Monday, July 11, 2022

महाकाव्य | प्रिय प्रवास ( चौदहवां सर्ग ) | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | Mahakavya | Priya pravas / Chaudhwa Sarg | Ayodhya Singh Upadhyay 'Hari Oudh'


 मन्दाक्रान्ता छन्द


कालिन्दी के पुलिन पर थी एक कुंजातिरम्या।

छोटे-छोटे सु-द्रुम उसके मुग्ध-कारी बड़े थे।

ऐसे न्यारे प्रति-विटप के अंक में शोभिता थी।

लीला-शीला-ललित लतिका पुष्पभारावनम्रा॥1॥


बैठे ऊधो मुदित-चित से एकदा थे इसी में।

लीलाकारी सलिल सरि का सामने सोहता था।

धीरे-धीरे तपन-किरणें फैलती थीं दिशा में।

न्यारी-क्रीड़ा उमंग करती वायु थी पल्लवों से॥2॥


बालाओं का यक दल इसी काल आता दिखाया।

आशाओं को ध्वनित करके मंजु-मंजीरकों से।

देखी जाती इस छविमयी मण्डली संग में थीं।

भोली-भाली कपितय बड़ी-सुन्दरी-बालिकायें॥3॥


नीला-प्यारा उदक सरि का देख के एक श्यामा।

बोली हो के विरस-वदना अन्य-गोपांगना से।

कालिन्दी का पुलिन मुझको उन्मना है बनाता।

लीला-मग्ना जलद-तन की मुर्ति है याद आती॥4॥


श्यामा-बातें श्रवण करके बालिका एक रोई।

रोते-रोते अरुण उसके हो गये नेत्र दोनों।

ज्यों-ज्यों लज्जा-विवश वह थी रोकती वारि-धारा।

त्यों-त्यों ऑंसू अधिकतर थे लोचनों मध्य आते॥5॥


ऐसा रोता निरख उसको एक मर्म्मज्ञ बोली।

यों रोवेगी भगिनि यदि तू बात कैसे बनेगी।

कैसे तेरे युगल-दृग ए ज्योति-शाली रहेंगे।

तू देखेगी वह छविमयी-श्यामली-मुर्ति कैसे॥6॥


जो यों ही तू बहु-व्यथित हो दग्ध होती रहेगी।

तेरे सूखे-कृशित-तन में प्राण कैसे रहेंगे।

जी से प्यारा-मुदित-मुखड़ा जो न तू देख लेगी।

तो वे होंगे सुखित न कभी स्वर्ग में भी सिधा के॥7॥


मर्म्मज्ञा का कथन सुन के कामिनी एक बोली।

तू रोने दे अयि मम सखी खेदिता-बालिका को।

जो बालायें विरह-दव में दग्धिता हो रही हैं।

आँखों का ही उदक उनकी शान्ति की औषधी है॥8॥


वाष्प-द्वारा बहु-विधा-दुखों वर्ध्दिता-वेदना के।

बालाओं का हृदय-नभ जो है समाच्छन्न होता।

तो निर्ध्दूता तनिक उसकी म्लानता है न होती।

पर्जन्यों सा न यदि बरसें वारि हो, वे दृगों से॥9॥


प्यारी-बातें श्रवण जिसने की किसी काल में भी।

न्यारा-प्यारा-वदन जिसने था कभी देख पाया।

वे होती हैं बहु-व्यथित जो श्याम हैं याद आते।

क्यों रोवेगी न वह जिसके जीवनाधार वे हैं॥10॥


प्यारे-भ्राता-सुत-स्वजन सा श्याम को चाहती हैं।

जो बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो।

प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है।

हा! क्यों बाला न वह दुख से दग्ध हो रो मरेगी॥11॥


ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई।

त्यों सारी ही करुण-स्वर से रो उठीं कम्पिता हो।

ऐसा न्यारा-विरह उनका देख उन्माद-कारी।

धीरे ऊधो निकट उनके कुंज को त्याग आये॥12॥


ज्यों पाते ही सम-तल धार वारि-उन्मुक्त-धारा।

पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विता को।

त्योंही होता प्रबल दुख का वेग विभ्रान्तकारी।

पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का॥13॥


प्यारी-बातें स-विधा कह के मान-सम्मान-सिक्ता।

ऊधो जी को निकट सबने नम्रता से बिठाया।

पूछा मेरे कुँवर अब भी क्यों नहीं गेह आये।

क्या वे भूले कमल-पग की प्रेमिका गोपियों को॥14॥


ऊधो बोले समय-गति है गूढ़-अज्ञात बेंड़ी।

क्या होवेगा कब यह नहीं जीव है जान पाता।

आवेंगे या न अब ब्रज में आ सकेंगे बिहारी।

हा! मीमांसा इस दुख-पगे प्रश्न की क्यों करूँ मैं॥15॥


प्यारा वृन्दा-विपिन उनको आज भी पूर्व-सा है।

वे भूले हैं न प्रिय-जननी औ न प्यारे-पिता को।

