संपटि माँहि समाइया, सो साहिब नहीसीं होइ।
सफल मांड मैं रमि रह्या, साहिब कहिए सोइ॥1॥
रहै निराला माँड थै, सकल माँड ता माँहि।
कबीर सेवै तास कूँ, दूजा कोई नाँहि॥2॥
भोलै भूली खसम कै, बहुत किया बिभचार।
सतगुर गुरु बताइया, पूरिबला भरतार॥3॥
जाकै मह माथा नहीं, नहीं रूपक रूप।
पुहुप बास थैं पतला ऐसा तत अनूप॥4॥584॥
टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है-
चत्रा भुजा कै ध्यान मैं, ब्रिजबासी सब संत।
कबीर मगन ता रूप मैं, जाकै भुजा अनंत॥5॥
No comments:
Post a Comment