Sunday, July 24, 2022

कहानी | राजपूत कै़दी | लेव तॉलस्तॉय | अनुवाद - प्रेमचंद | Kahani | Rajput Kaidi | Leo Tolstoy


 

धर्म सिंह नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफ़सर था. एक दिन माता की पत्री आई कि मैं बूढ़ी होती जाती हूं, मरने से पहले एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है, यहां आकर मुझे विदा कर आशीर्वाद लो और क्रिया कर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना. तुम्हारे वास्ते मैंने एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान है. यदि तुम्हें भाए तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना.


उसने सोचा-ठीक है, माता दिनों-दिन दुर्बल होती जा रही है, संभव है कि फिर मैं उसके दर्शन न कर सकूं. इस कारण चलना ही ठीक है. कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने में क्या हानि है. वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को प्रस्तुत हो गया.


उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा था. रास्ते में सदैव भय रहता था. यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे. इस कारण यह प्रबंध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कंपनी मुसाफ़िरों को एक किले से दूसरे किले तक पहुंचा आया करती थी.


गरमी की रात थी. दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियां लाद कर तैयार हो गईं. सिपाही बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली. धर्म सिंह घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था. सोलह मील का सफ़र था, गाड़ियां धीरे-धीरे चलती थीं. कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था.


दोपहर हो चुकी थी. रास्ता आधा भी नहीं कटा था. गरम रेत उड़ रही थी. धूप आग का काम कर रही थी. छाया कहीं नहीं थी. साफ़ मैदान था. सड़क पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी. धर्म सिंह आगे था और कभी-कभी इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियां आकर मिल जाएं. मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न चलूं. घोड़ा तेज़ है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर निकल जाऊंगा. यह सोच ही रहा था कि चरन सिंह बंदूक हाथ में लिए उसके पास आया और बोला- आओ, आगे चलें. इस समय बड़ी गरमी है. भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूं. सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं. चरनसिंह भारी भरकम आदमी था. उसका मुंह लाल था.


धर्म सिंह- तुम्हारी बंदूक भरी हुई है?


चरन सिंह- हां, भरी हुई है.


धर्म सिंह- अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना.


यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएं बाएं था. साफ़ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों ओर जा सकती थी. आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी.


धर्म सिंह-उस पहाड़ी पर चढ़ कर चारों ओर देख लेना उचित है. ऐसा न हो कि अचानक मरहठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें.


चरन सिंह- अजी, चले भी चलो.


धर्म सिंह- नहीं, आप यहां ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूं.


धर्म सिंह ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया. घोड़ा शिकारी था, उसे पक्षी की भांति ले उड़ा. वह अभी पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुंचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े. धर्म सिंह लौट पड़ा, परंतु मरहठों ने उसे देख लिया और बंदूकें संभाल कर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके. धर्म सिंह बेतहाशा नीचे उतरा और चरन सिंह को पुकार कर कहने लगा- बंदूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला- प्यारे, अब समय है. देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जाएगा, एक बार बंदूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बांधने का नहीं. उधर चरन सिंह मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूंछ ही पूंछ दिखाई दी, और कुछ नहीं.


धर्म सिंह ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परंतु छह मरहठे उस पर टूट पड़े. धर्म सिंह का घोड़ा तेज़ था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज़ थे. तिस पर यह बात हुई कि वे सामने से आ रहे थे. धर्म सिंह चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परंतु घोड़ा इतना तेज़ जा रहा था कि रुक नहीं सका. सीधा मरहठों से जा टकराया. सजे घोड़े पर सवार बंदूक उठाए लाल दाढ़ी वाला एक मरहठा दांत निकालता हुआ उसकी ओर लपका. धर्म सिंह ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भलीभांति जानता हूं. यदि वे मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कंदरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एक-दो को ढेर कर दो. मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं. धर्म सिंह और मरहठों में दस हाथ का ही अंतर रह गया था कि पीछे से गोली चली. धर्म सिंह का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ ही धरती पर आ रहा.


