Sunday, July 24, 2022

लेख | उपन्यास-रचना | प्रेमचंद | Lekh | Upanyas Rachna | Premchand



 भारत-निवासियों ने यूरोपियन साहित्य के किसी अंग को इतना ग्रहण नहीं किया, जितना उपन्यास को। यहाँ तक कि उपन्यास अब हमारे साहित्य का एक अविच्छेद्य अंग हो गया है। उपन्यास का जन्म चौदहवीं-पंद्रहवीं शताब्दी के लगभग हुआ। शेक्सपियर ने अपने कई नाटकों की रचना इटालियन उपन्यासों के ही आधार पर की है। यह शैली इतनी प्रिय हुई कि आज समस्त संसार में साहित्य पर उपन्यास ही का आधिपत्य है। गत पचास वर्षों में भारत की साहित्यिक शक्ति का जितना उपयोग उपन्यास-रचना में हुआ उतना शायद साहित्य के किसी भाग में नहीं हुआ। बंगला ने बंकिम पैदा किया, गुजराती के गोविंददास, मराठी ने आप्टे, उर्दू ने रतननाथ और शरर, जो संसार के किसी उपन्यासकार से घटकर नहीं है। हिंदी ने पहले अद्भुत रस के उपन्यासकार पैदा किए पर अब धीरे-धीरे उसमें चरित्र-चित्रण, मनोभाव और जासूसी के उपन्यास भी प्रकाशित होने लगे हैं, और आशा है कि वह थोड़े दिनों में इस विषय में किसी प्रांतिक-भाषा से दबकर नहीं रहेगी। वास्तव में उपन्यास-रचना को सरल साहित्य (लाइट लिटरेचर) कहा जाता है, इसलिए कि इससे पाठकों का मनोरंजन होता है। पर उपन्यासकार को उपन्यास लिखने में उतना ही दिमाग लगाना पड़ता है, जितना किसी दार्शनिक को दर्शनशास्त्र के ग्रंथ लिखने में। उसे सबसे पहले उपन्यास का विषय खोजना पड़ता है। क्या लिखे? भौतिक-वैभव की असारता दिखावे, या मनोभावों का पारस्परिक संग्राम? कोई गुप्त रहस्य चुने या किसी ऐतिहासिक घटना का चित्रण करे? लेखक अपनी रुचि और प्रकृति के अनुकूल ही इनमें से कोई विषय पसंद कर लेता है। विषय निर्धारित हो जाने के पश्चात् उसे प्लॉट की चिंता होती है। वह सोता या जागता, चलता हो या बैठा, इसी चिंता में डूबा रहता है। कभी-कभी उसे सोच-विचार में महीना, बरसों लग जाते हैं। इस चिंता में लेखक जितना ही व्यस्त होगा उतनी ही उत्तम उसकी रचना होगी। 


उपन्यास की बुनियाद पड़ गई। अब हमें अपने भवन खड़ा करने के लिए मसाले की आवश्यकता होती है। उसके मुख्य साधन ये हैं : 


(1) अवलोकन (2) अनुभव (3) स्वाध्याय (4) अंतर्दृष्टि (5) जिज्ञासा (6) विचार-आकलन। 


कहते हैं, अमरीका के सुविख्यात साहित्यकार मार्क ट्वेन ने इस बात का अनुभव प्राप्त करने के लिए कि बिना टिकट रेल-ट्राम में सफर करने वालों के चित्त की क्या दशा होती है, कई बार बिना टिकट सफर किया। ऐसे ही एक सज्जन ने पेरिस की चकलों की तस्वीर खींचने के लिए महीनों शोहदों और गुंडों की संगति की। एक तीसरे महाशय ने चोर के हृदय के भावों को जानने के लिए स्वयं सेंध तक मारी। इसका कारण यह जान पड़ता है कि पाश्चात्य देश के लेखक कल्पना-शून्य होते हैं। उपन्यासकार को ऐसी दशाओं और मनोभावों के वर्णन करने में अपनी कल्पना-शक्ति ही सबसे बड़ी मददगार है। ऐसा बिरला ही कोई प्राणी होगा जिसने बचपन में पैसे या मिठाई न चुराई हो, या चोरी से मेला या दंगल देखने न गया हो, अथवा पाठशाला में अध्यापक से बहाने न किए हों। यदि कल्पना-शक्ति तीव्र हो तो इतने अनुभव को चोरों और डकैतों के मनोभाव चित्रित करने में कृतकार्य कर सकती है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि कृत्रिम अवस्थाओं में जो अनुभव प्राप्त होते हैं वे स्वाभाविक नहीं हो सकते। फिर भी उपन्यास की सफलता के लिए अनुभव सर्वप्रधान मंत्र है। उपन्यास-लेखक को यथासाध्य नए-नए दृश्यों को देखने और नए-नए अनुभवों को प्राप्त करने का कोई अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए। 


