“उपन्यास के विषय का विस्तार मानव-चरित्र से किसी कदर कम नहीं है। उसका संबंध अपने चरित्रों के कर्म और विचार, उनके देवत्व और पशुत्व, उनके उत्कर्ष और अपकर्ष से है। मनोभाव के विभिन्न रूप और भिन्न-भिन्न दशाओं में उनका विकास उपन्यास के मुख्य विषय हैं।”
इसी विषय-विस्तार ने उपन्यास को संसार-साहित्य का प्रधान अंग बना दिया है। अगर आपको इतिहास से प्रेम है, तो आप अपने उपन्यास में गहरे ऐतिहासिक तत्त्वों का निरूपण कर सकते हैं। अगर आपको दर्शन से रुचि है, तो आप उपन्यास में महान दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन कर सकते हैं। अगर आपमें कवित्व-शक्ति है, तो उपन्यास में उसके लिए भी काफी गुंजाइश है। समाज, नीति, विज्ञान, पुरातत्व, आदि सभी विषयों के लिए उपन्यास में स्थान है। यहाँ लेखक को अपनी कलम का जौहर दिखाने का जितना अवसर मिल सकता है, उतना साहित्य के और किसी अंग में नहीं मिल सकता। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि उपन्यासकार के लिए कोई बंधन ही नहीं है। उपन्यास का विषय-विस्तार ही उपन्यासकार को बेड़ियों में जकड़ देता है। तंग सड़कों पर चलने वालों के लिए अपने लक्ष्य पर पहुँचना उतना कठिन नहीं है, जितना एक लंबे-चौड़े मार्गहीन मैदान में चलने वालों के लिए।
उपन्यासकार का प्रधान गुण उसकी सृजन-शक्ति है। अगर उसमें इसका अभाव है, तो वह अपने काम में कभी सफल नहीं हो सकता। उसमें और चाहे जितने अभाव हों; पर कल्पना-शक्ति की प्रखरता अनिवार्य है। अगर उसमें यह शक्ति मौजूद है, तो वह ऐसे कितने ही दृश्यों, दशाओं और मनोभावों का चित्रण कर सकता है, जिनका उसे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है। अगर इस शक्ति की कमी है, तो चाहे उसने कितना ही देशाटन क्यों न किया हो, वह कितना ही विद्वान् क्यों न हो, उसके अनुभव का क्षेत्र कितना ही विस्तृत क्यों न हो, उसकी रचना में सरसता नहीं आ सकती। ऐसे कितने लेखक हैं, जिनमें मानव-चरित्र के रहस्यों का बहुत मनोरंजक, सूक्ष्म और प्रभाव डालने वाली शैली में बयान करने की शक्ति मौजूद है; लेकिन कल्पना की कमी के कारण वे अपने चरित्रों में जीवन का संचार नहीं कर सकते, जीती-जागती तस्वीरें नहीं खींच सकते। उनकी रचनाओं को पढ़कर हमें यह ख्याल नहीं होता कि हम कोई सच्ची घटना देख रहे हैं।
इसमें संदेह नहीं कि उपन्यास की रचना-शैली सजीव और प्रभावोत्पादक होनी चाहिए; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम शब्दों का गोरखधंधा रचकर पाठक को इस भ्रम में डाल दें कि इसमें जरूर कोई न कोई गूढ़ आशय है। जिस तरह किसी आदमी का ठाठ-बाट देखकर हम उसकी वास्तविक स्थिति के विषय में ग़लत राय कायम कर लिया करते हैं, उसी तरह उपन्यासों के शाब्दिक आडंबर देखकर भी हम ख़याल करने लगते हैं कि कोई महत्त्व की बात छिपी हुई है। संभव है, ऐसे लेखक को थोड़ी देर के लिए यश मिल जाए किंतु जनता उन्हीं उपन्यासों को आदर का स्थान देती है, जिनकी विशेषता उनकी गूढ़ता नहीं, उनकी सरलता होती है।