धर्म सिंह उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्कें कसने लगे. धर्म सिंह ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परंतु दूसरों ने आकर बंदूक के कुंदों से उसे मारना शुरू किया और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा. मरहठों ने उसकी मुस्कें कस लीं, कपड़े फाड़ दिए, रुपया-पैसा सब छीन लिया. धर्म सिंह ने देखा कि घोड़ा जहां गिरा था, वहीं पड़ा है. एक मरहठे ने पास जा कर जीन उतारनी चाही. घोड़े के सिर में एक छेद हो गया था. उसमें से काला रक्त बह रहा था. दो हाथ इधर-उधर की धरती कीचड़ हो गई थी. घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था. मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया. उसने जीन उतार ली.


लाल दाढ़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया. दूसरों ने धर्म सिंह को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बांध दिया और जंगल का रास्ता लिया.


धर्म सिंह का बुरा हाल था. मस्तक फटा था, लहू बहकर आंखों पर जम गया था. मुस्कों के मारे कंधा फटा जाता था. वह हिल नहीं सकता था. उसका सिर बार-बार मरहठे की पीठ से टकराता था. मरहठे पहाड़ियों पर ऊपर नीचे होते हुए एक नदी पर पहुंचे, उसे पार करके एक घाटी मिली. धर्म सिंह यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं. परंतु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न देख सका.


शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर चढ़ गए. यहां धुआं और कुत्तों का भूंकना सुनाई दिया, मानो कोई बस्ती है. थोड़ी देर चलकर गांव आ गया. मरहठों ने गांव छोड़ दिया, धर्म सिंह को एक ओर धरती पर बिठा दिया. बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने लगे. परंतु एक मरहठे ने उन्हें वहां से भगा दिया. लाल दाढ़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबला पतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था. मरहठे ने उससे कुछ कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया. मरहठों ने धर्म सिंह की मुस्कें खोल कर उसके पांव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया.


 उस रात धर्म सिंह जरा भी नहीं सोया. गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातःकाल हो गया. दीवार में एक झरोखा था, उसी से अंदर उजाला आ रहा था. झरोखे के द्वारा धर्म सिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दाईं ओर एक मरहठे का झोपड़ा है. उसके सामने दो पेड़ हैं. द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है. पास एक बकरी और उसके बच्चे पूंछ हिलाते फिर रहे हैं. एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोपड़े की ओर आ रही है. वह अंदर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया. फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिला कर लौटते हुए दिखाई पड़े. इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आ कर झरोखे में टहनियां डालने लगे. प्यास के मारे धर्म सिंह का कंठ सूखा जाता था. उसने उन्हें पुकारा, परंतु वे भाग गए.


इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला. लाल दाढ़ी वाला मरहठा भीतर आया. उसके साथ एक नाटा पुरुष था. उसका सांवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दाढ़ी थी. वह प्रसन्नमुख हंसोड़ था. यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बढ़िया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी. चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था. लाल दाढ़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्म सिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा. सांवला पुरुष आकर धर्म सिंह के पास बैठ गया और आंखें मटका कर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा-बड़ा अच्छा राजपूत है.


धर्म सिंह ने एक अक्षर भी न समझा- हां, पानी मांगा. सांवला पुरुष हंसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है. सांवले पुरुष ने पुकारा- सुशीला!


एक छोटी-सी कन्या दौड़ती हुई भीतर आई. तेरह वर्ष की अवस्था, सांवला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और रसीले, सुंदर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए. सांवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी. पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्म सिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है.


फिर ख़ाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि सांवला पुरुष हंस पड़ा. तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई. इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया.


कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा. धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है. वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था. बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गांव है. एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं. सांवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा. धर्म भीतर चला गया, देखा कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार के आगे गद्दा बिछा हुआ है. तकिए लगे हुए हैं. दाईं बाईं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं. उन पर चांदी के काम की बंदूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं. गद्दे पर पांच मरहठे बैठे हैं. एक सांवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि-सब भोजन कर रहे हैं.


