वह कौन-सा मनुष्य है जिसने महा प्रतापी राजा भोज महाराज का नाम न सुना हो! उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत में व्याप रही है, और बड़े-बड़े महिपाल उसका नाम सुनते ही काँप उठते थे और बड़े-बड़े भूपति उसके पाँव पर अपना सिर नवाते। सेना उसकी समुद्र की तरंगों का नमूना और ख़ज़ाना उसका सोने-चाँदी और रत्नों की खान से भी दूना। उसके दान ने राजा कर्ण को लोगों के जी से भुलाया और उसके न्याय ने विक्रम को भी लजाया। कोई उसके राजभर में भूखा न सोता और न कोर्ड उघाड़ा रहने पाता। जो सत्तू माँगने आता उसे मोतीचूर मिलता और जो गजी चाहता उसे मलमल दिया जाता। पैसे की जगह लोगों को अशरफियाँ बाँटता और मेह की तरह भिखारियों पर मोती बरसाता। एक-एक श्लोक के लिए ब्राह्मणों को लाख-लाख रुपया उठा देता और एक-एक दिन में लाख-लाख गोदान करता, सवा लाख ब्राह्मणों को षट्रस भोजन कराके तब आप खाने को बैठता। तीर्थयात्रा-स्नान-दान और व्रत-उपवास में सदा तत्पर रहता। बड़े-बड़े चंद्रायण किए थे और बड़े-बड़े जंगल-पहाड़ छान डाले थे।
एक दिन शरद ऋतु में संध्या के समय सुंदर फुलवाड़ी के बीच स्वच्छ पानी के कुंड के तीर जिसमें कुमुद और कमलों के बीच जल-पक्षी कलोलें कर रहे थे, रत्न−जटित सिंहासन पर कोमल तकिए के सहारे स्वस्थ-चित्त बैठा हुआ महलों की सुनहरी कलसियाँ लगी हुई संगमरमर की गुम्जियों के पीछे से उदय होता हुआ पूर्णिमा का चाँद देख रहा था और निर्जन एकांत होने के कारण मन ही मन में सोचता कि अहो! मैंने अपने कुल को ऐसा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों का विकास होता है, क्या मनुष्य और क्या जीव-जंतु मैंने अपना सारा जन्म इन्हीं के भला करने में गँवाया और व्रत-उपवास करते-करते अपने फूल से शरीर को काँटा बनाया। जितना मैंने दान दिया उतना तो कभी किसी के ध्यान में भी न आया होगा, जिन-जिन तीर्थों की मैंने यात्रा की वहाँ कभी पंछी ने पर भी न मारा होगा, मुझसे बढ़कर इस संसार में और कौन पुण्यात्मा है और आगे भी कौन हुआ होगा! जो मैं ही कृतकार्य नहीं तो फिर कौन हो सकता है? मुझे अपने ईश्वर पर दावा है, वह मुझे अवश्य अच्छी गति देगा। ऐसा कब हो सकता है कि मुझे भी कुछ दोष लगे।
इसी अर्से में चोबदार पुकारा− चौधरी इंद्रत्त निगाह रू−ब−रू श्री महाराज सलामत। भोज ने आँख उठाई, दीवान ने साष्टांग दंडवत् की फिर सम्मुख आ हाथ जोड़ यूँ निवेदन किया, पृथ्वीनाथ! वह कुएँ सड़क पर, जिनके वास्ते आपने हुक्म दिया था, बनकर तैयार हो गए और आम के बाग़ भी सब जगह लग गए। जो पानी पीता है, आपको आसीस देता और जो उन पेड़ों की छाया में विश्राम करता है, आपकी बढ़ती दौलत मनाता है। राजा अति प्रसन्न हुआ और कहा कि सुन, मेरी अमलदारी भर में जहाँ-जहाँ सड़क है, कोस-कोस पर कुएँ खुदवा के सदवर्त बैठा दे और दुतरफ़ा पेड़ भी जल्द लगवा दे।
इसी अर्से में दानाध्यक्ष ने आकर आशीर्वाद दिया और निवेदन किया कि धर्मावतार! वह जो पाँच हज़ार ब्राह्मण हर साल जाड़ों में रज़ाई पाते हैं, सो ड्योढ़ी पर हाज़िर हैं। राजा ने कहा, अब पाँच के बदले पचास हज़ार मिला करे और रज़ाई की जगह शाल-दुशाला दिया जावे। दानाध्यक्ष दुशालों के लाने के वास्ते तोशेख़ाने में गया।