प्राणियों के मनोभावों को व्यक्त करने के लिए दूसरा साधन अपने भावों को टटोलना है। सर फिलिप सिडनी का कहना था कि “अपनी निगाह अपने हृदय में डालो और जो कुछ देखो, लिखो।” लेखक को अपनी कल्पना के द्वारा जितनी ही भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में रख सकता है, उतना ही सफल-मनोरथ होता है। तुलसीदास ने पुत्र-शोक कितनी सफलता से दिखाया है। विदित ही है कि उन्हें इस शोक का प्रत्यक्ष अनुभव न था। अपने को शोकातुर वियोगी पिता के स्थान में रखकर ही उन्होंने उन भावों का अनुभव किया होगा। 


स्वाध्याय से भी उपन्यासकार को बड़ी मदद मिलती है। एक ऋषि का कथन है कि स्वाध्याय मनुष्य को संपूर्ण बना देता है। कुछ लोगों का कहना है कि उपन्यास लेखक को पढ़ना न चाहिए, इससे उसकी मौलिकता मारी जाती है। पर स्वर्गीय डी. एल. राय ने कहा है “जिस लेखक की मौलिकता पुस्तकावलोकन से मारी जाती है, उसमें मौलिकता है ही नहीं।” स्वाध्याय का उद्देश्य यह न होना चाहिए कि किसी कुशल लेखक के भाव और विचार उड़ाए जाएँ, बल्कि अपने भावो और विचारों की अन्य लेखकों से तुलना की जाए और उससे अच्छी रचना करने के लिए अपने को प्रोत्साहित किया जाए। अगर हमें किसी लेखक की रचना में ऐसा कोई स्थान दिखाई दे जहाँ उसकी कल्पना शिथिल पड़ गई है, तो हम प्रयत्न करें कि उसी के अनुरूप स्थान पर उससे अच्छा लिख सकें। लेखक को और विशेषकर उपन्यास-लेखक को विविध साहित्य का भली-भाँति अध्ययन किए बिना, कलम न उठाना चाहिए। यह बात नहीं है कि बिना बहुत पढ़े कोई अच्छा उपन्यास नहीं लिख सकता। जिन्हें ईश्वर ने प्रतिभा दी है, उनके लिए बहुत पढ़ना अनिवार्य नहीं है। लेकिन जिस प्रकार बिना व्याकरण पढ़े हुए हम चाहे शुद्ध लिखें, पर अशुद्धियों से बचने के लिए हमारे पास कोई साधन नहीं रहता, उसी प्रकार तुलना और स्वाध्याय से हमें अपनी त्रुटियों का बोध होता है। हमारी बुद्धि विकसित होती है और उन साधनों की झलक मिल जाती है जिनके द्वारा किसी बड़े लेखक ने सफलता प्राप्त की। 