धर्म सिंह धरती पर बैठ गया. भोजन से निश्चिंत होकर एक मरहठा बोला- देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (सांवले पुरुष की ओर उंगली करके) और संपतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब संपतराव तुम्हारा स्वामी है.


धर्म सिंह कुछ न बोला. संपतराव हंसने लगा.


मरहठा- वह यह कहता है कि तुम घर से रुपए मंगवा लो, दंड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा.


धर्म सिंह-कितने रुपए?


मरहठा-तीन हज़ार.


धर्म सिंह-मैं तीन हज़ार नहीं दे सकता.


मरहठा-कितना दे सकते हो?


धर्म सिंह- पांच सौ.


यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए. संपतराव दयाराम से तक़रार करने लगा और इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगा कि उसके मुंह से झाग निकल आया. दयाराम ने आंखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे. एक मरहठे ने कहा-पांच सौ रुपए से काम नहीं चल सकता. दयाराम को संपतराव का रुपया देना है. पांच सौ रुपए में तो संपतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हज़ार से कम नहीं हो सकता. यदि रुपया न मंगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जाएंगे.


धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डराएंगे. वह खड़ा होकर बोला-इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखाएगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूंगा. मैं तुम चांडालों से नहीं डरता.


संपतराव-अच्छा, एक हज़ार मंगाओ.


धर्म सिंह-पांच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं. यदि तुम मुझे मार डालोगे तो इस पांच सौ से भी हाथ धो बैठोगे.


यह सुन कर मरहठे आपस में सलाह करने लगे. इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिए हुए भीतर आया. यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई. धर्म सिंह उसे देख कर चकित हो गया. यह पुरुष चरन सिंह था. सेवक ने चरन सिंह को धर्म के पास बैठा दिया. वे एक दूसरे से अपनी बिथा करने लगे. धर्म सिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया. चरन सिंह बोला- मेरा घोड़ा अड़ गया, बंदूक रंजक चाट गई और संपतराव ने मुझे पकड़ लिया.


संपतराव-(फिर अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो. जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा.(धर्म सिंह की ओर देख कर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है. उसने पांच हज़ार रुपए भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालन-पोषण भलीभांति किया जाएगा.


धर्म सिंह-मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पांच सौ रुपए से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो.


मरहठे चुप हो गए. संपतराव झट से क़लमदान उठा लाया. काग़ज, क़लम, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा. वह पांच सौ रुपए लेने पर राजी हो गया था.


धर्म सिंह-जरा ठहरो. देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभांति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए. बेड़ियां भी निकाल दो.


संपतराव-जैसा चाहे वैसा भोजन करो. बेड़ियां नहीं निकाल सकता. शायद तुम भाग जाओ. हां, रात को निकाल दिया करुंगा.


धर्म सिंह ने पत्र लिख दिया. परंतु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊंगा.


तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्म सिंह को एक कोठरी में पहुंचा कर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियां देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया.


धर्म सिंह और चरन सिंह को इस प्रकार रहते-रहते एक महीना गुजर गया. संपतराव उनको देखकर सदैव हंसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अधपकी रोटी के सिवाय और कुछ न देता था. चरन सिंह उदास रहता और कुछ न करता. दिन भर कोठरी में पड़ा सोया रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूटकर अपने घर पहुंचूं. धर्म तो जानता था कि रुपया कहां से आना है. जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निर्वाह करती थी. वह बेचारी पांच सौ रुपए कैसे भेज सकती है. ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊंगा. वह घात में लगा हुआ था. कभी सीटी बजाता हुआ गांव का चक्कर लगाता, कभी बैठ कर मिट्टी के खिलौने और टोकरियां बनाता. वह हाथों का चतुर था.


एक दिन उसने एक गुड़िया बना कर छत पर रख दी. गांव की स्त्रियां जब पानी भरने आईं, तो सुशीला ने उनको बुला कर गुड़िया दिखलाई. वे सब हंसने लगीं. धर्म सिंह ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परंतु किसी ने नहीं ली. वह उसे बाहर रख कर कोठरी में चला गया कि देखें क्या होता है. सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई.