इमारत के दारोग़ा ने आकर मुजरा किया और ख़बर दी कि महाराज, वह बड़ा मंदिर जिसके जल्द बना देने के वास्ते सरकार से हुक्म हुआ है, आज उसकी नींव खुद गई, पत्थर गढ़े जाते हैं और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं। महाराज ने तिउरियाँ बदलकर उस दारोग़ा को ख़ूब घुड़का और कहा कि मूर्ख, वहाँ पत्थर और लोहे का क्या काम है! बिल्कुल मंदिर संगमरमर और संगमूसा से बनाया जावे और लोहे बदल उसमें सब जगह सोना काम में आवे जिसमें भगवान भी उसे देखकर प्रसन्न हो जावे, मेरा नाम इस संसार में अतुल कीर्ति पावे। यह सुनकर सारा दरबार पुकार उठा कि धन्य महाराज, धन्य, क्यों न हो, जब ऐसे हो तब तो ऐसे हो, आपने इस कलिकाल को सतयुग बना दिया मानो धर्म का उद्धार करने को इस जगत में अवतार लिया। आज आपसे बढ़कर और दूसरा कौन ईश्वर का प्यारा है। हमने तो पहले से ही आपको साक्षात धर्मराज विचारा है।
व्यास जी ने कथा आरंभ की, भजन-कीर्तन होने लगा। चाँद सिर पर चढ़ आया, घड़ियाली ने निवेदन किया कि महाराज रात आधी के निकट पहुँची। राजा की आँखों में नींद छा रही थी, व्यास जी कथा कहते थे पर राजा को ऊँघ आती थी। उठकर रनिवास में गया, जड़ाऊ पलंग और फूलों की सेज पर सोई रानियाँ पैर दाबने लगीं राजा की आँख झपक गर्इ तो स्वप्न में क्या देखता है कि वह बड़ा संगमरमर का मंदिर बनकर बिल्कुल तैयार हो गया। जहाँ कहीं उस पर नक़्क़शी का काम किया है तो बारीकी और सफ़ाई में हाथी दाँत को भी मात कर दिया है, जहाँ कहीं पच्चीकारी का हुनर दिखलाया है तो जवाहिरों को पत्थरों में जड़कर तसवीर का नमूना बना दिया है, कहीं लालों के गुल्लालों पर नीलम की बुलबुलें बैठी हैं और ओस की जगह हीरों के लोलक लटकाए हैं, कहीं पुखराजों की डंडियों से पन्ने के पत्ते निकालकर मोतियों के भुट्टे लगाए हैं, सोने की चोबों पर कमख़ाब के शामियाने और उनके नीचे बिल्लौर के हौज़ों में गुलाब और केवड़े के फुहारे छूट रहे हैं, मनों धूप जल रहा है, सैंकड़ों कपूर के दीपक बल रहे हैं। राजा देखते ही मारे घमंड के फूलकर मशक बन गया। कभी नीचे, कभी ऊपर, कभी दाहिने, कभी बाएँ निगाह करता और मन में सोचता कि क्या अब इतने पर भी मुझे कोई स्वर्ग में से रोकेगा या पवित्र पुण्यात्मा न कहेगा? मुझे अपने कर्मों का भरोसा है, दूसरे किसी से क्या काम पड़ेगा। इसी अर्से में वह राजा उस सपने के मंदिर में खड़ा-खड़ा क्या देखता है कि एक जोत-सी उसके सामने आसमान से उतरी चली आती है, उसका प्रकाश तो हज़ारों सूर्यों से भी अधिक है परंतु जैसे सूरज को बादल घेर लेता है इस प्रकार उसने मुँह पर घूँघट डाल लिया है नहीं तो राजा की आँखें कब उस पर ठहर सकती थीं वरन् इस घूँघट पर भी मारे चकाचौंध के झपकी चली जाती थीं। राजा उसे देखते ही काँप उठा और लड़खड़ाती-सी ज़ुबान से बोला कि हे महाराज, आप कौन हैं और मेरे पास किस प्रयोजन से आए हैं। उस देव पुरुष ने बादल की गरज के समान गंभीर उत्तर दिया कि मैं सत्य हूँ, मैं अंधों की आँखें खोलता हूँ, मैं उनके आगे से धोखे की पट्टी हटाता हूँ, मैं मृगतृष्णा के भटके हुओं का भ्रम मिटाता हूँ और सपने के भूले हुओं को नींद से जगाता हूँ। हे भोज, यदि कुछ हिम्मत रखता है तो आ, हमारे साथ आ और हमारे तेज के प्रभास से मनुष्यों के मन के मंदिरों का भेद ले, इस समय हम तेरे ही मन को जाँच रहे हैं।
राजा के जी पर एक अजब दहशत-सी छा गई। नीची निगाहें करके गर्दन खुजाने लगा। सत्य बोला, भोज! तू डरता है, तुझे अपने मन का हाल जानने में भी भय लगता है। भोज ने कहा कि नहीं इस बात से तो नहीं डरता क्योंकि जिसने अपने तईं नहीं जाना उसने फिर क्या जाना सिवाए इसके मैं तो आप चाहता हूँ कि कोई मेरे मन की थाह लेवे और अच्छी तरह से जाँचे। मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल−सा शरीर कूटा बनाया, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते-देते सारा ख़ज़ाना ख़ाली कर डाला, कोई तीर्थ बाक़ी न रखा, कोई नदी या तालाब नहाने से न छोड़ा। ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूँ। सत्य बोला, ठीक, पर भोज, यह तो बतला कि तू ईश्वर की निगाह में क्या है। क्या हवा में बिना धूप तृसरेणु कभी दिखलार्इ देते हैं? पर सूरज की किरण पड़ते ही कैसे अनगिनत चमकने लग जाते हैं, क्या कपड़े से छाने हुए मैले पानी में किसी को कीड़े मालूम पड़ते हैं पर जब ख़ुर्दबीन शीशे को लगाकर देखो तो एक-एक बूँद में हज़ारों ही जीव सूझने लग जाते हैं। बस जो तू उस बात के जानने से जिसे अवश्य जानना चाहिए डरता नहीं तो आ, मेरे साथ आ, मैं तेरी आँखें खोलूँगा।
निदान सत्य यह कहके राजा को मंदिर के उस बड़े ऊँचे दरवाज़े पर चढ़ा ले गया कि जहाँ से सारा बाग़ दिखलाई देता था और फिर उससे यूँ कहने लगा कि भोज, मैं अभी तेरे पापकर्मों का कुछ भी चर्चा नहीं करता क्योंकि तूने अपने तईं निरा निष्पाप समझ रखा है पर यह तो बतला कि तूने पुण्यकर्म कौन-कौन से किए हैं कि जिनसे सर्व−शक्तिमान जगदीश्वर संतुष्ट होगा। राजा यह सुनके अत्यंत प्रसन्न हुआ, यह तो मानो उसके मन की बात थी। पुण्यकर्म के नाम से उसके चित्त को कमल−सा खिला दिया। उसे निश्चय था कि पाप तो मैंने चाहे किया हो चाहे न किया हो पर पुण्य मैंने इतना किया कि भारी से भारी पाप भी उसके पासंग में न ठहरेगा। राजा को वहाँ उस समय सपने में तीन पेड़ बड़े ऊँचे-ऊचे अपनी आँख के सामने दिखार्इ दिए, फलों से इतने लदे हुए कि मारे बोझ के उनकी टहनियाँ धरती तक झुक गई थीं। राजा उन्हें देखते ही हरा हो गया और बोला कि सत्य, यह ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया अर्थात् ईश्वर और मनुष्य दोनों की प्रीति के पेड़ हैं। देख फलों के बोझ से धरती पर नये जाते हैं। यह तीनों मेरे ही लगाए हैं। पहले में तो यह सब लाल-लाल फल मेरे दान से लगे हैं। और दूसरे में वह पीले मेरे न्यास से और तीसरे में यह सब सफ़ेद फल मेरे तप का प्रभाव दिखलाते हैं। मानो उस समय चारों ओर से यह ध्वनि राजा के कान में चली आती थी कि धन्य हो महाराज, धन्य हो, आज तुम सा पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं। तुम साक्षात धर्म के अवतार हो। इस लोक में भी तुमने बड़ा पद पाया है और उस लोक में भी तुम्हें इससे अधिक मिलेगा। तुम मनुष्य और ईश्वर दोनों की आँखों में निर्दोष और निष्पाप हो। सूर्य के मंडल में लोग कलंक बतलाते हैं पर तुम पर एक छींटा भी नहीं लगाते। सत्य बोला कि भोज, जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था जिन्हें तू ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया के बतलाता है तब तो उनमें फल-फूल कुछ भी नहीं था, निरे ठूँठ से खड़े थे, यह लाल, पीले और सफ़ेद फल कहाँ से आ गए! यह सचमुच उन पेड़ों में फल लगे हैं या तुझे फुसलाने और ख़ुश करने को किसी ने उनकी टहनियों से लटका दिए हैं? चल उन पेड़ों के पास चलकर देखें तो सही मेरी समझ में तो यह लाल-लाल फल जिन्हें तू अपने दान के प्रभाव से लगे बतलाता है, यश और कीर्ति फैलाने की चाह अर्थात् प्रशंसा पाने की इच्छा ने इस पेड़ में लगाए हैं।
निदान जो हो, सत्य ने उस पेड़ को छूने को हाथ बढ़ाया। राजा सपने में क्या देखता है कि वह सारे फल जैसे आसमान से ओले गिरते हैं, एक आन की आन में धरती पर गिर पड़े। धरती सारी लाल हो गई। पेड़ों पर सिवाए पत्तों के और कुछ न रहा। सत्य ने कहा कि राजा, जैसे कोई किसी चीज़ को मोम से चिपकाता है उसी तरह तूने अपने भुलाने को, प्रशंसा पाने की इच्छा से यह फल इस पेड़ पर लगा दिए थे, सत्य के तेज़ से वहाँ मोम गल गया, पेड़ ठूँठ का ठूँठ रह गया। जो कुछ तूने दिया और किया सब दुनिया के दिखलाने और मनुष्यों से प्रशंसा पाने के