वैसी ही हैं सुरति करते श्याम गोपांगना की।

वैसी ही है प्रणय-प्रतिमा-बालिका याद आती॥16॥


प्यारी-बातें कथन करके बालिका-बालकों की।

माता की और प्रिय-जनक की गोप-गोपांगना की।

मैंने देखा अधिकतर है श्याम को मुग्ध होते।

उच्छ्वासों से व्यथित-उर के नेत्र में वारि लाते॥17॥


सायं-प्रात: प्रति-पल-घटी है, उन्हें याद आती।

सोते में भी ब्रज-अवनि का स्वप्न वे देखते हैं।

कुंजों में ही मन मधुप सा सर्वदा घूमता है।

देखा जाता तन भर वहाँ मोहिनी-मुर्ति का है॥18॥


हो के भी वे ब्रज-अवनि के चित्त से यों सनेही।

क्यों आते हैं न प्रति-जन का प्रश्न होता यही है।

कोई यों है कथन करता तीन ही कोस आना।

क्यों है मेरे कुँवर-वर को कोटिश: कोस होता॥19॥


दोनों ऑंखें सतत जिनकी दर्शनोत्कण्ठिता हों।

जो वारों को कुँवर-पथ को देखते हैं बिताते।

वे हो-हो के विकल यदि हैं पूछते बात ऐसी।

तो कोई है न अतिशयता औ न आश्चर्य्य ही है॥20॥


ऐ संतप्ता-विरह-विधुरा गोपियों किन्तु कोई।

थोड़ा सा भी कुँवर-वर के मर्म का है न ज्ञाता।

वे जी से हैं अवनिजन के प्राणियों के हितैषी।

प्राणों से है अधिक उनको विश्व का प्रेम प्यारा॥21॥


स्वार्थों को औ विपुल-सुख को तुच्छ देते बना हैं।

जो आ जाता जगत-हित है सामने लोचनों के।

हैं योगी सा दमन करते लोक-सेवा निमित्त।

लिप्साओं से भरित उर की सैकड़ों लालसायें॥22॥


ऐसे-ऐसे जगत-हित के कार्य्य हैं चक्षु आगे।

हैं सारे ही विषम जिनके सामने श्याम भूले।

सच्चे जी से परम-व्रत के व्रती हो चुके हैं।

निष्कामी से अपर-कृति के कूल-वर्ती अत: हैं॥23॥


मीमांसा हैं प्रथम करते स्वीय कर्तव्य ही की।

पीछे वे हैं निरत उसमें धीरता साथ होते।

हो के वांछा-विवश अथवा लिप्त हो वासना से।

प्यारे होते न च्युत अपने मुख्य-कर्तव्य से हैं॥24॥


घूमूँ जा के कुसुम-वन में वायु-आनन्द मैं लूँ।

देखूँ प्यारी सुमन-लतिका चित्त यों चाहता है।

रोता कोई व्यथित उनको जो तभी दीख जावे।

तो जावेंगे न उपवन में शान्ति देंगे उसे वे॥25॥


जो सेवा हों कुँवर करते स्वीय-माता-पिता की।

या वे होवें स्व-गुरुजन को बैठ सम्मान देते।

ऐसे वेले यदि सुन पड़े आर्त-वाणी उन्हें तो।

वे देवेंगे शरण उसको त्याग सेवा बड़ों की॥26॥


जो वे बैठे सदन करते कार्य्य होवें अनेकों।

औ कोई आ कथन उनसे यों करे व्यग्र हो के।

गेहों को है दहन करती वधिता-ज्वाल-माला।

तो दौड़ेंगे तुरत तज वे कार्य्य प्यारे-सहस्रों॥27॥


कोई प्यारा-सुहृद उनका या स्व-जातीय-प्राणी।

दुष्टात्मा हो, मनुज-कुल का शत्रु हो, पातकी हो।

तो वे सारी हृदय-तल की भूल के वेदनायें।

शास्ता हो के उचित उसको दण्ड औ शास्ति देंगे॥28॥


हाथों में जो प्रिय-कुँवर के न्यस्त हो कार्य्य कोई।

पीड़ाकारी सकल-कुल का जाति का बांधवों का।

तो हो के भी दुखित उसको वे सुखी हो करेंगे।

जो देखेंगे निहित उसमें लोक का लाभ कोई॥29॥


अच्छे-अच्छे बहु-फलद औ सर्व-लोकोपकारी।

कार्यों की है अवलि अधुना सामने लोचनों के।

पूरे-पूरे निरत उनमें सर्वदा हैं बिहारी।

जी से प्यारी ब्रज-अवनि में हैं इसी से न आते॥30॥


हो जावेंगी बहु-दुखद जो स्वल्प शैथिल्य द्वारा।

जो देवेंगी सु-फल मति के साथ सम्पन्न हो के।

ऐसी नाना-परम-जटिला राज की नीतियाँ भी।

बाधाकारी कुँवर चित की वृत्ति में हो रही हैं॥31॥


तो भी मैं हूँ न यह कहता नन्द के प्राण-प्यारे।

आवेंगे ही न अब ब्रज में औ उसे भूल देंगे।

जो है प्यारा परम उनका चाहते वे जिसे हैं।

निर्मोही हो अहह उसको श्याम कैसे तजेंगे॥32॥


हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है।

