

प्यारी-धारा उमग बहती चारु-पीयूष की थी।

मेरा प्यारा तनय जब था, गेह में नित्य ही तो।

वंशी-द्वारा 'मधुर-तर था स्वर्ग-संगीत होता॥46॥


ऊधो मेरे दिवस अब वे हाय! क्या हो गये हैं।

हा! यों मेरे सुख-सदना को कौन क्यों है गिराता।

वैसे प्यारे-दिवस अब मैं क्या नहीं पा सकूँगी।

हा! क्या मेरी न अब दुख की यामिनी दूर होगी॥47॥


ऊधो मेरा हृदय-तल था एक उद्यान-न्यारा।

शोभा देती अमित उसमें कल्पना-क्यारियाँ थीं।

न्यारे-प्यारे-कुसुम कितने भाव के थे अनेकों।

उत्साहों के विपुल-विटपी थे महा मुग्धकारी॥48॥


सच्चिन्ता की सरस-लहरी-संकुला-वापिका थी।

नाना चाहें कलित-कलियाँ थीं लतायें उमंगें।

धीरे-धीरे 'मधुर हिलती वासना-वेलियाँ थीं।

सद्वांछा के विहग उसके मंजु-भाषी बड़े थे॥49॥


भोला-भाला मुख सुत-वधू-भाविनी का सलोना।

प्राय: होता प्रकट उसमें फुल्ल-अम्भोज-सा था।

बेटे द्वारा सहज-सुख के लाभ की लालसायें।

हो जाती थीं विकच बहुधा माधवी-पुष्पिता सी॥50॥


प्यारी-आशा-पवन जब थी डोलती स्निग्ध हो के।

तो होती थीं अनुपम-छटा बाग के पादपों की।

हो जाती थीं सकल लतिका-वेलियाँ शोभनीया।

सद्भावों के सुमन बनते थे बड़े सौरभीले॥51॥


राका-स्वामी सरस-सुख की दिव्य-न्यारी-कलायें।

धीरे-धीरे पतित जब थीं स्निग्धता साथ होतीं।

तो आभा में अतुल-छवि में औ मनोहारिता में।

हो जाता सो अधिकतर था नन्दनोद्यान से भी॥52॥


ऐसा प्यारा-रुचिर रस से सिक्त उद्यान मेरा।

मैं होती हूँ व्यथित कहते आज है ध्वंस होता।

सूखे जाते सकल-तरु हैं नष्ट होती लता है।

निष्पुष्पा हो विपुल-मलिना वेलियाँ हो रही हैं॥53॥


प्यारे-पौधो कुसुम-कुल के पुष्प ही हैं न लाते।

भूले जाते विहग अपनी बोलियाँ हैं अनूठी।

हा! जावेगा उजड़ अति ही मंजु-उद्यान मेरा।

जो सींचेगा न घन-तन आ स्नेह-सद्वारि-द्वारा॥54॥


ऊधो आदौ तिमिर-मय था भाग्य-आकाश मेरा।

धीरे-धीरे फिर वह हुआ स्वच्छ सत्कान्ति-शाली।

ज्योतिर्माला-बलित उसमें चन्द्रमा एक न्यारा।

राका श्री ले समुदित हुआ चित्त-उत्फुल्ल-कारी॥55॥


आभा-वाले उस गगन में भाग्य दुर्वृत्तता की।

काली-काली अब फिर घटा है महा-घोर छाई।

हा! ऑंखों से सु-विधु जिससे हो गया दूर मेरा।

ऊधो कैसे यह दुख-मयी मेघ-माला टलेगी॥56॥


फूले-नीले-वनज-दल सा गात का रंग-प्यारा।

मीठी-मीठी मलिन मन की मोदिनी मंजु-बातें।

सोंधो-डूबी-अलक यदि है श्याम की याद आती।

ऊधो मेरे हृदय पर तो साँप है लोट जाता॥57॥


पीड़ा-कारी-करुण-स्वर से हो महा-उन्मना सी।

हा! रो-रो के स-दुख जब यों शारिका पूछती है।

वंशीवाला हृदय-धन सो श्याम मेरा कहाँ है।

तो है मेरे हृदय-तल में शूल सा विध्द होता॥58॥


त्यौहारों को अपर कितने पर्व औ उत्सवों को।