कुछ लोगों को भ्रम है कि अपनी रचनाओं के विषय में किसी से कुछ पूछने या राय लेने से उनका अपमान होता है। पर वास्तव में लेखक को जिज्ञासा की उतनी ही जरुरत है, जितनी कि किसी विद्यार्थी को। फ्रांसिस बेकन के विषय में कहा जाता है कि वह सदैव ऐसे पुरुषों से जिज्ञासा करता रहता था, जो किसी विषय में उससे अधिक ज्ञान रखते थे। कोई आदमी चाहे वह कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो, सब विधाओं का ज्ञाता नहीं हो सकता। उसे अगर किसी से कुछ पूछना पड़े तो संकोच क्यों करे? डी. एल. राय महोदय जब कोई ड्रामा लिखते थे, तो उसे अपने रसिक मित्रों को सुनाते थे, उनकी आलोचना का उत्तर देते थे और जहाँ कहीं कायल हो जाते थे, अपनी रचना में काट-छाँट कर देते थे। कभी उन्हें अध्याय के अध्याय और सीन के सीन बदलने पड़ जाते थे। लेखक को सदैव अपना आदर्श ऊँचा रखना चाहिए। उसके मन में यह धारणा होनी चाहिए कि या तो कुछ लिखूँगा ही नहीं, या लिखूँगा तो कोई अच्छी चीज़ जिससे बढ़कर उसी विषय पर फिर जल्द कोई न लिख सके। 


कभी-कभी ऐसा होता है कि रास्ता चलते-चलते कोई नई बात सूझ जाती है अथवा कोई नया दृश्य आँखों के सामने से गुजर जाता है। लेखक में ऐसा गुण होना चाहिए कि वह ऐसे भावों और दृश्यों को स्मृति-पट पर अंकित कर ले और आवयश्यकता पड़ने पर उनका व्यवहार करे। कुछ लेखकों की आदत होती है कि वे अपने साथ नोटबुक रखते हैं और ऐसी बातें उसमें तुरंत टाँक लेते हैं। जिस लेखक को अपनी स्मरण-शक्ति पर विश्वास न हो उसे अपने साथ नोटबुक अवश्य रखनी चाहिए। डायरी लिखना भी अपने विचारों को लेख-बद्ध करने की आदत डालना है। 


प्लॉट उन घटनाओं को कहते हैं जो उपन्यास के चरित्रों पर घटित हों। लेकिन केवल घटनाओं का वर्णन करने से ही कहानी में मनोरंजकता का गुण पैदा नहीं हो सकता। उन घटनाओं को कल्पना द्वारा ऐसा सजीव बनाना चाहिए कि उनमें वास्तविकता झलकने लगे। एक उपन्यासकार ने लिखा है कि यूक्लेडिस की भाँति हम लोगों को अपनी कथा सामने रख देनी चाहिए और तब तक हल करने में प्रस्तुत हो जाना चाहिए। यूक्लेडिस की विचार-श्रृंखला में कोई ऐसी युक्ति प्रविष्ट नहीं हो सकती, जिसके लिए वहाँ अनिवार्य रूप से स्थान हो। हम भी उसी का उच्चारण करके उच्चकोटि के उपन्यासों की रचना कर सकते हैं। साधारणतः प्लॉट वह कथा है, जो उपन्यास पढ़ने के बाद साधारण पाठक के हृदय-पट पर अंकित हो जाती है। पुराने ढंग के कथाओं में बस प्लॉट ही प्लॉट होता था। उसमें रंग और रोगन की मात्रान रहती थी, इसलिए वह चित्र इतना भड़कीला न होता था। आजकल पाँच सौ पृष्ठों के उपन्यास की कथा दस-पाँच पंक्तियों में ही समाप्त हो जाती है। लेकिन इन्हीं पाँच-दस पंक्तियों के सोचने में उपन्यासकार को जितना मनन और चिंतन करना पड़ता है, उतना सारा उपन्यास लिखने में भी नहीं करना पड़ता। वास्तव में प्लॉट सोच लेने के बाद फिर लिखना बहुत आसान। लेकिन प्लॉट सोचने के साथ ही चरित्रों की कल्पना भी करनी पड़ती है, जिनके द्वारा यह प्लॉट प्रदर्शित किया जाए। 