होते-होते जगत कितने काम ही हैं न होते।

जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये।

तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियो! खो न देना॥33॥


जो संतप्ता-सलिल-नयना-बालिकायें कई हैं।

ऐ प्राचीन-तरल-हृदया-गोपियों स्नेह-द्वारा।

शिक्षा देना समुचित इन्हें कार्य्य होगा तुमारा।

होने पावें न वह जिससे मोह-माया-निमग्ना॥34॥


जो बूझेगा न ब्रज कहते लोक-सेवा किसे हैं।

जो जानेगा न वह, भव के श्रेय का मर्म क्या है।

जो सोचेगा न गुरु-गरिमा लोक के प्रेमिकों की।

कर्तव्यों में कुँवर-वर को तो बड़ा-क्लेश होगा॥35॥


प्राय: होता हृदय-तल है एक ही मानवों का।

जो पाता है न सुख यक तो अन्य भी है न पाता।

जो पीड़ायें-प्रबल बन के एक को हैं सताती।

तो होने से व्यथित बचता दूसरा भी नहीं है॥36॥


जो ऐसी ही रुदन करती बलिकायें रहेंगी।

पीड़ायें भी विविध उनको जो इसी भाँति होंगी।

यों ही रो-रो सकल ब्रज जो दग्ध होता रहेगा।

तो आवेगा ब्रज-अधिप के चित्त को चैन कैसे॥37॥


जो होवेगा न चित उनका शान्त स्वच्छन्दचारी।

तो वे कैसे जगत-हित को चारुता से करेंगे।

सत्काय्र्यों में परम-प्रिय के अल्प भी विघ्न-बाधा।

कैसे होगी उचित, चित में गोपियो, सोच देखो॥38॥


धीरे-धीरे भ्रमित-मन को योग-द्वारा सम्हालो।

स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो।

भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मुर्तियों को।

यों होवेगा दुख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी॥39॥


ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी।

खिन्ना हो हो स-विनय सुना सर्व-गोपी-जनों ने।

पीछे बोलीं अति-चकित हो म्लान हो उन्मना हो।

कैसे मूर्खा अधम हम सी आपकी बात बूझें॥40॥


हो जाते हैं भ्रमित जिसमें भूरि-ज्ञानी मनीषी।

कैसे होगा सुगम-पथ सो मंद-धी नारियों को।

छोटे-छोटे सरित-सर में डूबती जो तरी है।

सो भू-व्यापी सलिल-निधि के मध्य कैसे तिरेगी॥41॥


वे त्यागेंगी सकल-सुख औ स्वार्थ-सारा तजेंगी।

औ रक्खेंगी निज-हृदय में वासना भी न कोई।

ज्ञानी-ऊधो जतन इतनी बात ही का बता दो।

कैसे त्यागें हृदय-धन को प्रेमिका-गोपिकायें॥42॥


भोगों को औ भुवि-विभव को लोक की लालसा को।

माता-भ्राता स्वप्रिय-जन को बन्धु को बांधवों को।

वे भूलेंगी स्व-तन-मन को स्वर्ग की सम्पदा को।

हा! भूलेंगी जलद-तन की श्यामली मुर्ति कैसे॥43॥


जो प्यारा है अखिल-ब्रज के प्राणियों का बड़ा ही।

रोमों की भी अवलि जिसके रंग ही में रँगी है।

कोई देही बन अवनि में भूल कैसे उसे दे।

जो प्राणों में हृदय-तल में लोचनों में रमा हो॥44॥


भूला जाता वह स्वजन है चित्त में जो बसा हो।

देखी जा के सु-छवि जिसकी लोचनों में रमी हो।

कैसे भूले कुँवर जिनमें चित्त ही जा बसा है।

प्यारी-शोभा निरख जिसकी आप ऑंखें रमी हैं॥45॥


कोई ऊधो यदि यह कहे काढ़ दें गोपिकायें।

प्यारा-न्यारा निज-हृदय तो वे उसे काढ़ देंगी।

हो पावेगा न यह उनसे देह में प्राण होते।

उद्योगी हो हृदय-तल से श्याम को काढ़ देवें॥46॥


मीठे-मीठे वचन जिसके नित्य ही मोहते थे।

हा! कानों से श्रवण करती हूँ उसी की कहानी।

भूले से भी न छवि उसकी आज हूँ देख पाती।

जो निर्मोही कुँवर बसते लोचनों में सदा थे॥47॥


मैं रोती हूँ व्यथित बन के कूटती हूँ कलेजा।

या ऑंखों से पग-युगल की माधुरी देखती थी।

या है ऐसा कु-दिन इतना हो गया भाग्य खोटा।

मैं प्यारे के चरण-तल की धूलि भी हूँ न पाती॥48॥


ऐसी कुंजें ब्रज-अवनि में हैं अनेकों जहाँ जा।

आ जाती है दृग-युगल के सामने मूर्ति-न्यारी।

प्यारी-लीला उमग जसुदा-लाल ने है जहाँ की।