मेरा प्यारा-तनय अति ही भव्य देता बना था।

आते हैं वे ब्रज-अवनि में आज भी किन्तु ऊधो।

दे जाते हैं परम दुख औ वेदना हैं बढ़ाते॥59॥


कैसा-प्यारा जनम दिन था धूम कैसी मची थी।

संस्कारों के समय सुत के रंग कैसा जमा था।

मेरे जी में उदय जब वे दृश्य हैं आज होते।

हो जाती तो प्रबल-दुख से मूर्ति मैं हूँ शिला की॥60॥


कालिंदी के पुलिन पर की मंजु-वृंदावटी की।

फूले नीले-तरु निकर की कुंज की आलयों की।

प्यारी-लीला-सकल जब हैं लाल की याद आती।

तो कैसा है हृदय मलता मैं उसे क्यों बताऊँ॥61॥


मारा मल्लों-सहित गज को कंस से पातकी को।

मेटीं सारी नगर-वर की दानवी-आपदायें।

छाया सच्चा-सुयश जग में पुण्य की बेलि बोई।

जो प्यारे ने स-पति दुखिया-देवकी को छुड़ाया॥62॥


जो होती है सुरत उनके कम्प-कारी दुखों की।

तो ऑंसू है विपुल बहता आज भी लोचनों से।

ऐसी दग्ध परम-दुखिता जो हुई मोदिता है।

ऊधो तो हूँ परम सुखिता हर्षिता आज मैं भी॥63॥


तो भी पीड़ा-परम इतनी बात से हो रही है।

काढ़े लेती मम-हृदय क्यों स्नेह-शीला सखी है।

हो जाती हूँ मृतक सुनती हाय! जो यों कभी हूँ।

होता जाता मम तनय भी अन्य का लाडिला है॥64॥


मैं रोती हूँ हृदय अपना कूटती हूँ सदा ही।

हा! ऐसी ही व्यथित अब क्यों देवकी को करूँगी।

प्यारे जीवें पुलकित रहें औ बनें भी उन्हीं के।

धाई नाते वदन दिखला एकदा और देवें॥65॥


नाना यत्नों अपर कितनी युक्तियों से जरा में।

मैंने ऊधो! सुकृति बल से एक ही पुत्र पाया।

सो जा बैठा अरि-नगर में हो गया अन्य का है।

मेरी कैसी, अहह कितनी, मर्म्म-वेधी व्यथा है॥66॥


पत्रों-पुष्पों रहित विटपी विश्व में हो न कोई।

कैसी ही हो सरस सरिता वारि-शून्या न होवे।

ऊधो सीपी-सदृश न कभी भाग फूटे किसी का।

मोती ऐसा रतन अपना आह! कोई न खोवे॥67॥


अंभोजों से रहित न कभी अंक हो वापिका का।

कैसी ही हो कलित-लतिका पुष्प-हीना न होवे।

जो प्यारा है परम-धन है जीवनाधार जो है।

ऊधो ऐसे रुचिर-विटपी शून्य वाटी न होवे॥68॥


छीना जावे लकुट न कभी वृध्दता में किसी का।

ऊधो कोई न कल-छल से लाल ले ले किसी का।

पूँजी कोई जनम भर की गाँठ से खो न देवे।

सोने का भी सदन न बिना दीप के हो किसी का॥69॥


उद्विग्ना औ विपुल-विकला क्यों न सो धेनू होगी।

प्यारा लैरू अलग जिसकी ऑंख से हो गया है।

ऊधो कैसे व्यथित-अहि सो जी सकेगा बता दो।

जीवोन्मेषी रतन जिसके शीश का खो गया है॥70॥


कोई देखे न सब-जग के बीच छाया अंधेरा।

ऊधो कोई न निज-दृग की ज्योति-न्यारी गँवावे।

रो रो हो हो विकल न सभी वार बीतें किसी के।

पीड़ायें हों सकल न कभी मर्म्म-वेधी व्यथा हो॥71॥


ऊधो होता समय पर जो चारु चिन्ता-मणी है।

खो देता है तिमिर उर का जो स्वकीया प्रभा से।

