Monday, July 11, 2022

महाकाव्य | प्रिय प्रवास (आठवां सर्ग ) | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ | Mahakavya | Priya pravas / Athwa Sarg | Ayodhya Singh Upadhyay 'Hari Oudh'


 मन्दाक्रान्ता छन्द


यात्रा पूरी स-दुख करके गोप जो गेह आये।

सारी-बातें प्रकट ब्रज में कष्ट से कीं उन्होंने।

जो आने की विवि दिवस में बात थी खोजियों ने,

धीरे-धीरे सकल उसका भेद भी जान पाया॥1॥


आती बेला वदन सबने नन्द का था विलोका।

ऑंखों में भी सतत उसकी म्लानता घूमती थी।

सारी-बातें श्रवणगत थीं हो चुकीं आगतों से।

कैसे कोई न फिर असली बात को जान जाता॥2॥


दोनों प्यारे न अब ब्रज में आ सकेंगे कभी भी।

ऑंखें होंगी न अब सफला देख के कान्ति प्यारी।

कानों में भी न अब मुरली की सु-तानें पड़ेंगी।

प्राय: चर्चा प्रति सदन में आज होती यही थी॥3॥


गो गोपी के सकल ब्रज के श्याम थे प्राणप्यारे।

प्यारी आशा सकल पुर की लग्न भी थी उन्हीं में।

चावों से था वदन उनका देखता ग्राम सारा।

क्यों हो जाता न उर-शतधा आज खोके उन्हीं को॥4॥


बैठे नाना जगह कहते लोग थे वृत्त नाना।

आवेगों का सकल पुर में स्रोत था वृध्दि पाता।

देखो कैसे करुण-स्वर से एक आभीर बैठा।

लोगों को है सकल अपनी वेदनायें सुनाता॥5॥


द्रुतविलम्बित छन्द


जब हुआ ब्रजजीवन-जन्म था।

ब्रज प्रफुल्लित था कितना हुआ।

उमगती कितनी कृति-मूर्ति थीं।

पुलकते कितने नृप नंद थे॥6॥


विपुल सुन्दर-बन्दनवार से।

सकल द्वार बने अभिराम थे।

विहँसते ब्रज-सद्म-समूह के।

वदन में दसनावलि थी लसी॥7॥


नव रसाल-सुपल्लव के बने।

अजिर में वर-तोरण थे बँधे।

विपुल-जीह विभूषित था हुआ।

वह मनो रस-लेहन के लिए॥8॥


गृह गली मग मंदिर चौरहों।

तरुवरों पर थी लसती ध्वजा।

समुद सूचित थी करती मनो।

वह कथा ब्रज की सुरलोक को॥9॥


विपणि हो वर-वस्तु विभूषिता।

मणि मयी अलका सम थी लसी।

पर-वितान विमंडित ग्राम की।

सु-छवि थी अमरावति-रंजिनी॥10॥


सजल कुंभ सुशोभित द्वार थे।

सुमन-संकुल थीं सब वीथियाँ।

अति-सु-चर्चित थे सब चौरहे।

रस प्रवाहित सा सब ठौर था॥11॥


सकल गोधन सज्जित था हुआ।

वसन भूषण औ शिखिपुच्छ से।

विविध-भाँति अलंकृत थी हुई।

विपुल-ग्वाल मनोरम मण्डली॥12॥


'मधुर मंजुल मंगल गान की।

मच गई ब्रज में बहु धूम थी।

सरस औ अति ही मधुसिक्त थी।

पुलकिता नवला कलकंठता॥13॥


सदन उत्सव की कमनीयता।

विपुलता बहु याचक-वृन्द की।

प्रचुरता धन रत्न प्रदान की।

अति मनोरम औ रमणीय थी॥14॥


विविध भूषण वस्त्र विभूषिता।

बहु विनोदित ग्राम-वधूटियाँ।

विहँसती, नृप गेह-पधारती।

सुखद थीं कितना जनवृन्द को॥15॥


ध्वनित भूषण की मधु मानता।

अति अलौकिकता कलतान की।

'मधुर वादन वाद्य समूह का।

हृदय के कितना अनुकूल था॥16॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