ऐसी ठौरों ललक दृग हैं आज भी लग्न होते॥49॥


फूली डालें सु-कुसुममयी नीप की देख ऑंखों।

आ जाती है हृदय-धन की मोहनी मुर्ति आगे।

कालिन्दी के पुलिन पर आ देख नीलाम्बु न्यारा।

हो जाती है उदय उर में माधुरी अम्बुदों सी॥50॥


सूखे न्यारा सलिल सरि का दग्ध हों कुंज-पुंजें।

फूटें ऑंखें, हृदय-तल भी ध्वंस हो गोपियों का।

सारा वृन्दा-विपिन उजड़े नीप निर्मूल होवे।

तो भूलेंगे प्रथित-गुण के पुण्य-पाथोधि माधो॥51॥


आसीना जो मलिन-वदना बालिकायें कई हैं।

ऐसी ही हैं ब्रज-अवनि में बालिकायें अनेकों।

जी होता है व्यथित जिनका देख उद्विग्न हो हो।

रोना-धोना विकल बनना दग्ध होना न सोना॥52॥


पूजायें त्यों विविध-व्रत औ सैकड़ों ही क्रियायें।

सालों की हैं परम-श्रम से भक्ति-द्वारा उन्होंने।

ब्याही जाऊँ कुँवर-वर से एक वांछा यही थी।

सो वांछा है विफल बनती दग्ध वे क्यों न होंगी॥53॥


जो वे जी सो कमल-दृग की प्रेमिका हो चुकी हैं।

भोला-भाला निज-हृदय जो श्याम को दे चुकी हैं।

जो ऑंखों में सु-छवि बसती मोहिनी-मुर्ति की है।

प्रेमोन्मत्ता न तब फिर क्यों वे धरा-मध्य होंगी॥54॥


नीला-प्यारा-जलद जिनके लोचनों में रमा है।

कैसे होंगी अनुरत कभी धूम के पुंज में वे।

जो आसक्ता स्व-प्रियवर में वस्तुत: हो चुकी हैं।

वे देवेंगी हृदय-तल में अन्य को स्थान कैसे॥55॥


सोचो ऊधो यदि रह गईं बालिकायें कुमारी।

कैसे होगी ब्रज-अवनि के प्राणियों को व्यथाएँ।

वे होवेंगी दुखित कितनी और कैसे विपन्ना।

हो जावेंगे दिवस उनके कंटकाकीर्ण कैसे!॥56॥


सर्वांगों में लहर उठती यौवनाम्भोधि की है।

जो है घोरा परम-प्रबला औ महोछ्वास-शीला।

तोड़े देती प्रबल-तरि जो ज्ञान औ बुध्दि की है।

घातों से है दलित जिसके धर्य का शैल होता॥57॥


ऐसे ओखे-उदक-निधि में हैं पड़ी बालिकायें।

झोंके से है पवन बहती काल की वामता की।

आवर्तों में तरि-पतित है नौ-धानी है न कोई।

हा! कैसी है विपद कितनी संकटापन्न वे हैं॥58॥


शोभा देता सतत उनकी दृष्टि के सामने था।

वांछा पुष्पाकलित सुख का एक उद्यान फूला।

हा! सो शोभा-सदन अब है नित्य उत्सन्न होता।

सारे प्यारे कुसुम-कुल भी हैं न उत्फुल्ल होते॥59॥


जो मर्य्यादा सुमति, कुल की लाज को है जलाती।

फूँके देती परम-तप से प्राप्त सं-सिध्द को है।

ये बालाएँ परम-सरला सर्वथा अप्रगल्भा।

कैसे ऐसी मदन-दव की तीव्र-ज्वाला सहेंगी॥60॥


चक्री होते चकित जिससे काँपते हैं पिनाकी।

जो वज्री के हृदय-तल को क्षुब्ध देता बना है।

जो है पूरा व्यथित करता विश्व के देहियों को।

कैसे ऐसे रति-रमण के बाण से वे बचेंगी॥61॥


जो हो के भी परम-मृदु है वज्र का काम देता।

जो हो के भी कुसुम-करता शैल की सी क्रिया है।

जो हो के भी 'मधुर बनता है महा-दग्ध-कारी।

कैसे ऐसे मदन-शर से रक्षिता वे रहेंगी॥62॥


प्रत्यंगों में प्रचुर जिसकी व्याप जाती कला है।

जो हो जाता अति विषम है काल-कूटादिकों सा।

मद्यों से भी अधिक जिसमें शक्ति उन्मादिनी है।

कैसे ऐसे मदन-मद से वे न उन्मत्त होंगी॥63॥


कैसे कोई अहह उनको देख ऑंखों सकेगा।

वे होवेंगी विकटतम औ घोर रोमांच-कारी।

पीड़ायें जो 'मदन' हिम के पात के तुल्य देगा।

स्नेहोत्फुल्ला-विकच-वदना बालिकांभोजिनी को॥64॥


मेरी बातें श्रवण करके आप जो पूछ बैठें।

कैसे प्यारे-कुँवर अकेले ब्याहते सैकड़ों को।

तो है मेरी विनय इतनी आप सा उच्च-ज्ञानी।

क्या ज्ञाता है न बुध-विदिता प्रेम की अंधता का॥65॥


आसक्ता हैं विमल-विधु की तारिकायें अनेकों।

हैं लाखों ही कमल-कलियाँ भानु की प्रेमिकाएँ।

जो बालाएँ विपुल हरि में रक्त हैं चित्र क्या है?

