मेरा भी बुरा हाल था। एलएलबी का फल अबकी और भी देर से निकलने को था—न-मालूम क्या हो गया था, या तो कोई परीक्षक मर गया था, या उसको प्लेग हो गया था। उसके पर्चे किसी दूसरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था कि प्रश्नपत्रों की जाँच किए पीछे सारे परीक्षकों और रजिस्ट्रारों को भले ही प्लेग हो जाए, अभी तो दो हफ़्ते माफ़ करें। नहीं तो परीक्षा के पहले ही उन सबको प्लेग क्यों न हो गया? रात-भर नींद नहीं आई थी, सिर घूम रहा था; अख़बार पढ़ने बैठा कि देखता क्या हूँ कि लिनोटाइप की मशीन ने चार-पाँच पंक्तियाँ उलटी छाप दी हैं। बस अब नहीं सहा गया—सोचा कि घर से निकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया कि चल दिए।
तीन-चार मील जाने पर शांति मिली। हरे-हरे खेतों की हवा, कहीं पर चिड़ियों की चहचह और कहीं कुओं पर खेतों को सींचते हुए किसानों का सुरीला गाना, कहीं देवदार के पत्तों की सोंधी बास और कहीं उनमें हवा का सी-सी करके बजना—सबने मेरे परीक्षा के भूत की सवारी को हटा लिया। बाइसिकिल भी ग़ज़ब की चीज़ है। न दाना माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैरों में दम हो। सड़क में कोई था ही नहीं, कहीं-कहीं किसानों के लड़के और गाँव के कुत्ते पीछे लग जाते थे। मैंने बाइसिकिल को और भी हवा कर दिया। सोचा कि मेरे घर सितारपुर से पंद्रह मील पर कालानगर है—वहाँ की मलाई की बरफ़ अच्छी होती है और वहीं मेरे एक मित्र रहते हैं; वे कुछ सनकी हैं। कहते हैं कि जिसे पहले देख लेंगे, उससे विवाह करेंगे। उनसे कोई विवाह की चर्चा करता है, तो अपने सिद्धान्त के मंडन का व्याख्यान देने लग जाते हैं। चलो, उन्हीं से सिर ख़ाली करें।
ख़याल पर ख़याल बँधने लगा। उनके विवाह का इतिहास याद आया। उनके पिता कहते थे कि सेठ गणेशलाल की एकलौती बेटी से अब की छुट्टियों में तुम्हारा ब्याह कर देंगे। पड़ोसी कहते थे कि सेठजी की लड़की कानी और मोटी है और आठ ही वर्ष की है। पिता कहते थे कि लोग जलकर ऐसी बातें उड़ाते हैं; और लड़की वैसी हो भी तो क्या, सेठजी के कोई लड़का है नहीं; बीस-तीस हज़ार का गहना देंगे। मित्र महाशय मेरे साथ-साथ पहले डिबेटिंग क्लबों में बाल-विवाह और माता-पिता की ज़बरदस्ती पर इतने व्याख्यान झाड़ चुके थे कि अब मारे लज्जा के साथियों में मुँह नहीं दिखाते थे। क्योंकि पिताजी के सामने चीं करने की हिम्मत नहीं थी। व्यक्तिगत विचार से साधारण विचार उठने लगे। हिंदू-समाज ही इतना सड़ा हुआ है कि हमारे सद्विचार एक तरह के पशु हैं जिनकी बलि माता-पिता की ज़िद और हठ की वेदी पर चढ़ाई जाती है।...भारत का उद्धार तब नहीं हो सकता।
फिस्स्स्! एकदम अर्श से फ़र्श पर गिर पड़े। बाइसिकिल की फूँक निकल गई। कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। पंप साथ नहीं था और नीचे देखा तो जान पड़ा कि गाँव के लड़कों ने सड़क पर ही काँटों की बाड़ लगाई है। उन्हें भी दो गालियाँ दी पर उससे तो पंक्चर सुधरा नहीं। कहाँ तो भारत का उद्धार हो रहा था और कहाँ अब कालानगर तक इस चरखे को खैंच ले जाने की आपत्ति से कोई निस्तार नहीं दिखता। पास के मील के पत्थर पर देखा कि कालानगर यहाँ से सात मील है। दूसरे पत्थर के आते-आते मैं बेदम हो लिया था। धूप जेठ की और कंकरीली सड़क, जिसमें लदी हुई बैलगाड़ियों की मार से छः-छः इंच शक्कर की-सी बारीक पिसी हुई सफ़ेद मिट्टी बिछी हुई! काले पेटेंट लेदर के जूतों पर एक-एक इंच सफ़ेद पालिश चढ़ गई। लाल मुँह को पोंछते-पोंछते रूमाल भीग गया और मेरा सारा आकार सभ्य विद्वान का-सा नहीं, वरन सड़क कूटने वाले मज़दूर का-सा हो गया। सवारियों के हम लोग इतने ग़ुलाम हो गए हैं कि दो-तीन मील चलते ही छठी का दूध याद आने लगता है!