लिए। केवल ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से तो कुछ भी नहीं दिया। यदि कुछ दिया हो या किया हो तो तू ही क्यों नहीं बतलाता। मूर्ख इसी के भरोसे पर तू फूला हुआ स्वर्ग में जाने को तैयार हुआ था! भोज ने एक ठंडी साँस ली। उसने तो औरों को भूला समझा था पर वह सबसे अधिक भूला हुआ निकला। सत्य से उस पेड़ की तरफ़ हाथ बढ़ाया जो सोने की तरह चमकते पीले-पीले फलों से लदा हुआ था। सत्य का हाथ पास पहुँचते ही इसका भी वही हाल हो गया जो पहले का हुआ था। सत्य बोला कि राजा, इस पेड़ में ये फल तूने अपने भुलाने को। स्वर्ग को यथार्थ सिद्ध करने की इच्छा से लगा लिए थे। कहने वाले ने ठीक कहा है कि मनुष्य-मनुष्य के कर्मों से उसके मन की भावना का विचार करता है और ईश्वर मनुष्य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मों का हिसाब लेता है। तू अच्छी तरह जानता है कि यही न्याय तेरे राज्य की जड़ है। जो न्याय न करे तो फिर वह राज्य तेरे हाथ में क्योंकर रह सके। जिस राज्य में न्याय नहीं वह तो बे−नींव का घर है, बुढ़िया के दाँतों की तरह हिलता है, अब गिरा तब गिरा। मूर्ख, तू ही क्यों नहीं बतलाता कि यह तेरा न्याय स्वार्थ सिद्ध करने और सांसारिक सुख पाने की इच्छा से है अथवा ईश्वर की, भक्ति और जीवों की दया से।
भोज की पेशानी पर पसीना हो आया, आँखें नीची कर लीं जवाब कुछ न बन पड़ा। तीसरे पेड़ की पारी आई। सत्य का हाथ लगते ही उसकी भी वही हालत हुई। राजा अत्यंत लज्जित हुआ। सत्य ने कहा कि मूर्ख, यह तेरे तप के फल कदापि नहीं इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगा रखा था। वह कौन सा व्रत वा तीर्थयात्रा है जो तूने निहंकार केवल ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से किया हो! तूने यह तप इसी वास्ते किया कि जिसमें तू अपने तईं औरों से अच्छा और बढ़ के विचारे। ऐसे ही तप पर गोबर-गनेश, तू स्वर्ग मिलने की उमेद रखता है पर यह तो बतला कि मंदिर की उन मुंडेरों पर वे जानवर से क्या दिखलाई देते हैं? कैसे सुंदर और प्यारे मालूम होते हैं! पर तो उनके पन्ने के हैं और गर्दन फीरोजे की, दुम में सारे क़िस्म के जवाहिर जड़ दिए हैं। राजा के जी में घमंड की चिड़िया ने फिर फुरफुरी ली मानो बुझते हुए दिये की तरह जगमगा उठा। जल्दी से जवाब दिया कि हे सत्य, यह जो कुछ तू मंदिर की मुंडेरों पर देखता है मेरे संध्या-वंदन का प्रभाव है। मैंने जो रातों जाग-जागकर और माथा रगड़ते-रगड़ते इस मंदिर की देहली को घिसाकर ईश्वर की स्तुति-वंदना और विनती प्रार्थना की है वही अब चिड़ियों की तरह पंख फैलाकर आकाश को जाती है मानों ईश्वर के सामने पहुँचकर अब मुझे स्वर्ग का राजा बनाती हैं।
सत्य ने कहा कि राजा, दीनबंधु करुणासागर श्री जगन्नाथ जगदीश्वर अपने भक्तों की विनती सदा सुनता रहता है और जो मनुष्य शुद्ध हृदय और निष्कपट होकर नम्रता और श्रद्धा के साथ अपने दुष्कर्मों का पश्चाताप अथवा उनके क्षमा होने का टुक भी निवेदन करता है वह उसका निवेदन उसी दम सूर्य-चाँद को बेधकर पार हो जाता है। फिर क्या कारण कि यह सब आप अब तक मंदिर की मुंडेर ही पर बैठे रहे। आ चल, देखें तो सही हम लोगों के पास जाने पर आकाश तो उड़ जाते हैं या उसी जगह पर परकटे कबूतरों की तरह फड़फड़ाया करते हैं। भोज डरा लेकिन सत्य का साथ न छोड़ा। जब मुंडेर पर पहुँचा तो क्या देखता है कि वे सारे जानवर जो दूर से ऐसे सुदंर दिखाई देते थे, मरे हुए पड़े हैं, पंख नुचे-खुचे और बहुतेरे बिल्कुल सड़े हुए यहाँ तक कि मारे बदबू के राजा का सिर भिन्ना उठा। दो एक में जिनमें कुछ दम बाकी था जो उड़ने का इरादा