गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु-शिखा पर थी अब राजती।
कमलिनी-कुल-वल्लभ की प्रभा॥1॥
विपिन बीच विहंगम वृंद का।
कलनिनाद विवर्द्धित था हुआ।
ध्वनिमयी-विविधा विहगावली।
उड़ रही नभ-मंडल मध्य थी॥2॥
अधिक और हुई नभ-लालिमा।
दश-दिशा अनुरंजित हो गई।
सकल-पादप-पुंज हरीतिमा।
अरुणिमा विनिमज्जित सी हुई॥3॥
झलकने पुलिनों पर भी लगी।
गगन के तल की यह लालिमा।
सरि सरोवर के जल में पड़ी।
अरुणता अति ही रमणीय थी॥4॥
अचल के शिखरों पर जा चढ़ी।
किरण पादप-शीश-विहारिणी।
तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला।
गगन-मंडल मध्य शनैः शनैः॥5॥
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा।
कलित कानन केलि निकुंज को।
बज उठी मुरली इस काल ही।
तरणिजा तट राजित कुंज में॥6॥
कणित मंजु-विषाण हुए कई।
रणित शृंग हुए बहु साथ ही।
फिर समाहित-प्रान्तर-भाग में।
सुन पड़ा स्वर धावित-धेनु का॥7॥
निमिष में वन-व्यापित-वीथिका।
विविध-धेनु-विभूषित हो गई।
धवल-धूसर-वत्स-समूह भी।
विलसता जिनके दल साथ था॥8॥
जब हुए समवेत शनैः शनैः।
सकल गोप सधेनु समंडली।
तब चले ब्रज-भूषण को लिये।
अति अलंकृत-गोकुल-ग्राम को॥9॥
गगन मंडल में रज छा गई।
दश-दिशा बहु शब्द-मयी हुई।
विशद-गोकुल के प्रति-गेह में।
बह चला वर-स्रोत विनोद का॥10॥
सकल वासर आकुल से रहे।
अखिल-मानव गोकुल-ग्राम के।
अब दिनांत विलोकित ही बढ़ी।
ब्रज-विभूषण-दर्शन-लालसा॥11॥
सुन पड़ा स्वर ज्यों कल-वेणु का।
सकल-ग्राम समुत्सुक हो उठा।
हृदय-यंत्र निनादित हो गया।
तुरत ही अनियंत्रित भाव से॥12॥
बहु युवा युवती गृह-बालिका।
विपुल-बालक वृद्ध व्यस्क भी।
विवश से निकले निज गेह से।
स्वदृग का दुख-मोचन के लिए॥13॥
इधर गोकुल से जनता कढ़ी।
उमगती पगती अति मोद में।
उधर आ पहुँची बलबीर की।
विपुल-धेनु-विमंडित मंडली॥14॥
ककुभ-शोभित गोरज बीच से।
निकलते ब्रज-बल्लभ यों लसे।
कदन ज्यों करके दिशि कालिमा।
विलसता नभ में नलिनीश है॥15॥
अतसि पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद नील-सरोरुह रंजिनी।
नवल-सुंदर-श्याम-शरीर की।
सजल-नीरद सी कल-कांति थी॥16॥
अति-समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर-मंजुल औ मनभावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिबिंबित हो रही॥17॥
बिलसता कटि में पट पीत था।
रुचिर वस्त्र विभूषित गात था।
लस रही उर में बनमाल थी।
कल-दुकूल-अलंकृत स्कंध था॥18॥
मकर-केतन के कल-केतु से।
लसित थे वर-कुंडल कान में।
घिर रही जिनकी सब ओर थी।
विविध-भावमयी अलकावली॥19॥
मुकुट मस्तक था शिखि-पक्ष का।
मधुरिमामय था बहु मंजु था।
असित रत्न समान सुरंजिता।
सतत थी जिसकी वर चंद्रिका॥20॥
विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में।
विलसती कल केसर-खौर थी।
असित - पंकज के दल में यथा।
रज – सुरंजित पीत - सरोज की॥21॥
मधुरता - मय था मृदु - बोलना।
अमृत – सिंचित सी मुस्कान थी।
समद थी जन – मानस मोहती।
कमल – लोचन की कमनीयता॥22॥
सबल-जानु विलंबित बाहु थी।
अति – सुपुष्ट – समुन्नत वक्ष था।
वय-किशोर-कला लसितांग था।
मुख प्रफुल्लित पद्म समान था॥23॥
सरस – राग – समूह सहेलिका।
सहचरी मन मोहन - मंत्र की।
रसिकता – जननी कल - नादिनी।
मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥24॥
छलकती मुख की छवि-पुंजता।
छिटकती क्षिति छू तन की घटा।
बगरती बर दीप्ति दिगंत में।
क्षितिज में क्षणदा-कर कांति सी॥25॥
मुदित गोकुल की जन-मंडली।
जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।
निरखने मुख की छवि यों लगी।
तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥26॥
पलक लोचन की पड़ती न थी।
हिल नहीं सकता तन-लोम था।
छवि-रता बनिता सब यों बनी।
उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥27॥
उछलते शिशु थे अति हर्ष से।
युवक थे रस की निधि लूटते।
जरठ को फल लोचन का मिला।
निरख के सुषमा सुखमूल की॥28॥
बहु – विनोदित थीं ब्रज – बालिका।
तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़तीं।
बलि गईं बहु बार वयोवती।
छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥29॥
मुरलिका कर - पंकज में लसी।
जब अचानक थी बजती कभी।
तब सुधारस मंजु - प्रवाह में।
जन - समागम था अवगाहता॥30॥
ढिग सुसोभित श्रीबलराम थे।
निकट गोप – कुमार – समूह था।
विविध गातवती गरिमामयी।
सुरभि थीं सब ओर विराजती॥31॥
बज रहे बहु - शृंग - विषाण थे।
क्वणित हो उठता वर-वेणु था।
सरस – राग - समूह अलाप से।
रसवती - बन थी मुदिता – दिशा॥32॥
विविध – भाव – विमुग्ध बनी हुई।
मुदित थी बहु दर्शक - मंडली।
अति मनोहर थी बनती कभी।
बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥33॥
इधर था इस भाँति समा बँधा।
उधर व्योम हुआ कुछ और ही।
अब न था उसमें रवि राजता।
किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥34॥
अरुणिमा – जगती – तल – रंजिनी।
वहन थी करती अब कालिमा।
मलिन थी नव – राग-मयी – दिशा।
अवनि थी तमसावृत हो रही॥35॥
तिमिर की यह भूतल - व्यापिनी।
तरल – धार विकास – विरोधिनी।
जन – समूह – विलोचन के लिए।
बन गई प्रति – मूर्ति विराम की॥36॥
द्युतिमयी उतनी अब थी नहीं।
नयन की अति दिव्य कनीनिका।
अब नहीं वह थी अवलोकती।
मधुमयी छवि श्री घनश्याम की॥37॥
यह अभावुकता तम – पुंज की।
सह सकी न नभस्थल तारका।
वह विकाश – विवर्द्धन के लिए।
निकलने नभ मंडल में लगी॥38॥
तदपि दर्शक - लोचन - लालसा।
फलवती न हुई तिलमात्र भी।
यह विलोक विलोचन दीनता।
सकुचने सरसीरुह भी लगे॥39॥
खग – समूह न था अब बोलता।
विटप थे बहुत नीरव हो गए।
मधुर मंजुल मत्त अलाप के।
अब न यंत्र बने तरु - वृंद थे॥40॥
विगह औ विटपी – कुल मौनता।
प्रकट थी करती इस मर्म को।
श्रवण को वह नीरव थे बने।
करुण अंतिम – वादन वेणु का॥41॥
विहग – नीरवता – उपरांत ही।
रुक गया स्वर शृंग विषाण का।
कल – अलाप समापित हो गया।
पर रही बजती वर – वंशिका॥42॥
विविध - मर्म्मभरी करुणामयी।
ध्वनि वियोग - विराग - विवोधिनी।
कुछ घड़ी रह व्याप्त दिगंत में।
फिर समीरण में वह भी मिली॥43॥
ब्रज – धरा – जन जीवन - यंत्रिका।
विटप – वेलि – विनोदित-कारिणी।
मुरलिका जन – मानस-मोहिनी।
अहह नीरवता निहिता हुई॥44॥
प्रथम ही तम की करतूत से।
छवि न लोचन थे अवलोकते।
अब निनाद रुके कल – वेणु का।
श्रवण पान न था करता सुधा॥45॥
इसलिए रसना - जन - वृंद की।
सरस - भाव समुत्सुकता पगी।
ग्रथन गौरव से करने लगी।
ब्रज-विभूषण की गुण-मालिका॥46॥
जब दशा यह थी जन – यूथ की।
जलज – लोचन थे तब जा रहे।
सहित गोगण गोप - समूह के।
अवनि – गौरव – गोकुल ग्राम में॥47॥
कुछ घड़ी यह कांत क्रिया हुई।
फिर हुआ इसका अवसान भी।
प्रथम थी बहु धूम मची जहाँ।
अब वहाँ बढ़ता सुनसान था॥48॥
कर विदूरित लोचन लालसा।
स्वर प्रसूत सुधा श्रुति को पिला।
गुण – मयी रसनेन्द्रिय को बना।
गृह गये अब दर्शक-वृंद भी॥49॥
प्रथम थी स्वर की लहरी जहाँ।
पवन में अधिकाधिक गूँजती।
कल अलाप सुप्लावित था जहाँ।
अब वहाँ पर नीरवता हुई॥50॥
विशद - चित्रपटी ब्रजभूमि की।
रहित आज हुई वर चित्र से।
छवि यहाँ पर अंकित जो हुई।
अहह लोप हुई सब - काल को॥51॥
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