2
बाबूजी, क्या बाइसिकिल में पंक्चर हो गया?
एक तो चश्मा, उस पर रेत की तह जमी हुई, उस पर ललाट से टपकती हुई पसीने की बूँदें; गर्मी की चिढ़ और काली रेत की-सी लंबी सड़क—मैंने देखा ही नहीं था कि दोनों ओर क्या है। यह शब्द सुनते ही सिर उठाया, तो देखा कि एक सोलह-सत्रह वर्ष की कन्या सड़क के किनारे खड़ी है।
हाँ, हवा निकल गई है और पंक्चर भी हो गया है। पंप मेरे पास है नहीं। कालानगर कुछ बहुत दूर तो है ही नहीं—अभी जा पहुँचता हूँ।
अंत का वाक्य मैंने केवल ऐंठ दिखाने के लिए कहा था। मेरा जी जानता था कि पाँच मील पाँच सौ मील के-से दिख रहे थे।
इस सूरत से आप कालानगर क्या कलकत्ते पहुँच जाएँगे! ज़रा भीतर चलिए, कुछ जल पीजिए। आपकी जीभ सूखकर तालू से चिपक गई होगी। चाचाजी की बाइसिकिल में पंप है और हमारा नौकर गोविंद पंक्चर सुधारना भी जानता है।
नहीं, नहीं.
नहीं, नहीं क्या, हाँ, हाँ।
यूँ कहकर बालिका ने मेरे हाथ से बाइसिकिल छीन ली और सड़क के एक तरफ़ हो ली। मैं भी उसके पीछे चला। देखा कि एक कँटीली बाड़ से घिरा बग़ीचा है जिसमें एक बँगला है। यहीं पर कोई 'चाचाजी' रहते होंगे परंतु यह बालिका कैसी!
मैंने चश्मा रूमाल से पोंछा और उसका मुँह देखा। पारसी चाल की एक गुलाबी साड़ी के नीचे चिकने काले बालों से घिरा हुआ उसका मुखमंडल दमकता था और उसकी आँखें मेरी ओर कुछ दया, हँसी और कुछ विस्मय से देख रही थीं। बस पाठक! ऐसी आँखें मैंने कभी नहीं देखी थीं। मानो वे मेरे कलेजे को घोलकर पी गईं। एक अद्भुत कोमल शांत ज्योति उनमें से निकल रही थी। कभी एक तीर में मारा जाना सुना है? कभी एक निगाह में हृदय बेचना पड़ा है? कभी तारामैत्रक और चक्षुमैत्र नाम आए हैं? मैंने एक सेकंड में सोचा और निश्चय कर लिया कि ऐसी सुंदर आँखें त्रिलोकी में न होंगी और यदि किसी स्त्री की आँखों को प्रेम-बुद्धि से कभी देखूँगा तो इन्हीं को।
आप सितारपुर से आए हैं। आपका नाम क्या है?