या मैंने था दिवस अति-ही-दिव्य ऐसा विलोका।

या ऑंखों से मलिन इतना देखता वार मैं हूँ।

जो ऐसा ही दिवस मुझको अन्त में था दिखाना।

तो क्यों तूने निठुर विधना! वार वैसा दिखाया॥17॥


हा! क्यों देखा मुदित उतना नन्द-नन्दांगना को।

जो दोनों को दुखित इतना आज मैं देखता हूँ।

वैसा फूला सुखित ब्रज क्यों म्लान है नित्य होता।

हा! क्यों ऐसी दुखमय दशा देखने को बचा मैं॥18॥


या देखा था अनुपम सजे द्वार औ प्रांगणों को।

आवासों को विपणि सबको मार्ग को मंदिरों को।

या रोते से विषम जड़ता मग्न से आज ए हैं।

देखा जाता अटल जिनमें राज्य मालिन्य का है॥19॥


मैंने हो हो सुखित जिनको सज्जिता था बिलोका।

क्यों वे गायें अहह! दुख के सिंधु में मज्जिता हैं।

जो ग्वाले थे मुदित अति ही मग्न आमोद में हो।

हा! आहों से मथित अब मैं क्यों उन्हें देखता हूँ॥20॥


भोलीभाली बहु विधा सजी वस्त्र आभूषणों से।

गानेवाली 'मधुर स्वर से सुन्दरी बालिकायें।

जो प्राणी के परम मुद की मूर्तियाँ थीं उन्हें क्यों।

खिन्ना-दीना मलिन-वसना देखने को बचा मैं॥21॥


हा! वाद्यों की 'मधुरध्वनि भी धूल में जा मिली क्या।

हा! कीला है किस कुटिल ने कामिनी-कण्ठ प्यारा।

सारी शोभा सकल ब्रज की लूटता कौन क्यों है?।

हा! हा! मेरे हृदय पर यों साँप क्यों लोटता है॥22॥


आगे आओ सहृदय जनों, वृध्द का संग छोड़ो।

देखो बैठी सदन कहती क्या कई नारियाँ हैं।

रोते-रोते अधिकतर की लाल ऑंखें हुई हैं।

जो ऊबी है कथन पहले हूँ उसी का सुनाता॥23॥


द्रुतविलम्बित छन्द


जब रहे ब्रजचन्द छ मास के।

दसन दो मुख में जब थे लसे।

तब पड़े कुसुमोपम तल्प पै।

वह उछाल रहे पद कंज थे॥24॥


महरि पास खड़ी इस तल्प के।

छवि अनूपम थीं अवलोकती।

अति मनोहर कोमल कंठ से।

कलित गान कभी करती रहीं॥25॥


जब कभी जननी मुख चूमतीं।

कल कथा कहतीं चुमकारतीं।

उमँगना हँसना उस काल का।

अति अलौकिक था ब्रजचन्द का॥26॥


कुछ खुले मुख की सुषमा-मयी।

यह हँसी जननी-मन-रंजिनी।

लसित यों मुखमण्डल पै रही।

विकच पंकज ऊपर ज्यों कला॥27॥


दसन दो हँसते मुख मंजु में।

दरसते अति ही कमनीय थे।

नवल कोमल पंकज कोष में।

विलसते विवि मौक्तिक हों यथा॥28॥


जननि के अति वत्सलता पगे।

ललकते विवि लोचन के लिए।

दसन थे रस के युग बीज से।

सरस धार सुधा सम थी हँसी॥29॥


जब सुव्यंजक भाव विचित्र के।

निकलते मुख-अस्फुट शब्द थे।

तब कढ़े अधरांबुधि से कई।

जननि को मिलते वर रत्न थे॥30॥


अधर सांध्य सु-व्योम समान थे।

दसन थे युगतारक से लगे।

मृदु हँसी वर ज्योति समान थी।

जननि मानस की अभिनन्दिनी॥31॥


विमल चन्द विनिन्दक माधुरी।

विकच वारिज की कमनीयता।

वदन में जननी बलवीर के।

निरखती बहु विश्व विभूति थीं॥32॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


