Tuesday, July 19, 2022

कबीर ग्रंथावली | रमैणी (अष्टपदी) | कबीरदास | Kabir Granthavali | Ramaini / Ashtpadi | Kabirdas



 केऊ केऊ तीरथ ब्रत लपटानां, केऊ केऊ केवल राम निज जाना॥

अजरा अमर एक अस्थाना, ताका मरम काहू बिरलै जानां॥

अबरन जोति सकल उजियारा, द्रिष्टि समांन दास निस्तारा॥

जो नहीं उपज्या धरनि सरीरा, ताकै पथि न सींच्या नीरा॥

जा नहीं लागे सूरजि के बांनां, सो मोहि आंनि देहु को दाना॥

जब नहीं होते पवन नहीं पानी, तब नहीं होती सिष्टि उपांनी॥

जब नहीं होते प्यंड न बासा, तब नहीं होते धरनी अकासा॥

जब नहीं होते गरभ न मूला, तब नहीं होते कली न फूला॥

जब नहीं सबद नहीं न स्वादं, तब नहीं होते विद्या न वादं॥

जब नहीं होते गुरु न चेला, तब गम अगमै पंथ अकेला॥


अवगति की गति क्या कहूँ, जिसकर गांव न नांव॥

गन बिहूंन का पेखिये, काकर धरिये नांव॥


आदम आदि सुधि नहीं पाई, मां मां हवा कहाँ थै आई॥

जब नहीं होते रांम खुदाई, साखा मूल आदि नहीं भाई॥

जब नहीं होते तुरक न हिंदू, मांका उदर पिता का ब्यंदू॥

जब नहीं होते गाइ कसाई, तब बिसमला किनि फुरमाई॥

भूलै फिरै दीन ह्नै धांवै, ता साहिब का पंथ न पावै॥


संजोगै करि गुंण धर्या, बिजोगै गुंण जाइ॥

जिभ्या स्वारथि आपणै कीजै बहुत उपाइ॥


जिनि कलमां कलि मांहि पठावा, कुदरत खोजि तिनहं नहीं पावा॥

कर्म करीम भये कर्तूता, वेद कुरान भये दोऊ रीता॥

कृतम सो जु गरभ अवतरिया, कृतम सो जु नाव जस धरिया॥

कृतम सुनित्य और जनेऊ, हिंदू तुरक न जानै भेऊ॥

मन मुसले की जुगति न जांनै, मति भूलै द्वै दीन बखानै॥


पाणी पवन संयोग करि, कीया है उतपाति॥

सुंनि मैं सबद समाइगा, तब कासनि कहिये जाति॥


तुरकी धरम बहुत हम खोजा, बहु बाजगर करै ए बोंधा॥

गाफिल गरब करै अधिकाई, स्वारथ अरथि बधै ए गाई॥

जाकौ दूध धाई करि पीजै, ता माता को बध क्यूं कीजै॥

लुहरै थकै दुहि पीया खीरो, ताका अहमक भकै सरीरो॥


बेअकली अकलि न जांनहीं, भूले फिरै ए लोइ॥

दिल दरिया दीदार बिन, भिस्त कहाँ थै होइ॥


पंडित भूले पढ़ि गुन्य वेदा, आप न पांवै नांनां भेदा॥

संध्या तरपन अरु षट करमां, लागि रहे इनकै आशरमां॥

गायत्री जुग चारि पढ़ाई, पूछौ जाइ कुमति किनि पाई॥

सब में राम रहै ल्यौ सींचा, इन थैं और कहौ को नीचा॥

अति गुन गरब करै अधिकाई, अधिकै गरबि न होइ भलाई॥

जाकौ ठाकुर गरब प्रहारी, सो क्यूँ सकई गरब संहारी॥


कुल अभिमाँन बिचार तजि, खोजौ पद निरबांन॥

अंकुर बीज नसाइगा, तब मिलै बिदेही थान॥


खत्री करै खत्रिया धरमो, तिनकूं होय सवाया करमो॥

जीवहि मारि जीव प्रतिपारैं, देखत जनम आपनौ हारै॥

पंच सुभाव जु मेटै काया, सब तजि करम भजैं राम राया॥

खत्री सों जु कुटुंब सूं सूझै, पंचू मेटि एक कूं बूंझै॥

जो आवध गुर ग्यान लखावा, गहि करबल धूप धरि धावा॥

हेला करै निसांनै घाऊ, जूझ परै तहां मनमथ राऊ॥


मनमथ मरे न जीवई, जीवण मरण न होइ॥

सुनि सनेही रांम बिन, गये अपनपौ खोइ॥


अरु भूले षट दरसन भाई, पाखंड भेष रहे लपटाई॥

जैन बोध अरु साकत सैंना, चारवाक चतुरंग बिहूंना॥

जैन जीव की सुधि न जानै, पाती तोरि देहुरै आंनै॥

अरु पिथमीं का रोम उपारे, देखत जीव कोटि संहारै॥

मनमथ करम करै असराग, कलपत बिंद धसै तिहि द्वारा॥

ताकी हत्या होइ अदभूता, षट दरसन मैं जैन बिगूता॥


ग्यान अमर पद बाहिरा, नेड़ा ही तैं दूरि॥

जिनि जान्याँ तिनि निकटि है, रांम रह्या सकल भरपूरि॥


आपनं करता भये कुलाला, बहु बिधि सिष्टि रची दर हाला॥

बिधनां कुंभ कीये द्वै थाना, प्रतिबिंब ता मांहि समांनां॥

बहुत जतन करि बांनक, सौं मिलाय जीव तहाँ ठाँट॥

जठर अगनि दी कीं परजाली, ता मैं आप करै प्रतिपाली॥

भीतर थैं जब बाहिर आवा, सिव सकती द्वै नाँव धरावा॥

भूलै भरमि परै जिनि कोई, हिंदू तुरक झूठ कुल दोई॥

घर का सुत जो होइ अयाँनाँ, ताके संगि क्यूँ जाइ सयाँनाँ॥

साची बात कहै जे वासूँ, सो फिरि कहै दिवाँनाँ तासू॥

गोप भिन्न है एकै दूधा, कासूँ कहिए बाँम्हन सूधा॥


जिनि यहु चित्र बनाइया, सो साचा सतधार॥

कहै कबीर ते जन भले, जे चित्रवत लेहि बिचार॥5॥


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