उपन्यासकार को इसका अधिकार है कि वह अपनी कथा को घटना-वैचित्र्य से रोचक बनाए लेकिन शर्त यह है कि प्रत्येक घटना असली ढाँचे से निकट संबंध रखती हो। इतना ही नहीं, बल्कि उसमें इस तरह घुल-मिल गई हो कि कथा का आवश्यक अंग बन जाए। अन्यथा उपन्यास की दशा उस घर की-सी हो जाएगी, जिसके हर एक हिस्से अलग-अलग हों। जब लेखक अपने मुख्य विषय से हटकर किसी दूसरे प्रश्न पर बहस करने लगता है, तो वह पाठक के आनंद में बाधक हो जाता है, जो उसके कथा में आ रहा था। उपन्यास में वही घटनाएँ, वही विचार लाना चाहिए, जिनसे कथा का माधुर्य बढ़ जाए। जो प्लॉट के विकास में सहायक हों अथवा चरित्रों के गुप्त मनोभावों का प्रदर्शन करते हों। पुरानी कथाओं में लेखक का उद्देश्य घटना वैचित्र्य दिखाना होता था, इसलिए वह एक कथा में कई उपकथाएँ मिलाकर अपना उद्देश्य पूरा करता था। सांप्रतकालीन उपन्यासों में लेखक का उद्देश्य मनोभावों और चरित्र के रहस्यों को खोलना होता है, अतएव यह आवश्यक है कि वह अपने चरित्रों को सूक्ष्म दृष्टि से देखे। उसके चरित्रों का कोई भाग उसकी निगाह से न बचने पाए। ऐसे उपन्यास में उपकथाओं की गुंजाइश नहीं होती।
यह सच है कि संसार की प्रत्येक वस्तु उपन्यास का उपयुक्त विषय बन सकती है। प्रकृति का प्रत्येक रहस्य, मानव-जीवन का हर पहलू जब किसी सुयोग्य लेखक की कलम से निकलता है, तो वह साहित्य का रत्न बन जाता है। लेकिन इसके साथ ही विषय का महत्त्व और उसकी गहराई भी उपन्यास के सफल होने में बहुत सहायक होती है। यह जरूरी नहीं कि हमारे चरित्र नायक ऊँची श्रेणी के ही मनुष्य हों। हर्ष और शोक, प्रेम और अनुराग, ईर्ष्या और द्वेष मनुष्य-मात्र में व्यापक हैं। हमें केवल हृदय के उन तारों पर चोट लगानी चाहिए जिनकी झंकार से पाठकों के हृदय पर भी वैसा ही प्रभाव हो। सफल उपन्यासकार का सबसे बड़ा लक्षण है कि वह पाठकों के हृदय में उन्हीं भावों को जागृत कर दे, जो उसके पात्रों में हों। पाठक भूल जाए कि वह कोई उपन्यास पढ़ रहा है उसके और पात्रों के बीच में आत्मीयता का भाव उत्पन्न हो जाए। मनुष्य की सहानुभूति साधारण स्थिति में जब तक जागृत नहीं होती, जब तक कि उसके लिए उस पर विशेष रूप से आघात न किया जाए। हमारे हृदय के अंतरतम भाव साधारण दशाओं में आंदोलित नहीं होते। इसके लिए ऐसी घटनाओं की कल्पना करनी होती है, जो हमारा दिल हिला दें, जो हमारे भावों की गहराई तक पहुँच जाएँ। अगर किसी अबला की पराधीन दशा का अनुभव कराना हो तो घटना से ज़्यादा प्रभाव डालने वाली और कौन घटना हो सकती है। और राजा उसे न पहचानकर उसकी उपेक्षा करता है? खेद है कि आजकल के उपन्यासों में गहरे भावों को स्पर्श करने का बहुत कम मसाला रहता है। अधिकांश उपन्यास गहरे और प्रचंड भावों का प्रदर्शन नहीं करते। हम आए-दिन की साधारण बातों में ही उलझकर रह जाते हैं।