चार्ल्स डिकेंस के विषय में लिखा गया है कि जब यह किसी नए उपन्यास की कल्पना करते थे, तो महीनों तक अपने कमरे में बंद कर विचार-मग्न पड़े रहते थे। न किसी से मिलते थे, न कहीं सैर करने ही जाते थे। जब दो-तीन महीने के बाद उनके किवाड़ खुलते थे, तो उनकी दशा किसी रोगी से अच्छी न होती थी, मुख पीला, आँखें भीतर को धंसी हुई, शरीर दुर्बल। थैकरे के विषय में लिखा हुआ है कि वह संध्या किसी समय नदी के तट पर बैठकर अपने प्लॉट सोचा करता था। पर प्लॉट को जल्द या देर में कल्पित कर लेना लेखक की बुद्धि-सामर्थ्य पर निर्भर है। जॉर्ज सैंड, फ्रांस की सुविख्यात लेखिका है। उसने सौ से कम उपन्यास नहीं लिखे। पर उसे प्लॉट सोचने में बुद्धि नहीं लड़ानी पड़ती थी। वह क़लम हाथ में लेकर बैठ जाती थी और लिखने के साथ ही प्लॉट भी बनता चला जाता था। सर वाल्टर स्कॉट के बारे में यह मशहूर है कि वह प्लॉट सोचने से मस्तिष्क नहीं लड़ाते थे। कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जिनमें कोई प्लॉट ही नहीं होता। मार्क ट्वेन का ‘इनोसेंट अब्रॉड’ इसी ढंग का उपन्यास है। 


प्लॉटों की कल्पना भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। साधारणतः उसके छः भेद माने गए हैं: 


1. कोई अद्भुत घटना। 


2. कोई गुप्त रहस्य। 


3. मनोभाव चित्रण। 


4. चरित्रों का विश्लेषण और तुलना। 


5. जीवन के अनुभवों को प्रकट करना। 


6. कोई सामाजिक या राजनीतिक सुधार। 


1. अद्भुत : कहानी वही अद्भुत होती है जो प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हो। प्राचीन कथाएँ बहुधा इसी किस्म की होती थीं। ऐसी कहानी का उद्देश्य केवल पाठकों का मनोरंजन है, पढ़ने से कल्पना की वृद्धि होने के कारण बहुधा बालकोपयोगी कहानियों में यह प्रणाली बहुत उपयुक्त समझी जाती है। प्रौढ़ावस्था में ऐसी कहानियों में जी नहीं लगता। बहुधा नैतिक और आचरण-संबंधी उपदेश भी ऐसी कहानियों द्वारा दिए जाते हैं। इंग्लैंड के विख्यात लेखक स्विफ्ट ने ‘गुलिवर की यात्रा' नाम की प्रसिद्ध पुस्तक में समाज पर व्यंग्य किया। वह भी अद्भुत घटनाओं का ही सहारा लेता है। बहुधा दृष्टांतों या ‘एलीगरी' में अद्भुत घटनाओं द्वारा जीवन के गूढ़ तत्त्व हल किए जाते हैं। इंग्लैंड में जॉन बनियान का 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' अद्वितीय ऐलीगरी है। हमारे यहाँ प्राचीन ऋषियों ने बहुधा दृष्टांतों द्वारा ही जन-साधारण को उपदेश दिए हैं। महाभारत, पुराण, उपनिषद् आदि में ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं। वर्तमान समय में तालस्टाय और 'हॉथन ने बहुत ही शिक्षाप्रद और अनूठे दृष्टांत रचे हैं। अतएव अप्राकृतिक घटना-प्रधान उपन्यासों की रचना यदि बहुत सरल है तो उसके साथ ही अत्यंत कठिन भी है। 