अगले दिन धर्म ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है. एक बुढ़िया आई. उसने गुड़िया छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी. धर्म सिंह ने और गुड़िया बनाकर सुशीला को दे दी. फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटा-सा लोटा लाई, भूमि पर रखा और धर्म को दिखा कर भाग गई. धर्म ने देखा तो उसमें दूध था. अब सुशीला नित्य अच्छे-अच्छे भोजन ला कर धर्म को देने लगी.

एक दिन आंधी आई. एक घंटा मूसलाधार मेंह बरसा, नदियां-नाले भर गए. बांध पर सात फुट पानी चढ़ आया. जहां-तहां झरने झरने लगे, धार ऐसी प्रबल थी कि पत्थर लुढ़क जाते थे. गांव की गलियों में नदियां बहने लगीं. आंधी थम जाने पर धर्म सिंह ने संपतराव से चाकू मांग कर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर दो गुड़िया बांधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा. सारा गांव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों को नाचते देख कर तालियां बजाने लगा. संपतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी. धर्म सिंह ने उसे ठीक कर दिया. उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियां ला-ला कर धर्म से ठीक कराने लगे. इस कारण संपतराव ने प्रसन्न होकर धर्म सिंह को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी.


एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया. सब लोग धर्म सिंह के पास आ कर दवा-दारू मांगने लगे. धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिला कर कुछ मंत्र-सा पढ़ कर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो. पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया. धर्म के भाग्य अच्छे थे. अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए. हां, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे.


दयाराम धर्म सिंह से चिढ़ता था. जब उसे देखता, मुंह फेर लेता. पहाड़ी के नीचे एक और बू़ढ़ा रहता था. मंदिर में आने के समय धर्म सिंह उसे देखा करता था. यह बूढ़ा नाटा था. दाढ़ी मूंछ बर्फ़ की भांति श्वेत, मुंह पोला, उसमें झुर्रियां पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दांतों के सिवाय सब दांत टूटे हुए. वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झांकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब कभी धर्म सिंह को देख पाता था तो जल कर राख हो जाता और मुंह फेर लेता था.


एक दिन धर्म सिंह बूढ़े का घर देखने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरा. कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला. चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी. बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे. वृक्षों में एक झोपड़ा था. धर्म सिंह आगे बढ़ कर देखना चाहता था कि उसकी बेड़ी खड़की. बूढ़ा चौंका. कमर से पिस्तौल निकाल कर उसने धर्म सिंह पर गोली चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया. बूढ़े को आ कर संपतराव से कहते सुना कि धर्म सिंह बड़ा दुष्ट है. संपतराव ने धर्म को बुलाकर पूछा- तुम बूढ़े के घर क्यों गए थे?

धर्म सिंह बोला- मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा. मैं केवल यह देखने लगा था कि वह बूढ़ा कहां रहता है. संपत ने बूढ़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़बड़ाता ही रहा. धर्म सिंह केवल इतना ही समझ सका कि बूढ़ा यह कह रहा है कि राजपूतों का गांव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए. बूढ़ा चल दिया, तो धर्म सिंह ने संपतराव से पूछा कि बूढ़ा कौन है?


संपतराव- यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं. पहले यह बड़ा धनवान था. इसके तीन स्त्रियां और आठ पुत्र थे. सब एक ही गांव में रहा करते थे. एक दिन राजपूतों ने धावा करके गांव जला दिया. इसके सात पुत्र तो मर गए, आठवां कैद हो गया. यह बू्ढ़ा राजपूतों के पास जा कर और उनके संग रह कर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा. अंत में उसे पा कर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया. फिर विरक्त होकर तीर्थयात्रा को चला गया. अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है. यह बूढ़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहां से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहां से जाने भी न दूंगा.


इस तरह धर्म यहां एक महीना रहा. दिन को वह इधर-उधर फिरा करता या कोई चीज़ बनाता, लेकिन रात को वह दीवार में छेद किया करता. दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था. लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था. यहां तक कि अंत में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया. बस, अब उसे यह चिंता हुई कि रास्ता मालूम हो जाए.