प्रेमी का ही हृदय गरिमा जानता प्रेम की है॥66॥


जो धाता ने अवनि-तल में रूप की सृष्टि की है।

तो क्यों ऊधो न वह नर के मोह का हेतु होगा।

माधो जैसे रुचिर जन के रूप की कान्ति देखे।

क्यों मोहेंगी न बहु-सुमना-सुन्दरी-बालिकाएँ॥67॥


जो मोहेंगी जतन मिलने का न कैसे करेंगी।

वे होवेंगी न यदि सफला क्यों न उद्भ्रान्त होंगी।

ऊधो पूरी जटिल इनकी हो गई है समस्या।

यों तो सारी ब्रज-अवनि ही है महा शोक-मग्ना॥68॥


जो वे आते न ब्रज बरसों, टूट जाती न आशा।

चोटें खाता न उर उतना जी न यों ऊब जाता।

जो वे जा के न मधुपुर में वृष्णि-वंशी कहाते।

प्यारे बेटे न यदि बनते श्रीमती देवकी के॥69॥


ऊधो वे हैं परम सुकृती भाग्यवाले बड़े हैं।

ऐसा न्यारा-रतन जिनको आज यों हाथ आया।

सारे प्राणी ब्रज-अवनि के हैं बड़े ही अभागे।

जो पाते ही न अब अपना चारु चिन्तामणी हैं॥70॥


भोली-भाली ब्रज-अवनि क्या योग की रीति जानें।

कैसे बूझें अ-बुध अबला ज्ञान-विज्ञान बातें।

देते क्यों हो कथन करके बात ऐसी व्यथायें।

देखूँ प्यारा वदन जिनसे यत्न ऐसे बता दो॥71॥


न्यारी-क्रीड़ा ब्रज-अवनि में आ पुन: वे करेंगे।

आँखें होंगी सुखित फिर भी गोप-गोपांगना की।

वंशी होगी ध्वनित फिर भी कुंज में काननों में।

आवेंगे वे दिवस फिर भी जो अनूठे बड़े हैं॥72॥


श्रेय:कारी सकल ब्रज की है यही एक आशा।

थोड़ा किम्वा अधिक इससे शान्ति पाता सभी है।

ऊधो तोड़ो न तुम कृपया ईदृशी चारु आशा।

क्या पाओगे अवनि ब्रज की जो समुत्सन्न होगी॥73॥


देखो सोचो दुखमय-दशा श्याम-माता-पिता की।

प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको।

गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो।

ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को जिला दो॥74॥


वसन्ततिलका छन्द


बोली स-शोक अपरा यक गोपिका यों।

ऊधो अवश्य कृपया ब्रज को जिलाओ।

जाओ तुरन्त मथुरा करुणा दिखाओ।

लौटाल श्याम-घन को ब्रज-मध्य लाओ॥75॥


अत्यन्त-लोक-प्रिय विश्व-विमुग्ध-कारी।

जैसा तुम्हें चरित मैं अब हूँ सुनाती।

ऐसी करो ब्रज लखे फिर कृत्य वैसा।

लावण्य-धाम फिर दिव्य-कला दिखावें॥76॥


भू में रमी शरद की कमनीयता थी।

नीला अनन्त-नभ निर्मल हो गया था।

थी छा गई ककुभ में अमिता सिताभा।

उत्फुल्ल सी प्रकृति थी प्रतिभात होती॥77॥


होता सतोगुण प्रसार दिगन्त में है।

है विश्व-मध्य सितता अभिवृध्दि पाती।

सारे-स-नेत्र जन को यह थे बताते।

कान्तार-काश, विकसे सित-पुष्प-द्वारा॥78॥


शोभा-निकेत अति-उज्ज्वल कान्तिशाली।

था वारि-बिन्दु जिसका नव मौक्तिकों सा।

स्वच्छोदका विपुल-मंजुल-वीचि-शीला।

थी मन्द-मन्द बहती सरितातिभव्या॥79॥


उच्छ्वास था न अब कूल विलीनकारी।

था वेग भी न अति-उत्कट कर्ण-भेदी।

आवर्त्त-जाल अब था न धरा-विलोपी।

धीरा, प्रशान्त, विमलाम्बुवती, नदी थी॥80॥


था मेघ शून्य नभ उज्ज्वल-कान्तिवाला।

मालिन्य-हीन मुदिता नव-दिग्वधू थी।

थी भव्य-भूमि गत-कर्दम स्वच्छ रम्या।

सर्वत्र धौत जल निर्मलता लसी थी॥81॥


कान्तार में सरित-तीर सुगह्नरों में।

थे मंद-मंद बहते जल स्वच्छ-सोते।

होती अजस्र उनमें ध्वनि थी अनूठी।

वे थे कृती शरद की कल-कीर्ति गाते॥82॥


नाना नवागत-विहंग-बरूथ-द्वारा।

वापी तड़ाग सर शोभित हो रहे थे।

फूले सरोज मिष हर्षित लोचनों से।

वे हो विमुग्ध जिनको अवलोकते थे॥83॥


नाना-सरोवर खिले-नव-पंकजों को।

ले अंक में विलसते मन-मोहते थे।

मानो पसार अपने शतश: करों को।

वे माँगते शरद से सु-विभूतियाँ थे॥84॥


प्यारे सु-चित्रित सितासित रंगवाले।

थे दीखते चपल-खंजन प्रान्तरों में।