2. गुप्त रहस्य : जासूसी के उपन्यास सब इसी श्रेणी में आते हैं। इस प्रकार के उपन्यास लिखने में लेखक को दो बड़ी शंकाओं का सामना करना पड़ता है। संभव है रहस्य आरंभ से ही खुल जाए अथवा लेखक की रहस्योद्घाटना पाठक को संतोषप्रद न हो। भारतवर्ष में पहले ऐसी कहानियों की प्रथा न थी। यूरोप में ऐसी कहानियों को लोग बड़े शौक़ से पढ़ते हैं। इधर कुछ दिनों से पैशाचिक घटनाएँ भी रहस्यों द्वारा प्रकट की जाने लगी हैं। इंग्लैंड में कॉनन डायल इस श्रेणी के उपन्यासकारों में बहुत सिद्धहस्त हैं, फ्रांस में मार्स लिब्लांक और अमरीका में एडगर एलन पो। कॉनन डायल अभी जीवित हैं। और अब अपराधिक विषयों की ओर उनकी अधिक प्रवृत्ति है। जासूसी उपन्यासों में लेखक कोई घटना सोचकर एक कल्पित जासूस को उसके सुलझाने में लगा देता है। ऐसी घटनाओं में सर्वश्रेष्ठ गुण यह है कि उस घटना या रहस्य का खोलना जाहिरा असंभव प्रतीत हो, पर लेखक जब उसे खोल दे तो पाठक को आश्चर्य हो कि मुझे यह बात क्यों न सूझी, यह तो बिल्कुल साधारण बात थी। इसके साथ, पाठक उस रहस्य को किसी दूसरी रीति से खोलने में असमर्थ हो। लेखक का कौशल इस बात में है कि जिस चरित्र को पाठक और लेखक स्वयं दोषी समझते हों वह अंत में निरपराध सिद्ध हो जाए। ऐसे उपन्यास बहुत ही रोचक होते हैं और उनके पढ़ने से बहुत तीव्र बुद्धि होती है। कठिन समस्याओं में दिमाग लड़ाने की शक्ति पैदा होती है। मगर उनका लिखना इतना कठिन है कि अब तक हिंदी में सिवा कॉनन डॉयल या अन्य लेखकों की कहानियों के अनुवाद के सिवा किसी ने स्वतंत्र कल्पना नहीं की। 


3. मनोभावों का चित्रण : ऐसे उपन्यासों में लेखकों का ध्यान घटना-वैचित्र्य की ओर बहुत कम रहता है। वह ऐसी ही घटनाओं की आयोजना करता है जिनमें उसके चरित्रों को अपने मनोभावों के प्रकट करने का अवसर मिले। घटनाएँ कम होती हैं, पात्रों के विचार अधिक। टाल्स्टाय के उपन्यासों में यही गुण प्रधान है। ऐसे उपन्यासों को रचने के लिए आवश्यक है कि लेखक अपने को विभिन्न अवस्थाओं में रख सके। इस प्रकार की कहानियों में लेखक को पाठकों के सामने अनिवार्य रूप से अधिकतर अपना ही हृदय खोलकर रखना पड़ता है। दूसरों के मनोगत भावों को जानने का उसके पास और क्या साधन हो सकता है? अपने मन का भाव किसी से नहीं कहता, बल्कि और छिपाता है। अगर किसी ने किसी मित्र के मनोभावों का ज्ञान भी हो सकता है, तो बहुत कम। इसलिए ऐसे उपन्यास लिखना लोहे के चने चबाना है। उपन्यासकार को नित्य अपने अंतर की ओर ध्यान रखना पड़ता है। जॉर्ज इलियट के उपन्यास अधिकतर इसी श्रेणी के हैं। 