एक दिन संपतराव शहर गया हुआ था. धर्म सिंह भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया. संपतराव बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि धर्म सिंह को आंखों से परे न होने देना. इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्ला कर कहने लगा- मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गांव वालों को बुला लूंगा.


धर्म सिंह बालक को फुसलाने लगा- मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है. रोगियों के वास्ते मुझे एक बूटी की ज़रूरत है, तुम भी साथ चलो. बेड़ी के होते कैसे भागूंगा? असंभव है. आओ, कल मैं तुमको तीर-कमान बना दूंगा.


बालक मान गया. पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी. बेड़ी के कारण चलना कठिन था, परंतु ज्यों त्यों करके धर्म सिंह चोटी पर पहुंच कर चारों ओर देखने लगा. दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखाई दी. उसमें घोड़े चल रहे थे. घाटी के नीचे एक गांव था. उससे परे एक ऊंची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी. इन पहाड़ियों के बीचों बीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊंचे. पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं. कंदराओं में से जहां-तहां गांवों का धुआं उठ रहा था. वास्तव में यह मरहठों का देश था. उत्तर की ओर देखा, तो पैरों तले एक नदी बह रही है और वही गांव है, जिसमें वह रहा करता था. गांव के चारों ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियां नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं. गांव से परे एक पहाड़ी थी, परंतु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची. उससे परे दो पहाड़ियां और थीं, उन पर घना जंगल था. इनके बीच में मैदान था. मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआं-सा दिखाई दिया. अब धर्म सिंह को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहां से उदय होता और कहां अस्त हुआ करता था. उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा.


अंधेरा हो गया. मंदिर का घंटा बजने लगा. पशु घर लौट आए. धर्म सिंह भी अपनी कोठरी में आ गया. रात अंधेरी थी. उसने उसी रात भागने का विचार किया पर दुर्भाग्य से संध्या समय मरहठे घर लौट आए. आज उनके साथ एक मुर्दा था. मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है.


मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थी बना ‘राम नाम सत्त’ कहते हुए गांव से बाहर जाकर शमशान भूमि में दाह करके घर लौट आए. तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए. संपतराव घर ही में रहा. रात अंधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था.


धर्म सिंह ने सोचा कि रात को भागना ठीक है. चरन सिंह से कहा- भाई चरन सुरंग तैयार है. चलो, भाग चलें.


चरन सिंह-(भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?


धर्म सिंह-रास्ता मैं जानता हूँ.

चरन सिंह- माना कि तुम रास्ता जानते हो, परंतु एक रात में किले तक नहीं पहुंच सकते.


धर्म सिंह-यदि किले तक नहीं पहुंच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में छिप कर दिन काट लेंगे. देखो, मैंने भोजन का प्रबंध भी कर लिया है. यहां पड़े-पड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर से रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है. इस कारण यह सब बहुत बिगड़े हुए हैं. भागना ही उचित है.


चरन सिंह-अच्छा, चलो.


 गांव में जब सन्नाटा हो गया, तो धर्म सिंह सुरंग से बाहर निकल आया. पर चरन सिंह के पैर से एक पत्थर गिर पड़ा. धमाका हुआ तो संपतराव का कुत्ता भूंका, लेकिन धर्म सिंह ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुन कर वह चुप हो गया.


 रात अंधेरी थी. तारे निकले हुए थे. चारों ओर सन्नाटा था. घाटियां धुंध से ढंकी हुई थीं. चलते-चलते रास्ते में किसी छत पर से एक बूढ़े के राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी. दोनों दुबक गए. थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे बढ़े.


 धुंध बहुत छा गई. धर्म सिंह तारों की ओर देख कर राह चलने लगा. ठंड के कारण चलना सहज न था, धर्म सिंह कूदता फांदता चला जाता था, चरन सिंह पीछे रहने लगा.


 चरन सिंह- भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए.


धर्म सिंह-जूते निकाल कर फेंक दो, नंगे पैर चलो.


चरन सिंह ने जूते निकाल कर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पांव घायल कर दिए. वह ठहर-ठहर कर चलने लगा.