इस विषय में अभी तक मतभेद है कि उपन्यास में मानवीय दुर्बलताओं और कुवासनाओं का और अपकीर्तियों का विशद वर्णन वांछनीय है या नहीं। मगर इसमें कोई संदेह नहीं कि जो लेखक अपने को इन्हीं विषयों में बाँध लेता है, वह कभी कलाविद की महानता को नहीं पा सकता, जो जीवन-संग्राम में एक मनुष्य की आंतरिक दशा को, सत् और असत् के में और अंत में सत्य की विजय को, मार्मिक ढंग से दर्शाता है। यथार्थवाद का यह आशय नहीं है कि हम अपनी दृष्टि को अंधकार की ओर ही केंद्रित कर दें। अंधकार में मनुष्य को अंधकार के सिवा सूझ ही क्या सकता है? बेशक, चुटकियाँ लेना यहाँ तक कि नश्तर लगाना भी कभी-कभी आवश्यक होता है, लेकिन दैहिक व्यथा चाहे नश्तर से दूर हो जाए, मानसिक व्यथा सहानुभूति और उदारता से ही शांत हो सकती है। किसी को नीच समझकर हम उसे ऊँचा नहीं बना सकते बल्कि उसे और नीचे गिरा देंगे। कायर कहने से बहादुर न हो जाएगा कि 'तुम कायर हो।' हमें यह दिखाना पड़ेगा कि उसमें साहस, बल और धैर्य सब कुछ है, केवल उसे जगाने की जरुरत है। साहित्य का संबंध सत्य और सुंदर से है, यह हमें न भूलना चाहिए।
मगर आजकल कुकर्म, हत्या, चोरी, डाके से भरे हुए उपन्यासों की जैसे बाढ़-सी आ गई है। साहित्य के इतिहास में ऐसा कोई समय न था, जब ऐसे कुरुचिपूर्ण उपन्यासों की इतनी भरमार रही हो। जासूसी उपन्यासों में क्यों इतना आनंद आता है? क्या इसका कारण यह है कि पहले से अब लोग ज़्यादा पापासक्त हो गए हैं? जिस समय लोगों को यह दावा है कि मानव-समाज नैतिक और बौद्धिक उन्नति के शिखर पर पहुँचा हुआ है, यह कौन स्वीकार करेगा कि हमारा पतन समाज की ओर जा रहा है? शायद इसका कारण हो कि इस व्यावसायिक शांति के युग में ऐसी घटनाओं का अभाव हो गया है, जो मनुष्य के कौतूहल-प्रेम को संतुष्ट कर सकें, जो उसमें सनसनी पैदा कर दें। या इसका यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की धन-लिप्सा उपन्यास के चरित्रों को धन के लोभ से कुकर्म करते देखकर प्रसन्न होती है। ऐसे उपन्यासों में यही होता है कि कोई आदमी लोभवश किसी धनाढ्य पुरुष की हत्या कर डालता है, या उसे किसी संकट में फँसाकर उससे मनमानी रकम ऐंठ लेता है। फिर जासूस आते हैं, वकील आते हैं और मुजरिम गिरफ्तार होता है, उसे सज़ा मिलती है। ऐसी रुचि को प्रेम, अनुराग या उत्सर्ग की कथाओं में आनंद नहीं आ सकता। भारत में वह व्यावसायिक वृद्धि तो नहीं हुई लेकिन ऐसे उपन्यासों की भरमार शुरू हो गई। अगर मेरा अनुमान गलत नहीं है तो ऐसे उपन्यासों की खपत इस देश में भी अधिक होती है। इस कुरुचि का परिणाम रूसी उपन्यास-लेखक मैक्सिम गोर्की के शब्दों में ऐसे वातावरण का पैदा होना है, जो कुकर्म की प्रवृत्ति को दृढ़ करता है। इससे तो यह स्पष्ट ही है कि मनुष्य में पशु प्रवृत्तियाँ इतनी प्रबल होती जा रही हैं कि अब उसके हृदय में कोमल भावों के लिए स्थान ही नहीं रहा।