मैंने ऑंखों यह सब महा मोद नन्दांगना का।

देखा है औ सहस मुख से भाग को है सराहा।

छा जाती थी वदन पर जो हर्ष की कान्त लाली।

सो ऑंखों को अकथ रस से सिंचिता थी बनाती॥33॥


हा! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिताको।

जो पाती हूँ मलिन वदना शोक में मज्जिता सी।

तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता।

दावा सी है दहक उठती गात-रोमावली में॥34॥


जो प्यारे का वदन लख के स्वर्ग-सम्पत्ति पाती।

लूटे लेती सकल निधियाँ श्यामली-मूर्ति देखे।

हा! सो सारे अवनितल में देखती हैं अंधेरा।

थोड़ी आशा झलक जिसमें है नहीं दृष्टि आती॥35॥


हा! भद्रे! हा! सरलहृदये! हा! सुशीला यशोदे।

हा! सद्वृत्तो! सुरद्विजरते! हा! सदाचार-रूपे।

हा! शान्ते! हा परम-सुव्रते! है महा कष्ट देता।

तेरा होना नियति कर से विश्व में वंचिता यों॥36॥


बोली बाला अपर विधि की चाल ही है निराली।

ऐसी ही है मम हृदय में वेदना आज होती।

मैं भी बीती भगिनि, अपनी आह! देती सुना दूँ।

संतप्ता ने फिर बिलख से बात आरंभ यों की॥37॥


द्रुतविलम्बित छन्द


जननि-मानस पुण्य-पयोधि में।

लहर एक उठी सुख-मूल थी।

बहु सु-वासर था ब्रज के लिए।

जब चले घुटनों ब्रज-चन्द थे॥38॥


उमगते जननी मुख देखते।

किलकते हँसते जब लाड़िले।

अजिर में घुटनों चलते रहे।

बितरते तब भूरि विनोद थे॥39॥


विमल व्योम-विराजित चंद्रमा।

सदन शोभित दीपक की शिखा।

जननि अंक विभूषण के लिए।

परम कौतुक की प्रिय वस्तु थी॥40॥


नयन रंजन अंजन मंजु सी।

छविमयी रज श्यामल गात की।

जननि थीं कर से जब पोंछतीं।

उलहती तब वेलि विनोद की॥41॥


जब कभी कुछ लेकर पाणि में।

वदन में ब्रजनन्दन डालते।

चकित-लोचन से अथवा कभी।

निरखते जब वस्तु विशेष को॥42॥


प्रकृति के नख थे तब खोलते।

विविध ज्ञान मनोहर ग्रन्थि को।

दमकती तब थी द्विगुणी शिखा।

महरि मानस मंजु प्रदीप की॥43॥


कुछ दिनों उपरान्त ब्रजेश के।

चरण भूपर भी पड़ने लगे।

नवल नूपुर औ कटिकिंकिणी।

ध्वनित हो उठने गृह में लगी॥44॥


ठुमुकते गिरते पड़ते हुए।

जननि के कर की उँगली गहे।

सदन में चलते जब श्याम थे।

उमड़ता तब हर्ष-पयोधि था॥45॥


क्वणित हो करके कटिकिंकिणी।

विदित थी करती इस बात को।

चकितकारक पण्डित मण्डली।

परम अद्भुत बालक है यही॥46॥


कलित नूपुर की कल-वादिता।

जगत को यह थी जतला रही।

कब भला न अजीब सजीवता।

परस के पद पंकज पा सके॥47॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


ऐसा प्यारा विधु छवि जयी आलयों का उँजाला।

शोभावाला अतुल-सुख का धाम माधुर्यशाली।

जो पाया था सुअन सुभगा नन्द-अर्धांगिनी ने।

तो यत्नों के बल न उनका कौन था पुण्य जागा॥48॥


देखा होगा जिस सु-तिय ने नन्द के गेह जाके।

प्यारी लीला जलद-तन की मोद नन्दांगना का।

कैसे पाते विशद फल हैं पुण्यकारी मही में।

जाना होगा इस विषय को तद्गता हो उसी ने॥49॥


प्राय: जाके कुँवर-छवि मैं मत्त हो देखती थी।

मदोन्मत्ता महिषि-मुख को देख थी स्वर्ग छूती।

दौड़े माँ के निकट जब थे श्याम उत्फुल्ल जाते।

तो वे भी थीं ललक उनको अंक ले मुग्ध होती॥50॥


मैं देवी की इस अनुपमा मुग्धता में रसों की।

नाना धारें समुद लख थी सिक्त होती सुधा से।

ऑंखों में है भगिनि, अब भी दृश्य न्यारा समाया।

हा! भूली हूँ न अब तक मैं आत्म-उत्फुल्लता को॥51॥


जाना जाता सखि यह नहीं कौन सा पाप जागा।

सोने ऐसा सुख-सदन जो आज है ध्वंस होता।

अंगों में जो परम सुभगा थी न फूली समाती।