बैठी मनोरम सरों पर सोहती थी।

आई स-मोद ब्रज-मध्य मराल-माला॥85॥


प्राय: निरम्बु कर पावस-नीरदों को।

पानी सुखा प्रचुर-प्रान्तर औ पथों का।

न्यारे-असीम-नभ में मुदिता मही में।

व्यापी नवोदित-अगस्त नई-विभा थी॥86॥


था क्वार-मास निशि थी अति-रम्य-राका।

पूरी कला-सहित शोभित चन्द्रमा था।

ज्योतिर्मयी विमलभूत दिशा बना के।

सौंदर्य्य साथ लसती क्षिति में सिता थी॥87॥


शोभा-मयी शरद की ऋतु पा दिशा में।

निर्मेघ-व्योम-तल में सु-वसुंधरा में।

होती सु-संगति अतीव मनोहरा थी।

न्यारी कलाकर-कला नव स्वच्छता की॥88॥


प्यारी-प्रभा रजनि-रंजन की नगों को।

जो थी असंख्य नव-हीरक से लसाती।

तो वीचि में तपन की प्रिय-कन्यका के।

थी चारु-पूर्ण मणि मौक्तिक के मिलाती॥89॥


थे स्नात से सकल-पादप चन्द्रिका से।

प्रत्येक-पल्लव प्रभा-मय दीखता था।

फैली लता विकच-वेलि प्रफुल्ल-शाखा।

डूबी विचित्र-तर निर्मल-ज्योति में थी॥90॥


जो मेदिनी रजत-पत्र-मयी हुई थी।

किम्वा पयोधि-पय से यदि प्लाविता थी।

तो पत्र-पत्र पर पादप-वेलियों के।

पूरी हुई प्रथित-पारद-प्रक्रिया थी॥91॥


था मंद-मंद हँसता विधु व्योम-शोभी।

होती प्रवाहित धारातल में सुधा थी।

जो पा प्रवेश दृग में प्रिय अंशु-द्वारा।

थी मत्त-प्राय करती मन-मानवों का॥92॥


अत्युज्ज्वला पहन तारक-मुक्त-माला।

दिव्यांबरा बन अलौकिक-कौमुदी से।

शोभा-भरी परम-मुग्धकरी हुई थी।

राका कलाकर-मुखी रजनी-पुरंध्ररी॥93॥


पूरी समुज्ज्वल हुई सित-यामिनी थी।

होता प्रतीत रजनी-पति भानु सा था।

पीती कभी परम-मुग्ध बनी सुधा थी।

होती कभी चकित थी चतुरा-चकोरी॥94॥


ले पुष्प-सौरभ तथा पय-सीकरों को।

थी मन्द-मन्द बहती पवनाति प्यारी।

जो थी मनोरम अतीव-प्रफुल्ल-कारी।

हो सिक्त सुन्दर सुधाकर की सुधा से॥95॥


चन्द्रोज्ज्वला रजत-पत्र-वती मनोज्ञा।

शान्ता नितान्त-सरसा सु-मयूख सिक्ता।

शुभ्रांगिनी-सु-पवना सुजला सु-कूला।

सत्पुष्पसौरभवती वन-मेदिनी थी॥96॥


ऐसी अलौकिक अपूर्व वसुंधरा में।

ऐसे मनोरम-अलंकृत-काल को पा।

वंशी अचानक बजी अति ही रसीली।

आनन्द-कन्द ब्रज-गोप-गणाग्रणी की॥97॥


भावाश्रयी मुरलिका स्वर मुग्ध-कारी।

आदौ हुआ मरुत साथ दिगन्त-व्यापी।

पीछे पड़ा श्रवण में बहु-भावकों के।

पीयूष के प्रमुद-वर्ध्दक-बिन्दुओं सा॥98॥


पूरी विमोहित हुईं यदि गोपिकायें।

तो गोप-वृन्द अति-मुग्ध हुए स्वरों से।

फैलीं विनोद-लहरें ब्रज-मेदिनी में।

आनन्द-अंकुर उगा उर में जनों के॥99॥


वंशी-निनाद सुन त्याग निकेतनों को।

दौड़ी अपार जनताति उमंगिता हो।

गोपी-समेत बहु गोप तथांगनायें।

आईं विहार-रुचि से वन-मेदिनी में॥100॥


उत्साहिता विलसिता बहु-मुग्ध-भूता।

आई विलोक जनता अनुराग-मग्ना।

की श्याम ने रुचिर-क्रीड़न की व्यवस्था।

कान्तार में पुलिन पै तपनांगजा के॥101॥


हो हो विभक्त बहुश: दल में सबों ने।

प्रारंभ की विपिन में कमनीय-क्रीड़ा।

बाजे बजा अति-मनोहर-कण्ठ से गा।

उन्मत्त-प्राय बन चित्त-प्रमत्त से॥102॥


मंजीर नूपुर मनोहर-किंकिणी की।

फैली मनोज्ञ-ध्वनि मंजुल वाद्य की सी।

छेड़ी गई फिर स-मोद गई बजाई।

अत्यन्त कान्त कर से कमनीय-वीणा॥103॥


थापें मृदंग पर जो पड़ती सधी थीं।

वे थीं स-जीव स्वर-सप्तक को बनाती।

माधुर्य-सार बहु-कौशल से मिला के।

थीं नाद को श्रुति मनोहरता सिखाती॥104॥


मीठे-मनोरम-स्वरांकित वेणु नाना।

हो के निनादित विनोदित थे बनाते।

थी सर्व में अधिक-मंजुल-मुग्धकारी।

वंशी महा-'मधुर केशव कौशली की॥105॥


हो-हो सुवादित मुकुन्द सदंगुली से।

कान्तार में मुरलिका जब गूँजती थी।

तो पत्र-पत्र पर था कल-नृत्य होता।