जो जी में है सुरसरित सी स्निग्ध-धारा बहाता।

बेटा ही है अवनि-तल में रत्न ऐसा निराला॥72॥


ऐसा प्यारा रतन जिसका हो गया है पराया।

सो होवेगी व्यथित कितना सोच जी में तुम्हीं लो।

जो आती हो मुझ पर दया अल्प भी तो हमारे।

सूखे जाते हृदय-तल में शान्ति-धारा बहा दो॥73॥


छाता जाता ब्रज-अवनि में नित्य ही है अंधेरा।

जी में आशा न अब यह है कि मैं सुखी हो सकूँगी।

हाँ, इच्छा है तदपि इतनी एकदा और आके।

न्यारा-प्यारा-वदन अपना लाल मेरा दिखा दे॥74॥


मैंने बातें यदिच कितनी भूल से की बुरी हैं।

ऊधो बाँध सुअन कर है ऑंख भी है दिखाई।

मारा भी है कुसुम-कलिका से कभी लाडिले को।

तो भी मैं हूँ निकट सुत के सर्वथा मार्जनीया॥75॥


जो चूके हैं विविध मुझसे हो चुकीं वे सदा ही।

पीड़ा दे दे मथित चित को प्रायश: हैं सताती।

प्यारे से यों विनय करना वे उन्हें भूल जावें।

मेरे जी को व्यथित न करें क्षोभ आ के मिटावें॥76॥


खेलें आ के दृग युगल के सामने मंजु-बोलें।

प्यारी लीला पुनरपि करें गान मीठा सुनावें।

मेरे जी में अब रह गई एक ही कामना है।

आ के प्यारे कुँवर उजड़ा गेह मेरा बसावें॥77॥


जो ऑंखें हैं उमग खुलती ढूँढ़ती श्याम को हैं।

लौ कानों को मुरलिधर की तान ही की लगी है।

आती सी है यह ध्वनि सदा गात-रोमावली से।

मेरा प्यारा सुअन ब्रज में एकदा और आवे॥78॥


मेरी आशा नवल-लतिका थी बड़ी ही मनोज्ञा।

नीले-पत्तों सकल उसके नीलमों के बने थे।

हीरे के थे कुसुम फल थे लाल गोमेदकों के।

पन्नों द्वारा रचित उसकी सुन्दरी डंठियाँ थीं॥79॥


ऐसी आशा-ललित-लतिका हो गई शुष्क-प्राया।

सारी शोभा सु-छवि-जनिता नित्य है नष्ट होती।

जो आवेगा न अब ब्रज में श्याम-सत्कान्ति-शाली।

होगी हो के विरस वह तो सर्वथा छिन्न-मूला॥80॥


लोहू मेरे दृग-युगल से अश्रु की ठौर आता।

रोयें-रोयें सकल-तन के दग्ध हो छार होते।

आशा होती न यदि मुझको श्याम के लौटने की।

मेरा सूखा-हृदयतल तो सैकड़ों खंड होता॥81॥


चिंता-रूपी मलिन निशि की कौमुदी है अनूठी।

मेरी जैसी मृतक बनती हेतु संजीवनी है।

नाना-पीड़ा-मथित-मन के अर्थ है शांति-धारा

आशा मेरे हृदय-मरु की मंजु-मंदाकिनी है॥82॥


ऐसी आशा सफल जिससे हो सके शांति पाऊँ।

ऊधो मेरी सब-दुख-हरी-युक्ति-न्यारी वही है।

प्राणाधारा अवनि-तल में है यही एक आशा।

मैं देखूँगी पुनरपि वही श्यामली मुर्ति ऑंखों॥83॥


पीड़ा होती अधिकतर है बोध देते जभी हो।

संदेशों से व्यथित चित है और भी दग्ध होता।

जैसे प्यारा-वदन सुत का देख पाऊँ पुन: मैं।

ऊधो हो के सदय मुझको यत्न वे ही बता दो॥84॥


प्यारे-ऊधो कब तक तुम्हें वेदनायें सुनाऊँ।

मैं होती हूँ विरत यह हूँ किन्तु तो भी बताती।

जो टूटेगी कुँवर-वर के लौटने की सु-आशा।