उपन्यास के चरित्रों का चित्रण जितना ही स्पष्ट, गहरा और विकासपूर्ण होगा, उतना ही पढ़नेवालों पर उसका असर पड़ेगा, और यह लेखक की रचना-शक्ति पर निर्भर है। जिस तरह किसी मनुष्य को हम देखते ही हम उसके मनोभावों से परिचित नहीं हो जाते, ज्यों-ज्यों हमारी घनिष्ठता उससे बढ़ती है, त्यों-त्यों उसके मनोरहस्य खुलते हैं। इसी तरह उपन्यास के चरित्र भी लेखक की कल्पना में पूर्ण रूप से नहीं आ जाते, बल्कि उनमें क्रमशः विकास होता है। यह विकास इतने गुप्त, अस्पष्ट रूप से होता है कि पढ़ने वालों को किसी तब्दीली का ज्ञान भी नहीं होता। अगर चरित्रों में से किसी का विकास रुक जाए तो उसे उपन्यास से निकाल देना चाहिए क्योंकि चरित्रों के विकास का ही विषय है। अगर उसमें विकास-दोष है, तो वह उपन्यास कमज़ोर हो जाएगा। कोई चरित्र अंत में भी वैसा ही रहे, जैसा वह पहले था। उसके बल-बुद्धि और भावों का विकास न हो, तो वह असफल चरित्र है।
इस दृष्टि से जब हम हिंदी के वर्तमान उपन्यासों को देखते हैं तो निराशा होती है। अधिकांश चरित्र ऐसे ही मिलेंगे, जो काम तो बहुतेरे करते लेकिन जैसे जो काम वे आदि में करते, उसी तरह, वही अंत में भी करते हैं।
कोई उपन्यास शुरू करने के लिए यदि हम उन चरित्रों का एक मानसिक चित्र बना लिया करें, तो फिर उनका विकास दिखाने में हमें सरलता होगी। यह कहने की ज़रुरत नहीं है, विकास परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक हो, अर्थात् पाठक और लेखक दोनों इस विषय में सहमत हों। अगर पाठक का यह भाव हो कि वह इस दशा में ऐसा नहीं होना चाहिए था, तो इसका यह आशय हो सकता है कि लेखक अपने चरित्र को अंकित करने में असफल रहा। चरित्रों में कुछ न कुछ विशेषता भी रहनी चाहिए। जिस तरह संसार में कोई समान व्यक्ति समान नहीं होते, उसी भाँति उपन्यास में भी न होना चाहिए। कुछ लोग तो बातचीत या शक्ल सूरत से विशेषता उत्पन्न कर देते हैं; लेकिन असली अंतर तो वह है, जो चरित्रों में हो।
उपन्यास में वार्तालाप जितना अधिक हो और लेखक की कलम से जितना ही कम लिखा जाए, उतना ही उपन्यास सुंदर होगा। वार्तालाप केवल रस्मी नहीं होना चाहिए। प्रत्येक वाक्य को जो किसी चरित्र के मुँह से निकले, उसके मनोभावों और चरित्र पर कुछ-न-कुछ प्रकाश डालना चाहिए। बातचीत का पूर्ण रूप से स्वाभाविक परिस्थितियों के अनुकूल, सरल और सूक्ष्म होना ज़रूरी है। हमारे उपन्यासकारों में अक्सर बातचीत भी उसी शैली में कराई जाती है, मानो लेखक ख़ुद लिख रहा हो। शिक्षित समाज की भाषा तो सर्वत्र एक है, हाँ भिन्न-भिन्न जातियों की ज़बान पर उनका रूप कुछ न कुछ बदल जाता है। बंगाली, मारवाड़ी और ऐंग्लो इंडियन भी कभी-कभी बहुत शुद्ध हिंदी बोलते पाए जाते हैं लेकिन यह अपवाद है, नियम नहीं। यह ग्रामीण बातचीत कभी-कभी हमें दुविधा में डाल देती है। बिहार की ग्रामीण भाषा शायद दिल्ली के आस-पास का आदमी समझ न सकेगा।