भी किया तो उनके पंख पारे की तरह भारी हो गए और उन्हें उसी ठौर दबा रक्खा, तड़फा ज़रूर किए पर उड़ने ज़रा भी न दिया। सत्य बोला, भोज, बस यही तेरे पुण्यकर्म हैं। इन्हीं स्तुति-वंदना और विनती-प्रार्थना के भरोसे पर तू स्वर्ग में जाना चाहता है! सूरत तो इनकी बहुत अच्छी है पर जान बिल्कुल नहीं। तूने जो कुछ किया केवल लोगों के दिखलाने को, जी से कुछ भी नहीं। जो तू एक बार भी जी से पुकारा होता कि दीनबंधु दीनानाथ दीन-हितकारी, मुझ पापी महा अपराधी डूबते हुए को बचा और कृपा-दृष्टि कर तो वह तेरी पुकार तीर की तरह तारों से पास पहुँची होती।
राजा ने सिर नीचा कर लिया, उत्तर कुछ न बन आया। सत्य ने कहा कि भोज, अब आ फिर इस मंदिर के अंदर चलें और वहाँ तेरे मन के मंदिर को जाँचे। यद्यपि मनुष्य के मन के मंदिर में ऐसे-ऐसे अंधेरे तहखाने और तलघर पड़े हुए हैं कि उनको सिवाय सर्वदर्शी घट-घट अंतर्यामी सकल जगत-स्वामी और कोई भी नहीं देख अथवा जाँच सकता तो भी तेरा परिश्रम व्यर्थ न जावेगा। राजा उस सत्य के पीछे खिंचा-खिंचा फिर मंदिर के अंदर घुसा पर अब तो उसका हाल ही कुछ से कुछ हो गया। सचमुच सपने का खेल सा दिखाई दिया चाँदी की सारी चमक जाती रही, सोने की बिल्कुल दमक उड़ गई, दोनों में लोह की तरह मोर्चा लगा हुआ और जहाँ-तहाँ से मुलम्मा उड़ गया था, भीतर ईंट−पत्थर कैसा दिखलाई देता था, जवाहिरों की जगह केवल काले-काले दाग़ रह गए थे और संगमरमर की चट्टानों में हाथ-हाथ भर गहरे गढ्ढे पड़ गए। राजा यह देखकर भौंचक-सा रह गया। औसान जाते रहे, हक्का-बक्का बन गया धीमी आवाज़ से पूछा कि यह टिड्डी दल की तरह इतने दाग़ इस मंदिर में कहाँ से आए? जिधर मैं निगाह उठाता हूँ सिवाय काले-काले दाग़ों के और कुछ भी नहीं दिखलाई देता, ऐसा तो छीपी छींट भी नहीं छापेगा और न शीतला बिगड़ा किसी का चेहरा देख पड़ेगा। सत्य बोला कि राजा, ये दाग़ जो तुझे मंदिर में दिखलार्इ देते हैं वे दुर्वचन हैं जो दिन-रात तेरे मुख से निकला किए हैं। याद तो कर तूने क्रोध में आकर कैसी कड़ी-कड़ी बातें लोगों को सुनाई हैं। क्या खेल में और क्या आना अथवा दूसरे का चित्त प्रसन्न करने को, क्या रुपया बचाने अथवा अधिक लाभ पाने को और दूसरे का देश अपने हाथ में लाने अथवा किसी बराबर वाले से अपना मतलब निकालने और दुश्मनों को नीचा दिखलाने को कितना झूठ बोला है! अपने ऐब छिपाने और दूसरों की आँखों में अच्छा मालूम होने अथवा झूठी तारीफ़ पाने के लिए कैसी-कैसी शेख़ियाँ हाँकी हैं! अपने को औरों से अच्छा, औरों को अपने से बुरा दिखलाने को कहाँ तक बातें बनाई हैं तो अब कुछ भी याद नहीं रहा, बिल्कुल एकबारगी भूल गया पर वहाँ वह तेरे मुँह से निकलते ही बही में दर्ज हुआ। तू इन दाग़ों को गिनने में असमर्थ है पर उस घटघट निवासी अनंत अविनाशी को एक-एक बात जो तेरे मुँह से निकली है याद हैं और याद रहेंगी। उसके निकट भूत और भविष्य दोनों वर्तमान सा है।
भोज ने सिर न उठाया पर उस दबी ज़बान से इतना मुँह से और निकाला कि दाग़ पर ये हाथ-हाथ भर गाढ़े क्योंकर पड़ गए, सोने-चाँदी में मोर्चा लग कर ये ईंट पत्थर कहाँ से दिखलाई देने लगे! सत्य ने कहा कि राजा, क्या तूने कभी किसी को कोई लगती हुई बात नहीं कही अथवा बोली-ठोली नहीं मारी? अरे नादान, यह बोली-ठोली तो गोली से अधिक काम कर जाती है। तू तो इन गढ़ों ही को देखकर रोता है पर तेरे ताने तो बहुतों की छातियों से पार हो गए। जब अहंकार का मोर्चा लगा तो फिर यह दिखलावे का मुलम्मा कब तक ठहर सकता है, स्वार्थ और अश्रद्धा का ईंट-पत्थर प्रकट हो आया। राजा को इस अर्से में चिमगादड़ों ने बहुत तंग कर रखा था, मारे