तो जावेगा उजड़ ब्रज औ मैं न जीती बचूँगी॥85॥


सारी बातें श्रवण करके स्वीय-अर्धांगिनी की।

धीरे बोले ब्रज-अवनि के नाथ उद्विग्न हो के।

जैसी मेरे हृदय-तल में वेदना हो रही है।

ऊधो कैसे कथन उसको मैं करूँ क्यों बताऊँ॥86॥


छाया भू में निविड़-तम था रात्रि थी अर्ध्द बीती।

ऐसे बेले भ्रम-वश गया भानुजा के किनारे।

जैसे पैठा तरल-जल में स्नान की कामना से।

वैसे ही मैं तरणि-तनया-धार के मध्य डूबा॥87॥


साथी रोये विपुल-जनता ग्राम से दौड़ आई।

तो भी कोई सदय बन के अर्कजा में न कूदा।

जो क्रीड़ा में परम-उमड़ी आपगा तैर जाते।

वे भी सारा-हृदय-बल खो त्याग वीरत्व बैठे॥88॥


जो स्नेही थे परम-प्रिय थे प्राण जो वार देते।

वे भी हो के त्रासित विविधा-तर्कना मध्य डूबे।

राजा हो के न असमय में पा सका मैं सु-साथी।

कैसे ऊधो कु-दिन अवनी-मध्य होते बुरे हैं॥89॥


मेरे प्यारे कुँवर-वर ने ज्यों सुनी कष्ट-गाथा।

दौड़े आये तरणि-तनया-मध्य तत्काल कूदे।

यत्नों-द्वारा पुलिन पर ला प्राण मेरा बचाया।

कर्तव्यों से चकित करके कूल के मानवों को॥90॥


पूजा का था दिवस जनता थी महोत्साह-मग्ना।

ऐसी वेला मम-निकट आ एक मोटे फणी ने।

मेरा दायाँ-चरण पकड़ा मैं कँपा लोग दौड़े।

तो भी कोई न मम-हित की युक्ति सूझी किसीको॥91॥


दौड़े आये कुँवर सहसा औ कई-उल्मुकों से।

नाना ठौरों वपुष-अहि का कौशलों से जलाया।

ज्योंही छोड़ा चरण उसने त्यों उसे मार डाला।

पीछे नाना-जतन करके प्राण मेरा बचाया॥92॥


जैसे-जैसे कुँवर-वर ने हैं किये कार्य्य-न्यारे।

वैसे ऊधो न कर सकते हैं महा-विक्रमी भी।

जैसी मैंने गहन उनमें बुध्दि-मत्त विलोकी।

वैसी वृध्दों प्रथित-विबुधो मंत्रदों में न देखी॥93॥


मैं ही होता चकित न रहा देख कार्य्यावली को।

जो प्यारे के चरित लखता, मुग्ध होता वही था।

मैं जैसा ही अति-सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा।

वैसा ही हूँ दुखित अब मैं काल-कौतूहलों से॥94॥


क्यों प्यारे ने सदय बन के डूबने से बचाया।

जो यों गाढ़े-विरह-दुख के सिन्धु में था डुबोना।

तो यत्नों से उरग-मुख के मध्य से क्यों निकाला।

चिन्ताओं से ग्रसित यदि मैं आज यों हो रहा हूँ॥95॥


वंशस्थ छन्द


निशान्त देखे नभ स्वेत हो गया।

तथापि पूरी न व्यथा-कथा हुई।

परन्तु फैली अवलोक लालिमा।

स-नन्द ऊधो उठ सद्म से गये॥96॥


द्रुतविलम्बित छन्द


विवुधा ऊद्धव के गृह-त्याग से।

परि-समाप्त हुई दुख की कथा।

पर सदा वह अंकित सी रही।

हृदय-मंदिर में हरि-विधेय के॥97॥



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कहानी | बीस साल बाद | ओ. हेनरी | Kahani | Bees Saal Baad | O. Henry

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