मैं जयदेवशरण वर्मा हूँ। आपके चाचाजी...?
“ओ हो, बाबू जयदेवशरण वर्मा, बी. ए.; जिन्होंने 'सुखमय जीवन' लिखा है! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपके दर्शन हुए! मैंने आपकी पुस्तक पढ़ी है और चाचाजी तो उसकी प्रशंसा बिना किए एक दिन भी नहीं जाने देते। वे आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न होंगे, बिना भोजन किए आपको न जाने देंगे और आपके ग्रंथ के पढ़ने से हमारा परिवार-सुख कितना बढ़ा है, इस पर कम-से-कम दो घंटे तक व्याख्यान देंगे।
स्त्री के सामने उसके नैहर की बड़ाई कर दें और लेखक के सामने उसके ग्रंथ की। यह प्रिय बनने का अमोघ मंत्र है। जिस साल मैंने बी.ए. पास किया था, उस साल कुछ दिन लिखने की धुन उठी थी। लॉ कॉलेज के फर्स्ट इयर में सेक्शन और कोड की परवाह न करके एक 'सुखमय जीवन' नामक पोथी लिख चुका था। समालोचकों ने आड़े हाथों लिया था और वर्ष-भर में सत्रह प्रतियाँ बिकी थीं। आज मेरी क़दर हुई कि कोई उसका सराहने वाला तो मिला!
इतने में हम लोग बरामदे में पहुँचे, जहाँ पर कनटोप पहने, पंजाबी ढंग की दाढ़ी रखे एक अधेड़ महाशय कुर्सी पर बैठे पुस्तक पढ़ रहे थे। बालिका बोली—
चाचाजी, आज आपके बाबू जयदेवशरण वर्मा बी. ए. को साथ लाई हूँ। इनकी बाइसिकिल बेकाम हो गई है। अपने प्रिय ग्रंथकार से मिलाने के लिए कमला को धन्यवाद मत दीजिए, दीजिए उनके पंप भूल आने को!
वृद्ध ने जल्दी ही चश्मा उतारा और दोनों हाथ बढ़ाकर मुझसे मिलने के लिए पैर बढ़ाए।
कमला, ज़रा अपनी माता को तो बुला ला। आइए बाबू साहब, आइए। मुझे आपसे मिलने की बड़ी उत्कंठा थी। मैं गुलाबराय वर्मा हूँ। पहले कमसेरियट में हेड क्लर्क था। अब पेंशन लेकर इस एकाक स्थान में रहता हूँ। दो गौ रखता हूँ और कमला तथा उसके भाई प्रबोध को पढ़ाता हूँ। मैं ब्रह्मसमाजी हूँ; मेरे यहाँ परदा नहीं है। कमला ने हिंदी मिडिल पास कर लिया है। हमारा समय शास्त्रों के पढ़ने में बीतता है। मेरी धर्मपत्नी भोजन बनाती और कपड़े सी लेती है; मैं उपनिषद और योगवासिष्ठ का तर्जुमा पढ़ा करता हूँ। स्कूल में लड़के बिगड़ जाते हैं, प्रबोध को इसलिए घर में पढ़ाता हूँ।
इतना परिचय दे चुकने पर वृद्ध ने श्वास लिया। मुझे इतना ज्ञान हुआ कि कमला के पिता मेरी जाति के ही हैं। जो कुछ उन्होंने कहा था, उसकी ओर मेरे कान नहीं थे—मेरे कान उधर थे, जिधर से माता को लेकर कमला आ रही थी।
'आपका ग्रंथ बड़ा ही अपूर्व है। दांपत्य सुख चाहने वालों के लिए लाख रुपए से भी अनमोल है। धन्य है आपको! स्त्री को कैसे प्रसन्न रखना, घर में कलह कैसे नहीं होने देना, बाल-बच्चों को क्योंकर सच्चरित्र बनाना, इन सब बातों में आपके उपदेश पर चलने वाला पृथ्वी पर ही स्वर्ग-सुख भोग सकता है। पहले कमला की माँ और मेरे बीच कभी-कभी खटपट हो जाया करती थी। उसके ख़याल अभी पुराने ढंग के हैं। पर जब से मैं रोज़ भोजन के पीछे उसे आध घंटे तक आपकी पुस्तक का पाठ सुनाने लगा हूँ, तब से हमारा जीवन हिंडोले की तरह झूलते-झूलते बीतता है।