धर्म सिंह- देखो चरन, पांव तो फिर चंगे हो जाएंगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ लो कि जान गई.

चरन सिंह चुप होकर पीछे चलने लगा. थोड़ी दूर जाने पर धर्म सिंह बोला- हाय, हाय, हम रास्ता भूल गए, हमें तो बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ना चाहिए था.


चरन सिंह- ठहरो, जरा दम लेने दो. मेरे पैर घायल हो गए हैं. देखो, रक्त बह रहा है.


धर्म सिंह- कुछ चिंता नहीं, ये सब ठीक हो जाएंगे, तुम चले चलो.


वे लौट कर बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ गए. आगे जंगल मिला. झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले. इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए. समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा है.


प्रातःकाल होने लगा. किला यहां से अभी सात मील पर था. मैदान में पहुंचकर चरन सिंह बैठ गया और बोला- मेरे पांव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता.


धर्म सिंह-(क्रोध से) अच्छा तो रामराम, मैं अकेला ही चलता हूं.


चरन सिंह उठकर साथ हो लिया. तीन मील चलने पर अचानक सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी. वे भागकर जंगल में घुस गए.


धर्म सिंह ने देखा कि घोड़े पर चढ़ा हुआ एक मरहठा जा रहा है. जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं देखा. चरन भाई, अब चलो.

चरन सिंह- मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं.


चरन सिंह मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए. धर्म सिंह उसे उठाने लगा, तो चरन सिंह ने चीख़ मारी.


धर्म सिंह- हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ.


धर्म सिंह ने चरन सिंह को पीठ पर बिठा कर किले की राह ली.


धर्म सिंह- भाई चरन सिंह, सीधी तरह बैठे रहो, गला क्यों घोंटते हो?


 अब उधर की बात सुनिए. मरहठे ने चरन सिंह का शब्द सुन लिया. उसने गोली चलाई, परंतु खाली गई. मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ा कर चल दिया.


धर्म सिंह-चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज़ सुन ली. वह अपने साथियों को बुलाने गया है. यदि उसके आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जाएंगे, तो समझो कि जान गई.(मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता.


चरन सिंह- तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?


धर्म सिंह- कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर चल देना धर्म के विरुद्ध है.


धर्म सिंह फिर चरन सिंह को कंधे पर लाद कर चलने लगा. आधा मील चलने पर एक झरना मिला. धर्म सिंह बहुत थक गया था. चरन सिंह को कंधे से उतार कर विश्राम करने लगा. पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं. दोनों भाग कर झाड़ियों में छिप गए.


मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहां दोनों छिपे हुए थे. उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा. फिर क्या था, दोनों पकड़े गए. मरहठों ने दोनों को घोड़ों पर लाद लिया. राह में संपतराव मिल गया, अपने क़ैदियों को पहचाना. तुरंत उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलते-निकलते वे सब ग्राम में पहुंच गए.


उसी समय बूढ़ा भी वहां आ गया. सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए. बूढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरंत वध कर दो.


संपतराव- मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूं?

बूढ़ा-राजपूतों को पालना पाप है. वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मार कर झगड़ा समाप्त करो.

मरहठे इधर-उधर चले गए. संपतराव धर्म सिंह के पास आया और बोला- देखो धर्म सिंह, पंद्रह दिन के अंदर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूंगा, इसमें संदेह नहीं. अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरंत रुपया भेज दें.


दोनों ने पत्र लिख दिए. फिर वे पहले की भांति क़ैद कर दिए गए, परंतु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए.


 अब उन्हें अत्यंत कष्ट दिया जाने लगा. न बाहर जा पाते थे, न बेड़ियां निकाली जाती थीं. कुत्तों के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुंचा दिया जाता था, और कुछ नहीं. गड्ढा सीला था, उसमें अंधेरा और अति दुर्गंध थी. चरन सिंह का सारा शरीर सूख गया, धर्म सिंह मनमलीन, तनछीन रहने लगा. करे तो क्या करे?

धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है.


धर्म सिंह ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है. अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूं. कल जब आएगी, तब इसे देकर फिर बात करुंगा.