रागांगना-विधु-मुखी चपलांगिनी का॥106॥


भू-व्योम-व्यापित कलाधार की सुधा में।

न्यारी-सुधा मिलित हो मुरली-स्वरों की।

धारा अपूर्व रस की महि में बहा के।

सर्वत्र थी अति-अलौकिकता लसाती॥107॥


उत्फुल्ल थे विटप-वृन्द विशेष होते।

माधुर्य था विकच, पुष्प-समूह पाता।

होती विकाश-मय मंजुल बेलियाँ थीं।

लालित्य-धाम बनती नवला लता थीं॥108॥


क्रीड़ा-मयी ध्वनि-मयी कल-ज्योतिवाली।

धारा अश्वेत सरि की अति तद्गता थी।

थी नाचती उमगती अनुरक्त होती।

उल्लासिता विहसिताति प्रफुल्लिता थी॥109॥


पाई अपूर्व-स्थिरता मृदु-वायु ने थी।

मानो अचंचल विमोहित हो बनी थी।

वंशी मनोज्ञ-स्वर से बहु-मोदिता हो।

माधुर्य-साथ हँसती सित-चन्द्रिका थी॥110॥


सत्कण्ठ साथ नर-नारि-समूह-गाना।

उत्कण्ठ था न किसको महि में बनाता।

तानें उमंगित-करी कल-कण्ठ जाता।

तंत्री रहीं जन-उरस्थल की बजाती॥111॥


ले वायु कण्ठ-स्वर, वेणु-निनाद-न्यारा।

प्यारी मृदंग-ध्वनि, मंजुल बीन-मीड़ें।

सामोद घूम बहु-पान्थ खगों मृगों को।

थीं मत्तप्राय नर-किन्नर को बनाती॥112॥


हीरा समान बहु-स्वर्ण-विभूषणों में।

नाना विहंग-रव में पिक-काकली सी।

होती नहीं मिलित थीं अति थीं निराली।

नाना-सुवाद्य-स्वन में हरि-वेणु-तानें॥113॥


ज्यों-ज्यों हुई अधिकता कल-वादिता की।

ज्यों-ज्यों रही सरसता अभिवृध्दि पाती।

त्यों-त्यों कला विवशता सु-विमुग्धता की।

होती गई समुदिता उर में सबों के॥114॥


गोपी समेत अतएव समस्त-ग्वाले।

भूले स्व-गात-सुधि हो मुरली-रसार्द्र।

गाना रुका सकल-वाद्य रुके स-वीणा।

वंशी-विचित्र-स्वर केवल गूँजता था।115॥


होती प्रतीति उर में उस काल यों थी।

है मंत्र साथ मुरली अभिमंत्रिता सी।

उन्माद-मोहन-वशीकरणादिकों के।

हैं मंजु-धाम उसके ऋजु-रंध्र-सातों॥116॥


पुत्र-प्रिया-सहित मंजुल-राग गा-गा।

ला-ला स्वरूप उनका जन-नेत्र-आगे।

ले-ले अनेक उर-वेधक-चारु-तानें।

कीं श्याम ने परम-मुग्धकरी क्रियायें॥117॥


पीछे अचानक रुकीं वर-वेणु तानें।

चावों समेत सबकी सुधि लौट आई।

आनंद-नादमय कंठ-समूह-द्वारा।

हो-हो पड़ीं ध्वनित बार कई दिशाएँ॥118॥


माधो विलोक सबको मुद-मत्त बोले।

देखो छटा-विपिन की कल-कौमुदी में।

आना करो सफल कानन में गृहों से।

शोभामयी-प्रकृति की गरिमा विलोको॥119॥


बीसों विचित्र-दल केवल नारि का था।

यों ही अनेक दल केवल थे नरों के।

नारी तथा नर मिले दल थे सहस्रों।

उत्कण्ठ हो सब उठे सुन श्याम-बातें॥120॥


सानन्द सर्व-दल कानन-मध्य फैला।

होने लगा सुखित दृश्य विलोक नाना।

देने लगा उर कभी नवला-लता को।

गाने लगा कलित-कीर्ति कभी कला की॥121॥


आभा-अलौकिक दिखा निज-वल्लभा को।

पीछे कला-कर-मुखी कहता उसे था।

तो भी तिरस्कृत हुए छवि-गर्विता से।

होता प्रफुल्ल तम था दल-भावुकों का॥122॥


जा कूल स्वच्छ-सर के नलिनी दलों में।

आबध्द देख दृग से अलि-दारु-वेधी।

उत्फुल्ल हो समझता अवधरता था।

उद्दाम-प्रेम-महिमा दल-प्रेमिकों का॥123॥


विच्छिन्न हो स्व-दल से बहु-गोपिकायें।

स्वच्छन्द थीं विचरती रुचिर-स्थलों में।

या बैठ चन्द्र-कर-धौत-धरातलों में।

वे थीं स-मोद करती मधु-सिक्त बातें॥124॥


कोई प्रफुल्ल-लतिका कर से हिला के।

वर्षा-प्रसून चय की कर मुग्ध होता।

कोई स-पल्लव स-पुष्प मनोज्ञ-शाखा।

था प्रेम साथ रखता कर में प्रिया के॥125॥


आ मंद-मंद मन-मोहन मण्डली में।

बातें बड़ी-सरस थे सबको सुनाते।

हो भाव-मत्त-स्वर में मृदुता मिला के।

या थे महा-मधु-मयी-मुरली बजाते॥126॥


आलोक-उज्ज्वल दिखा गिरि-शृंग-माला।

थे यों मुकुन्द कहते छवि-दर्शकों से।