वास्तव में कोई रचना रचयिता के मनोभावों का, उसके चरित्र का, उसके जीवनादर्श का, उसके दर्शन का आईना होती है। जिसके हृदय में देश की लगन है, उसके चरित्र, घटनावली और परिस्थितियाँ सभी उसी रंग में रँगी नज़र आएँगी। लहरी आनंदी लेखकों के चरित्रों में भी अधिकांश चरित्र ऐसे ही होंगे। जिन्हें जगत-गति नहीं व्याप्ति। वे जासूसी, तिलिस्मी चीज़ें लिखा करते हैं। अगर लेखक आशावादी है तो उसकी रचना में आशावादिता छलकती रहेगी। अगर वह शोकवादी है तो बहुत प्रयत्न करने पर भी वह अपने चरित्रों को ज़िंदादिल न बना सकेगा। 'आज़ाद-कथा' को उठा लीजिए, तुरंत मालूम हो जाएगा कि लेखक हँसने-हँसानेवाले जीवन हैं, जो जीवन को गंभीर विचार के योग्य नहीं समझता। जहाँ उसने समाज के प्रश्नों को उठाया है, वहाँ शैली शिथिल हो गई है।
जिस उपन्यास को समाप्त करने के बाद पाठक अपने अंदर उत्कर्ष का अनुभव करे, उसके सद्भाव जाग उठे, वही सफल उपन्यास है। जिसके भाव गहरे हैं, प्रखर हैं जो जीवन में बद्दू बनकर नहीं, बल्कि सवार बनकर चलता है, जो उद्योग करता है और विफल होता है, उठने की कोशिश करता है और गिरता है, जो वास्तविक जीवन की गहराईयों में डूबा है, जिसने जिंदगी के ऊँच-नीच देखे हैं, संपत्ति और विपत्ति सबका सामाना किया है, जिसकी मखमली गद्दों पर से नहीं गुजरती, वही लेखक ऐसे उपन्यास रच सकता है, जिसमें प्रकाश, जीवन और आनंद प्रदान करने की सामर्थ्य होगी।
उपन्यास के पाठकों की रुचि भी अब बदलती जा रही है। अब उन्हें केवल लेखक की कल्पनाओं से संतोष नहीं होता। कल्पना कुछ भी हो, कल्पना ही है। वह यथार्थ का स्थान नहीं ले सकता है, जिसमें प्रकाश, जीवन और आनंद प्रदान करने की सामर्थ्य होगी।
इसका आशय यह है कि भविष्य में उपन्यास में कल्पना कम, सत्य अधिक होगा, हमारे चरित्र कल्पित न होंगे, बल्कि व्यक्तियों के जीवन पर आधारित होंगे। किसी हद तक तो अब भी ऐसा होता है, पर बहुधा हम परिस्थितियों का ऐसा क्रम बाँधते हैं कि अंत स्वाभाविक होने पर भी वह होता है, हम चाहते हैं। हम स्वाभाविकता का स्वाँग जितनी ख़ूबसूरती से कर सकें, उतने ही सफल होते हैं, लेकिन भविष्य में पाठक इस स्वाँग से संतुष्ट न होगा। यों कहना चाहिए कि भावी उपन्यास जीवन-चरित्र होगा; चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का। उसकी छुटाई-बड़ाई का फैसला उन कठिनाइयों से किया जाएगा कि जिन पर उसने विजय पाई है। हाँ, वह चरित्र इस ढंग से लिखा जाएगा कि उपन्यास मालूम हो। अभी हम झूठ को सच बनाकर दिखाना चाहते हैं, भविष्य में सच को झूठ बनाकर दिखाना होगा। किसी किसान का चरित्र हो, या किसी देशभक्त का, या किसी बड़े आदमी का, पर उसका आधार यथार्थ पर होगा। तब यह काम उससे कठिन होगा जितना अब है; क्योंकि ऐसे बहुत कम लोग हैं, जिन्हें बहुत-से मनुष्यों को भीतर से जानने का गौरव प्राप्त होगा।
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