4. चरित्रों का विश्लेषण और 5. जीवन के अनुभवों को प्रकट करना : इन दोनों प्रकार के उपन्यास लिखने के लिए जरूरी है कि लेखक में दिव्य-कल्पना-शक्ति के साथ अवलोकन और निरीक्षण की भी प्रचुर मात्रा हो। इसीलिए कहा गया है कि उपन्यासकार को सभी श्रेणी के मनुष्यों से मिलना-जुलना आवश्यक है। उसे अपनी आँखें और कान सदैव खुले रखने चाहिए। एक ही परिस्थिति में दो भिन्न-भिन्न विचारों के व्यक्ति क्या करते हैं, एक ही घटना दोनों को किस प्रकार प्रभावित करती है, इसका निरूपण सहज नहीं है। अनुभव बाह्य जगत-संबंधी भी होते हैं और अंतर जगत-संबंधी भी। लेखक को प्राकृतिक दृश्यों का, विचित्र घटनाओं का बड़े ध्यान से अवलोकन करना चाहिए। प्रातः समीर के झोंकों से नदी की तरंगों की कैसी छटा होती है, आकाश-कौन-कौन से रूप धारण करता है, ऐसे अगणित दृश्य सफलता के साथ वही लिख सकता है जिसने स्वयं उनको गौर से देखा हो। केवल कल्पना यहाँ काम नहीं दे सकती। लाज़िम है कि लेखक वही दृश्य दिखावे, उन्हीं चरित्रों की तुलना करे, जिनका उसने स्वयं अनुभव किया हो। जिसने समुद्र नहीं देखा, वह किसी समंदर का दृश्य क्योंकर लिखेगा? जिसने ग्रामीणों की संगति नहीं की, वह ग्रामीण जीवन का चित्र क्योंकर खींच सकता है? यही सफलता प्राप्त करने के लिए यूरोप के कई विख्यात उपन्यासकारों ने वेश बदलकर उन स्थितियों का अध्ययन किया है, जिनके आधार पर वे अपना उपन्यास लिखना चाहते थे। 


5. कोई सामाजिक या राजनैतिक सुधार : किसी उद्देश्य विशेष से लिखे गए उपन्यासों की संख्या आजकल सभी भाषाओं में बहुत अधिक है। उर्दू में भी ऐसे कितने ही उपन्यास हैं, मुख्य भाषाओं का तो कहना ही क्या? आजकल ‘सुधार-सुधार' के घोर नाद से सारा वायुमंडल निनादित हो रहा है। कहीं पुलिस के सुधार की चर्चा है, कहीं कारागारों की, कहीं न्यायालयों की, कहीं सामाजिक प्रथाओं की, कहीं शिक्षा पद्धति की। यह विवादास्पद विषय है कि उपन्यास किसी उद्देश्य से लिखना चाहिए या नहीं। प्रवीण समालोचकगण की राय में साहित्य का उद्देश्य केवल भाव-चित्रण ही होना चाहिए। उद्देश्य से लिखी हुई कहानियों में बहुधा लेखक को विवश होकर असंगत बातें कहलानी पड़ती है, अनावश्यक घटनाओं की आयोजना करनी पड़ती है, और सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उसे उपदेशक का स्थान ग्रहण करना पड़ता है। मगर रसिक समाज किसी से उपदेश लेना नहीं चाहता, उसे उपदेशों से अरुचि है और उपदेशकों से घृणा। वह केवल मनोरंजन और मनोदर्शन चाहता है। पर इसके साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि गत शताब्दी में पाश्चात्य देशों में जितने भी सुधार हुए हैं, उनमें अधिकांश का बीजारोपण उपन्यासों के ही द्वारा किया गया था। 


डिकेंस के प्रायः सभी उपन्यास, ताल्सटाय के कई उत्तम उपन्यास, मैक्सिम गोर्की, तुर्गनेव, बाल्जाक, ह्यूगो, मेरी करेली, जोला आदि प्रधान उपन्यासकारों ने सुधारों ही के उद्देश्य से अपने ग्रंथ रचे हैं। हाँ, कुशल लेखक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह सुधार के जोश में कथा की रोचकता को कम न होने दे। वह उपन्यास और अपने चरित्रों को उन्हीं परिस्थितियों में रखे जिनको वह सुधारना चाहता है। यह भी परमावश्यक है कि वह सुधार के विषय को खूब सोच ले और अत्युक्ति से काम न ले, नहीं तो उसका प्रयास कभी सफल न हो सकेगा। लेखक वृंद प्रायः अपने काल के विधाता होते हैं उनमें अपने देश को, अपने समाज को दुःख, अन्याय तथा मिथ्यावाद से मुक्त करने की प्रबल आकांक्षा होती है। ऐसी दशा में असंभव है कि वह समाज को अपने मनमाने मार्ग पर चलने दे और स्वयं खड़ा हाथ पर हाथ रखे देखता रहे। अगर वह कुछ नहीं कर सकता, तो कलम तो चला ही सकता है। शेक्सपियर और कालिदास के समय में सुधार की आवश्यकता आज से कम न थी, लेकिन उस समय राजनीतिक ज्ञान का इतना प्रसार न था। रईस लोग भोग-विलास करते थे। प्रजा पर क्या गुजरती है, इधर किसी का ध्यान न था। यह समय जीवन-संग्राम का है। आज हम जो शिक्षित कहलाते थे, तटस्थ होकर अन्याय होते नहीं देख सकते। 