बू के सिर फटा जाता था, भनगे और पतंगों से सारा मकान भर गया था। राजा को बीच-बीच में पंख वाले साँप और बिच्छू भी दिखलाई देते थे। राजा घबराकर चिल्ला उठा कि यह मैं किस आफ़त में पड़ा! इन कमबख़्तों को यहाँ किसने आने दिया? सत्य बोला, राजा, सिवाय तेरे इनको यहाँ कौन आने देगा! तू ही तो इन सबको लाया है। यह सब तेरे काम की बुरी वासना है। तूने समझा था कि जैसे समुद्र में लहरें उठा और मिटा करती हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी संकल्प की मौज उठकर मिट जाती है। पर रे मूढ़, याद रख कि आदमी के चित्त में ऐसा सोच-विचार कोई नहीं आता तो जगतकर्ता प्राणदाता परमेश्वर के सामने प्रत्यक्ष नहीं हो जाता। यह चमगादड़ और भनगे और साँप-बिच्छू और कीड़े-मकोड़े जो तुझे दिखलाई देते हैं, संकल्प-विकल्प हैं जो दिन-रात तेरे अंत:करण में उठा किए और उन्हीं चमगादड़ और भनगे और साँप-बिच्छू और कीड़े-मकोड़ों की तरह तेरे हृदय के प्रकाश में उड़ते रहे। क्या कभी तेरे जी में किसी राजा की ओर से कुछ द्वेष नहीं रहा था? उसके मुल्क-माल पर लोभ नहीं आया था? अपनी बड़ाई का अभिमान नहीं हुआ या दूसरे की सुंदर स्त्री देखकर उस पर दिल न चला।
राजा ने एक बड़ी लंबी ठंडी साँस ली और अत्यंत निराश होके वह बात कही कि इस संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो कह सके कि मेरा हृदय शुद्ध और मन में कुछ भी पाप नहीं। इस संसार में निष्पाप रहना बड़ा कठिन है। जो पुण्य करना चाहते हैं उनमें भी पाप निकल आता है। इस संसार में पाप से रहित कोई भी नहीं। ईश्वर के सामने पवित्र पुण्यात्मा कोई भी नहीं। सारा मंदिर वरन सारी धरती, आकाश गूँज उठा, कोई भी नहीं, कोई भी नहीं। सत्य ने जो आँख उठाकर उस मंदिर की एक दीवार की तरफ देखा तो वह उसी संगमरमर से आइना बन गया। राजा से कहा कि अब टुक इस आइने का भी तमाशा देख और जो कर्तव्य कर्मों के न करने से तुझे पाप लगे हैं उनका भी हिसाब ले। राजा उस आइने में क्या देखता है, जिस प्रकार बरसात की बढ़ी हुई किसी नदी के जल के प्रवाह में बहे जाते हैं उस प्रकार अनगिनत सूरतें एक ओर से निकलती और दूसरी ओर अलोप होती चली जाती हैं। कभी तो राजा को वे सब भूखे और नंगे आइने में दिखलार्इ देते जिन्हें राजा खाने-पहेनने को दे सकता था पर न देकर दान का रुपया उन्हीं हट्टे-कट्टे मोटे-मुसटंड खाते-पीते हुओं को देता रहा जो उसकी ख़ुशामद करते थे या किसी की सिफ़ारिश ले आते थे या उसके कारदारों को घूँस देकर मिला लेते थे या सवारी के समय माँगते-माँगते और शोर-गुल मचाते-मचाते उसे तंग कर डालते थे या दरबार में आकर उसे लज्जा के भँवर में गिरा देते थे या झूठा छापा-तिलक लगाकर उसे मक्र के जाल में फँसा लेते थे या जन्मपत्र में भले-बुरे ग्रह बतला कर कुछ धमकी भी दिखला देते थे या सुंदर कवित्त और श्लोक पढ़कर उसके चित्त को लुभाते थे, कभी वे दीन-दुखी दिखलाई देते जिन पर राजा के कारदार ज़ुल्म किया करते थे और उसने कुछ भी उसकी तहक़ीक़ात और उपाय न की, कभी उन बीमारों को देखता जिनका चंगा करा देना राजा के इख़्तियार में था, कभी वे व्यथा के जले और विपत्ति के मारे दिखलाई देते जिनका जी राज के दो बात कहने से ठंडा और संतुष्ट हो सकता था, कभी अपने लड़के और लड़कियों को देखता जिन्हें वह पढ़ा-लिखा कर अच्छी-अच्छी बातें सिखा कर बड़े-बड़े पापों से बचा सकता था, कभी उन गाँव और इलाकों को देखता जिनमें कूप तालाब खुदवाने और किसानों को मदद देने और उन्हें खेती-बारी की नई-नई तरकीबें बतलाने से हज़ारों ग़रीबों का भला कर सकता था, उन टूटे हुए पुल और रास्तों को देखता जिन्हें दुरुस्त करने से वह लाखों मुसाफ़िरों को आराम पहुँच सकता था। राजा से अधिक देखा न जा सका। थोड़ी ही देर में घबरा कर हाथों से अपनी आँखों को ढाप लिया। वह अपने घमंड में उन सब कामों को तो सदा याद रखता था और उनकी चर्चा किया करता जिन्हें वह अपनी समझ में पुण्य के निमित्त किए हुए समझा था पर उन कर्तव्य कामों का कभी टुक सोच न किया जिन्हें अपनी उन्मत्तता से अचेत होकर छोड़ दिया था।