दूसरे दिन सुशीला नहीं आई. धर्म सिंह के कान में घोड़ों के टापों की आवाज आई. कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए. वे सब बातें करते जाते थे. धर्म सिंह को और तो कुछ न समझ में आया- हां, ‘राजपूत’ शब्द बारबार सुनाई दिया. इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों की सेना कहीं निकट आ पहुंची है.


तीसरे दिन सुशीला फिर आई और दो रोटियां गड्ढे में फेंक दीं, तब धर्म सिंह बोला- तू कल क्यों नहीं आई? देख, मैंने तेरे वास्ते ये खिलौने बनाए हैं.


सुशीला- खिलौने लेकर क्या करुंगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए. उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार कल पक्का कर लिया है. सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी.

धर्म सिंह- कौन मारना चाहता है?

सुशीला- मेरा पिता. बूढ़े ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है. मुझे तो यह सुनकर रोना आता है.


धर्म सिंह-यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बांस ला दो.

सुशीला-यह नहीं हो सकता.

धर्म सिंह-सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़कर कहता हूं कि एक बांस ला दो.

सुशीला-बांस कैसे लाऊं, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे. यह कह कर वह चली गई.


सूर्य अस्त हो गया. तारे चमकने लगे. चांद अभी नहीं निकला था, मंदिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया. धर्म सिंह इस विचार में बैठा था कि सुशीला बांस लाएगी अथवा नहीं.

अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी. देखा तो सामने की दीवार में बांस लटक रहा है. धर्म सिंह बहुत प्रसन्न हुआ. उसने बांस को नीचे खींच लिया.


बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे. गड्ढे के किनारे पर मुंह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा- धर्म सिंह, सिवाय दो के और सब बाहर चले गए हैं.


धर्म सिंह ने चरन सिंह से कहा- भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न कर देखें, हिम्मत न हारो. चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूं.


चरनसिंह- मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा. मैं नहीं भाग सकता.


धर्म सिंह- अच्छा, रामराम, परंतु मुझे निर्दयी मत समझना.


धर्म सिंह चरन सिंह से गले मिला, बांस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा धर्म सिंह ने. इस भांति वह बाहर निकल आया.


धर्म सिंह- सुशीला, तुम्हें भगवान कुशल से रखें. मैं जन्मभर तुम्हारा जस गाऊंगा. अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना.


धर्म सिंह ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी. वह उसे हाथ में उठा कर चलने लगा. वह चाहता था कि चंद्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुंच जाय, परंतु पहुंच न सका. चंद्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुंचने तक राह में कोई न मिला.


धर्म सिंह फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ. वह थक गया, हाथ-पांव घायल हो गए. विचारने लगा, अब क्या करुं? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं. यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा. माना कि प्रातःकाल से पहले किले में नहीं पहुंच सकता, न सही, दिन भर जंगल में काट दूंगा, रात आने पर फिर चल दूंगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया.

चांद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा. जंगल पीछे छूट गया, साफ़ मैदान आ गया. किला दिखाई देने लगा. बाईं ओर देखने पर मालूम हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं. धर्म सिंह मगन हो गया और बोला- अब क्या है, परंतु ऐसा न हो कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों तक न पहुंच सकूं, इस कारण जितना भागा जाए भागो.


 इतने में बाईं ओर दो सौ क़दम की दूरी पर कुछ मरहठे दिखाई दिए. धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा- भाइयों, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!


राजपूत सिपाहियों ने धर्म सिंह की पुकार सुन ली. मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे. वे दौड़े, धर्म सिंह भी बेड़ी उठा कर ‘भाइयों, भाइयों’ कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए.


राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहां से आए हो, परंतु धर्म सिंह घबराया हुआ ‘भाइयों, भाइयों’ पुकारता चला जाता था. निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया. धर्म सिंह सारा वृत्तांत कह कर बोला- भाइयों, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया. विधाता की यही लीला थी.

एक महीना पीछे पांच हज़ार मुद्रा देकर चरन सिंह छूटकर किले में आया. वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था.


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