प्लॉट का महत्त्व जानने के बाद अब हम यह जानना चाहेंगे कि अच्छे प्लॉट में कौन-कौन सी बातें होनी चाहिए? समालोचकों के अनुसार वे ये हैं- सरलता, मौलिकता, रोचकता। 


प्लॉट सरल होना चाहिए। बहुत उलझा हुआ, पेचीदा, शैतान की आँत, पढ़ते-पढ़ते जी उकता जाए, ऐसे उपन्यासों को पाठक ऊबकर छोड़ देता है। एक प्रसंग अभी पूरा नहीं होने पाया कि दूसरा आ गया, वह अभी अधूरा ही था कि तीसरा प्रसंग आ गया, इससे पाठक का चित्त चकरा जाता है। पेचीदा प्लॉट की कल्पना इतनी मुश्किल नहीं है, जितनी किसी सरल प्लॉट की। 


सरल प्लॉट में बहुत से चरित्रों की कल्पना नहीं करनी पड़ती। इसीलिए लेखक को अल्पसंखक चरित्रों के भाव-विचार, गुण-दोष, आचार-व्यवहार को सूक्ष्म रूप से दिखाने का अवसर मिल जाता है, इससे उसके चरित्रों में सजीवता आ जाती है और वह पाठक के हृदय पर अपना अच्छा या बुरा असर छोड़ जाते हैं। यह बात बहुसंख्यक चरित्रों के साथ नहीं प्राप्त हो सकती, प्लॉट में मौलिकता का होना भी जरूरी है। जिस बात या विषय को अन्य लेखकों ने लिख डाला हो, उसे कुछ हेर-फेर करके अपना प्लॉट बनाने की चेष्टा करना अनुपयुक्त है। 


प्रेम, वियोग आदि विषय पर लिखे जा चुके हैं कि उनमें कोई नवीनता नहीं बाकी रही। अब तो पाठक कहानियों में नए भावों का, नए विचारों का, नए चरित्रों का दिग्दर्शन चाहते हैं। अतः 'शुकबहत्तरी' से पाठकों को तस्कीन नहीं होती। प्लॉट में कुछ-न-कुछ ताज़गी, कुछ-न-कुछ अनोखापन अवश्य होना चाहिए यही रोचकता, वह मौलिकता की सहगामिनी है। मौलिक प्लॉट है तो वह रोचक भी जरूर ही होगा। लेकिन कहानी की रोचकता किसी एक बात पर निर्भर नहीं है। प्लॉट की सुंदरता, चरित्रों का चित्रण, घटना का वैचित्र्य, सभी सम्मिश्रित हो जाते हैं तो रोचकता आप ही आप आ जाती है। हाँ, उपन्यासकार यह कभी नहीं भूल सकता कि उसका प्रधान कर्तव्य पाठकों का ग़म ग़लत करना, उनका मनोरंजन करना है और सभी बातें इसके आधीन हैं। जब पाठक का जी ही कहानी में न लगा तो वह क्या लेखक के भावों को समझेगा? क्या उसके अनुभवों का लाभ उठाएगा? वह घृणा के साथ किताब को पटक देगा और सदा के लिए उपन्यासों का निंदक हो जाएगा। आज भी कितने व्यक्ति ऐसे मिलते हैं जिन्हें उपन्यासों से चिढ़ है। उन्होंने व्रत कर लिया है कि उपन्यास कदापि न पढ़ेंगे। कारण यही है कि हिंदी के वर्तमान उपन्यासों ने उन्हें निराश किया है। नए उपन्यास-लेखकों का कर्तव्य है कि वे उपन्यास-साहित्य के मुख को उज्ज्वल करें, इस बदनामी के दाग़ को मिटा दें। 


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