सत्य बोला, राजा, अभी से क्यों घबरा गया, आ इधर आ, इस दूसरे आइने में मैं तुझे अब उन पापों को दिखलाता हूँ जो तूने अपनी उम्र में किए हैं। राजा ने हाथ जोड़े और पुकारा कि बस महाराज, बस कीजिए, जो कुछ देखा उसी में मैं तो मिट्टी हो गया, कुछ भी बाक़ी न रहा, अब आगे क्षमा कीजिए। पर यह तो बतलाइए कि आपने यहाँ आकर मेरे शर्बत में क्यों ज़हर घोला और पकी-पकाई खीर में साँप का विष उगला और आपने मेरे आनंद को इस मंदिर में आके नाश में मिलाया जिसे मैंने सर्वशक्तिमान् भगवान् के अर्पण किया है, चाहे जैसा वह बुरा और अशुद्ध क्यों न हो पर मैंने तो उसी के निमित्त बनाया है। सत्य ने कहा, ठीक पर यह तो बतला कि भगवान इस मंदिर में बैठा है? यदि तूने भगवान को इस मंदिर में बैठाया होता तो फिर वह अशुद्ध क्यों रहता। ज़रा आँख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे तू जन्म-भर पूजता रहा है। राजा ने आँख उठाई तो क्या देखता है कि वहाँ उस बड़ी ऊँची बेदी पर उसी की मूर्ति पत्थर की गढ़ी हुई रखी है और अभिमान की पगड़ी बांधे हुए है। सत्य ने कहा कि मूर्ख, तूने जो काम किए केवल अपनी प्रतिष्ठा के लिए। इसी प्रतिष्ठा प्राप्त होने की सदा तेरी भावना रही और इसी प्रतिष्ठा के लिए तूने अपनी आप पूजा की। रे मूर्ख, सकल जगत्स्वामी घटघट अंतर्यामी क्या ऐसे मन रूपी मंदिर में भी अपना सिंहासन बिछने देता है जो अभिमान और प्रतिष्ठा-प्राप्ति की इच्छा इत्यादि से भरा है। ये तो उसकी जली पड़ने योग्य हैं। सत्य का इतना कहना था कि सारी पृथ्वी एकबारगी काँप उठी मानो उसी दम टुकड़ा-टुकड़ा होना चाहती थी। आकाश में ऐसा शब्द हुआ कि जैसा प्रलय काल का मेघ गरजा। मंदिर की दीवार चारों ओर से अड़अड़ा गिर पड़ी मानों उस पापी राजा को दबा लेना चाहती थी और उस अहंकार की मूर्ति पर ऐसी एक बिजली गिरी कि वह धरती पर औधें मुँह आ पड़ी। 'त्राहि त्राहि माम्, मैं डूबा' कहके भोज जो चिल्लाया, आँख उसकी खुल गई और सपना सपना हो गया।
इस अर्से में रात बीत कर आस्मान के किनारों पर लाली दौड़ हुई थी। चिड़िया चहचहा रही थी। एक ओर से शीतल मंद सुगंध पवन चली थी दूसरी ओर से बीन और मृदंग की ध्वनि। बंदीजन राजा का जस गाने लगे, हरकारे हर तरफ़ काम को दौड़े, कमल खिले, कुमुद कुम्हालाए। राजा पलंग से उठा, पर जी भारी, माथा थामे हुए। न हवा अच्छी लगती थी न गाने बजाने की सुध-बुध थी। उठते ही पहले यह हुक्म दिया कि इस नगर में जो अच्छे पंडित हों, जल्द उनको मेरे पास लाओ, मैंने एक सपना देखा है कि जिसके आगे अब या सारा राग सपना मालूम होता है। उस सपने के स्मरण से ही मेरे रोंगटे खड़े हुए होते हैं। राजा के मुख से हुक्म निकलने की देर थी, चोपदार ने तीन पंडितों को उस समय वशिष्ठ, याज्ञवलक्य और बृहस्पति के समान प्रख्यात थे, बात-की-बात में राजा के सामने ला खड़ा किया। राजा का मुँह पीला पड़ गया था। माथे पर पसीना हो आया था, पूछा कि वह कौन-सा उपाय है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे। उनमें से एक बड़े बूढ़े पंडित ने आशीर्वाद देकर निवेदन किया कि धर्मराज धर्मावतार, यह भय तो आपके शत्रुओं को होना चाहिए, आपसे पवित्र पुण्यात्मा के जी में ऐसा संदेह