देखो गिरीन्द्र-शिर पै महती-प्रभा का।

है चन्द्र-कान्त-मणि-मण्डित-क्रीट कैसा॥127॥


धारा-मयी अमल श्यामल-अर्कजा में।

प्राय: स-तारक विलोक मयंक-छाया।

थे सोचते खचित-रत्न असेत शाटी।

है पैन्ह ली प्रमुदिता वन-भू-वधू ने॥128॥


ज्योतिर्मयी-विकसिता-हसिता लता को।

लालित्य साथ लपटी तरु से दिखा के।

थे भाखते पति-रता-अवलम्बिता का।

कैसा प्रमोदमय जीवन है दिखाता॥129॥


आलोक से लसित पादप-वृन्द नीचे।

छाये हुए तिमिर को कर से दिखा के।

थे यों मुकुन्द कहते मलिनान्तरों का।

है बाह्य रूप बहु-उज्ज्वल दृष्टि आता॥130॥


ऐसे मनोरम-प्रभामय-काल में भी।

म्लाना नितान्त अवलोक सरोजिनी को।

थे यों ब्रजेन्दु कहते कुल-कामिनी को।

स्वामी बिना सब तमोमय है दिखाता॥131॥


फूले हुए कुमुद देख सरोवरों में।

माधो सु-उक्ति यह थे सबको सुनाते।

उत्कर्ष देख निज अंक-पले-शशी का।

है वारि-राशि कुमुदों मिष हृष्ट होता॥132॥


फैली विलोक सब ओर मयंक-आभा।

आनन्द साथ कहते यह थे बिहारी।

है कीर्ति, भू ककुभ में अति-कान्त छाई।

प्रत्येक धूलि-कणरंजन-कारिणी की॥133॥


फूलों दलों पर विराजित ओस-बूँदें।

जो श्याम को दमकती द्युति से दिखातीं।

तो वे समोद कहते वन-देवियों ने।

की है कला पर निछावर-मंजु-मुक्ता॥134॥


आपाद-मस्तक खिले कमनीय पौधो।

जो देखते मुदित होकर तो बताते।

होके सु-रंजित सुधा-निधि की कला से।

फूले नहीं नवल-पादप हैं समाते॥135॥


यों थे कलाकर दिखा कहते बिहारी।

है स्वर्ण-मेरु यह मंजुलता-धारा का।

है कल्प-पादप मनोहरताटवी का।

आनन्द-अंबुधि महामणि है मृगांक॥136॥


है ज्योति-आकर पयोनिधि है सुधा का।

शोभा-निकेत प्रिय वल्लभ है निशा का।

है भाल का प्रकृति के अभिराम भूषा।

सर्वस्व है परम-रूपवती कला का॥137॥


जैसी मनोहर हुई यह यामिनी थी।

वैसी कभी न जन-लोचन ने विलोकी।

जैसी बही रससरी इस शर्वरी में।

वैसी कभी न ब्रज-भूतल में बही थी॥138॥


जैसी बजी 'मधुर-बीन मृदंग-वंशी।

जैसा हुआ रुचिर नृत्य विचित्र गाना।

जैसा बँधा इस महा-निशि में समाँ था।

होगी न कोटि मुख से उसकी प्रशंसा॥139॥


न्यारी छटा वदन की जिसने विलोकी।

वंशी-निनाद मन दे जिसने सुना है।

देखा विहार जिसने इस यामिनी में।

कैसे मुकुन्द उसके उर से कढ़ेंगे॥140॥


हो के विभिन्न, रवि का कर, ताप त्यागे।

देवे मयंक-कर को तज माधुरी भी।

तो भी नहीं ब्रज-धरा-जन के उरों से।

उत्फुल्ल-मुर्ति मनमोहन की कढ़ेगी॥141॥


धारा वही जल वही यमुना वही है।

है कुंज-वैभव वही वन-भू वही है।

हैं पुष्प-पल्लव वही ब्रज भी वही है।

ए हैं वही न घनश्याम बिना जनाते॥142॥


कोई दुखी-जन विलोक पसीजता है।

कोई विषाद-वश रो पड़ता दिखाया।

कोई प्रबोध कर, 'है' परितोष देता।

है किन्तु सत्य हित-कारक व्यक्ति कोई॥143॥


सच्चे हितू तुम बनो ब्रज की धारा के।

ऊधो यही विनय है मुझ सेविका की।

कोई दुखी न ब्रज के जन-तुल्य होगा।

ए हैं अनाथ-सम भूरि-कृपाधिकारी॥144॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


बातों ही में दिन गत हुआ किन्तु गोपी न ऊबीं।

वैसे ही थीं कथन करती वे व्यथायें स्वकीया।

पीछे आई पुलिन पर जो सैकड़ों गोपिकायें।

वे कष्टों को अधिकतर हो उत्सुका थीं सुनाती॥145॥


वंशस्थ छन्द


परन्तु संध्या अवलोक आगता।

मुकुन्द के बुध्दि-निधन बंधु ने।

समस्त गोपी-जन को प्रबोध दे।

समाप्त आलोचित-वृत्त को किया॥146॥


द्रुतविलम्बित छन्द


तदुपरान्त अतीव सराहना।

कर अलौकिक-पावन प्रेम की।

ब्रज-वधू-जन की कर सान्त्वना।

ब्रज-विभूषण-बंधु बिदा हुए॥147॥



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