मुझे कमला की माँ पर दया आई, जिसको वह कूड़ा-करकट रोज़ सुनना पड़ता होगा। मैंने सोचा कि हिंदी के पत्र-संपादकों में यह बूढ़ा क्यों न हुआ? यदि होता तो आज मेरी तूती बोलने लगती।
आपको गृहस्थ जीवन का कितना अनुभव है! आप सब कुछ जानते हैं! भला, इतना ज्ञान कभी पुस्तकों से मिलता है? कमला की माँ कहा करती थी कि आप केवल किताबों के कीड़े हैं, सुनी-सुनाई बातें लिख रहे हैं। मैं बार-बार यह कहता था कि इस पुस्तक के लिखने वाले को परिवार का ख़ूब अनुभव है। धन्य है आपकी सहधर्मिणी! आपका और उसका जीवन कितने सुख से बीतता होगा! और जिन बालकों के आप पिता हैं, वे कैसे बड़भागी हैं कि सदा आपकी शिक्षा में रहते हैं; आप जैसे पिता का उदाहरण देखते हैं।”
कहावत है कि वेश्या अपनी अवस्था कम दिखाना चाहती है और साधु अपनी अवस्था अधिक दिखाना चाहता है। भला, ग्रंथकार का पद इन दोनों में किसके समान है? मेरे मन में आया कि कह दूँ कि अभी मेरा पचीसवाँ वर्ष चल रहा है, कहाँ का अनुभव और कहाँ का परिवार? फिर सोचा कि ऐसा कहने से ही मैं वृद्ध महाशय की निगाहों से उतर जाऊँगा और कमला की माँ सच्ची हो जाएगी कि बिना अनुभव के छोकरे ने गृहस्थ के कर्तव्य धर्मों पर पुस्तक लिख मारी है। यह सोचकर मैं मुस्कुरा दिया और इस तरह मुँह बनाने लगा कि वृद्ध समझा कि अवश्य मैं संसार-समुद्र में गोते मार-मारकर नहाया हुआ हूँ।
3
वृद्ध ने उस दिन मुझे जाने नहीं दिया। कमला की माता ने प्रीति के साथ भोजन कराया और कमला ने पान लाकर दिया। न मुझे अब कालानगर की मलाई की बरफ़ याद रही और न सनकी मित्र की। चाचाजी की बातों में फ़ी सैकड़े सत्तर तो मेरी पुस्तक और उसके रामबाण लाभों की प्रशंसा थी, जिसको सुनते-सुनते मेरे कान दुख गए। फ़ी सैकड़े पचीस वह मेरी प्रशंसा और मेरे पति-जीवन और पितृ-जीवन की महिमा गा रहे थे। काम की बात बीसवाँ हिस्सा थी जिससे मालूम पड़ा कि अभी कमला का विवाह नहीं हुआ है, उसे अपनी फूलों की क्यारी को सँभालने का बड़ा प्रेम है, वह 'सखी' के नाम से 'महिला मनोहर' मासिक पत्र में लेख भी दिया करती है।
सायंकाल को मैं बग़ीचे में टहलने निकला। देखता क्या हूँ कि एक कोने में केले के झाड़ों के नीचे मोतिए और रजनीगंधा की क्यारियाँ हैं और कमला उनमें पानी दे रही है। मैंने सोचा कि यही समय है। आज मरना है या जीना है। उसको देखते ही मेरे हृदय में प्रेम की अग्नि जल उठी थी और दिन-भर वहाँ रहने से वह धधकने लग गई थी। दो ही पहर में मैं बालक से युवा हो गया था। अंग्रेज़ी-महाकाव्यों में, प्रेममय उपन्यासों में और कोर्स के संस्कृत-नाटकों में जहाँ-जहाँ प्रेमिका-प्रेमिक का वार्तालाप पढ़ा था, वहाँ-वहाँ के वाक्यों को खोज रहा था, पर यह निश्चय नहीं कर सका कि इतने थोड़े परिचय पर भी बात कैसे करनी चाहिए। अंत में अंग्रेज़ी पढ़ने वाले की धृष्टता ने आर्यकुमार की शालीनता पर विजय पाई और चपलता कहिए, बेसमझी कहिए, ढीठपन कहिए, पागलपन कहिए, मैंने दौड़कर कमला का हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे पर सुर्खी दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से गिर पड़ी। मैं उसके कान में कहने लगा—
आपसे एक बात कहनी है।
क्या? यहाँ कहने की कौन-सी बात है?