क्यों उत्पन्न हुआ? आप अपने पुण्य के प्रभाव का जामा पहन के बे-खटके परमेश्वर के सामने जाइए, न तो वह कहीं से फटा-फटा है और न किसी जगह से मैला-कुचैला हुआ है। राजा क्रोध करके बोला कि बस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न दीजिए और इसी दम अपने घर की राह लीजिए। क्या आप फिर उस पर्दे को डालना चाहते हैं जो सत्य ने मेरे सामने से हटाया और बुद्धि की आँखों को बंद करना चाहते हैं जिन्हें सत्य ने खोला! उस पवित्र परमात्मा के सामने अन्याय कभी नहीं ठहर सकता। मेरे पुण्य का जामा उसके आगे निरा चीथड़ा है। यदि वह मेरे कामों पर निगाह करेगा तो नाश हो जाऊँगा, मेरा कहीं पता भी न लगेगा। इसी में दूसरा पंडित बोल उठा कि महाराज, परब्रह्म परमात्मा जो आनंद-स्वरूप है, उसकी दया के सागर का कब किसी ने वारापार पाया है! वह क्या हमारे इन छोटे-छोटे कामों पर निगाह किया करता है! एक कृपा-दृष्टि से सारा बेड़ा पार लगा देता है। राजा ने आँखें दिखला के कहा कि महाराज, आप भी अपने घर को सिधारिए, आपने ईश्वर को ऐसा अन्यार्इ ठहरा दिया कि वह किसी पापी को सज़ा नहीं देता है, सब धान बाईस पसेरी तोलता है मानो हरभोंगपुर का राज करता है। इसी संसार में क्यों नहीं देख लेते, जो आम बोता है वह आम खाता है और जो बबूल लगाता है वह काँटे चुनता है, तो क्या उस लोक में जो जैसा करेगा सर्वदर्शी घटघट अंतर्यामी से उसका बदला वैसा ही न पावेगा? सारी सृष्टि पुकारे कहती है और हमारा अंत:करण भी इस बात पर गवाही देता है कि ईश्वर अन्याय नहीं करेगा। जो जैसा करेगा वैसा ही उससे उसका बदला पावेगा। अब तीसरा पंडित आगे बढ़ा यूँ ज़बान खोली कि महाराजाधिराज, परमेश्वर के यहाँ से हम लोगों को वैसा ही बदला मिलेगा कि जैसा हम लोग काम करते हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। आप यथार्थ फ़रमाते हैं परमेश्वर अन्याय कभी नहीं करेगा पर यह इतने प्रायश्चित्त और होम और यज्ञ और जप-तप तीर्थयात्रा किस लिए बनाए गए हैं? यह इसीलिए हैं कि जिसमें परमेश्वर हम लोगों का अपराध क्षमा करे और वैकुंठ में अपने पास रहने को ठौर देवे। राजा ने कहा, देवताजी, कल तो मैं आपकी सब बात मान सकता था लेकिन अब तो मुझे इन कामों में भी ऐसा कोई नहीं दिखलाई देता जिसके करने से यह पापी मनुष्य पवित्र पुण्यात्मा हो जावे। वह कौन-सा जप-तप, तीर्थयात्रा, होम-यज्ञ और प्रायशिचत्त है जिसके करने से हृदय शुद्ध हो और अभिमान न आ जावे। आदमी को फुसला लेना तो सहज है पर उस घटघट के अंतर्यामी को कोई क्योंकर फुसलावे! जब मनुष्य का मन ही पाप से भरा हुआ है तो फिर उससे पुण्यकर्म कोई कहाँ बन आवे। पहल आप उस स्वप्न को सुनिए जो रात को देखा है तब फिर पीछे वह उपाय बतलाइए जिससे पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पाता है।
निदान राजा ने जो कुछ रात को स्वप्न में देखा था सब ज्यों का ज्यों उस पंडित को कह सुनाया। पंडित जी तो सुनते ही आवाक् हो गए, सिर झुका लिया। राजा ने निराश होकर चाहा कि तुषानल में जल मरे, पर एक परदेसी आदमी-सा जो उन पंडितों के साथ बिना बुलाए घुस आया था सोचता-विचारता उठ खड़ा हुआ और धीरे-से यूँ निवेदन किया कि महाराज, हम लोगों का कर्ता ऐसा दीनबंधु कृपासिंधु है कि अपने मिलने की राह पाने की सच्चे जी से मदद माँगिए। हे पाठकजनो, क्या तुम भी भोज की तरह ढूँढ़ते हो और भगवान् से उसके मिलने की प्रार्थना करते हो? भगवान् तुम्हें शीघ्र ऐसी बुद्धि दे और अपनी राह पर चलावे, यही हमारा अत:करण से आशीर्वाद है। जिन ढूँढ़ा तिन पाइया गहरे पानी पैठ।
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