हा! पाती हूँ विरह-दव में दग्ध होती उसी को॥52॥


हा! क्या सारे दिवस सुख के हो गये स्वर्गवासी।

या डूबे जा सलिल-निधि के गर्भ में वे दुखी हो।

आके छाई महिषि-मुख में म्लानता है कहाँ की।

हा! देखूँगी न अब उसको क्या खिले पद्म सा मैं॥53॥


सारी बातें दुखित बनिता की भरी दु:ख गाथा।

धीरे-धीरे श्रवण करके एक बाला प्रवीणा।

हो हो खिन्ना विपुल पहले धीरता-त्याग रोई।

पीछे आहें, भर विकल हो यों व्यथा-साथ बोली॥54॥


द्रुतविलम्बित छन्द


निकल के निज सुन्दर सद्म से।

जब लगे ब्रज में हरि घूमने।

जब लगी करने अनुरंजिता।

स्वपथ को पद पंकज लालिमा॥55॥


तब हुई मुदिता शिशु-मण्डली।

पुर-वधू सुखिता बहु हर्षिता।

विविध कौतुक और विनोद की।

विपुलता ब्रज-मंडल में हुई॥56॥


पहुँचते जब थे गृह में किसी।

ब्रज-लला हँसते मृदु बोलते।

ग्रहण थीं करती अति-चाव से।

तब उन्हें सब सद्म-निवासिनी॥57॥


'मधुर भाषण से गृह-बालिका।

अति समादर थी करती सदा।

सरस माखन औ दधि दान से।

मुदित थी करती गृह-स्वामिनी॥58॥


कमल लोचन भी कल उक्ति से।

सकल को करते अति मुग्ध थे।

कलित क्रीड़न नूपुर नाद से।

भवन भी बनता अति भव्य था॥59॥


स-बलराम स-बालक मण्डली।

विहरते बहु मंदिर में रहे।

विचरते हरि थे अकले कभी।

रुचिर वस्त्र विभूषण से सजे॥60॥


मन्दाक्रान्ता छन्द


ऐसे सारी ब्रज-अवनि के एक ही लाडिले को।

छीना कैसे किस कुटिल ने क्यों कहाँ कौन बेला।

हा! क्यों घोला गरल उसने स्निग्धकारी रसों में।

कैसे छींटा सरस कुसुमोद्यान में कंटकों को॥61॥


लीलाकारी, ललित-गलियों, लोभनीयालयों में।

क्रीड़ाकारी कलित कितने केलिवाले थलों में।

कैसे भूला ब्रज-अवनि को कूल को भानुजा के।

क्या थोड़ा भी हृदय मलता लाडिले का न होगा॥62॥


क्या देखूँगी न अब कढ़ता इंदु को आलयों में।

क्या फूलेगा न अब गृह में पद्म सौंदर्य्यशाली।

मेरे खोटे दिवस अब क्या मुग्धकारी न होंगे।

क्या प्यारे का अब न मुखड़ा मंदिरों में दिखेगा॥63॥


हाथों में ले 'मधुर दधि को दीर्घ उत्कण्ठता से।

घंटों बैठी कुँवर-पथ जो आज भी देखती है।

हा! क्या ऐसी सरल-हृदया सद्म की स्वामिनी की।

वांछा होगी न अब सफला श्याम को देख ऑंखें॥64॥


भोली भाली सुख सदन की सुन्दरी बालिकायें।

जो प्यारे के कल कथन की आज भी उत्सुका हैं।

क्रीड़ाकांक्षी सकल शिशु जो आज भी हैं स-आशा।

हा! धाता, क्या न अब उनकी कामना सिध्द होगी॥65॥


प्रात: वेला यक दिन गई नन्द के सद्म मैं थी।

बैठी लीला महरि अपने लाल की देखती थीं।

न्यारी क्रीड़ा समुद करके श्याम थे मोद देते।

होठों में भी विलसित सिता सी हँसी सोहती थी॥66॥


ज्योंही ऑंखें मुझ पर पड़ीं प्यार के साथ बोलीं।

देखो कैसा सँभल चलता लाडिला है तुम्हारा।

क्रीड़ा में है निपुण कितना है कलावान कैसा।

पाके ऐसा वर सुअन मैं भाग्यमाना हुई हूँ॥67॥


होवेगा सो सुदिन जब मैं ऑंख से देख लूँगी।

पूरी होतीं सकल अपने चित्त की कामनायें।

ब्याहूँगी मैं जब सुअन को औ मिलेगी वधूटी।

तो जानूँगी अमरपुर की सिध्दि है सद्म आई॥68॥


ऐसी बातें उमग कहती प्यार से थीं यशोदा।

होता जाता हृदय उनका उत्स आनंद का था।

हा! ऐसे ही हृदय-तल में शोक है आज छाया।

रोऊँ मैं या यह सब कहूँ या मरूँ क्या करूँ मैं॥69॥


यों ही बातें विविध कह के कष्ट के साथ रो के।

आवेगों से व्यथित बन के दु:ख से दग्ध हो के।

सारे प्राणी ब्रज-अवनि के दर्शनाशा सहारे।

प्यारे से हो पृथक अपने वार को थे बिताते॥70॥


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