जब से आपको देखा है तबसे...”
बस, चुप करो। ऐसी घृष्टता!
अब मेरा वचन-प्रवाह उमड़ चुका था। मैं स्वयं नहीं जानता था कि मैं क्या कह रहा हूँ, पर लगा बकने, “प्यारी कमला, तुम मुझे प्राणों से बढ़कर हो; प्यारी कमला, मुझे अपना भ्रमर बनने दो! मेरा जीवन तुम्हारे बिना मरुस्थल है, उसमें मंदाकिनी बनकर बहो। मेरे जलते हुए हृदय में अमृत की पट्टी बन जाओ। जब से तुम्हें देखा है, मेरा मन मेरे अधीन नहीं है। मैं तब तक शांति न पाऊँगा तब तक तुम...”
कमला ज़ोर से चीख़ उठी और बोली—आपको ऐसी बातें कहते लज्जा नहीं आती? धिक्कार है आपकी शिक्षा को और धिक्कार है आपकी विद्या को! इसी को आपने सभ्यता मान रखा है कि अपरिचित कुमारी से एकांत ढूँढकर ऐसा घृणित प्रस्ताव करें! तुम्हारा यह साहस कैसे हो गया? तुमने मुझे क्या समझ रखा है? 'सुखमय जीवन' का लेखक और ऐसा घृणित चरित्र! चिल्लू-भर पानी में डूब मरो। अपना काला मुँह मुझे मत दिखाओ। अभी चाचाजी को बुलाती हूँ।
मैं सुनता जा रहा था। क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ? यह अग्निवर्षा मेरे किस अपराध पर? तो भी मैंने हाथ नहीं छोड़ा। कहने लगा, सुनो कमला, यदि तुम्हारी कृपा हो जाए, तो सुखमय जीवन...”
देखा तेरा सुखमय जीवन! आस्तीन के साँप! पापात्मा!! मैंने साहित्य-सेवी जानकर और ऐसे उच्च विचारों का लेखक समझकर तुझे अपने घर में घुसने दिया था और तेरा विश्वास और सत्कार किया था। प्रच्छन्नपापिन! वकदांभिक! बिड़ाल व्रतिक! मैंने तेरी सारी बातें सुन ली हैं। - चाचाजी आकर लाल-लाल आँखें दिखाते हुए, क्रोध से काँपते हुए कहने लगे, शैतान, तुझे यहाँ आकर माया-जाल फैलाने का स्थान मिला। ओफ़। मैं तेरी पुस्तक से छला गया। पवित्र जीवन की प्रशंसा में फ़ार्मों के फ़ार्म काले करने वाले, तेरा ऐसा हृदय! कपटी! विष के घड़े...‘
उनका धाराप्रवाह बंद ही नहीं होता था, पर कमला की गालियाँ और थीं और चाचाजी की और। मैंने भी ग़ुस्से में आकर कहा, बाबू साहब, ज़बान सँभालकर बोलिए। आपने अपनी कन्या को शिक्षा दी है और सभ्यता सिखाई है, मैंने भी शिक्षा पाई है और कुछ सभ्यता सीखी है। आप धर्म-सुधारक हैं। यदि मैं उसके गुणों और रूप पर आसक्त हो गया, तो अपना पवित्र प्रणय उसे क्यों न बताऊँ? पुराने ढर्रे के पिता दुराग्रही होते सुने गए हैं। आपने क्यों सुधार का नाम लजाया है?
तुम सुधार का नाम मत लो। तुम तो पापी हो। ‘सुखमय जीवन’ के कर्ता होकर...
भाड़ में जाए ‘सुखमय जीवन’! उसी के मारे नाकों दम है!! ‘सुखमय जीवन’ के कर्ता ने क्या यह शपथ खा ली है कि जनम-भर क्वाँरा रहे? क्या उसे प्रेमभाव नहीं हो सकता? क्या उसमें हृदय नहीं होता?
हें, जनम-भर क्वाँरा?
हें काहे की? मैं तो आपकी पुत्री से निवेदन कर रहा था कि जैसे उसने मेरा हृदय हर लिया है वैसे यदि अपना हाथ मुझे दे, तो उसके साथ 'सुखमय जीवन' के उन आदर्शों को प्रत्यक्ष अनुभव करूँ, जो अभी तक मेरी कल्पना में हैं। पीछे हम दोनों आपकी आज्ञा माँगने आते। आप तो पहले ही दुर्वासा बन गए।
तो क्या आपका विवाह नहीं हुआ? आपकी पुस्तक से तो जान पड़ता है कि आप कई वर्षों से गृहस्थ-जीवन का अनुभव रखते हैं। तो कमला की माता ही सच्ची थीं।
इतनी बातें हुई थीं, पर न-मालूम क्यों मैंने कमला का हाथ नहीं छोड़ा था। इतनी गर्मी के साथ शास्त्रार्थ हो चुका था, परंतु वह हाथ, जो क्रोध के कारण लाल हो गया था, मेरे हाथ में ही पकड़ा हुआ था। अब उसमें सात्विक भाव का पसीना आ गया था और कमला ने लज्जा से आँखें नीची कर ली थीं। विवाह के पीछे कमला कहा करती है कि न-मालूम विधाता की किस कला से उस समय मैंने तुम्हें झटककर अपना हाथ नहीं खेंच लिया। मैंने कमला के दोनों हाथ खैंचकर अपने हाथों के संपुट में ले लिए (और उसने उन्हें हटाया नहीं!) और इस तरह चारों हाथ जोड़कर वृद्ध से कहा—
चाचाजी, उस निकम्मी पोथी का नाम मत लीजिए। बेशक कमला की माँ सच्ची है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक पहचान सकती हैं कि कौन अनुभव की बातें कर रहा है और कौन हाँक रहा है। आपकी आज्ञा हो, तो कमला और मैं दोनों सच्चे सुखमय जीवन का आरंभ करें। दस वर्ष पीछे मैं जो पोथी लिखूँगा, उसमें किताबी बातें न होंगी, केवल अनुभव की बातें होंगी।
वृद्ध ने जेब से रूमाल निकालकर चश्मा पोंछा और अपनी आँखें पोंछीं। आँखों पर कमला की माता की विजय होने के क्षोभ के आँसू थे, या घर बैठे पुत्री को योग्य पात्र मिलने के हर्ष के आँसू, राम जाने।
उन्होंने मुस्कराकर कमला से कहा, दोनों मेरे पीछे-पीछे चले आओ। कमला! तेरी माँ ही सच कहती थी। वृद्ध बँगले की ओर चलने लगे। उनकी पीठ फिरते ही कमला ने आँखें मूँदकर मेरे कंधे पर सिर रख दिया।
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